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सोमवार, 6 सितंबर 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 10

 मैं आवार, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 10

अशोक कुमार शर्मा जी की आत्मकथा `मैं आवारा, इक बनजारा` का दसवां और अतिंम अंक।

जब हम `राधा पॉकेट बुक्स` पहुंचे, तो हमारी मुलाकात शायद उस पॉकेट बुक्स के मालिक मनेष जैन जी के छोटे भाई से हुई थी, जिनका कि नाम मैं नहीं जानता।

क्योंकि उनका नाम पूछने कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई थी।

वहां मशहूर उपन्यासकार और मेरे बचपन के हीरो श्री परशुराम जी शर्मा पहले से ही मौजूद थे, जो उस वक्त मनेष जैन के छोटे भाई से `बालाजी स्टूडियो` की मालकिन और मशहूर हीरो रह चुके जितेंद्र की सुपुत्री एकता कपूर के सीरियलों की बात कर रहे थे । 

उनकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा कि किसी न किसी रूप में  परशुराम जी शर्मा का फिल्मी लाइन में भी दखल है। वैसे वह उन दिनों तुलसी पॉकेट बुक्स से निकलने वाली पत्रिका तुलसी कहानियों के संपादक थे। मैंने बतौर संपादक उनका नाम तुलसी कहानियों में पढ़ा था। उनकी बातों से मुझे आगे जाकर यह भी पता चला कि प्रसिद्ध सामाजिक उपन्यासकार श्री प्रेम बाजपेई का निधन कुछ दिनों पहले हो चुका है और उनके सुपुत्र फिल्म लाइन में जाने का इरादा रखते हैं। 

प्रेम बाजपेई के निधन की खबर सुनकर मुझे बहुत गहरा धक्का लगा, क्योंकि मैं उस महान हस्ती का भी नियमित पाठक था और उनके उपन्यास मुझे बहुत ही अच्छे लगते थे।

पर उस दुख के साथ - साथ खुशी इस बात की थी कि अपने चहेते और लोकप्रिय लेखक श्री परशुराम जी शर्मा को, जिनकी अब तक मैंने सिर्फ उपन्यासों पर छपी हुई फोटो ही देखी थी, आज साक्षात देख भी लिया।

मैंने ये कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि अचानक उनसे यूं मुलाकात हो जाएगी।

उनका पहनावा बहुत ही शानदार था और वे सचमुच किसी फिल्म के हीरो जैसे लग रहे थे।

मैंने मनेष जैन जी के छोटे भाई  को एक ही सांस में अपना परिचय देते हुए बताया कि मेरा नाम अशोक कुमार शर्मा है और मैं अपना उपन्यास अपने नाम और फोटो के साथ आपकी पॉकेट बुक्स से प्रकाशित करवाना चाहता हूँ।

उन्होंने गौर से मेरी और देखा और फिर गम्भीरता से पूछा कि -पहले कभी कहीं से छपे हो ?

जवाब में मैंने अपने लटकन थैले में से `राजा पॉकेट बुक्स` से प्रकाशित हुआ मेरा पहला उपन्यास `वतन के आंसू` निकाल कर उनकी टेबल पर रख दिया।

उन्होंने उत्सुकता के साथ उस उपन्यास को उलट-पुलट कर देखा और फिर पूछा कि इस पर तो बतौर लेखक `धीरज` का नाम लिखा हुआ है, इस वजह से मैं ये कैसे मान लूं कि यह उपन्यास तुमने ही लिखा है ?

वेदप्रकाश शर्मा जी की बुआजी द्वारा मुझे दी गई सीख के मुताबिक मैंने राजा पॉकेट बुक्स और मेरे दरमियान हुए एग्रीमेंट की कॉपी जल्दी से निकालकर उनके हाथ में थमा दी।

उस एग्रीमेंट को पढ़ने के बाद उनको पुर्णरूप से यकीन आ गया था कि `वतन के आंसू` टाईटल वाला ये उपन्यास किसी धीरज ने नहीं, बल्कि मैंने ही लिखा था।

उसके बाद उन्होंने बीच-बीच में से मेरे उपन्यास `36 करोड़ का हार` की पांडुलिपि बड़े ही ध्यान से पढ़ी और फिर उन्होंने वह पांडुलिपि श्री परशुराम जी शर्मा की ओर बढ़ाते हुए कहा कि जरा पढ़कर बताना तो कि इस पांडुलिपि में कितना दम है ?

