यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 09
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“मेरा स्टैण्ड अब भी वही है, जो पहले था।” वेद भाई ने
कहा - “मैं अब भी ट्रेडमार्क के सख्त खिलाफ हूँ, मगर ऐसा कोई
लेखक नज़र तो आवै, जिसे पढ़ते ही लगे कि बस, इसे चांस मिलना जरूरी है। यह जरूर तहलका मचायेगा।”
“यार, किसी को चांस मिलेगा, तभी
न वह तहलका मचायेगा।” - मैंने कहा।
“तो ठीक है, मैं तुझे दे रहा हूँ चांस। बोल - लिखेगा?”
“मेरी बात और है।” मैंने कहा - “मैं बहुत ज्यादा सेक्रीफाइस करने की स्थिति
में नहीं हूँ।”
“सेक्रीफाइस किस बात का... कौन सेक्रीफाइस करने के लिए कह रहा है?” वेद ने कहा - “तू बता, क्या लेगा - एक उपन्यास के?”
“कम से कम एक हज़ार तो मिलना ही चाहिए...।” मैंने झिझकते-झिझकते कहा।
“मैं दो हज़ार दूंगा...। बोल, कब दे रहा है
उपन्यास...?”
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। वेद से ऐसी किसी बात की मैंने कल्पना तक
नहीं की थी।
“चुप क्यों है...। बता कब दे रहा है उपन्यास...। मुझे हर महीने एक चाहिए...।
और तेरी पहली किताब तब छापूंगा, जब तेरे तीन उपन्यास मेरे
पास हो जायेंगे।”
“फिर तो अभी काफी लम्बा इन्तजार करना पड़ेगा।” मैं गम्भीर होकर बोला-”आज तो
मैं दिल्ली जाने की सोच रहा हूँ। खेल-खिलाड़ी का काम लटका होगा, जाते ही कम्पलीट करना होगा और कुछ और प्रकाशक भी अपनी पत्रिकाओं का काम
मुझसे ही करवाते हैं।”
“ठीक है। यह फैसला तो तूने करना है कि कब किसका क्या काम करना है। पर याद
रहे, मैं तुझे चांस दे रहा हूँ, पर यह
चांस हरएक को नहीं दे सकता।”
“क्यों भला...?” मैंने पूछा।
“देख योगेश, लिखने वाले बहुत हैं, पर लिख क्या रहे हैं, यह जानने से पहले यह समझ कि लिख कैसे रहे हैं।”“कैसे लिख रहे हैं..?” मैंने पूछा।
“तुझे पता नहीं...?” वेद भाई ने सिर को दायें-बायें
जुम्बिश देते हुए पूछा।
“नहीं यार....। कौन क्या लिख रहा है..? कैसे लिख रहा
है? यह या तो पब्लिशर्स जान सकते हैं या यहाँ के लोकल लोग...।
मैं तो परदेसी हूँ...। आज यहाँ, कल दिल्ली...।”
“बेटा, तू सबसे ज्यादा शातिर है। तुझे सब पता है। पर
तू मेरे मुंह से ही सुनना चाहता है तो सुन...। मेरठ में आधे से ज्यादा लेखक ऐसे
हैं, जो बिमल चटर्जी, परशुराम शर्मा और
विक्रांत सीरीज़ के उपन्यास सामने रखकर लिख रहे हैं। इधर का सीन उधर, उधर का सीन इधर कर रहे हैं। जो थोड़े बहुत यह नहीं कर रहे, अंग्रेजी से खुलकर टीप रहे हैं। जरा सोच, इनका
टीपा-टीपी की वजह से पब्लिशर पर कोई मुकदमा हो गया तो कहाँ मरेगा पब्लिशर...?
