'मैं उपन्यासकार कैसे बना' शृंखला के इस अंक में आप पढेंगे उपन्यासकार तरुण इंजिनियर के उपन्यासकार जीवन के आरम्भिक अंश कैसे बन उपन्यासकार बने।
कैसे बना मैं उपन्यासकार
दोस्तो,
मैं आपको बता दू कि मेरा जन्म बिजनौर के एक छोटे से कस्बे किरतपुर के रस्तोगी परिवार में सन् 1960 में हुआ था,मेरा पूरा नाम तरुण कुमार रस्तोगी है
बचपन से ही मैं नटखट व लेखक प्रवृत्ति क रहा हूँ। जिसकी वजह से मेरे पिता श्री रामनाथ रस्तोगी ने मुझे घर से दूर, नैनीताल पढने के भेज दिया था। उनका मानना था कि घर से दूर रहकर शायद मेरे जहन से लेखक रूपी कीड़ा एकदम मर जायेगा, पर ऐसा हुआ नहीं।
नैनिताल की वादियों में पहुंचकर, मेरे दिमाग ने शब्दरूपी झील में, कलम की परवार चलानी फिर शुरु कर दी क्योंकि नैनिताल का वातावरण ही कुछ ऐसा है, यहां की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर ना कुछ लिखने वाला भी लिखना शुरु कर देता है।
यही मेरे साथ हुआ। पढाई के साथ-साथ मेरी लघु कहानियाँ, कवितायें व गजलें देश की नामी-गिरामी पत्रिकाओं 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'कादम्बिनी' व 'नंदन' में प्रकाशित होने लगी। प्रशंसकों के पत्र आते रहे। मैं एक के बाद एक कहानियाँ लिखता गया। कुछ हास्य लेख मेरे 'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स' व 'पंजाब केसरी' में भी छपे। दिन कटते रहे...साल कटते रहे, अचानक एक दिन मेरी मुलाकात हिंदी के लोकप्रिय उपन्यासकार रानू से हो गयी। जो उस समय नैनिताल की एक सत्य घटना पर आधारित 'पूजा' उपन्यास लिखने के लिये आये हुये थे। मेरी उनसे मुलाकातें होती रही, फिर मुलाकातें दोस्ती में बदल गयी और कुछ ही दिनों में रानू जी मेरे अच्छे दोस्तों में से एक बन गये। जितना मैं उनके सम्पर्क में आता गया, मेरे अंदर भी उपन्यासकार बनने की ललक जागने लगी। मैं उनके साथ बैठकर छोटे-छोटे शाॅट लिखने लगा। उन्हें पसंद आये और उन्होंने मेरी प्रशंसा की, मेरा हौसला बढ गया।
बस फिर क्या था, मैंने अपना पहला उपन्यास 'एक और लैला' लिखना शुरु कर दिया। रानू जी ने उस उपन्यास को लिखने में अपना पूरा सहयोग दिया....और साथ ही साथ उपन्यास लेखन की बारीकिया भी समझाते रहे...आप वे इस दुनिया में नहीं हैं...लेकिन उनके द्वारा किया गया मार्गदर्शन आज भी मेरे जेहन में बरकरार है।
सन् 1982 में अपनी इंजिनियरिंग की पढाई पूरी करके वापस अपने घर किरतपुर पहुंचा...तब तक रूड़की रुड़की की मशहूर 'प्रेम पॉकेट बुक्स' से मेरा उपन्यास 'एक और लैला' प्रकाशित हो चुका था। फिर क्या था....लिखने का हौंसला और बढ गया...मैंने रजनीश आश्रम पूना से 'ओशो रजनीश' पर पुस्तक लिखने के लिए लिखित आज्ञा मांगी थी। उसी के संदर्भ में मेरे पास रजनीश आश्रम से बुलावा आ गया। मैं पूना गया। लगभग एक महीने आश्रम में रहा। वहाँ मेरी मुलाकात उस जमाने के मशहूर हीरो विनोद खन्ना से हो गयी। वे रजनीश के भगत थे। मैंने उनसे इंटरव्यू लिये। पुस्तक का नाम 'विनोद खन्ना की दृष्टि में रजनीश' रखा। पूरी पुस्तक लिखने के बाद उसे भी प्रेम पॉकेट बुक्स, रुड़की को छापने के लिये भेज दिया। उन्होंने पुस्तक को पढा। फिर 'तरुण इंजीनियर' के नाम के प्रकाशित कर दिया।