फिर परशुराम जी शर्मा मेरी वह पांडुलिपि बड़े ही गौर से बीच - बीच में से पढ़ने लगे।

मैं दम साधे किसी मुलजिम की तरह उनके जजमेंट का इंतजार करता रहा।

करीब पन्द्रह - बीस मिनट तक उस पांडुलिपि को ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद उन्होंने उसको बंद करते हुए प्रशंसा भरे हुए स्वर में जैन साहब से कहा कि बंदे की लेखनी में बहुत ज्यादा दम है, इसलिए तुम इस उपन्यास को प्रकाशित का निर्णय ले सकते हो।

उपन्यास जगत की बहुत बड़ी हस्ती के मुंह से अपनी और अपने उपन्यास की इतनी ज्यादा बड़ाई सुनकर मेरा मन खुशी से झूम उठा और एकाएक ही मेरी घायल हुई आशाओं के जिस्मों पर ढेरों पर उग आए और वे किसी स्वच्छंद पक्षी की तरह नीले आसमान में उड़ान भरने लगी। परशुराम जी शर्मा के मुंह से मेरी लेखनी की बढ़ाई सुनकर जैन साहब मुझसे बोले कि मेरे बड़े भाई साहेब किसी काम से आज दिल्ली गए हुए हैं। इस सिलसिले में अंतिम निर्णय वे ही लेंगे, इसलिए हम पत्र द्वारा बाद में तुम्हे सूचित कर देंगे कि यह उपन्यास हमें प्रकाशित करना है या नहीं।

ये सुनकर मैंने और प्रमोद ने उन दोनों को नमस्कार किया और वहां से रुखसत होकर बाहर निकल आए।

बाहर निकलते ही प्रमोद ने कहा – “यार, अब भी क्यों तेरा मुंह लटका हुआ है ? परशुराम जी की सिफारिश के बाद अब समझलो कि तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी तमन्ना अब जल्दी ही पूरी होने वाली है।”

मैं आशंकित स्वर में बोला – “प... पर यार । मुझे तो यकीन नहीं आ रहा।”

उसने हैरत से पूछा – “क्यों ?

 जवाब में मैंने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा – “वो इसलिए, क्यों कि मेरी किस्मत इतनी अच्छी कहां ? वो साली किसी भिखारी की पतलून की तरह जगह - जगह से फटी हुई जो है।”

“अरे, अपनी फटी हुई किस्मत की चिंता मत करो। मैं जानता हूं कि तुम्हारी लेखनी में बहुत दम है और अब तो परशुराम जी जैसे बड़े और नामचीन लेखक ने भी तुम्हारे लिखे हुए पर अपनी मोहर लगा दी है, इसलिए मैं गारंटी के साथ कहता हूं कि अब तुम्हारे उपन्यास को तुम्हारे नाम और फोटो के साथ प्रकाशित होने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक सकती। अब यूं समझलो कि तुम्हारी वो फटी हुई किस्मत जल्दी ही रेमंड के सूट में बदलने वाली है।”

उसके मुंह से यह सुनकर मुझे भी इस बात पर कुछ - कुछ यकीन आने लगा कि शायद अब मेरी किस्मत पलटने वाली है और जल्दी ही मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी तमन्ना पूरी होने वाली है।

यूं मन की आशाओं और उमंगों की डोर मजबूती से थामे हुए और अपनी खुली हुई आंखों से सुनहरे सपने देखते हुए मैं प्रमोद के साथ ट्रेन के एक जनरल कंपार्टमेंट में बैठकर वापस सीकर लौट आया।

भले ही मुझे अपने मिशन में अभी पूर्ण रूप से कामयाबी नहीं मिली थी, पर एक बात की मुझे पूर्ण संतुष्टि और खुशी थी कि बचपन से लेकर आज तक मैं जिन लेखकों से मुलाकात करने के सपने अपने मन ही मन में संजोता रहा हूं, उनमें से कुछ लेखकों से मिलकर मेरा यह सपना साकार हो गया है।

आदरणीय परशुराम जी को पता नहीं यह छोटी सी मुलाकात अब तक याद है या नहीं, पर यह मुलाकात किसी हिट फिल्म के सीन की तरह मेरे मानस पटल पर आज भी  हू - ब - हू  अंकित है।

खैर...

