यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 05
========================
वेद जी ने 'विजय और केशव पंडित' का प्रूफ पढ़ा
फार्म ओम जी की ओर बढ़ा दिया और 'शमा' काटकर 'समा' किये गये शब्द को दिखाकर बोले - "आप यह
बताइये, इसमें क्या
सही है? यहाँ 'शमा' आना चाहिए या 'समा'...?"
"समा आयेगा...!" -ओम जी ने सेकेण्ड की भी देरी किये बिना, मेरे द्वारा की गई
करेक्शन स्वरूप लिखे गये 'समा' शब्द पर उंगली रख, तुरन्त ही
जवाब दिया।
अगले ही पल जो हुआ, वह अप्रत्याशित था।
एक झटके से वेद जी कुर्सी से उठे और टेबल पर आगे की
ओर, मेरी तरफ
झुकते हुए, उन्होंने अपना लम्बा हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया तथा मेरे सुकड़े और कोहनी से मुड़े
हाथ को एकदम थाम, खींच कर तेजी से हिला दिया, फिर एक गोल्डन
जुबली मुस्कान मेरे चेहरे पर फेंकते हुए बोले -"फिर तो बहुत अच्छा हुआ, मैंने तेरे से
प्रूफ पढ़वा लिये, वरना ख्वामखाह गलती रह जाती!"
सुरेश जी गर्दन हिलाकर मुस्कुराये। उस समय बोले कुछ
नहीं। हालांकि बाद में ओम जी और मेरे साथ ढेरों बातों में वह भी खुलकर शामिल हुए।
दोस्तों, कुछ समझे...?
उसके बाद कई बार ऐसा हुआ, जब भी मैं तुलसी पाकेट बुक्स के ऑफिस में गया, वेद जी के पास यदि अपने किसी उपन्यास के प्रूफ होते तो मुझे रीडिंग के लिये दे देते और मेरी लगाई किसी करेक्शन को नकारते नहीं थे, बल्कि जब मैं पूरा फार्म पढ़ चुकता, पूछते - "सही है स्टोरी...?"
फिर मेरठ में रहते हुए मुझे कई लोगों से जानकारी मिली कि वेद भाई का घर बन रहा है, किन्तु मैंने वेद भाई से कभी कोई सवाल नहीं किया। पर एक दिन वह संयोग भी आया, जब वेद भाई मुझे डी. एन. कालेज के सामने मधुर इन्वेस्टमेंट और कनारा बैंक के ऊपर स्थित तुलसी पाकेट बुक्स के ऑफिस से चलते हुए मुझे अपने साथ शास्त्रीनगर ले गये।
उससे पहले शास्त्रीनगर एक बार परशुराम शर्मा जी के घर तथा एक बार सुरेश श्रीवास्तव जी के यहाँ गया था, जो कि सुरेश इन्दुसुत नाम से पंडिताई करने लगे थे, पर आज जो लोग मेरी अच्छी याद्दाश्त की तारीफ करते हैं, उन्हें बता दूँ कि रास्ते याद रखने के मामले में, मैं बहुत फिसड्डी हूँ।
वेद भाई के साथ पहले तो मुझे समझ में ही नहीं आया कि मैं कहाँ आ गया हूँ ।ये किसकी निर्माणाधीन कोठी में वेद भाई मुझे ले आये हैं!
"यह कौन सी जगह है?"- मैंने वेद भाई से पूछा।
"शास्त्री नगर...!" -वेद भाई ने कहा।
"और यह खण्डहर किसका है?"
"खण्डहर लग रहा है...?"
"मज़ाक कर रहा हूँ...!" मैंने कहा - "किसकी कोठी है?"
"अपनी ही है...!"- वेद ने कहा।फिर पहले ग्राउण्ड फ्लोर, फिर चौड़ी सीढ़ियों के रास्ते ऊपरी मंजिल दिखाई। कोठी का एक बाथरूम देखकर मुझे फिर मज़ाक सूझा। बाथरूम में एक बाथटब भी दिखाई दे रहा था और अच्छा-खासा कमरे जैसा बड़ा था।
"यह बाथरूम है...?"- मैंने सिर खुजाते हुए मसखरे अन्दाज़ में पूछा।
"अभी तक तो बाथरूम ही है!" -वेद ने कहा -"कोठी तैयार होते-होते बदल जाये तो पता नहीं!"
"अच्छा, सच-सच बता, यह कोठी रहने के लिए बनवा रहा है या यहाँ कोई फिल्म-विल्म बनानी है?"
"फिल्म भी बना लेंगे...!"- मेरे सवाल की सी मस्ती में वेद ने जवाब दिया - "यार-दोस्तों का साथ बना रहना चाहिए!"
जिन लोगों ने मेरठ के शास्त्री नगर में उन दिनों वेद प्रकाश शर्मा की वह कोठी देखी है, उन्हें याद होगा कि कोठी का जितना कवर्ड एरिया था, लगभग उतना ही ओपन एरिया भी था, जहाँ आरम्भ में खूबसूरत घास और कुछ पौधे थे। बाद में वेद जब उस कोठी में रहने लगे, तब वहाँ तरतीब से बहुत सारे पौधे लगवाये और सुन्दर क्यारियाँ तैयार करवाईं।
तुलसी पाकेट बुक्स में बंटवारे के बाद, जब वेद भाई ने तुलसी पेपर बुक्स स्थापित की तो पहले उसी कोठी के दायें पोर्शन में तुलसी पेपर बुक्स का ऑफिस बनाया ।बाद में बगल का प्लाट भी लेकर, ऑफिस उस में शिफ्ट कर दिया गया था, किन्तु वह सब बाद की बातें हैं।
वेद की कोठी जब तैयार हो गई थी, तब वहाँ एक फंक्शन भी रखा गया था। मुझे याद नहीं गृहप्रवेश का था या किसी के जन्मदिन का, लेकिन तब एक बड़े और भयानक अन्दाज़ वाले खूबसूरत कुत्ते के भी वेद भाई की कोठी में दर्शन हुए।
अमूमन मैं कुत्तों से डरता नहीं था, लेकिन जब पहली बार उनकी कोठी में कुत्ता देखा, थोड़ा डर लगा। उस कुत्ते का भौंकना और गुर्राना डराने वाला था।
(शेष फिर)
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें