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मंगलवार, 9 जून 2020

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की- 02

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 02
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      पुरानी यादें कभी सिलसिलेवार क्रम से याद नहीं आतीं। अक्सर ऐसा होता है, पहले की कोई बात बाद में और बाद की कोई बात पहले - याद आ जाती है तो लिखने में भी ऐसा ही होना निश्चित है।

       लेकिन आज का हर पाठक लेखक से ज्यादा महान है! उसे लेखक की बकवास पढ़ने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती, जहाँ बेकार की बात नज़र आई, निगाहें चार- पांच -छ: लाइन छोड़ती चली जाती हैं।
     और जब ऐसी किसी हकीकत में हम आगे की घटना पीछे तथा पीछे की आगे कह जाते हैं, पाठक का दिमाग उसे अपने आप दुरुस्त कर लेता है।
आप में से बहुत से लोग सुमन पाकेट बुक्स में रतिमोहन के नाम से सामाजिक उपन्यास लिखने वाले गोविन्द सिंह से अवश्य मिले होंगे। वैसे गोविन्द सिंह, गोविन्द सिंह नाम से भी बहुत छपे हैं! 

      गोविन्द सिंह ने एक बार मुझसे कहा - "पढ़ने वाला लिखने वाले से बहुत ज्यादा अक्लमंद होता है।"

       "क्या बात कह रहे हैं सर...! लिखने वाला तो दिमाग लगाता है! कहानी का ताना-बाना बुन कहानी की कान्टीन्यूटी कायम रखता है! फिर सारे लिंक समेट कर शानदार सा अंत करता है! लिखने वाले का तो खूब दिमाग लगता है तो पढ़ने वाला ज्यादा अक्लमंद कैसे हो सकता है?"

       "ऐसे कि... " पान की पीक थूकते हुए गोविन्द सिंह ने जवाब दिया - "लिखने वाला दो तीन चार महीने या कुछ भी टाइम लगाकर एक सौ दो सौ पेज की किताब लिखता है और पढ़ने वाला, उसे दो घंटे में पढ़कर दस गलतियां निकाल देता है, जो उसके बताने से पहले लिखने वाले को पता ही नहीं होती थीं!"
       गोविन्द सिंह की इस बात का मेरे पास कोई काट न था  न ही कोई जवाब!
       खैर यह सब लिखने का मुख्य कारण यह है कि जो कुछ मैं लिख गया हूँ, अब कुछ घटनाएँ उससे पहले की बताना चाहता हूँ!      मनोज पाकेट बुक्स में भाइयों के बीच बंटवारा एक बेहद खामोश सी घटना थी, जिसकी एकदम किसी को खबर नहीं, जबकि मैं तो उन दिनों मनोज के मुखिया राज कुमार गुप्ता जी और गौरीशंकर गुप्ता जी, दोनों से ही काफी मिक्स अप था।

जब मेरा दोस्त अरुण कुमार शर्मा अचानक मुझे मनोज पाकेट बुक्स में ले गया था, तब मनोज में मेरी पहचान मंझले भाई गौरीशंकर गुप्ता जी से ही हुई थी।

जब तक मनोज पाकेट बुक्स दरीबा कलां की दुकान पर या वकीलपुरे के घर में संचालित रही, मेरी निकटता गौरीशंकर गुप्ता जी से ही रही।

           लेकिन जब मनोज पाकेट बुक्स का आफिस शक्तिनगर के अग्रवाल मार्ग में स्थानान्तरित हुआ, सबसे बड़े भाई राजकुमार गुप्ता का मैं बेहद प्रिय बन गया।
हाँ, प्रिय, क्योंकि वह मुझसे बेहद पर्सनल बात भी कर लेते थे।

लेकिन एक बात थी, बात वह दोस्तों की तरह करते थे, किन्तु बात करते हुए कभी न कभी एक बार ‘बेटा’ जरूर बोल देते थे।

