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रविवार, 21 नवंबर 2021

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 08

 कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 8

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रॉयल पाकेट बुक्स की बाहरी बैठक को अपना ठिकाना बनाने के बाद मुझे सबसे पहले उन्हीं का काम पूरा करना चाहिए था, पर उन्होंने काम पूरा करने के लिए एक हफ्ते का वक़्त दिया था, इसलिये मैं निश्चिन्त तो था, पर दिमाग में यही था कि सबसे पहले अपने लैण्डलॉर्ड का काम ही पूरा किया जाये, लेकिन सुबह दस बजे के करीब गंगा पॉकेट बुक्स के स्वामी सुशील जैन मेरे कमरे पर आ पहुँचे।   


मैंने रायल पाकेट बुक्स की उन किताबों में से एक किताब सामने रखी हुई थी और उसे पढ़ रहा था, कहानी बढ़ाने का काम बिना पढ़े तो हो ही नहीं सकता था। हालांकि मुझे दो बार ऐसा दुर्लभ कार्य भी करना पड़ा था, जब विमल पॉकेट बुक्स, में प्रकाशित होने वाले उपन्यास `कलंकिनी` के अन्तिम सोलह पेज कहानी पढ़े बिना ही लिखने पड़े थे और एक बार हरीश पॉकेट बुक्स (राज पॉकेट बुक्स की एक अन्य संस्था) में प्रकाशित हो रहे एस. सी. बेदी के एक उपन्यास का अन्त उपन्यास पढ़े बिना लिखना पड़ा था। पर वो किस्सा फिर कभी...। 

मेरठ के प्रकाशकों में तो लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के स्वामी सतीश जैन उर्फ मामा ने मैटर बढ़ाने-घटाने में मुझे Best होने तक का तमगा दे दिया था और उन्हीं की यह कारस्तानी या करिश्मा था कि ईश्वरपुरी के प्रकाशकों में भी मेरी चर्चा फैल गई थी। 

फिर मेरे बारे में एक यह बात भी सतीश जैन ने फैला दी थी कि योगेश मित्तल से तो जो चाहे काम करवा लो, न पैसे के लिए हुज्जत करता है, ना ही मना करता है और यह मशहूरी गंगा पॉकेट बुक्स के स्वामी सुशील जैन तक भी पहुँच चुकी थी। 

रॉयल पाकेट बुक्स का किरायेदार होने के सबसे पहले ही दिन सुबह सुबह सुशील जैन मेरे कमरे पर आ पहुँचे, तब तक मैंने किसी भी प्रकाशक को अपने वहाँ रहने के बारे में बताया तक नहीं था, इसलिये सुशील जैन को देख, एकदम हक्का-बक्का हो उठा। 

“आप यहाँ कैसे....? यहाँ के बारे में तो मैंने अभी किसी से कोई चर्चा भी नहीं की।" -मैंने अचरज से कहा तो बड़ी मीठी मुस्कान छिड़कते हुए सुशील जैन बोले - "दिल्ली का कोई लेखक मेरठ में हो और हमें पता न चले, यह तो हो ही नहीं सकता। हमारे जासूस कदम-कदम पर फैले हुए हैं। फिर यह तो ईश्वरपुरी से ईश्वरपुरी का मामला है। हमारी नाक के नीचे रहकर भी तू हमारी नज़रों से छिप जायेगा, ऐसा तो तुझे सोचना भी नहीं चाहिए।" 

अपनी बात कहते-कहते सुशील जैन मेरे पलंग पर मेरे करीब बैठ गये। 

मैंने रायल पॉकेट बुक्स की किताब साइड में रख दी और बोला -"खैर, गरीब की कुटिया में कैसे पदार्पण किया?"

"गरीब की कुटिया, कैसी गरीब की कुटिया, यह तो हमारे बड़े भाई का घर है। तू यहाँ नहीं था, तब भी हमारा आना-जाना था।"-  सुशील जैन बोले। फिर मेरी बाजू थाम बोले - "आ जा, तुझे चाय पिलाता हूँ। तेरे बस की तो कुछ है नहीं कि पानी को भी पूछ ले।"

और यह सुशील जैन ने सही कहा था। उस समय मेरे पास पानी पीने के लिए एक गिलास तक नहीं था। 

मैं उठकर सुशील जैन के साथ बाहर आ गया। कमरे में ताला लगाने जैसी कोई जरूरत नहीं थी। घर का बाहरी कमरा होने के बावजूद उन दिनों ईश्वरपुरी में सब सुरक्षित था, फिर मेरे कमरे में ऐसा कुछ नहीं था कि कोई कुछ चुरा ले। सुशील जैन मुझे मुश्किल से सौ कदम की दूरी पर स्थित गंगा पॉकेट बुक्स के आफिस में ले गये और बोले - "तूने तो अभी नाश्ता भी नहीं किया होगा?" फिर मेरे जवाब से पहले ही अपने एक वर्कर को आदेश दिया -"जा फटाफट राजू की दुकान से एक प्लेट बेड़मी ले आ।"

आफिस में सुशील जी के बड़े सुपुत्र दीपक जैन भी मौजूद थे। सुशील जी ने उन्हें इशारा किया - घर में ही चाय बनवाने के लिए।

दीपक जैन आफिस के बैक डोर से पीछे गये। चाय के लिए उन्होंने घर पर ही कह दिया और पुनः आफिस आ गये। 

मेरठ में सुबह के समय उन दिनों हर हलवाई के यहाँ जलेबी और आलू की सब्जी तथा पूरी बनती थी। वो खास किस्म की पूरी ही बेड़मी कहलाती थी। शायद आज भी मेरठ में ऐसा ही खान-पान हो। 

बाज़ार से बेड़मी आ गई। घर से चाय भी आ गई। नाश्ता आरम्भ करने से पहले मैंने पूछा - "क्या बात है...कोई खास काम है क्या?"