और मुझ पर ऐसी स्थिति आ गई तो मैं अपना नॉवल लिखूँगा या मुकदमा
लड़ता फिरूँगा। न, मैं तो ऐसे नकलची लेखकों पर कतई भरोसा
नहीं कर सकता, हाँ, कोई ऐसा आये कि लगे,
जो लिखा है, मौलिक है तो उसकी वेद प्रकाश
शर्मा से ज्यादा पब्लिसिटी करके छापूंगा। इन कहीं का ईंट - कहीं का रोड़ा जोड़ने
वालों का तो मैं बिल्कुल भरोसा नहीं कर सकता। ना ही इन्हें नाम से छाप सकूँ हूँ।”
“चलो, मुझ पर तो भरोसा है ना?” मैंने
मन ही मन खुश होते हुए कहा, लेकिन जवाब में वेद भाई ने जो
कहा, मेरे पुर्जे-पुर्जे हिल गये।
“ना, बिल्कुल नहीं...।” वेद भाई ने कहा - “तुझ पर तो
रत्ती भर भी विश्वास नहीं, जो विश्वास होता तो मैं भी कहता,
योगेश, लिखना शुरू कर, दो-दो
पेज लिखकर, दिये जा...। प्रेस में रोज मैटर पहुँचता रहना
चाहिए।”
“क्या मतलब...?”- मैं चौंका।
“बेटा, यह मेरठ है, यहाँ कब
क्या होता है - वेद प्रकाश शर्मा को सब पता होता है। तूने कब-कब क्या-क्या किसके
लिए किया, सब मालूम है मुझे। यहाँ कोई पत्ता भी हिलता है तो
वेद के कान में खुद बता देता है कि वेद भाई, मैं हिल रहा हूँ
और तूने तो हद ही कर दी। किस-किस के नॉवल लिखे और कितने लिखे?”
“यार, मजबूरी थी।” - मैंने कहा।
“काहे की मजबूरी। भले आदमी, दो-दो पेज करके कहीं नॉवल
लिखे जावैं हैं। तुझे मना करना नहीं आता। पब्लिशर ने डण्डा दे दिया तो उसका गुलाम
हो गया तू?” - वेद मुझे बड़े भाई की तरह डपट रहा था, हालांकि उम्र में वह मुझसे दो महीने छोटा था।
“चल, इस बात को छोड़कर तो मुझ पर भरोसा है ना...?”
- मैने कहा।
“पागल हुआ है। मुझे पागल कुत्ता काट ले तो भी तुझ पर भरोसा न करूँ। इसीलिए
तो तुझ पर शर्त लादी है कि जब तेरे तीन उपन्यास मेरे पास हो जायेंगे, तब तेरा पहला उपन्यास छापूंगा।”
मैंने गहरी सांस ली।
मेरी ईमानदारी और सच्चाई पर हर पब्लिशर भरोसा करता था, यह मैं खुद कई बार विभिन्न प्रकाशकों के मुंह से सुन चुका था, लेकिन वेद भाई ने मेरा सारा भरम तोड़ दिया था और वही बात कह दी थी,
जो सबसे पहले रायल पाकेट बुक्स के स्वामी चन्द्रकिरण जैन के
पिताश्री ने कही थी कि बेटा मना करना भी सीख, जोकि तब तक तो
क्या, शायद मैं अब तक नहीं सीख पाया।
बातें करते करते रिक्शा शास्त्रीनगर पहुँच गया। उस दिन मुझे लग रहा
था कि शायद वेद को मुझसे कोई खास बात करनी थी, लेकिन बातचीत का
रुख मैंने गलत तरफ मोड़ दिया, जिससे हमारे बीच असली बात नहीं
हो पाई।
बाद में भी वेद से ढेरों बातें हुईं, लेकिन उनमें
ज्यादातर तब के लेखन और लेखकों पर ही थीं। कौन-कौन क्या-क्या लिख रहा है और उस में
कितना दम है। बस, हम इसी बात पर चर्चा करते रहे। मज़े की बात
है, हम जिन उपन्यासकारों को औसत और नकलची मानते रहे, बाद में कई प्रकाशकों ने उन्हें नाम से भी छापा और वे अपना अलग से पाठक