      आज भी यह बात कायम है! लाकडाऊन पीरियड में उनसे कई बार फोन पर बात हुई और मैंने हर बार नोट किया कि पूरे वार्तालाप में कम से कम एक बार उन्होंने योगेश बेटे या बेटा शब्द का प्रयोग अवश्य किया था।

लाकडाऊन पीरियड में जब पिछले दिनों उनका अचानक फोन आया, मुझे जो खुशी हुई बयान से बाहर है।

राज बाबू के पास मेरा नंबर नहीं था।

      उन्होंने बताया कि मेरठ की दुर्गा पॉकेट बुक्स के प्रिय मित्र दीपक जैन जी से उन्हें मेरा नंबर दिया था ! दीपक जैन जी का मैं हार्दिक आभारी हूँ।

खैर, हमारी बात मनोज पाकेट बुक्स के बंटवारे के समय की चल रही थी।

बंटवारे से कुछ दिन पहले मैं मनोज में गया था! वहाँ कुछ संवेदनशील विषयों को लेकर तनाव की स्थिति का मुझे पूरा पता था।

         राज कुमार गुप्ता जी और गौरीशंकर गुप्ता जी के अलावा तब सबसे छोटे विनय कुमार भी मुझसे खुलकर बातें करने लगे थे! दूसरे शब्दों में पब्लिकेशन के कामों के प्रति अब वह भी जिम्मेदार हो गये थे।

          तीनों की हर बात मुझे मालूम थी, किन्तु ……..कुछ बातें इतनी संवेदनशील होती हैं कि उनका जिक्र सम्बंधित लोगों को बुरी तरह हर्ट करता है, इसलिए किसी भी तरह के सच्चे लेखन में लेखक को अपनी भूमिका असीमित नहीं करनी चाहिए और मैं भी इसलिए आगे की घटनाओं पर आता हूँ।

        दरीबा कलां में चांदनी चौक की ओर से जब हम प्रवेश करते हैं तो  पंजाबी पुस्तक भण्डार से बंटवारे के बाद जन्मी डायमंड पाकेट बुक्स, रतन एण्ड कम्पनी, हीरा टी स्टाल के बाद कुछ आगे बायीं ओर एक छोटी सी दुकान थी, जिसमें कभी अखबारी रद्दी का काम करने वाला बेहद महत्वाकांक्षी नौजवान राजकुमार गुप्ता हुआ करता था, किन्तु जब उसने अपने भाई गौरीशंकर गुप्ता के साथ मिलकर, मनोज पाकेट बुक्स का एम्पायर खड़ा कर लिया और दायीं ओर की लाइन में नारंग पुस्तक भण्डार के आगे की  एक बड़ी दुकान ले ली तो राजकुमार गुप्ता की कबाड़ी की दुकान बन्द रहने लगी! 

         पर एक दिन जब मैं उधर से गुजर रहा था, मेरी नज़र बायीं ओर नहीं थी, दायीं ओर गर्ग एण्ड कम्पनी पर थी, कान में आवाज आई - "योगेश, योगेश बेटे...!"

         निगाह घूमी तो अपने सामने राज बाबू अर्थात मनोज पाकेट बुक्स के सर्वेसर्वा राजकुमार गुप्ता एक छोटे काउंटर के पीछे छोटे स्टूल पर बैठे नज़र आये थे और दुकान मनोज पाकेट बुक्स की किताबों से भरी थी! बण्डल के बण्डल रखे थे! काउंटर पर कुछ पत्रिकाएँ तथा वहीं शायद अन्य प्रकाशकों का माल भी था।
मैं राज बाबू को देख, चकित रह गया।
"भाई साहब, आप यहाँ...?" मैं बोला तो राज बाबू ने अपना हाथ बढ़ाया! मुझसे हाथ मिलाया भी, फिर हाथ पकड़ ऊपर खींचते हुए बोले- "आ जा, मै तुझे ही याद कर रहा था! बैठ..।"