"खास काम होगा तो नाश्ता नहीं करेगा...?" सुशील जैन बोले। चुटीले अन्दाज़ में और बेहद नर्म मिज़ाज में चुभती हुई बातें कहने में सुशील जैन, अपने सभी जैन भाइयों से मीलों आगे थे। 

नाश्ते पर हाथ साफ करते हुए मैं बोला-"मैं तो टाइम बचाने के लिए पूछ रहा था। पेट पूजा करते-करते काम की भी बात हो जाती तो अच्छा था।"

"नहीं, पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा।" -सुशील जैन बोले। 

नाश्ता सिर्फ मेरे लिए मंगाया गया था, इसलिए मैं ही कर रहा था। औपचारिकता के लिए मैं कुछ पूछता, उससे पहले ही सुशील जैन ने कह दिया-"यह तेरे लिए है। चाय जरूर साथ में पियेंगे।"

और चाय हम दोनों ने साथ-साथ पी। 

चाय का दौर खत्म होने पर सुशील जैन बोले - "अब काम की बात हो जाये।"

"बिल्कुल।" मैंने कहा -"बकरा हलाल होने के लिए तैयार है।"

"ऐसी बात मत कर यार...। तू क्या समझता है, वैसे ही तू आयेगा तो हम तुझे कुछ नहीं खिलायेंगे।" सुशील जैन कृत्रिम नाराजगी दिखाते हुए बोले तो मैं भी हंस दिया-"मज़ाक कर रहा हूँ।"

कुछ देर खामोशी रही। न वह कुछ बोले। ना ही मैं कुछ बोला। फिर उन्होंने ही मौन भंग किया, बोले - "यार, तेरे से दो काम हैं।"

“क्या...?"

“पहले एक काम कर, हमारे पास दो टाइटिल छपे पड़े हैं। उसमें जिससे किताब लिखवानी थी, पट्ठे का पता ही नहीं है। चिठ्ठी डाल-डाल कर थक गये।" 

“फिर...?"- मैंने पूछा। 

“फिर क्या...? सैट तो टाइम से निकालना है।" - कहते हुए सुशील जैन ने एक टाइटिल निकाल कर मेरे सामने रख दिया। 

वह टाइटिल उपन्यासकार `कैप्टेन दिलीप` के उपन्यास `अधजली लाश` का था। 

“यह टाइटिल है - अधजली लाश। तू इस पर फटाफट एक नॉवल लिख दे और हो सके तो पार्ट का लिख, सेकेण्ड पार्ट में स्टोरी कम्पलिट कर देइयो।"- सुशील जी ने कहा। 

“और दूसरा काम....?" - मैंने पूछा। 

“दूसरा काम बाद में...। पहले यह निपटा दे।"

“बता तो दो...।"- मैंने कहा। 

“नहीं, अभी नहीं। पहले यह काम कर।"

मैं कुछ और जोर देता, तभी गंगा पॉकेट बुक्स के ऑफिस में एक लम्बा सा नौजवान प्रविष्ट हुआ और मुझे देखते ही बोला - "हद हो गई योगेश जी। आप यहाँ हो और मैं आपको कहाँ-कहाँ ढूँढ कर आ रहा हूँ।

“कहाँ-कहाँ ढूँढ कर आ रहे हो?" मैंने पूछा। 

वह विपिन जैन था। 

ज्योति पॉकेट बुक्स का स्वामी। उसकी संस्था के लिए मैं बहुत पहले विक्रांत सीरीज़ के कई उपन्यास लिख चुका था। जब उसने बिमल चटर्जी से `चोट सीरीज़` लिखवाई थी। मुझे भी साथ-साथ काम दिया था। 

मैंने पूछा -"कहाँ-कहाँ ढूँढ कर आ रहे हो?" तो उसने तत्काल पूछा - "भाई साहब से बात हो चुकी हो तो दो मिनट मेरे साथ चलोगे?"