वर्ग बनाने में भी सफल हुए, लेकिन बिमल चटर्जी, परशुराम शर्मा, कुमार कश्यप अथवा वेद प्रकाश शर्मा
जैसा तहलका, उनमें से कोई भी नहीं मचा सका और वेद भाई का तो
साफ कहना था कि कोई आये कुछ अलग हटकर मौलिक लेखन के साथ तो उसे न केवल, मैं नाम से छापूंगा, बल्कि वेद प्रकाश शर्मा से
ज्यादा उसकी पब्लिसिटी करूँगा।
शास्त्रीनगर में पहले चाय का दौर चला, फिर दोपहर
का लंच भी मैंने और वेद भाई ने साथ साथ ही किया। उसके बाद मैं रुखसत हुआ तो रुख
देवीनगर का था। सोचा, जीजी के यहाँ भी एक चक्कर लगा लूं और
लक्ष्मी पाकेट बुक्स में सतीश जैन उर्फ मामा जी की जेब भी ढीली करवा लूं।
पहले मैं लक्ष्मी पाकेट बुक्स पहुँचा।
सतीश जैन आफिस में ही थे। मुझे देखते ही बोले - “यार, बड़ी उम्र है, मैं तुम्हें ही याद कर रहा था।”
“नोटों की गड्डी तैयार है ना...।” मैंने कहा - “फटाफट निकालो और रुख़सत करो
मुझे....। मुझे आज ही आज में दिल्ली पहुँचना है। मेरा खेल-खिलाड़ी का सारा काम
लटका हुआ होगा।”
“अरे छोड़ो यार, तुम दिल्ली नहीं जाओगे तो क्या खेल
खिलाड़ी नहीं छपेगी।”- सतीश जैन ने कहा।
“छपेगी तो जरूर, पर मेरी वजह से कुछ दिनों की देरी
अवश्य हो जायेगी और यही मैं नहीं चाहता कि सरदार मनोहर सिंह को मेरी वजह से कोई
परेशानी हो और वह भारती साहब से शिकायत करें।”
“अच्छा ठीक है। एक छोटा सा काम और कर दो, फिर दिल्ली
चले जाना।” - कहते हुए सतीश जैन ने एक छपा हुआ टाइटिल मेरे सामने रख दिया। और बोले
- “एक यह नॉवल और लिख दो यार। यह बहुत जरूरी है... इसके बिना तो मेरा सैट जा ही
नहीं सकता। सबसे इम्पोर्टेन्ट नॉवल है यह।”
मैंने टाइटिल देखा।
टाइटिल पर लेखक का नाम था - 'व्ही. व्हानवी'.....। जी हाँ, हिन्दी में नाम बिल्कुल इसी ढंग से लिखा
हुआ था, जैसे मैंने आपके सामने लिखा है। उन दिनों लेखक का
नाम व्ही. व्हानवी रखकर लक्ष्मी पाकेट बुक्स से उपन्यास निकालने जंगबहादुर जी ने
ही आरम्भ किये थे, किन्तु बाद में जाने क्यों अपनी पूरी फर्म
लक्ष्मी पाकेट बुक्स ही उन्होंने सतीश जैन उर्फ मामा को सौंप दी थी। शायद वह किसी
और मोटे धंधे में चले गये थे और एकमुश्त रकम लेकर उन्होंने लक्ष्मी पाकेट बुक्स का
सर्वेसर्वा सतीश जैन को बना दिया था।
व्ही. व्हानवी में सैक्स बेस्ड सामाजिक उपन्यास प्रकाशित किये जाते
थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी `मस्तराम` के उपन्यास होते थे।
दोस्तों, मैं उस समय एक ऐसा शख्स था, जिसके
हाथ जब जो लग जाता था, पढ़ डालता था। अच्छा-बुरा सोचने
में वक़्त बरबाद नहीं करता था। अत: `मस्तराम` के भी बहुत उपन्यास मैंने पढ़े थे और
आपको खास बात बताऊँ - उन दिनों मस्तराम के जो उपन्यास अश्लील कहे जाते थे और चोरी
छिपे बेचे जाते थे, ब्लैक में भी बेचे जाते थे, आज अगर आपके सामने पड़ जायें तो आप कहेंगे कि क्या बकवास है। इससे ज्यादा
अश्लीलता तो आज साहित्यिक उपन्यासों में भी मिल जाती है और यूट्यूब पर तो भरमार है।
हाँ, मस्तराम के उपन्यास अधिकांशतः सामाजिक मर्यादा छिन्न-भिन्न
करते अवैध रिश्तों के हुआ करते थे। जैसे देवर-भाभी का प्रेम, जीजा-साली का प्रेम, मामी-भांजे का, चाची और भतीजे का.....मतलब... हिन्दू समाज में जो रिश्ते पवित्र मर्यादा
की माँग करते हैं, मस्तराम के उपन्यासों में उन्हीं की
रासलीला दिखाई जाती थी।
उन दिनों यह सब बहुत
अटपटा लगता था, पर अगर आप अखबारों की सुर्खियाँ बरसों से पढ़ते आ
रहे हैं तो आपने पाया होगा कि आज के समाज में यह पाप बहुतायत में है और न केवल
गरीबों में, पैसे वालों में भी और कवियों, लेखकों, चित्रकारों, अभिनेताओं
में भी ऐसे बहुत से जीव जगह जगह पनप रहे हैं। बहुत सारी सत्य कथाओं की पत्रिकाओं
में भी आप ऐसे बहुत से किस्से पढ़ चुके होंगे।
हाँ, तब मस्तराम में ऐसी अश्लीलता परोसने वालों पर पुलिस
का छापा पड़ जाता था, लेकिन कोई केस कभी कोर्ट तक पहुँचा हो,
मुझे याद नहीं। याद हैं तो यह कि तब लेखक और प्रकाशक की ही नहीं,
मुद्रक की भी शामत आ जाती थी।
मुद्रक यानि वह प्रेस -
जिसमें मस्तराम की किताब छपी होती थी, इसलिए बाद में
चालाक प्रकाशक किताब में लेखक, प्रकाशक और मुद्रक सभी के नाम
फर्जी देने लगे थे और किताबें जहाँ भी भेजी जातीं, By post यानि
डाक द्वारा नहीं भेजी जाती थीं । प्रकाशक रेलवे से माल भिन्न भिन्न रेलवे स्टेशन
पर भेज देते, फिर बिल्टी लेकर खुद ही हर स्टेशन पर पहुँचते
और नोट लेकर बिल्टी थमा देते थे।
मस्तराम की किताबों का हर शहर का होलसेलर फटाफट किताबों को पटरियों
पर दुकान लगाने वालों के हवाले करता और नियमित ग्राहक अक्सर ब्लैक में भी मस्तराम
की किताबें खरीदा करते थे। मतलब यह कि नम्बर दो की इन किताबों का सारा धन्धा कैश
हुआ करता था, जबकि नामी-गरामी लेखकों को छापने वाले प्रकाशकों का
माल, दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, इन्दौर, लखनऊ,
इलाहाबाद, पटना आदि सभी बड़े शहरों में उधार
पर जाता था। बुकसेलर किताबें बेचने के दो दो महीने बाद पेमेन्ट भेजा करते थे।
बहुत बाद में इस स्थिति को सुधारने में सबसे ज्यादा दिलेरी मनोज
पाकेट बुक्स और राज पाकेट बुक्स ने दिखाई। वे पुस्तक विक्रेताओं से एडवांस तक लेने
लगे थे। पर यह किस्सा फिर कभी...
अभी हम बात कर रहे थे - लक्ष्मी पाकेट बुक्स के उपन्यासकार वी.
व्हानवी की, जिसमें छपने वाली कहानियाँ मस्तराम में छपने वाली
कहानियों जैसी ही होती थीं।
सतीश जैन ने मेरे सामने जो टाइटिल रखा था। उसमें उपन्यास का नाम था -
भांग की पकौड़ी।
क्या नाम था - भांग की पकौड़ी।
उम्रदराज पुराने पाठकों, कुछ याद आया आपको।
नहीं याद आया तो मैं याद करा देता हूँ...
