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गुरुवार, 2 सितंबर 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा -09

मैं आवारा, एक बंजारा- अशोक कुमार शर्मा
        आत्मकथा, भाग-09   
       
बाद में मैंने मशहूर लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक जी की विमल  सीरीज स्टाइल में एक उपन्यास और लिख डाला, जिसका कि शीर्षक था - 36 करोड़ का हार
यह उपन्यास मेरे पाठकों को बहुत ही ज्यादा पसंद आया और इसी उपन्यास से मेरे उपन्यासों के मुख्य किरदार 'सरदार जगतार सिंह जग्गा' का जन्म हुआ, जिनका कि नाम आगे जाकर काफी मशहूर हुआ। 
       इसका सबूत मेरे पास देश के हर कोने से आए वे हजारों खत है, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित मौजूद है।
यह उपन्यास मेरे नाम और फोटो के साथ प्रकाशित हुआ था और इस उपन्यास के प्रकाशन की दास्तान कुछ यूं है दोस्तों कि इस उपन्यास को लिखने के बाद मैं एक बार फिर दिल्ली और मेरठ के कई प्रकाशको के दफ्तरों में गया, पर इस बार मैं राजा पॉकेट बुक्स के मालिक श्री राजकुमार जी गुप्ता से नहीं मिला, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं मैं उनके रौब और प्रभाव में आकर पहले की तरह ही इस उपन्यास को भी उनके ट्रेडमार्क के तहत प्रकाशित करने की इजाजत नहीं दे दूं ।
       दिल्ली के प्रकाशकों ने एक बार फिर मुझे घास नहीं डाली और यही हाल मेरा मेरठ जाकर भी हुआ।
मैं 'तुलसी पॉकेट बुक्स' जाकर  श्री वेद प्रकाश जी शर्मा और ऋतुराज जी उर्फ सुरेश जैन जी से भी मिला, पर उन्होंने भी मुझे कोई खास तवज्जो नहीं दी।        ये बात यहां लिखकर मैं उन महान लोगों की कोई आलोचना नहीं कर रहा हूँ, बल्कि आपको यह बताना चाह रहा हूं कि हर व्यापार के अपने कुछ नियम और अपनी कुछ मजबूरियां होती है। उन नियमों और मजबूरियों के चलते इंसान कभी - कभी अपने मन की नहीं कर पाते। हो सकता है कि उन दिनों उनके साथ भी ऐसी ही कोई मजबूरी रही होगी।
खैर !
      इस मुलाकात के बाद मैं निराश होकर वापस अपने गांव लौट आया था।
      उन्ही दिनों मुझे अपने बड़े भाई की तरह सम्मान देने वाले प्रमोद पारीक का प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत सत्तर हजार का लोन पास हुआ था।
      जब उसे इस बात का पता चला कि एक बार फिर मैं देहली से निराश होकर लौट आया हूँ, तो उसने मेरी हिम्मत बंधाते हुए कहा कि कोई बात नहीं, अब हम अपनी खुद की पॉकेट बुक्स खोलेंगे और वहां से तुम्हारा उपन्यास प्रकाशित करेंगे।
       यह सुनकर एक बार फिर मुझमें जोश आ गया और मेरी निराशा उसी तरह मेरे मन से भाग गई, जिस तरह शिकारी को देखते ही हिरण भाग जाया करता है।
     चूंकि हम दोनों पॉकेट बुक्स व्यवसाय की ए, बी, सी, डी, भी नहीं जानते थे, इसलिए उस व्यवसाय की ए, बी, सी, डी, जानने के लिए और उपन्यासों का मुद्रण खर्च और उनकी बिक्री का प्रोसीजर मालूम करने के लिए कुछ दिनों पश्चात हम जा पहुंचे देहली।
       वहां बाजार का सर्वे करने पर हमे मालूम चला कि पॉकेट बुक्स खोलना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इस व्यवसाय में अनुभवहीन और कम पूंजीवालों का टिकना नितांत ही असंभव है।
     जिससे भी हमने बात की, सभी ने हमे यही राय दी कि पॉकेट बुक्स खोलकर अपनी जमा पूंजी गंवाने से अच्छा है कि तुम लोग फिर से किसी प्रकाशक के पास जाकर अपने उपन्यास को प्रकाशित करवाने का प्रयास करो।