`भाई साहब` से उसका मतलब सुशील जैन से था, लेकिन मेरे जवाब देने से पहले ही सुशील जैन बोले - "हाँ, हो गई। ले जा।"

फिर तुरन्त ही मुझसे  बोले -"देख योगेश, मेरा नॉवल आज ही चालू कर दे और रोज एक फार्म का मैटर देता जा।"

“रोज़ एक फार्म का मुश्किल है।" मैंने कहा तो सुशील जैन बोले -"ठीक है, आधा फार्म सही। आठ पेज रोज तो दे देगा।"

“हाँ, दे दूंगा।" मैंने कहा और विपिन जैन के साथ निकल गया।

विपिन जैन उन दिनों, डिजाइन प्रोसेसिंग और ब्लॉक मेकिंग का काम भी कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने एक मकान का बाहरी कमरा किराये पर ले रखा था, वहीं उन्होंने अपना डार्करूम बना रखा था और वहीं ऑफिस बना रखा था। 

वहाँ एक बड़ी प्रोसेसिंग टेबल भी थी, जिसके पीछे एक लकड़ी की हत्थीदार कुर्सी थी। प्रोसेसिंग टेबल ही आफिस टेबल का भी काम करती थी। उस पर सबसे ऊपर एक शीशा लगा था, शीशे के नीचे एक ट्यूबलाइट जलती थी। ट्यूबलाइट आन करते ही टेबल पर उजाला फैल जाता था। 

विपिन जैन ने कुर्सी पर बैठते ही टेबल के शीशे के नीचे की ट्यूबलाइट आन कर दी। तब तक आफिस में काम करने वाली लड़की मंजू ने एक फोल्डिंग चेयर खोलकर, मेरे बैठने के लिए बिछा दी। 

मंजू दरअसल मकान मालकिन की ही दो लड़कियों अंजू और मंजू में से एक थी। विपिन जैन ने दोनों लड़कियों को भी प्रोसेसिंग का काम सिखाकर अपनी मदद के लिए रखा हुआ था, जिससे मकान मालकिन के परिवार को किराये के रूप में हासिल होने वाली रकम के अतिरिक्त धनराशि प्राप्त हो जाती थी। 

और उन दिनों तकरीबन मेरठ के सभी प्रकाशकों के यहाँ आगन्तुकों के बैठने के लिए फोल्डिंग चेयर्स ही होती थीं। उनका फायदा यह था कि कोई या कई लोग आये तो बिछा दीं, बाद में उठाकर, किसी कोने में दीवार के साथ, एक के बाद एक करके खड़ी कर दीं। 

मेरे बैठने के बाद विपिन जैन बोले - "योगेश जी, आजकल बाल पाकेट बुक्स की मार्केट कैसी है?"

“चकाचक है...फर्स्टक्लास है ।" मैंने कहा - "मनोज वालों ने पॉकेट बुक्स स्टार्ट ही बाल पॉकेट बुक्स से की थी । हाँ, आरम्भ में टाइटिल कवर पर वे `प्रेम बाजपेयी` का नाम और अंदर `संकलन : प्रेम बाजपेयी`  देते थे । अब दोनों जगह सिर्फ `मनोज` देने लग गए हैं और एस. सी. बेदी की आजकल क्या हवा है, यह तो आप जानते ही हो।"    

“योगेश जी, हमने भी एस. सी. बेदी को छापने का प्रोग्राम बनाया है।"- विपिन जैन ने कहा। 

“छाप ही नहीं सकते।"- मैंने कहा। उन दिनों मुझे पब्लिकेशन लाइन की हर बात की, पल-पल की खबर रहती थी। इसका कारण था - मैं जहाँ भी बैठ जाता, लोग मुझसे बातें करने के लिए कोई न कोई बात छेड़ देते थे और किसी पब्लिशर के यहाँ बैठ गया तो वह पहले वह मुझसे मेरे हालचाल पूछता, फिर अपनी ही नहीं, अपने आसपास की खबरें भी मुझे सुना देता। 

“क्यों, छाप क्यों नहीं सकते?" -विपिन जैन ने पूछा। 

“बेदी साहब को मैं खुद राज पाकेट बुक्स में ले गया था, वहाँ राज बाबू से उनका हरीश पाकेट बुक्स के लिए एग्रीमेंट हुआ है कि भविष्य में एस. सी. बेदी नाम से उनके राजन-इकबाल सीरीज़ के नये बाल उपन्यास सिर्फ हरीश पाकेट बुक्स से प्रकाशित किये जायेंगे और शायद पुराने उपन्यासों के भी काफी कापीराइट राजकुमार गुप्ता जी ने खरीद लिये हैं।" - मैंने विपिन जैन को बताया तो वह बोले - "तो योगेश जी, राजन इकबाल सीरीज़ तो हम छाप ही नहीं रहे हैं। हमारी बेदी साहब से एक नई सीरीज़  `धरम - करम सीरीज़` की बात हुई है।"

“पर बेदी साहब को राज बाबू ने इतना बिजी कर दिया है कि उन्हें आपके लिए बाल उपन्यास लिखने की फुरसत ही नहीं मिलेगी।"

“मालूम है योगेश जी, इसीलिए तो बेदी साहब ने हमें फिलहाल चौबीस उपन्यासों के कापीराइट लिखकर दे दिये हैं। हम वो उपन्यास किसी और से लिखवा कर एस. सी. बेदी जी के नाम से छाप सकते हैं।"

“फिर तो आपकी चांदी है। छापे जाओ... बेचे जाओ।"- मैंने कहा। 

“तभी तो आपकी मदद की जरूरत है योगेश जी। बेदी साहब ने कहा है कि किसी भी ऐरे गैरे नत्थू खैरे से उपन्यास नहीं लिखवाना है। योगेश मित्तल से बात कर लो। वही मेरे उपन्यास लिखेगा तो छापना, नहीं तो जब भी मुझे फुरसत होगी, तब दूंगा, तभी छापना।" 