कुछ दिनों के बाद मुझे श्री मनेष जैन जी का पत्र मिला।

उस पत्र में लिखा हुआ था कि हमने आपका उपन्यास – `36 करोड का हार`  प्रकाशित करने का निर्णय ले लिया है, अतः आप मेरठ आकर हमसे तुरन्त मिले। आदरणीय मनेष जैन जी का यह पत्र पढ़कर उस दिन मैं इतना ज्यादा खुश हुआ था कि उस रोज जैसी खुशी मुझे आज तक भी अपनी जिंदगी में नहीं मिली है। मैं आज भी बहुत शुक्रगुजार हूं आदरणीय मनेष जैन साहेब का, उनके छोटे भाई का और श्री परशुराम जी शर्मा का, जिनकी बदौलत मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना और सबसे बड़ी तमन्ना पूरी हुई थी।

मैं दूसरे ही रोज मेरठ के लिए रवाना हो गया।

वहां जाने के बाद उन्होंने एक स्टूडियो में मेरी एक फोटो खिंचवाई, उपन्यास लिखने के कुछ टिप्स बताएं और अंत में कहा कि उपन्यास प्रकाशित होते ही उसकी 10 प्रतियां आपको डाक द्वारा भेज दी जाएगी।

मैं खुशी-खुशी अपने शहर वापस लौट आया।

करीब 2 महीने बाद मुझे अपने नाम और फोटो के साथ प्रकाशित हुए मेरे प्रथम उपन्यास - `36 करोड़ का हार` की 10 प्रतियां डाक द्वारा प्राप्त हो गई, जिनको देखकर मारे खुशी से मेरी आंखें भर आई और फिर बड़े ही प्यार से मैंने उनको किन्हीं मासूम बच्चों की तरह अपने सीने से लगा लिया और ऊपरवाले को उसकी इस मेहरबानी के लिए मन ही मन धन्यवाद दिया।

फिर यह खबर जब मैंने अपने घरवालों, बाहरवालों, यार - दोस्तों और अपने गांव के बड़े - बुजुर्गों को सुनाई, तो एक बार तो उन बड़े - बुजुर्गों को इस बात पर यकीन ही नहीं आया कि बचपन में आवारों की तरह घूमने वाले और स्कूली पढ़ाई से डरकर उससे कोसों दूर भागने वाले इस छोटे से लड़के ने इतना बड़ा कमाल कर दिया है।

और फिर जब मैंने उनको अपने प्रकाशित हुए उपन्यास  - `36 करोड़ का हार` की खूबसूरत और मनमोहक प्रति दिखाई, तो उस पर लिखा हुआ मेरा नाम पढ़कर और उसके पीछे छपा हुआ मेरा खूबसूरत सा फोटो देखकर उनको यकीन आ गया कि यह उपन्यास मैंने ही लिखा है।

यह यकीन आने के बाद वे सब के सब बहुत ही ज्यादा खुश हो गए।

बाद के दिनों में राधा पॉकेट बुक्स के मालिक मनेष जैन जी ने मेरे और भी कई उपन्यास प्रकाशित किए, जिनकी सूची निम्न है -

           1.           36 करोड़ का हार

           2.           मैं बेटा बंदूक का

           3.           फांसी मांगे बंदूक का बेटा

           4.           जग्गा का कानून

           5.           दिमाग का जादूगर

इन पांच उपन्यासों के बाद मेरे छठवें नंबर के उपन्यास का नाम `100 घंटे मौत के` था, जो मैंने आधा ही लिखा था और आज तक भी पूरा नहीं किया है।

तो दोस्तों, यह थी मेरे लेखन जीवन के संघर्ष की दास्तान।

पर यह दास्तान उस संघर्ष की एक झलक मात्र ही है। अगर मैं पूरा घटनाक्रम और उस वक्त के अपने मनोभाव लिखने लगूं , तो एक मोटा सा उपन्यास तैयार हो सकता है।

बाद में अपनी नौकरी के चलते मुझे पढ़ना - लिखना सब बंद करना पड़ा, क्योंकि अब मेरे पास पहले जितना खाली वक्त नहीं था और जो भी थोड़ा बहुत खाली वक्त बचता था, उसमें मैंने अपनी इस कहानी में पहले बताए मुताबिक फिल्मी गीत, गजलें कव्वालियां और फिल्म स्क्रिप्ट लिखी।

और जिंदगी की एक और तमन्ना पूरी करने के लिए मैं जा पहुंचा मेरे सपनो के शहर मुंबई।

……………….