मैं दुकान पर नज़र दौड़ा ही रहा था कि वह बोले - "यहीं इसी बण्डल पर बैठ जा!"
दुकान में उस समय दूसरा कोई स्टूल नहीं था! 
मैं राज बाबू के बिल्कुल निकट रखे बण्डल पर बैठ गया और बोला - "आज यहाँ कैसे...?"
राज बाबू फीकेपन से मुस्कराये और बोले - "चाय पियेगा?"
फिर मेरे जवाब से पहले ही आवाज़ दी - "ऐ छोकरे ... सुन... सुन....।"
         सामने ही हीरा टी स्टाल का छोकरा किसी दुकान से चाय के कांच के गिलास और हैंगर वापस लेकर जा रहा था!
"बेटे, दो स्पेशल चाय और दो मट्ठी ले आ।"- राज बाबू ने कहा।
छोकरा सिर हिलाकर आगे बढ़ गया।

      मुझे सब कुछ अटपटा तो लग रहा था, किन्तु क्या पूछूँ, कैसे पूछूँ, कैसे बात शुरू करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था! 
फिर भी मैंने शुरुआत की और कहा - "और सुनाइये! यहाँ कैसे..?"
"कैसे क्या, अपनी दुकान है!  खोल ली।" -राज बाबू ने कहा, मगर फिर एकदम ही फफक पड़े - "सब खतम हो गया!"
उफ...! सेकेण्ड भर में आंसू आ गये थे राज कुमार गुप्ता की आंखों में, मगर मुझसे छुपाने के लिए उन्होंने चेहरा घुमा लिया था।

पर मैं....।
       मेरे सारे जिस्म में एक सर्द लहर दौड़ गई! मैं तुरंत बण्डल पर से नीचे उतर गया और राज बाबू के स्टूल से बिल्कुल सट कर खड़ा हो गया! मेरा हाथ अनायास राज बाबू के कंधे पर चला गया।

"क्या हुआ भाई साहब..?" मैंने पूछा, किन्तु मेरा स्वर भी कांपने लगा था।

"कुछ नहीं!" राज बाबू ने आस्तीन से आँखों में आया पानी पोंछ दिया और बोले - "फिर से गिनती शुरू करनी है! ये बता, तू मेरा साथ देगा न?"

"मैं तो हमेशा आपके साथ हूँ, पर यह कौन सी गिनती शुरू करनी है?"

"जहाँ से चले थे, वहीं आ गये! सब बरबाद हो गया!" राज बाबू ने कहा! एक बार फिर उनकी आँखें गीली हो गईं, किन्तु इस बार उन्होंने मुझसे छिपाने की कोशिश नहीं की!

        दोस्तों, मैंने शायद पहले भी बताया है कि मुझे बचपन से ही रोज की दिनचर्या एक डायरी में लिखने की आदत रही है।
बार-बार मकान बदलने और कुछ किराये के मकानों की छत चूने की वजह से बहुत कुछ भीग जाने की वजह से और कुछ अपनी लापरवाही की वजह से डायरियां नष्ट न हुईं होतीं तो वे मेरे लिए भी किसी खजाने से कम न होती।

        खैर, जब तक सुरक्षित थीं, बार-बार खुद के पढ़ने में भी आती रहीं थीं, इसलिए हुबहू शब्द उकेरने में कहीं कोई दिक्कत नहीं आ रही है!  मैं जो लिख रहा हूँ, नब्बे प्रतिशत शब्द वही हैं और भाव तो शत प्रतिशत वही हैं! 

       राजकुमार गुप्ता उर्फ राज बाबू को मनोज पाकेट बुक्स द्वारा जितना मैं जानता रहा हूँ, मेरे दिल में उनकी छवि, काम लेने के मामले में एक बहुत सख्त बॉस की थी! 
और मेरी इस सोच को बल मिला था, मनोज पाकेट बुक्स में तब काम करने वाले प्रूफरीडर भूपेन्द्र कुमार गुप्ता, एकाउंटेंट नवीन, पैकर मूलखराज आदि बहुत से वर्कर्स की बातों से!