“पर मेरे लिए तो यह बहुत मुश्किल है।"- मैंने कहा - "हाथ में कई पब्लिशर्स का काम है। टाइम निकालना इम्पासिबिल है।"

“योगेश जी, आपके लिए कुछ भी इम्पासिबिल नहीं है। और मुझे तो आप मना कर ही नहीं सकते। आपके भरोसे ही मैंने बेदी साहब को कापीराइट के लिए बहुत मोटी रकम दी है। शायद आप भूल गये हों तो आपको याद दिला दूँ - मेरठ में पहला `ब्रेक` मैंने ही आपको दिया था। आपको एडवांस भी दिया था, जबकि मैं आपको मैं जानता भी नहीं था। आपको एडवांस चाहिये तो मैं अब भी देने को तैयार हूँ, पर आपकी मनाही स्वीकार नहीं की जायेगी।"- कहते-कहते विपिन जैन ने दो सौ रूपये निकाले और उन्हें लम्बाई में आधा मोड़ते हुए मेरी ओर बढ़ा दिये। 

आती हुई लक्ष्मी देख, योगेश मित्तल जैसे साधू स्वभाव व्यक्ति का दिल भी एकबारगी लालच से भर गया। पर फिर भी दिखावे के लिए मैंने एक दो बार `नहीं-नहीं` कहा, किन्तु विपिन जैन ने जबरन मेरी मुट्ठी में नोट ठूंसे तो मैंने ठूंसने दिये। 

भाई लोगों, उस समय दो सौ रुपये की रकम छोटी नहीं होती थी और मुझ जैसे आसानी से प्रकाशकों के काबू में आ जाने वाले लेखक को तो कई बार काम करने के बाद भी एकमुश्त पारिश्रमिक नहीं मिलता था और बिना उंगली हिलाये दो सौ रुपये मिल रहे थे तो भला कबूतर शिकारी के जाल में कैसे नहीं फंसता। 

जबरदस्ती मुट्ठी में आये दो सौ रुपये नाचीज़ ने अपनी पैण्ट की अन्दरूनी पाकेट के हवाले किये ही थे कि विपिन जैन ने बाल उपन्यासों के नाम की लिस्ट भी थमा दी और उनमें से आठ नामों पर सही का `टिक् मार्क` करके बड़े प्यार से कहा - "योगेश जी, आप इन-इन नामों की स्क्रिप्ट चालू कर दो और हर कहानी के रोज चार-चार पेज देते जाओ।"

“क्या मतलब...?”- मैं चिल्लाया - "एक साथ सारी कहानी लिखनी हैं....?”

“अब यह मत कहना योगेश जी कि यह आपसे होगा नहीं, गोली आप उसे देना, जो आपको जानता नहीं हो और इतना मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मेरठ शहर में बिमल चटर्जी और योगेश मित्तल को विपिन जैन से ज्यादा कोई नहीं जानता।"

अपनी बात कहते-कहते अपने होठों को गोलाई में सिकोड़ लेना कुर्सी पर आगे को होकर दोनों हाथों की कोहनी टेबल पर टिका, हथेलियों में अपना चेहरा भर लेना, विपिन जैन की खास आदत थी। 

उसी अन्दाज़ में बैठ, चेहरे पर बहुत हल्की मुस्कुराहट लाकर रहस्य भरे अन्दाज़ में विपिन जैन ने इस बार सरगोशी की - "योगेश जी, मुझे परेशान मत करना। मेरा दीवाला मत निकलवाना। मेरा एक आदमी कल से रोज सुबह आपके पास आयेगा रोज मुझे आठों किताबों के चार-चार पेज चाहिए।"

“अजीब दादागिरी है यार। रोज आठों किताबों के चार चार पेज की जगह एक ही किताब के बत्तीस पेज ले लो। बात तो वही है।"- मैंने कहा। 

“बात वही नहीं है योगेश जी, मैंने अलग अलग प्रेस वालों से बात कर रखी है। रोज हर प्रेस में थोड़ा थोड़ा मैटर जायेगा तो सभी प्रेसों में एक साथ किताब तैयार होगी और फिर एक साथ डिस्पैच होगी।"

“समझा...। और हर प्रेस वाले से डीलिंग एक महीने के उधार की होगी।"- मैंने कहा। 

विपिन जैन मुस्कुराये और धीरे से बोले - "और किसी का उधार मोटा नहीं होगा, इसलिये कोई तकादे के लिये सिर पर नहीं आ चढ़ेगा। और एक ही प्रेस में सारी किताबें तैयार करवाऊँ तो एक ही प्रेस वाले का बिल इतना मोटा हो जायेगा कि साला हर दूसरे दिन आकर माँ-बहन करेगा।"

“मगर यार, तुम्हारी इस चालूपन्ती में गरीब लेखक के तो दिमाग का कीमा बन जायेगा। जरा सोचो कि एक कहानी के पात्र का नाम दूसरी में, दूसरी के पात्र का नाम तीसरी में लिखा गया तो क्या होगा?”- मैं झुंझला कर बोला। 