जैसा कि मैं आपको मेरी इस आत्मकथा में पहले बता चुका हूं  कि मैं जीवन के हर क्षेत्र में आलराऊंडर रहा हूँ और मैंने जीवन में वो सब पाने की थौड़ी - बहुत कोशिश जरूर की है, जिनको पाने का सपना मैंने कभी अपनी खुली आंखों से देखा था।

सबसे पहले मैंने ड्राईवर बनने का सपना देखा था, मेरा वो सपना आधा - अधूरा ही सही, पर पूर्ण हो गया।

मैं आज हर प्रकार की गाड़ी तो नहीं चला सकता, पर मैंने अपनी `क्लासिक` गाड़ी सड़कों पर खूब दौड़ाई है।

दूसरा सपना पुलिसवाला बनने का देखा था, जो कभी साकार न हो सका, पर मैं कई मौकों पर सत्य और इंसाफ की रक्षा के लिए अपने तर्कों के साथ उनसे भिड़ा जरूर हूं, जो शायद मेरे अवचेतन मन में मौजूद एक आदर्श पुलिस वाला बनने की उस अधूरी इच्छा का ही परिणाम है।

तीसरा सपना देखा था पेंटर बनाने का।

मैं इस क्षेत्र में मैं मकबूल फिदा हुसैन तो नहीं बन सका, पर कई स्कूली प्रतियोगिताएं जीतने के साथ - साथ मैंने अपने गांव की की कई शादियों में वॉल पेंटिंग कर अपनी इस हॉबी का भरपूर लुत्फ जरूर उठाया है।

बचपन में `सर सुंदरी और मैना सुंदरी`, `राजा हरिशचंद्र` और  `सुल्ताना डाकू` जैसे कई नाटक देखकर नाटकों में अभिनय करने का सपना देखा था, जो `रूप – बसन्त` नाम के नाटक में `रूप` की और `वीर अभिमन्यु` नाम के नाटक में `श्री कृष्ण` की भूमिका अदा करने के बाद पूरा हो गया।

 

{ संलग्न - श्री कृष्ण की भूमिका में मेरा फोटो }

 

कभी कपिल देव और सुनील गावस्कर की तरह क्रिकेटर बनने का भी सपना  देखा था।

मैं उनकी तरह इंडियन क्रिकेट टीम में तो कभी नहीं खेल सका, पर कॉलेज की टीम और अपने गांव की टीम में खेलकर मैंने ढेरों रन बनाए है और मस्तान शर्मा जैसे कई बड़े दिग्गजों के विकेट जरूर चटकाए है।

किशोर कुमार और मोहम्मद रफी की तरह गायक बनने का भी सपना देखा था, पर वो सपना अपनी एक कैसेट रिकॉर्डिंग के बाद आगे और रियाज व और प्रयास न करने के चलते अधूरा ही रह गया।

फिल्म स्क्रिप्ट्स लिखकर फिल्म रायटर बनने का भी सपना देखा था, पर उस क्षेत्र में भी ज्यादा संघर्ष न कर पाने के चलते मेरे लिए अब भी देहली दूर ही है।

गीत और ग़ज़लें खूब लिखी और वक्त मिलते ही आज भी लिखता हूँ, पर इस क्षेत्र में कामयाबी पाने के लिए मैंने कभी रत्ती भर भी कोशिशें नहीं की ।

बचपन में गुलशन नंदा की तरह उपन्यासकार बनने का भी सपना देखा था, जो बहुत वर्षों तक संघर्ष करने के बाद साकार हो गया।

पर इस सफलता को भी मैं बहुत दिनों तक नहीं पचा सका, क्यों कि वक्त न मिलने के चलते और कामयाबी के बाद उस सपने की कुछ - कुछ चार्मनेस कम हो जाने के चलते मैंने बहुत वर्ष पहले उपन्यास लिखना भी छोड़ दिया।

ये बात दीगर है कि मेरी खुली हुई आंखों द्वारा देखे गए बहुत से सपने साकार नहीं हो सके और मैं उन सपनों के आखिरी छोर पर स्थित मंजिल तक नहीं पहुंच सका, पर मैंने उन मंजिलों तक पहुंचने वाली हर राह पर चलकर उन खूबसूरत राहों का भरपूर आनंद जरूर उठाया है।

कभी - कभी जब मैं अपने जीवन का निष्पक्ष रूप से विश्लेषण करता हूँ, तो पाता हूं कि मैं एक ऐसा आवारा परिंदा हूं, जो नील गगन में कभी इधर, तो कभी उधर, सिर्फ उड़ता ही रहा, सिर्फ उड़ता ही रहा और अपनी जिंदगी में कभी भी एक डाल पर चैन से नहीं बैठ सका।