      तभी मुझे याद आया कि मेरे प्रिय और जनप्रिय लेखक श्री ओम प्रकाश जी शर्मा ने भी किसी समय अपनी पॉकेट बुक्स खोली थी और कई पत्रिकाओं के साथ उस पॉकेट बुक्स से अपने खुद के लिखे उपन्यास भी प्रकाशित किए थे, इसलिए हमे जाकर उनकी राय भी ले लेनी चाहिए।
ये याद आते ही मैं प्रमोद के साथ देहली से मेरठ जा पहुंचा और तब के मशहूर जासूसी उपन्यासकार और मेरे बचपन के बहुत ही अजीज हीरो ओम प्रकाश जी शर्मा से उनके घर जाकर मिला।
       वे बड़े ही प्यार और अपनत्व के भाव से मुझसे मिले और खाने - पीने के लिए भी पूछा।
पर हमने केवल चाय पीना कबूल किया।
हमारी ये मुलाकात करीब एक घंटे तक चली। कुछ उन्होंने अपनी सुनाई, तो कुछ मैंने।
      ये मीटिंग बड़े ही खुशगवार माहौल में चली और उन्होंने अपने जीवन की कई निजी बातें और अपने अनुभव हमारे साथ शेयर किए, पर उन्होंने मेरा उपन्यास प्रकाशित करवाने के सिलसिले में मेरी कोई भी मदद न कर सकने की अपनी मजबूरी जाहिर की और इसके लिए मुझसे माफ़ी मांग ली।
       इससे मैं काफी निराश हुआ, पर मैंने अभी भी अपनी हार नहीं मानी थी। मैंने उनको दृढ़ निश्चय के साथ बता दिया था कि मैं यह उपन्यास अपने नाम और फोटो के साथ प्रकाशित करवा कर ही दम लूंगा। चाहे भविष्य में इसके लिए मुझे अपनी खुद की ही पॉकेट बुक्स क्यों न खोलनी पड़े।
        मेरा ये दृढ़ निश्चय सुनकर उन्होंने तुरंत मुझे प्यार से टोकते हुए कहा कि ऐसी गलती जिंदगी में भूल  कर भी मत करना, क्योंकि प्रकाशन व्यवसाय में तुम्हारा अनुभव अभी जीरो है, इसलिए ये शतरंज का खेल शुरू करते ही तुम शह और मात दोनों एक साथ खा जाओगे।
        बाद में यही बात हमे वेद प्रकाश शर्मा जी की बुआ जी ने भी कहीं, जो संयोगवश हमे अपने प्रेस के दफ्तर मैं मिल गई थी।
      हम उस प्रेस में अपने उपन्यास के मुद्रण की लागत पूछने गए थे। वहां बातों ही बातों में मैंने अपनी पूरी राम कहानी उनको सुना दी और अंत में उनको मैंने बताया कि अपने नाम और फोटो के साथ उपन्यास प्रकाशित करवाना ही मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी तमन्ना है।
        मेरी इस तमन्ना की बात सुनकर उस साफ दिल और भली औरत ने अपना व्यक्तिगत फायदा दरकिनार कर मेरी काफी मदद और हौंसला अफजाई की।
    बातों ही बातों में उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम राजा पॉकेट बुक्स से 'धीरज' नाम के ट्रेडमार्क से प्रकाशित हो चुके हो यह बात तुमने किसी प्रकाशक को बताई या नहीं ?
जवाब में मैंने कहा -  नहीं।
उन्होंने आश्चर्य से पूछा -  पर क्यों ?
मैंने कहा कि यह बात मैं शर्म - संकोच की वजह से किसी भी प्रकाशक को भी नहीं बता सका। और कई प्रकाशकों को बताने का साहस किया भी, तो बताने से पहले ही मै वहां से खाली हाथ टरका दिया गया।
       यह सुनकर वह बोली कि चाहे तुम्हें जबरन ही सही, पर ये बात उन प्रकाशकों को जरूर बतानी चाहिए थी, क्योंकि चाहे ट्रेडमार्क से ही सही, पर तुम छपे तो सही। और वो भी राजा पॉकेट बुक्स जैसे बड़े और दमदार प्रकाशक से, जिनकी प्रकाशन व्यवसाय में बहुत बड़ी धाक है। उनके यहां से प्रकाशित होना किसी लेखक के लिए बहुत बड़ी और गर्व की बात होती है और यह बात सभी प्रकाशक भी जानते हैं कि राजा पॉकेट बुक्स वाले बहुत योग्य और प्रतिभावान लेखक को ही अपने यहां से प्रकाशित होने का मौका देते हैं, पर तुम्हारे पास इस बात का क्या सबूत है कि राजा पॉकेट बुक्स से प्रकाशित 'वतन के आंसू' टाईटल वाला उपन्यास तुमने ही लिखा था ?