“कुछ नहीं होगा योगेश जी। हमने अपनी कहानियाँ लिखवाने के लिए कोई टंटपूंजिया लेखक नहीं पकड़ा है। योगेश मित्तल को चुना है, जो कहता है - किये गये कामों को सही करने से बेहतर है, पहले से ही सही काम किये जायें।"

दोस्तों, यह मेरा ही डायलॉग था, जो तब भी मैं अक्सर कह बैठता था और आज भी गाहे-बगाहे मेरी जुबान पर आ धमकता है। दरअसल कभी शेक्सपियर की किसी किताब में ऐसा कुछ पढ़ा था, जो मुझे अच्छा लगा और जिन्दगी की सोच बन गया, पर पता नहीं था कि अपनी ही लाठी, अपने सिर आ बजेगी। 

मुझे परेशानी में देख, विपिन जैन ने फिर मुंह खोला - "योगेश जी, आप काम तो शुरू करो, गलती हो भी गई तो सुधार लेंगे। भई, उपन्यास की प्रूफरीडिंग तो खुद मैंने ही करनी है। आप गलती करोगे तो फौरन पकड़ी जायेगी, पर मुझे उम्मीद है - आपसे कोई गलती हो ही नहीं सकती।"

खैर... 

कुलबुलाते नोटों की गर्मी महसूस करते हुए चाय-वाय सुड़कने के बाद, मैं विपिन जैन के आफिस से बाहर निकला और ईश्वरपुरी से आगे मामाजी के बड़े मकान में सड़क की ओर स्थित दुकानों में से एक दुकान `श्याम बुक स्टॉल` पर पहुँचा। श्याम बुक स्टॉल के मालिक श्याम से मेरी यारी-दोस्ती थी। कागज-पेन आदि जरूरत की स्टेशनरी मैं उसी की दुकान से खरीदता था। 

उससे कई दस्ते फुलस्केप पेपर्स के लिए। कुछ पेन भी लिये और ईश्वरपुरी की तरफ पहुँच, अपने कमरे की ओर बढ़ा, लेकिन कम्बख्ती ने अभी मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। 

ईश्वरपुरी के नुक्कड़ पर ही गिरधारी मोटे की चाय और पान की दुकान थी। मैंने उसकी दुकान पर पहुँच, अपना सामान एक कोने में रखा और गिरधारी से सादी पत्ती के दो जोड़ा पान बनाने को कहा। यशपाल वालिया की सोहबत ने मुझे तम्बाकू का पान खाना काफी पहले सिखा दिया था, पर वो किस्सा फिर कभी....। पान लगाने का आर्डर देने के बाद मैं सोचने लगा – `एक चाय भी हलक में उड़ेल लूं, पता नहीं आज खाना खाने का अवसर भी मिले, न मिले।`

और जब मैं यह सोच रहा था, अचानक किसी ने पीछे से मेरी गर्दन पकड़ ली।

“बहुत अच्छे... हमने तुम्हें कंकरखेड़ा में कमरा दिलाया। अपने यहाँ काम दिया और तुम रातोंरात कंकरखेड़ा छोड़ यहाँ डाकुओं की बस्ती में आ बसे। वाह कलाकार, यह भी नहीं सोचा कि तुम्हारे बिना मेरा सारा काम रुक रहा होगा। नुक्सान हो रहा होगा।"- यह सतीश जैन थे, मेरठ में जगत मामा के नाम से मशहूर, उस समय लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के स्वामी। 

“डाकुओं की बस्ती किसे कह रहे हो भाई, यहाँ तो सब तुम्हारे रिश्तेदार हैं - साले और भांजे-भांजी।"- मैंने कहा। 

“रिश्तेदारी गई तेल लेने। बिजनेस में कोई रिश्तेदार नहीं होता। यहाँ ईश्वरपुरी वालों को पता चल गया कि योगेश मित्तल `मामा` का राइटर है तो तुम्हें तोड़ने के लिए यहीं कमरा भी दे दिया। काम भी दे रहे हैं कि योगेश मित्तल लक्ष्मी पॉकेट बुक्स जा ही नहीं सके। यह सरासर डकैती ही तो है। मेरी चीज़ पर डोरे डालना रिश्तेदारों का काम होता है।"

“मेरा चीज़....मेरा राइटर...।" - मैं बुदबुदाया। मेरे होंठों से हंसी का गुब्बारा फूटने को हुआ। मैंने लक्ष्मी पॉकेट बुक्स की चार किताबों में दो-दो फार्म क्या बढ़ा दिये, मैं उन्हीं की चीज़ उन्हीं का राइटर हो गया। मुझ पर लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के नाम का ठप्पा लग गया। दूसरे शब्दों में, मैं लक्ष्मी पॉकेट बुक्स की प्रापर्टी हो गया था। 

मेरी हंसी और मेरे व्यंग को अनदेखा करते हुए, मेरी गर्दन पर से हाथ हटा सतीश जैन थोड़ा नर्म पड़े - "आओ, तुम्हें तुम्हारी जीजी के यहाँ घुमा लायें।"

“यार, वहाँ का रास्ता मुझे मालूम है और कल ही तो जीजी के यहाँ गया था। आज फुरसत नहीं है। बहुत काम है।" - मैंने चाय पीने का इरादा छोड़ गिरधारी को पान के पैसे दिये। 