भांग की पकौड़ी....। जी हाँ, भांग की पकौड़ी....।
मुझे यकीन है - इस नाम से पुराने जमाने के शौकीन मिज़ाज़ों को जरूर
कुछ याद आ रहा होगा, जिन्हें याद नहीं आ रहा हो, उन्हें
याद दिला दूँ, किसी ज़माने में मस्तराम के नाम से किसी
पब्लिशर ने एक उपन्यास बुक्स मार्केट में फेंका था - भांग की पकौड़ी...।
उपन्यास इतना प्रसिद्ध और चर्चित हुआ कि जवान और बुड्ढे ठरकी दीवानों
ने दो रुपये का वह उपन्यास, पचास-पचास रुपये में खरीदा।
यह मैं नहीं कह रहा हूँ, लोहे के पुराने
जमुना पुल के बाद, गाँधीनगर से पहले पड़ने वाले कैलाशनगर के
अन्दरूनी क्षेत्र में पटरी लगाने वाले 'तिवारी जी' नाम से मशहूर बुकसेलर का कहना था। वह कहते थे कि ज़िन्दगी में माल कमाया
तो एक ही बार, वो भी मस्तराम की भांग की पकौड़ी से। होलसेल
में डेढ़ रुपये का खरीद कर लाते थे। बोरे में छिपाकर रखते थे। कोई माँगता था तो
चुपके से, छुपा के, निकाल कर पचास
रुपये में देते थे।
सतीश जैन ने लक्ष्मी पाकेट बुक्स के अपने नये सैट में जिन किताबों के
नाम दिये थे, उनमें व्ही. व्हानवी के उपन्यास का नाम 'भांग की पकौड़ी' जानबूझकर मस्तराम के फेमस उपन्यास
भांग की पकौड़ी की लोकप्रियता कि लाभ उठाने के लिए रखा था और मुझसे इल्तिज़ा की जा
रही थी कि व्ही. व्हानवी का वह उपन्यास मैं लिखूँ।
“नहीं, यह उपन्यास मैं नहीं लिखूँगा...आप मेरा हिसाब
कर दो। मुझे दिल्ली जाना है।” -समैंने दो टूक स्वर में कहा तो सतीश जैन बोले - “अभी
तो यार, पैसे ही नहीं हैं। दो तीन दिन में करता हूँ हिसाब।
तब तक यह उपन्यास लिख डालो यार। देखो, तुम्हारे भरोसे,
मैंने किसी से बात तक नहीं की है।”
“नम्बर एक - मुझे आज ही दिल्ली जाना है। नम्बर दो - पैसे भी चाहिए। नम्बर
तीन - मैं वाहियात सैक्स और अश्लीलता वाले उपन्यास नहीं लिखता।” - मैं थोड़ा
गुस्से वाला मुंह बनाकर बोला तो सतीश जैन बड़े प्यार से बोले –“तो यार, तुम्हें वाहियात सैक्स लिखने को कौन बोल रहा है। मत लिखो - तुम अश्लील
उपन्यास। तुम्हारा दिल चाहे जैसा लिखो, जैसा चंचल और बेगम
कानपुरी के लिए लिखा है, वैसा लिख दो। तुम्हारे ऊपर हमारी
कोई बन्दिश नहीं है। हमें पता है - तुम कुछ भी लिखोगे, उसमें
कोई अच्छी सी कहानी तो होगी ही।”
“पर अभी मैं मेरठ में नहीं रुक सकता। मुझे दिल्ली जाना ही जाना है।”- मैंने
कहा।
“तो यार, हो आओ दिल्ली। खेल खिलाड़ी का काम निपटा आओ।
दिल्ली में जब टाइम मिले - उपन्यास स्टार्ट कर देना। बाद में यहाँ आकर कम्पलीट कर
देना। तब तक पैसों का भी जुगाड़ हो जायेगा। अभी तुम यह दो सौ रुपये रख लो। बाकी
हिसाब फिर कर लेंगे।”
मैंने एक गहरी सांस ली।
वक़्त बरबाद करने का कोई फायदा नहीं था। लक्ष्मी पाकेट बुक्स से उठकर
मैं कुछ देर के लिए पास ही की गली में स्थित अपनी बहन प्रतिमा जैन के यहाँ गया।
अपने भांजों अनुराग और रोहित तथा भांजी सोनिया के साथ दस-पन्द्रह मिनट बिताये।