मैंने बतौर सबूत उनको बताया कि मेरे और राजा पॉकेट बुक्स के दरमियान हुए एग्रीमेंट की कॉपी अभी भी मेरे पास मौजूद है।
यह सुनकर बुआ जी की आंखों में चमक आ गई और वह दुगुने उत्साह से बोली कि तुम अब उन प्रकाशकों के पास जाओ, जिनके पास तुम अभी तक नहीं गए हो। और अब की बार यह बात तुम उनको जरूर बताना और बतौर सबूत राजा पॉकेट बुक्स और तुम्हारे बीच हुए उस एग्रीमेंट की कॉपी भी जरूर दिखाना, ताकि उनको यकीन आ सके कि  'वतन के आंसू' टाईटल वाला उपन्यास तुमने ही लिखा था। 
मैंने बुआजी के द्वारा दिए गए इस मशवरे के लिए उनका बहुत ही आभार प्रकट किया और प्रमोद के साथ चल पड़ा बाकी बचे अन्य प्रकाशको से मिलने। 
     इस कड़ी में सबसे पहले हम गौरी पॉकेट बुक्स पहुंचे।
वहां पहुंचकर मैंने बुआ जी के मशवरे के मुताबिक सारी बाते उनको एक ही सांस में बता दी थी।
   एक सांस मैं इसलिए, ताकि कहीं मैं ये बात बताने से पहले ही यहां से भगा दिया न जाऊं।
पर उन्होंने मेरी ये बात बहुत ही ध्यान से सुनी और वे मेरे उपन्यास के कुछ पन्ने पढ़ने के बाद मुझे ट्रेडमार्क से प्रकाशित करने के लिए लगभग तैयार भी हो गए, पर उनका ये प्रस्ताव मुझे मंजूर न हुआ।
और मंजूर इसलिए भी नहीं हुआ, क्यों कि मुझे अगर ट्रेडमार्क से ही प्रकाशित होना था, तो राजा पॉकेट बुक्स कौनसी बुरी संस्था थी ? वे भी तो मुझे अच्छे - खासे पैसे देने के लिए तैयार थे, पर मुझे तो ट्रेडमार्क से छपना ही नहीं
था।
वहां बातो ही बातो में मुझे ये भी मालूम चला कि उपन्यास जगत में धूम मचाने वाले केशव पंडित कोई असली लेखक नही, बल्कि वे भारत, सूरज और धीरज की तरह ही सिर्फ एक ट्रेडमार्क है, इस ट्रेडमार्क के नाम से लिखने वाले असली लेखक का नाम राकेश पाठक है, जो कि खतौली के निवासी है।
        प्रकाशक महोदय ने एक बात और आश्चर्यजनक बताई कि जब हम राकेश पाठक के उपन्यास केशव पाठक के नाम से प्रकाशित करते है, तो उनकी बिक्री लाखों तक जा पहुंचती है और जब हम उनके लिखे उपन्यास खुद उनके असली नाम से प्रकाशित करते हैं, तो उनकी बिक्री दस - पंद्रह हजार से ज्यादा नहीं पहुंच पाती, जबकि वे अपने नाम से प्रकाशित होने वाला उपन्यास और भी ज्यादा अच्छा लिखते है।
        मैं समझ गया कि ये सारा खेल एडवरटाइजमेंट के कारण और वेदप्रकाश शर्मा के इसी पात्र के नाम को लेकर लिखे गए मशहूर उपन्यास 'केशव पंडित' के नाम के कारण है, जिसका ये नाम अब पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हो चुका है।
      हालांकि गौरी पॉकेट बुक्स के प्रकाशक महोदय ने बहुत ही प्यार और इज्जत के साथ हमसे बातचीत की थी, पर मेरा उद्देश्य तो अपने नाम और फोटो के साथ मेरा उपन्यास प्रकाशित कराना था, इसलिए मेरा उद्देश्य तो वहां जाकर भी पूरा नहीं हुआ था। उन्होंने लाख मुझे समझाया कि क्या रखा है अपने नाम और फोटो में ? यह आर्थिक युग है, इसलिए   धड़ाधड़ उपन्यास लिखते जाओ, ट्रेडमार्क से छपते जाओ व ढेर सारे पैसे कमाते जाओ और ऐसा ही आजकल बहुत से लेखक कर भी रहे है, इसलिए इस आर्थिक युग में तुम्हे भी ऐसा ही करना चाहिए।
     पर मैं उन्हे कैसे समझता कि मैं इस आर्थिक युग में पैदा जरूर हुआ हूं, पर पैसो से ज्यादा महत्वपूर्ण मेरे लिए मेरे सपने, मेरी भावनाएं, मेरी इच्छाएं और मेरी आकांक्षाएं है, जिनको पूरा करने के लिए मैं कुबेर के ख़ज़ाने को भी ठोकर मार सकता हूँ।
खैर !