       दरअसल मैं जितने भी प्रकाशकों से वावस्ता रहा, उनके वर्कर्स से भी अधिकांशत मेरे दोस्ताना ताल्लुक रहे हैं और यकीन से कह सकता हूँ कि लेखकों में ऐसा लेखक मैं ही रहा हूँ, जिसे मेरठ और दिल्ली के प्रकाशकों के वर्कर्स ने कई बार चाय पिलाई है।

मेरठ के राधे और जगदीश ने तो कई बार।
कभी किसी भी दुकान पर बैठे वह चाय पी रहे होते तो मुझे देख कर बुला लेते और अपनी चाय में से शेयर कर आधी मुझे पिला देते थे! कभी पूरी भी बनवा लेते थे! 

     वर्कर से व्यक्तिगत पहचान का मेरा सिलसिला कहीं टूटा भी है तो वेद की तुलसी पेपर बुक्स मे, वरन तुलसी पाकेट बुक्स के भी आधे से ज्यादा वर्कर्स मुझे अच्छी तरह जानते रहे हैं।

         खैर, जब तक हीरा टी स्टाल से चाय नहीं आई, राज बाबू धीरे धीरे कुछ कहते रहे! मसलन - "जिस पेड़ को बड़े प्यार से लगाया था, खून-पसीने से सींचा था, जब फल आने का मौसम आया तो पता चला कि वो तो अपना ही नहीं है! उसकी जमीन पर तो मालिकाना हक किसी और ने जता दिया! अपना कुछ भी नहीं रह गया! यहाँ तक कि नाम भी, हालांकि वो तो मेरे अपने बेटे का था!"

        दोस्तों, अगर मेरी डायरियां सुरक्षित होतीं तो मैं आपको बीस से अधिक ऐसे डायलॉग पढ़वाता, जिन्हें सुनकर मैं सोचने लगा था कि कहाँ यह आदमी प्रकाशक बन गया, इसे तो बम्बई ( तब मुम्बई को बम्बई ही कहते थे) जाकर फिल्में लिखनी चाहिए थीं।

एक खास बात और राज बाबू को मै बहुत पहले से पाकेट बुक्स इण्डस्ट्रीज का "राजकपूर" कहा करता था, किन्तु उनकी पीठ पीछे।
         और बहुत सख्त पत्थरदिल इन्सान, किन्तु वह पत्थर उस दिन मेरे सामने रो रहा था! आँखों से आंसू गाल पर बेशक निरन्तर नहीं आ  रहे थे, किन्तु बीच बीच में उन्हें अपना चकाचक सफेद रुमाल आँखों पर लगाना पड़ रहा था।

      उस दिन मनोज पाकेट बुक्स का सख्त बॉस राजकुमार गुप्ता एक बहुत कमजोर, बहुत टूटा हुआ इन्सान लग रहा था, जब तक चाय आई राज बाबू ने अपना दिल खोल कर रख दिया।
"मेरे पास तो कुछ भी नहीं है!.....क्या देंगे..? क्या रखेंगे? भाई जानें! छोटे हैं, झगड़ा थोडे़ ही करूँगा और यकीन है - वो मेरे साथ नाइन्साफी भी नहीं करेंगे! वैसे तो मुझे बहुत प्यार करते हैं! पर अब मेरे साथ तो कोई लेखक भी नहीं है...? बिमल चटर्जी, अशीत चटर्जी तो पहले ही गौरी बाबू के यार हैं! जमील साहब भी मनोज ही लिखेंगे, ज्यादा लिखने की उनकी स्पीड ही नहीं है!"

"तो मनोज नाम तो आपके पास ही रहेगा न?" मैंने पूछा! 
आखिर मनोज उनके पुत्र का नाम था।

"यहीं तो मसला उलझ रहा है! राज बाबू ने कहा - "मैं तो चाहता हूँ कि मनोज राइटर का नाम या फर्म का नाम में से एक वो रख लें, एक मुझे दे दें!"
"तो इसमें मुश्किल क्या है?" मैंने पूछा! 
"मुश्किल ये है कि उनका कहना है मनोज राइटर तो मनोज पाकेट बुक्स का ही रहेगा!"

      मैं खामोश हो गया, तार्किक दृष्टि से मुझे यह सही लगा कि मनोज नाम मनोज पाकेट बुक्स का ही होना चाहिए, किन्तु बंटवारे में किसी पक्ष के साथ अन्याय न हो, इस लिहाज से मेरा दिल कहता था कि राज बाबू को दोनों में से एक नाम "मनोज" तो मिलना ही चाहिए! चाहे प्रकाशन का  चाहे लेखक का।

जैसे ही हीरा टी स्टाल का लड़का चाय मट्ठी लेकर आया, अचानक ही राज बाबू ने मुझसे पूछा - "तू तो मेरा साथ नहीं छोड़ेगा!"
"सवाल ही नहीं होता!" मैंने कहा! 

और उस समय न जाने क्या हुआ कि राज बाबू ने मेरा दांया हाथ थाम, हथेली अपने सिर पर टिका दी और बोले -"खा मेरी कसम!"

         मैं ... जो व्यावहारिक जीवन में कभी कसम नहीं खाता, तुरंत ही बोला -"कसम है भाई साहब, योगेश मित्तल का साथ, आपके साथ ज़िंदगी की  आखिरी सांस तक रहेगा !"  
और मैंने उस समय जो कसम खाई,  आज तक उस कसम पर कायम हूँ! 

हालांकि उस वक़्त मैं एकदम असमंजस की स्थिति में आ गया था, क्योंकि गौरीशंकर गुप्ता जी और विनय कुमार जी से तो अक्सर हंसी-मजाक भी कर लेते थे, जबकि राजकुमार गुप्ता जी के गम्भीर व्यक्तित्व के कारण बहुत खुलकर बात करने के बावजूद एक कांच की दीवार हमारे दरमियान थी! पर मुझे अपनी डिप्लोमैटिक बुद्धि और कूटनीतिक दिमाग पर पूरा भरोसा था कि मैं गौरीशंकर गुप्ता जी और विनय कुमार जी से भी बेहतर सम्बन्ध बनाये रख सकूँगा! 

और फिर राज बाबू ने कसम यह खिलायी थी कि मेरा साथ तो नहीं छोड़ेगा! दूसरों का काम नहीं करूँगा, ऐसी कोई बन्दिश नहीं थी।

      चाय के दौरान राज बाबू ने मुझसे कहा- "हम नये लेखक पकड़ेंगे! बहुत परफेक्ट नहीं भी मिले तो तू है न और जो कुछ तू लिख सकेगा, तुझसे लिखवायेंगे! पर यार तुझे स्पीड बहुत बढ़ानी पड़ेगी!"
बड़े अच्छे माहौल में उस दिन मेरी और राज बाबू की बात चीत खत्म हुई।

       राज बाबू ने मुझसे तीन चार दिन बाद फिर से दरीबे आने का वायदा लिया और तब मैं वहाँ से रुखसत हुआ! उस दिन मैं लगभग दो-ढाई घण्टे राज बाबू के साथ रहा।
और अब तक की तमाम जिंदगी में, मैंने उससे पहले और उसके बाद … कभी भी राज बाबू को वैसा टूटा हुआ, वैसा आहत, वैसा उदास, वैसा इमोशनल नहीं देखा! वह सचमुच बहुत मजबूत इन्सान हैं।

अब वापस आते हैं वेद प्रकाश शर्मा की राज बाबू से मुलाकात करवाने के हिस्से पर! 

उन दिनों मोबाइल नहीं थे! लैण्डलाइन फोन थे, किन्तु न मैंने फोन किया, न राज बाबू ने, ना ही वेद ने मुझे फोन किया! 

