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बुधवार, 1 जुलाई 2020

एक थी तुरन

           एक थी तुरन....
किस्सा कुशवाहा कांत जी के प्रेम जीवन का।

लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में रोमांटिक उपन्यासकार के रूप में 'कुशवाहा कांत जी' का नाम खूब चर्चित रहा है। प्रेम रंग में रंगे इनके उपन्यास युवा हृदय की धड़कन होते थे। प्रेम का मार्मिक, स्वच्छंद और हृदय की गहराइयों को छू लेने वाला चित्रण इनके उपन्यासों में खूब होता था, इसलिए इन्हें रोमांटिक उपन्यासकार कहा जाता था।
        कुशवाहा कांत जी के नाम के साथ एक और नाम चर्चित रहा है, वह नाम है 'तुरन'। जिन्होंने ने कुशवाहा कांत के उपन्यास पढे हैं, उनके लिए यह नाम हमेशा रहस्य रहा है।
क्या आपने यह नाम पहले कभी सुना है?
क्या आप तुरन को जानते हैं?

       अगर आपने तुरन का नाम नहीं सुना तो यह आलेख पढें, आपको जान जायेंगे आखिर कौन थी तुरन।
- क्या कुशवाहा कांत तुरन के कारण ही रोमांटिक उपन्यासकार कहलाने लगे थे?
- क्या कुशवाहा कांत तुरन के कारण रोमांटिक उपन्यास लिखते थे?
- क्या एक लेखक की जान तुरन के लिए ही चली गयी? या फिर कोई और कारण था?

अतीत की गर्द के नीचे छिपे किए ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर आज मिलना असंभव है।
काश आज तुरन‌ मिल जाती तो हम पूछते- बताओ तुरन सच क्या है?     क्या कहती तुरन, वह सच बोलती या खामोश हो जाती, वह झूठ बोलती या फिर अपने आँसू बहाती।
काश कहीं तुरन‌ मिल जाती तो हम पूछते 'जलन' उपन्यास में चित्रित वह तुम ही हो ना?
         कुशवाहा कांत को शृंगार, क्रांतिकारी और जासूसी उपन्यासकार का दर्जा दिया जाता है। मगर प्रेम का स्वच्छंद रूप इनके सभी उपन्यासों में अवश्य मिलेगा। वह उपन्यास चाहे क्रांतिकारी हो या फिर जासूसी।
कुशवाहा कांत जी के कुछ उपन्यासों के आरम्भिक पृष्ठ पर एक पंक्ति लिखी मिलती है
                     समर्पित तुरन को 

     यह तुरन कौन थी? यह रहस्य तो खैर कुशवाहा कांत जी के साथ ही चला गया या फिर चंद लोगों की जुबान पर आकर हमेशा के लिए खामोश हो गया, लेकिन कहीं न कहीं यह चर्चा भी सुनने को मिल जाती है की 'तुरन' वह लड़की थी जिसे कुशवाहा कांत जी प्यार करते थे।
       अब 'तुरन' का वास्तविक नाम क्या था या 'तुरन' ही वास्तविक नाम था यह तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन कुशवाहा कांत जी के उपन्यास 'जलन' में तुरन और स्वयं लेखक कुशवाहा कांत जी का वर्णन अवश्य आता है।