वैसे मैं समझ गया था कि सतीश जैन ब्रह्मपुरी स्थित अपने घर से किसी काम से ईश्वरपुरी आये होंगे और संयोग से मुझ पर नज़र पड़ गई और मुझे पकड़ लिया। 

“अच्छा, अभी मैं चलूँ। पांच-छ: दिन में देवीनगर सिस्टर के यहाँ आऊँगा, तभी मिलूँगा।"- सतीश जैन को कुछ ढीला पड़ते देख, मैं बोला तो गुब्बारा फिर से फूट पड़ा -"पांच-छ: दिन...। मज़ाक मत करो यार। मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि मेरे सारे नॉवल तुमने ही लिखने हैं। व्ही. व्हानवी, चंचल, बेगम कानपुरी, सैलानी...। सारे के सारे तुमने ही लिखने हैं। सबके टाइटिल बने हुए हैं।"

मैं एकदम हक्का-बक्का हो उठा और बोला - "चार-चार उपन्यास...। बिल्कुल नहीं लिख पाऊँगा मैं। और व्ही. व्हानवी तो बिल्कुल नहीं लिखूँगा...।"

उन दिनों 'व्ही. व्हानवी' के उपन्यास 'मस्तरामके उपन्यासों का ही दूसरा रूप थे, जिनमें सैक्स और घृणित सामाजिक रिश्तों की कहानियाँ होती थीं। 

“ठीक है...। व्ही. व्हानवी मत लिखना, बाकी सब तो शुरू करो।"-  सतीश जैन ने कहा।

"ठीक है, शुरू कर दूंगा, लेकिन एक हफ्ते बाद...।"- मैंने सतीश जैन को समझाया, लेकिन समझना प्रकाशकों की फितरत में कहाँ होता है, जो सतीश जैन समझते। हम दोनों के बीच बड़ी देर तक `चेमेगोइयां` होती रहीं, आखिर चाय वाले गिरधारी ने ही कह दिया - "यूँ खड़े खड़े ही चटर-पटर करते रहोगे। थोड़ी देर बैठ जाओ।"

गिरधारी की दुकान के सामने पड़ी मरियल सी बेंच उस समय खाली थी, लेकिन सतीश जैन एक नज़र उस बेंच पर डाल बोले - "गिरधारी ठीक कह रहा है, चलो, तुम्हारे कमरे पर चलते हैं। हम भी तो देखें, कहाँ कबाड़खाने में कमरा लिया है।"

सतीश जैन को अपने कमरे तक ले जाने का मेरा कतई मूड नहीं था, पर सिर पर सवार मुसीबत से छुटकारा पाना भी सम्भव नहीं था, मरता क्या न करता। 

गिरधारी से पान के बंधे हुए जोड़े लिये और साइड में रखा अपना सामान उठाया व कदम आगे बढ़ा दिये। `हमारे मोहसिन, हमारे अज़ीज़` सतीश जैन हमारे साथ साथ हो लिये।

कमरे में पहुँच वह मेरे पलंग पर ही ऐसे पसर गये, मानों कयामत तक उठने का इरादा ही न हो। 

और फिर सतीश जैन के द्वारा मेरे साथ मान-मनौव्वल का लम्बा प्रहसन स्टार्ट हुआ और अन्ततः सतीश जैन ने मुझे इस बात के लिए तैयार कर लिया कि मैं उनके तीन छप चुके टाइटिल्स पर उपन्यास लिखना आरम्भ कर दूं और तीनों उपन्यासों के दो-दो तीन-तीन पेज़ रोज़ लिखकर तैयार रखूँ, रोज़ शाम को उनका बन्दा आकर मुझसे पेज ले जायेगा। 

वे तीन उपन्यास थे - उपन्यासकार के रूप में बेगम कानपुरी लेखिका का 'बेवफा', उपन्यास लेखिका चंचल का 'तुम्हारे लिए' और उपन्यासकार सैलानी का 'प्रेम का खिलाड़ी' 

दोस्तों, किसी अच्छे भले इन्सान की रेल कैसे बनती है, तब आप मेरे करीब होते तो देखते। मगर उस समय भी मेरा हाल-बेहाल देखा भी तो तीनों रेल बनाने वालों ने ही देखा। और वे तीन थे - सुशील जैन, विपिन जैन व सतीश जैन। 

अलबत्ता सुशील जैन का उसमें इतना ही दखल था कि सबसे पहले उन्होंने ही मुझे रोज़ दो-तीन पेज का मैटर देते रहने को कहा था, किन्तु उनके लिए उस समय मुझे एक ही उपन्यास लिखना था - `कैप्टेन दिलीप` का `अधजली लाश`।

जबकि विपिन जैन के आठ बाल उपन्यास और सतीश जैन के तीन उपन्यासों का रोज़ कम से कम दो-दो पेज का मैटर लिखना था, किन्तु वो दो पेज उपन्यास के दो पेज नहीं थे, योगेश मित्तल के लिखे दो पेज होते थे और उन में से एक-एक पेज में पैंसठ से सत्तर लाइन होतीं थीं तथा एक लाइन में बीस से बाइस तेइस शब्द। 