       लगभग दो हफ्ते बाद में राज बाबू के आफिस पहुँचा तो राज बाबू ने अपनी गर्दन को बायें से दायें खम देते हुए कहा- "योगेश बेटे, उस रोज तूने बहुत बढ़िया काम किया, वेद जी को यहाँ ले आया, सब बढ़िया रहा! पर  तुझे बुरा तो नहीं लगा ?" 

"बुरा...किसलिए ?"
"वो यार, तेरे को जाने को बोल दिया था ना !"
"अरे....मैं इतनी छोटी छोटी बातों पर दिमाग खराब नहीं करता !"
"अच्छी बात है ! करना भी नहीं चाहिए, अब बोल, क्या खायेगा? तेरा तो मुंह मीठा कराना भी बनता है!"

       उन दिनों पहले कई ऐसे मौके आ चुके थे, जिनसे राज बाबू जानते थे, मुझे जलेबी पसन्द है, इसलिए देशी घी की जलेबियाँ मंगा कर खिलाईं।  राज बाबू पहले भी बहुत बार मुझे जलेबियाँ खिला चुके थे।

     दरीबे में तो दरीबा इंट्री के कोने में बनी दुकान के देशी घी के समोसे और जलेबी राज बाबू ने मुझे कितनी बार खिलाये, गिनती बतानी मुश्किल है ! और वह भी तब जब मेरे कई लेखक दोस्त राज बाबू के बारे में मुझसे भिन्न राय रखते रहे हैं।

       फिर आगे की डिटेल बताई राज बाबू ने कि... "पहले एक उपन्यास पार्ट का छापेंगे और फिर दूसरा और आखिरी पार्ट विशेषांक छापेंगे, और दोनों उपन्यासों का साइज औरों से अलग, कुछ एक्सट्रा लार्ज रखेंगे ! फिर  उसकी धुआँधार पब्लिसिटी करेंगे और तहलका मचा देंगे! और यह सब हम राज पाकेट बुक्स से नहीं, एक नये नाम राजा पाकेट बुक्स से करेंगे!"

और राज बाबू ने वैसा ही किया तथा राजा पाकेट बुक्स के साथ सचमुच तहलका ही मचा दिया! 

        वेद प्रकाश शर्मा का राजा पाकेट बुक्स में पहला उपन्यास शायद "केशव पंडित" था, किन्तु दूसरा "कानून का बेटा"! 
क्या अब भी कुछ बताने की जरूरत है! दस लाख तक बिकने वाला कोई उपन्यास, उससे पहले या बाद में कभी सुनने में आया! 

       मेरा यह मानना कि राज कुमार गुप्ता प्रकाशन जगत के बिगेस्ट शोमैन रहे हैं, आप ही बतायें कि सही है या नहीं! 

बाद में मेरठ जाने पर वेद से मुलाकात हुई तो उसने मुझसे कहा कि "उस रोज़ किस्मत अच्छी थी, जो तुझसे मुलाक़ात हो गयी ! वरना मैंने तो दिल्ली के पब्लिशरों के यहां झांकना भी नहीं था।
शेष- भाग-03

3 टिप्‍पणियां:

  1. सर दिल से कहे रहा हूं । आपका बहुत - बहुत शुक्रिया । आप इतनी मेहनत से नई - नई जानकारी लाते हैं । मुझे पता भी नहीं था। की केशव पंडित उपन्यास राजा पॉकेट बुक्स से छपा था और लोगो द्वारा बहुत पसंद किया गया था ।

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    उत्तर
    1. धन्यवाद भाई।
      पाठक मित्रो के सहयोग से ही ब्लॉग का अस्तित्व है।
      धन्यवाद।

      हटाएं
  2. वेदप्रकाश जी वह उपन्यास लेखक हैं जिन्हे मैंने सबसे पहले और सबसे ज्यादा पढ़ा है। उनके बारे में लिखना और पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। आपके इस सार्थक कार्य के लिए आपका धन्यवाद।

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