जीजी के यहाँ चाय पी और उन्हें बता दिया कि आज दिल्ली जा रहा हूँ।
“फिर कब आऊँगा...?” के जवाब में मैंने कोई निश्चित
उत्तर नहीं दिया। बस, यह कहा कि जल्दी ही आऊँगा, अभी यहाँ से पूरी पेमेन्ट भी नहीं मिली है।”
फिर जीजी के यहाँ से निकल, मैंने ईश्वरपुरी का
रिक्शा किया और कुछ समय पश्चात् गंगा पाकेट बुक्स के आफिस में था। सुशील जैन मुझे
देखते ही खिल गये और मुस्कुराते हुए बोले - “लगता है, मेरठ
में तेरे चाहने वाले बहुत हो गये हैं। आज सुबह से इन्तजार कर रहा हूँ। अब आया है।”
“जानबूझकर देर से आया हूँ। सुबह सुबह आता तो आप कोई बहाना भी बना देते,
पर अब तो खूब मनीआर्डर-सनीआर्डर इकट्ठे कर के बैठे हो, गरीब लेखक को नोट-सोट दो, मुझे जल्दी से जल्दी
दिल्ली जाना है।”
“नोट तो तू बेशक ले ले...। पर दिल्ली जाने की बात मत कर...। तेरे से एक और
किताब लिखवानी है।”
“अभी तो यह सम्भव नहीं है। जमीन उलटे- आसमान पलटे, मेरा
दिल्ली जाना नहीं रुक सकता।”- मैंने चेहरा
काफी हद तक गम्भीर बना कर कहा।
“ठीक है, पर जाने से पहले तुझे एक प्रॉमिस करना होगा
कि लौटते ही हमारी एक किताब पूरी और करेगा।”- सुशील जैन बोले।
“ठीक है, कर दूंगा...।” - मैंने कहा।
“ऐसे नहीं, हाथ मिलाकर, जेन्टलमैन
प्रॉमिस कर...।”
मैंने सुशील जैन से हाथ मिलाकर प्रामिस किया। सुशील जैन ने मुझे `अधजली
लाश` की पेमेन्ट दे दी।
मैं उठने लगा तो वह बोले - “जरा रुक...।”
“क्या हुआ...?” - मैंने पूछा।
“रास्ते में पढ़ने के लिए और दिल्ली में लोगों को पढ़वाने के लिए किताबें
तो लेता जा।”
मैं रुक गया।
सुशील जैन ने मेरे लिए दस-बारह किताबों का एक बण्डल बनवा दिया। बण्डल
लेकर मैं चलने लगा तो वह बोले - “अरे रुक...।”
“अब क्या है..?”
सुशील जैन ने मुझे दो किताबें दीं, जो किसी और
प्रकाशन की थीं और बोले - “ये किताबें तू रास्ते में पढ़ता हुआ जाइयो और लौटकर
मुझे इनके बारे में सही-सही रिपोर्ट देइयो।”
मैंने उन दोनों किताबों को देखा। उनके नाम पढ़े। उनमें से एक थी-
“जीजा-साली के प्रेम पत्र”
और दूसरी किताब थी -
“देवर भाभी के प्रेम पत्र”
यह किताबें सुशील जैन ने बण्डल में इसीलिए नहीं बंधवाई थीं, ताकि रास्ते में मैं उन्हें पढ़ता हुआ जाऊँ।
पर क्यों....?
उस समय मैंने यह बिल्कुल भी नहीं सोचा था।
अपने कमरे पर जाकर मैंने अपना थैला उठाया। उसमें किताबें और किताबों
का बण्डल डाला और चन्द्रकिरण जैन के पिताजी को बताया कि मैं दिल्ली जा रहा हूँ।
वहाँ खेल खिलाड़ी पत्रिका का काम निपटाकर आऊँगा।
उसके बाद मैंने रोडवेज बस अड्डे के लिए रिक्शा पकड़ लिया।
(शेष फिर)
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
दोस्तों, आपके दिमाग में बहुत से सवाल उमड़ेंगे, पर सवाल मत पूछियेगा, क्योंकि आपके हर सवाल का जवाब आने वाली किश्तों में अवश्य मिलेगा।
वेदप्रकाश शर्मा जी, छायाचित्र - योगेश मित्तल |
इस श्रृंखला के अन्य भाग यहाँ पढें
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