डायलॉगबाजी वाली लाइनों में जरूर कम मैटर होता था, किन्तु तब भी लिखे हुए एक पेज में सत्ताइस लाइनों से तीन-सवा तीन पेज बन ही जाते थे और दो पेज का मतलब था - उपन्यास के लगभग सात पेज।

मेरी ज़िन्दगी का वह सबसे भयानक कहिये या यादगार, लेकिन बड़ा ही खतरनाक दौर था। 

एक ही वक़्त में मैं एक साथ बारह उपन्यासों में दो-दो तीन-तीन पेजों का मैटर लिख रहा था। इसके लिए मुझे अपनी डायरी में हर उपन्यास का नाम सबसे ऊपर लिखकर नीचे उसमें रखे गये पात्रों के नाम लिखने होते थे। हर उपन्यास की शुरुआत के साथ ही उस उपन्यास का पेज बनाया गया। बारह उपन्यासों के कुल बारह पेज तैयार हुए और जब जिस उपन्यास के पेज लिखे जाते, डायरी में उस उपन्यास के पन्ने को खोलकर रखा जाता। 

मैं रात-रात भर जागकर भी लिखता। 

सुबह छ: सात बजे के करीब हरीनगर स्थित रामाकान्त मामाजी के घर जाता, वहीं फ्रेश होता, वहीं नहाता, वहीं चन्द्रावल मामीजी के हाथ का बना नाश्ता करता और फिर वहीं दो-ढाई घंटे की डटकर नींद लेता। सोने से पहले मामीजी को अपने उठने का समय बताकर कह देता था कि यदि मैं अपने आप न उठूं तो मुझे झंझोड़कर जगा दें, लेकिन जगा जरूर दें। 

पर हमेशा मैं स्वयं ही समय से जाग जाता था। अगले पन्द्रह बीस दिनों में महज़ दो तीन बार ही ऐसा हुआ, जब मामीजी को मुझे जगाना पड़ा। दोपहर का खाना खाने के लिए लगभग तीन बजे के करीब मैं मामीजी के यहाँ पहुँचता और खाना खाकर वापस कमरे पर लौट जाता। मामीजी और मेरी सारी की सारी ममेरी बहनें मुझे रोज़ टोकतीं कि भइया, खाना खाने के लिए तो टाइम से आ जाया करो, पर मैंने अपनी सारी मजबूरी कहिये या कहानी मामीजी और बहनों को बता दी थी, इसलिए वे भी मेरे साथ पूरा सहयोग करती रहीं। रात का खाना खाने की उन दिनों मैंने पूरी छुट्टी रखी, लेकिन अपने कमरे पर ग्लुकोज के बिस्कुट के पैकेट अवश्य हर रोज़ ले आता था, लिखते- लिखते कभी कभी एक बिस्कुट मुंह में डाला और चबा डाला। कभी बिस्कुट दांतों में चिपक जाता तो काम में रुकावट डाले बिना, देर तक जुगाली करता रहता, पर उंगली दांत की तरफ कभी नहीं ले जाता। 

बीच में एक दिन निकाल कर, मैंने रायल पॉकेट बुक्स के दोनों उपन्यासों में मैटर बढ़ाने का काम भी पूरा किया। रायल पॉकेट बुक्स के स्वामी मेरे मकान मालिक भी थे, पर पारिश्रमिक देने में उन्होंने जरा भी देरी नहीं की। 

खैर, खरामा-खरामा मेरे जीवन का वह सबसे खराब दौर खत्म हुआ। विपिन जैन के बाल पाकेट बुक्स का काम सबसे पहले खत्म हुआ, क्योंकि उनमें एक एक उपन्यास में पांच-छ: फार्म से ज्यादा नहीं लिखने थे, लेकिन अधजली लाश और लक्ष्मी पाकेट बुक्स के उपन्यासों में कुछ ज्यादा वक़्त लगा। 

तब मुझे खुद पर भरोसा नहीं था कि सब उपन्यास ठीक-ठाक लिखे जायेंगे, लेकिन मुसीबत का वक़्त टल गया तो जाना कि मैंने अपने दिमाग से जितना भी भूसा निकाला था, सब ठीक ठाक कहानी के रूप में इज्जत बख्श गया। 

सच कहूँ तो मेरठ में उन बीस दिनों में मेरा हाल, जो बदहाल हुआ था, उसकी वजह से मैंने मन ही मन सोच लिया था कि अब की दिल्ली गया तो जल्दी वापस मेरठ नहीं आऊँगा। 

सबसे आखिर में लक्ष्मी पॉकेट बुक्स में लेखिका चंचल के नाम से छपने वाला उपन्यास 'तुम्हारे लिए' समाप्त हुआ। अब मुझे तीनों प्रकाशकों से अपना पूरा पारिश्रमिक लेना था। 

लेकिन उसके लिए प्रकाशकों के यहाँ जाना भी मजबूरी थी। 

अपना-अपना मैटर तो तीनों ही प्रकाशक अपना आदमी भेजकर मंगवाते रहे थे। 

सभी उपन्यासों का काम निपटाने के बाद, अगले दिन मामाजी के यहाँ मैं सुबह का बिस्तर पर गिरा, दोपहर तक जमकर सोया। 