      कुल मिलाकर वहां भी बात नहीं बनी और मन ही मन हताशा और निराशा का भाव लिए हुए एक बार फिर प्रमोद के साथ मैं सड़क पर आ गया था।
      प्रमोद ने मेरे मन के भाव शायद पढ़ लिए थे, इसलिए उसने कहा - बहुत अच्छा किया, जो तुमने ट्रेडमार्क से प्रकाशित होने से इंकार कर दिया। अगर तुम ट्रेडमार्क से प्रकाशित होने की हां कर लेते, तो दुनिया में ये कौन जानता कि उस ट्रेडमार्क से लिखनेवाले तुम्हीं हो।
     उसकी बात सुनकर मैंने जवाब दिया - बात तो तुम्हारी ठीक हैं यार, पर कोई प्रकाशक मुझे अपने नाम और फोटो के साथ छापने के लिए तैयार भी तो नहीं है।
अरे, चिंता मत करो। इतनी बड़ी दुनिया में कोई न कोई तो ऐसा जरूर होगा, जो तुम्हे तुम्हारे नाम और फोटो के साथ छापने के लिए तैयार हो जाएगा।
"अरे, पर वो कोई है कहां ?"- मैंने झुंझलाकर पूछा ।
उसने दार्शनिको की तरह से जवाब दिया - "वहां, जहां तुम अब तक नहीं पहुंच पाए हो।"
"पर मैं तो मेरी जानकारी मैं हर प्रकाशक के पास जा चुका हूँ।"- मैंने कुछ पल सोचने के बाद जवाब दिया।
    फिर भी हो सकता है कोई प्रकाशक बच गया हो, तुम अपनी प्रकाशकों वाली लिस्ट निकालो और उसमें ध्यानपूर्वक देखो कि उनमें से कौनसा प्रकाशक ऐसा है, जिसके पास तुम अभी तक नहीं पहुंचे सके हो।
मुझे ऐसा प्रकाशक मिलने की उम्मीद तो नहीं थी, पर उसकी संतुष्टि के लिए मैंने अपने प्रकाशकों के एड्रेस वाली अपनी लिस्ट निकाली और उसमें ध्यानपूर्वक उस प्रकाशक का नाम खोजने लगा, जिससे मैंने अभी तक संपर्क नहीं किया था।
और उस लिस्ट में मुझे एक ऐसा नाम मिल भी गया, जिससे मैंने एक बार भी संपर्क नहीं किया  था और वो नाम था - 'राधा पॉकेट बुक्स' का।
ये नाम मैंने प्रमोद को बताया, तो वो खुश होकर बोला - "मैंने कहा था न कि ढूंढने पर तुम्हें कोई न कोई ऐसे प्रकाशक का नाम जरूर मिल जाएगा, जिससे तुमने अभी तक संपर्क नहीं किया है। चलो, अब हम राधा पॉकेट बुक्स चलते हैं।"
मैंने निराश और आशंकित स्वर में कहा - "अगर उन्होंने भी इंकार कर दिया तो ?"
"अरे, इतना निराश क्यों होता है यार ? अगर उन्होंने भी इंकार कर दिया, तो हमारा पॉकेट बुक्स खोलकर तुम्हारा उपन्यास प्रकाशित करने वाला फैंसला तो अटल है ही, चाहे उसके लिए हमें अपनी गांठ की सारी पूंजी ही क्यों न गंवानी पड़े।"
"वाह ! इसका मतलब तो यही हुआ कि चाहे हमे घर फूंककर ही तमाशा क्यों न देखना पड़े, पर हम तमाशा देखेंगे जरूर। क्यों ? यहीं बात है न ?"
"हो सकता है यही बात हो, पर उस तमाशे को देखकर मजा भी तो खूब आएगा न हम दोनों को, पैसों का क्या है, जिंदगी सलामत रही, तो फिर से कमा लेंगे।"-  उसने हंसकर दार्शनिक अंदाज में मेरी होंसला अफजाई करते हुए कहा।
    मैंने उसकी इस बात का कोई भी जवाब नहीं दिया ।
फिर हम एक रिक्शा पकड़कर रवाना हो गए राधा पॉकेट बुक्स की ओर। मन में कुछ आशा और कुछ निराशा के भाव लिए हुए और साथ ही साथ ऊपरवाले से ये प्रार्थना करते हुए कि हे भगवान ! इस बार सफलता जरूर दिलवा देना, क्यों कि जिसके पास हम जा रहे हैं, वो मेरठ का अंतिम  प्रकाशक है। अगर उसने भी इंकार कर दिया, तो फिर निराश होकर मुझे यहां से गांव वापस लौटना ही पड़ेगा।

आगे क्या हुआ?
  इंतजार कीजिए 'मैं आवारा, इक बनजारा' आत्मकथा के आगामी दसवें भाग का।
मैं आवारा, इक बनजारा -अन्य भाग

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