अब तक मेरी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी। पहला सामाजिक उपन्यास 'एक और लैला' जो की युवा पीढी की आधुनिक सोच पर आधारित था। दूसरी थी फिलाॅसफी 'विनोद खन्ना की दृष्टि में रजनीश'। ये दोनों पुस्तकें 1982 में प्रकाशित हुयी। पाठकों ने इन दोनों ही पुस्तकों को बहुत सराहा। और दोनों ही पुस्तकें मैंने अमिताभ बच्चन जी को उपहार स्वरूप भेज दी। साथ ही एक पत्र भी भेजा। उस पत्र में मैंने लिखा था कि मैं आपका प्रशंसक हूँ, और आगामी पुस्तक में आपके जीवन पर आधारित लिखना चाहता हूँ। अमिताभ जी ने खुशी-खुशी मुझे पुस्तक लिखने की आज्ञा दे दी और मैंने उस पुस्तक के पेजवर्क पर काम करना शुरू कर दिया।पहले अमिताभ जी के फिर जया जी के इंटरव्यू लिये। कुछ फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से अमिताभ जी के बारे में जानकारी हासिल की। कुछ घर के नौकर-चाकरों से बातचीत की, फिर 1984 में मेरठ के नूतन पॉकेट ने पुस्तक को प्रकाशित कर दिया। पुस्तक का नाम था 'अमिताभ बच्चन, एक सुपर स्टार- एक व्यक्तित्व'।
इस पुस्तक ने तो पूरे भारतवर्ष में ही तरल मचा दिया क्योंकि यह उस जमाने के सुपर स्टार के जीवन पर लिखी गयी पहली पुस्तक थी। जिसमें सम्पूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ उनके बचपन से लेकर जवानी तक की रंगीन फोटो, एलबम भी प्रकाशित हुयी। इस पुस्तक ने पॉकेट बुक्स की दुनिया के बिक्री के सारे कीर्तिमान धराशायी कर दिये। और मैं रातो-रात सुपर हिट लेखकों की श्रेणी में आकर खड़ा हो गया। फिर मैंने मेरठ के 'रायल पॉकेट बुक्स' से जासूसी उपन्यास लिखने के लिए अनुबंध किया। बस फिर क्या था...रायल पॉकेट बुक्स से मेरा पहला जासूसी उपन्यास 'बैंक राॅबरी' प्रकाशित हुआ।
इस उपन्यास में मैंने पहली बार आधुनिक तरीके से दिल्ली के पालिका मार्केट स्थित 'स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया' को लुटवाया था। कहानी अच्छी थी, पाठकों को पसंद आयी। फिर प्रकाशित हुआ 'खतरनाक स्पाईडर' जो एक हास्य शैली में लिखा गया था। और पूर्णतः जासूसी पृष्ठभूमि पर आधारित था। इस उपन्यासों को भी पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। इसके बाद तो जासूसी उपन्यासों की पूरी शृंखला ही रायल पॉकेट बुक्स से प्रकाशित होती चली गयी।
'वतन का बेटा' उस शृंखला का एक अनोखा अनोखा उपन्यास था जो 1985 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में पहली बार अमित,आदिल, पतारी, डैनियल जैसे खूंखार चरित्रों को पिरोया गया था। जो की विश्व स्तर के अपराधी या जासूस थे।