या मैं एक ऐसा आवारा बंजारा हूँ, जो किसी खानाबदोश की तरह दर कूंचा और दर मंजिल बस, चलता ही रहा, बस, चलता ही रहा और मैं अपनी जिंदगी में कभी भी एक मुकाम पर अपना ठिकाना नहीं बना सका।

और मेरी असफलताओं का राज भी शायद यही है कि मैंने पूरे आसमान को मुट्ठी में करना चाहा, पर मेरी इन कोशिशों की वजह से मेरी मुठ्ठी खुलती चली गई और जो थोड़ा - बहुत आसमान मेरी मुठ्ठी में आया था, वो भी निकलता चला गया।

पर जिंदगी अभी बाकी है, दोस्तो।

और जिंदगी के कई मोड़ भी।

क्यों कि -

जिंदगी इक सफर है सुहाना,

जहां कल क्या हो, किसने जाना।

इसलिए मेरा मानना है कि आशाओं और सपनों की ज्योति हमेशा जलती रहे और जिंदगी की राहों में आए हर एक मुकाम पर हम कुछ ऐसी यादें छोड़ते रहें, ताकि हमारे बाद में इन राहों से होकर गुजरने वाले मुसाफिर हमारे द्वारा छोड़ी हुई उन यादों को देखकर यह जान सके कि हमारे से पहले यहां से होकर जरूर कोई ऐसा अलबेला मुसाफिर गुजरा है, जिसके लिए ये जिंदगी महज एक खुशी भरा सुहाना सफर था। 

जैसा कि इस गाने में कहा गया है।

इक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है,

जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।

जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि जिंदगी में मुझे खुशियों के साथ - साथ बहुत से गम भी मिले है।

मैंने बहुत सी कामयाबियों का मजा उठाने के साथ - साथ बहुत सी नाकामयाबियों का भी दर्द झेला है।

पर मुझे अपनी जिंदगी में मिले उन गमों का और उन नाकामयाबियों का तनिक भी अफसोस नहीं है।

और वो इसलिए, क्यों कि -

मैं जिंदगी की राह पे, गुजरता ही चला गया,

अपने हर गम पे, हंसता ही चला गया।

और इसलिए भी...

क्योंकि ग्लैमर के नील गगन में मैं भले ही पूनम के चांद की तरह पूरा चांद बनकर नहीं चमक सका, पर मैंने भौर का तारा बनकर अपनी कुछ - कुछ रोशनी इस जहां में जरूर बिखेरी है और मेरे लिए बस इतना ही काफी है।

अंत में मैं धन्यवाद दूंगा मेरे उन सभी पाठकों को, जिन्होंने मेरे उपन्यास पढ़कर मुझे हजारों पत्र लिखें और मेरी हौसला अफजाई की।

और धन्यवाद दूंगा आदरणीय गुरप्रीत सिंह जी को, जिन्होंने बिना किसी खुदगर्जी के मेरी इस दास्तान को आप सबको पहुँचाने का सुनहरी मौका दिया।

ऊपर वाले से मेरी यही दुआ है कि वो गुरप्रीत सिंह जी और उनके परिवारवालों को हमेशा खुश रखे और उन सब पर अपनी मेहरबानियां बरसाता रहे।

ऐसी ही मनोकामनाओ और शुभकामनाओं के साथ आप सबको बहुत- बहुत धन्यवाद, दोस्तो।

नमस्कार - जय हिंद

आपका अपना

अशोक कुमार शर्मा (उपन्यास लेखक)

 मु. पो.  - रूपगढ़

 वाया -    कोछोर

 जिला -    सीकर (राजस्थान)

 मो -         9928108646

आत्मकथा के संपूर्ण अंक आप यहां से  पढ सकते हैं।

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 10

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 09

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 08

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 07

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 06

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 05

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 04

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 03

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 02

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 01

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका यह सफर बेहद रोमांचक रहा है और पाठक के रूप में मुझे पढ़ने में भी बहुत आनंद आया। आशा है आप अपने व्यस्त समय से लिखने के लिए वक्त निकाल सकेंगे और उपन्यास भले ही न लिख सकें लेकिन कुछ न कुछ अवश्य लिखते रहेंगे।

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  2. वाह बहुत अच्छा लगा आपकी कहानी पढ़कर फिर कोई नॉवेल लिखें सर 🌹🌹🌹👌

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