दोपहर खाने के वक़्त मामीजी ने झिंझोड़कर जगाया तो जागा। फिर खाने के बाद सोचा - पहले सुशील जैन से पारिश्रमिक वसूल लूं, फिर एक चक्कर तुलसी पॉकेट बुक्स का लगा आऊँ। 

पर सोचा हुआ, सोचा ही रह गया। ईश्वरपुरी में ही वेद प्रकाश शर्मा सुरेश जैन के मकान के समीप मिल गये। बोले - "कहाँ गायब था, मुझसे वादा करके मिलने भी नहीं आया।"

“नहीं यार, वादा तो नहीं किया था।" मैंने कहा - "हाँ, आने को बोला जरूर था।"

“तो वादा और किसे कहवैं हैं?” -वेद भाई एकदम मेरठिया टोन में आ गये।

“आज इधर कैसे आ गये?” -मैंने बात का रुख पलटा। 

“क्यों...? मेरे यहाँ आने पर मनाही है क्या? सालों से यहीं आना-जाना, उठना-बैठना रहा है। एकदम से छूट जायेगा क्या?” 

“नहीं यार, मेरा मतलब यह नहीं था।।" - मैंने कहा। 

“तो क्या मतलब था तेरा?”- बातों के वेद भाई भी खलीफा थे और बाल की खाल खींचने के बेहतरीन उस्ताद। मेरे जैसे नौसिखिये का उनके सामने टिक पाना तो मुश्किल ही था, इसलिए थोड़ा और ज्यादा विनम्र होकर बोला - "मेरा मतलब है, आये हो तो किसी काम से ही आये होगे।"

“क्यों...? यह क्या मेरी जन्मपत्री में लिखा है कि मैं किसी काम से ही कहीं आ जा सकता हूँ। सुरेश जी मेरे बहुत पुराने दोस्त हैं। उनसे मिलने तो मैं हज़ार बार बिना काम के भी आ सकूँ हूँ।" - वेद भाई फिर मेरठिया टोन में आ गये। मुझे कोई जवाब या सवाल नहीं सूझा तो हंसी आ गई और मेरा दायाँ हाथ अपने बालों की खूबसूरती को सहलाने लगा। 

उन दिनों मेरे बाल बहुत खूबसूरत और लम्बे-लम्बे थे। बाबकट महिलाओं के बालों की तरह कन्धे तक झूलते थे और दाढ़ी भी माशाअल्लाह आज के बाबा रामदेव से तो बेहतरीन ही थी। 

 

मुझे खामोश देख या यूँ कहिये कि चित्त हुआ देख, वेद भाई का स्वर सिम्पल-सरल हो उठा, बोले - "सुरेश जी से कुछ खास बात करने आया था, बातचीत करके, अब तो मैं वापस जा रहा हूँ। चले क्या... मेरे साथ?”

“चलो...।"- हर वक़्त यारों के हर कदम में साथ देने की फितरत के तहत, मेरे मुंह से न चाहते हुए भी निकल ही गया। 

“आ फिर...।" वेद भाई के कदम ईश्वरपुरी से बाहर की ओर बढ़ गये और मैं जिन कदमों से गंगा पॉकेट बुक्स में सुशील जैन जी से मिलने की हुड़क में ईश्वरपुरी आया था, उन्हीं कदमों से गंगा पाकेट बुक्स से महज़ बीस कदम दूर रहते, वापस पलट गया। 

वेद भाई उस दिन कार से नहीं आये थे। बाहर मुख्य सड़क पर आ उन्होंने एक रिक्शा रोका। रिक्शे वाले से शास्त्रीनगर चलने की बात की और फिर मुझसे कहा- "बैठ...।"

मेरे बैठने के बाद वह भी समीप बैठे तो मैंने बातों का रुख प्रकाशन की बातों पर घुमा दिया। बोला - "अब सुरेश जी से अलग होने के बाद तो तुम नये लेखक भी खड़े कर सकते हो।"

“खड़े तो कर दें, पर यार, नये लेखक हैं कहाँ और जो हैं, उनमें दम कहाँ है? जिसे छापना हो, उसमें कुछ तो ऐसा होना चाहिए कि लगे इसे तो छापना ही छापना है।"

“हाँ, ये  बात तो है। पर दो तीन लेखक तो तुम्हें सैट करने ही होंगे। प्रकाशक के तौर पर सिर्फ अपनी ही किताब थोड़े ही छापोगे।"

“नहीं, छापना तो औरों को भी पड़ेगा। छ: किताबों से कम का सैट तो निकाला ही नहीं जा सकता।"- वेद भाई गम्भीरतापूर्वक बोले। 

“वही तो मैं पूछ रहा हूँ। ट्रेडमार्क लेखकों और नकली उपन्यासों के तुम हमेशा खिलाफ रहे हो तो अब क्या, कुछ लेखकों को उनके नाम और फोटो समेत छापोगे?"

जवाब देने से पहले ही वेद के चेहरे पर गहरी सोच के बादल घुमड़ आये। 

रिक्शा तब तक हापुड़ अड्डे के चौक पर आ पहुँचा था।

शेष आगामी अंक में... 

प्रस्तुति- योगेश मित्तल

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