इस बीच मेरा अनुबंध दिल्ली की विनय पॉकेट बुक्स से हो गया, केवल सामाजिक उपन्यासों के लिये। वहाँ से मेरे एक के बाद एक दो सामाजिक उपन्यास प्रकाशित हुये। पहला था 'कुँवारी माँ' जो की गोवा की देवदासी प्रथा पर आधारित था। दूसरा था 'माँ और महबूबा'। दोनों उपन्यासों से काफी ख्याति मिली। जिसके प्रमाण थे वे पत्र जो पाठक हजारों की तादाद में रोज मुझे लिख कर भेजते थे।
सन् 1992 में मेरे दिमाग में फिल्मों के लिये गीत लिखने का जुनून सवार हो गया। धीरे-धीरे उपन्यास लिखने कम कर दिये। फिर जुट गया मुम्बईया फिल्मों में गीतकार के रूप में अपना मुकाम बनाने के लिये। कई सालों तक फिल्म प्रोड्यूसर, फिल्म डायरेक्टर,म्युज़िक डायरेक्टरों से मिलता रहा। अपने लिखे गीत उनको सुनाता रहा। लेकिन सफलता मिली 1997 में...बतौर गीतकात मुम्बई की सुपर हिट फिल्म 'दीवानगी' के लिए मैंने आठ गाने लिखे। फिल्म चल निकली, साथ ही मेरे नाम के आगे गीतकार का ठप्पा भी लग गया। फिर एक और फिल्म के सात गाने लिखने का अवसर मिला। फिल्म का नाम था 'ड्रीम लवर'। इस फिल्म के गीत लेखन में मैंने कई नये प्रयोग किये, जो की सफल रहे। साथ ही म्युजिक डायरेक्टरों के जेहन में मेरा नाम चढ चुका था। उन्होंने ने कई निर्माताओं तक मेरे नाम व काम को पहुंचाने में सहायता की।
फिर उसके बाद रिलीज हुयी 'दिल का रोग'। इस फिल्म के लिये मैंने सात गाने लिखे थे। नसीब अच्छा था फिल्म चल निकली। आज मेरे पास छोटे-बड़े बजट की बीस फिल्में हैं, जिनके लिये मैंने गाने लिखने हैं। साथ ही देश के प्रसिद्ध निर्माता 'बी. आर. चोपड़ा' की ओर से आगामी फिल्म में गाने लिखने के लिए मुझे लिखित आश्वासन मिल चुका है। हो सकता है उनकी आगामी फिल्मों में भी मेरे लिखे हुये गीत सुन सकें।
बहुत शीघ्र 'राधा पॉकेट बुक्स' मेरे लिखे हुये गीत व गजलों का संग्रह 'शाम ए गजल' प्रकाशित करने जा रहा है। इसमें उन्होंने केवल उन्हीं गजलों व गीतों को शामिल किया है, जो कि एकदम गैर फिली हैं। लेकिन आने वाली फिल्मों में हो सकता है कि इन्हीं गीतों की धुनों पर अपने चहेते हीरो-हीरोइनों को थिरकता हुआ देखें। इसके बाद 'राधा पॉकेट बुक्स' से ही मेरा पहला इंग्लिश उपन्यास 'ड्रीम गर्ल' प्रकाशित होने जा रहा है। इसके साथ ही मैं भारत का पहल उपन्यासकार कहलाऊंगा, जिसके उपन्यास हिंदी के साथ- साथ इंग्लिश में भी प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचते रहेंगे
बस...यही है मेरे जीवन की पूरी कहानी। अब तो आप समझ गये होंगे कि मैं उपन्यासकार कैसे बना। साथ ही मैं 'राधा पॉकेट बुक्स' के मालिक श्री डी. के जैन को धन्यवाद देना चाहूँगा, जिन्होंने मेरी प्रतिभा के अनुरूप हिंदी उपन्यासों के साथ-साथ गजलों का संग्रह व इंग्लिश उपन्यास प्रकाशित करने का साहस दिखाया।
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आपका अपना
तरूण इंजिनियर
दिल्ली
तरुण इंजिनियर- उपन्यास सूची
रोचक रहा ये सफर....
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