  
लेखक 'जलन' उपन्यास में तुरन को एक कहानी सुनाता है, हालांकि सारा उपन्यास उस कहानी पर ही आधुनिक है। तुरन और लेखक का वर्णन तो आरम्भ 'भूमिका' में और कहानी का अंत होने के पश्चात 'उपसंहार' में ही आता है।
एक नजर 'जलन' की भूमिका पर।
भूमिका
"चलिये, भोजन कर लीजिए।"
"भोजन की इच्छा नहीं है।"-मैंने कहा।
" इच्छा क्यों नहीं है? भला इस तरह भी कोई क्रोध करता है? दादी ने जरा सी बात कह दी, बस आप रूठ बैठे।"
"मैं नहीं खाऊंगा।"-मैंने पूर्ववत् हठ किया।
उसके मुँह से एक सर्द आवाज निकली। बोली-" मत खाइये, मैं भी नहीं खाऊंगी।"
"...तुम, तुम भी..?"- मैंने आश्चर्य और हैरानी से चौदह वर्ष की यस बालिका के मुंह की ओर देखा। यह भी कितनी नादान है कि बात-बात में जिद! आखिर इसे मुझसे इतनी ममता क्यों है? यह क्यों मेरे लिए इतनी परेशान रहती है? अभी चार ही दिन हुए, मेरे एक गरीब रिश्तेदार की यह लड़की मेरे घर आई है, और इन चार दिनों में ही उसने मेरी सारी फिक्र अपने ऊपर ले ली है। नाम है उसका 'तोरणवती' मगर लोग उसे 'तुरन' ही कहकर पुकारते हैं। अब तक तो मेरे रूठ जाने पर मनाने वाला कोई न था, मैं दो एक दिन बिना खाये ही रह जाता था, मगर तुरन के आने से मुझे रोज खाना पड़ता है। वह ऐसी हठी लड़की है कि......
यौवन रश्मि द्वारा प्रोद्भासित उसके भोले चेहरे कीऔर मैंने देखा। यह उदास मुँह और गीली आंखें लिए खड़ी थी। मैंने कहा-" मेरे लिए इतना अफसोस क्यों करती हो तुरन, चलो में खाए लेता हूँ।"
                    ...............................
          .....................
..........
मैं उन अभागों व्यक्तियों में से हूँ, जिनके साथ नियति ने गहरा मजाक किया है। अपनी श्रीमती जी ऐसी मिली कि मुझे घर से पूरी उदासीनता हो गई। मैं अभागा लेखक, केवल अपना शरीर लिए कुर्सी पर बैठा बैठा लिखा करता था, परंतु तुरन के आते ही मेरा उजड़ा संसार हरा-भरा हो गया। दिल के बिखरे हुए टुकड़े एकत्रित होकर तुरन की ओर आकर्षित हो गये। हृदय को स्वच्छ प्रेम पाकर शांति मिली।
(अंंश उपन्यास जलन की भूमिका से)
         यह कुछ अंश हमें लेखक और तुरन के विषय में संक्षिप्त जानकारी प्रदान करते हैं। यह जानकारी वास्तविक है या काल्पनिक यह कहना तो खैर संभव नहीं है। लेकिन इतना अवश्य पता चलता है की लेखक के जीवन में किसी तुरन नामक तरुणी का हस्तक्षेप था।
        वह तुरन यही थी या कोई और यह तो खैर नहीं कहा जा सकता। क्योंकि तुरन का इसके अतिरिक्त कहीं वर्णन उन्होंने नहीं किया।
अच्छा आगे इस तुरन का क्या हुआ यह हम 'जलन' उपन्यास के उपसंहार 'भूमिका का अंत' में पढ सकते हैं।
भूमिका का अंत
        कहानी समाप्त कर चुकने पर मैंने तुरन के चेहरे की ओर देखा, उसके गाल आंसुओं से भीगे थे। कहानी सुनकर वह सचमुच रो पड़ी।
मैंने अपने दिल की व्यथा इस कहानी में उंडेल दी।
दूसरे दिन में इलाहाबाद चला गया। सात रोज बाद लौटा, मगर मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी।
तुरन, मेरे दिल की रानी, अपने घर चली गयी थी, मेरे दिल में हमेशा के लिए जलन छोड़कर।
तुरन से आज तक मेरी भेंट न हुई। मैं उसके लिए दिन-रात तड़फता हूँ। मुझे मैंटल डिसाडर्ट हो गया है। डाक्टर ने रम लेने की राय दी है। आजकल रम का पैग चढाकर कुर्सी पर बैठा हुआ कागज और कलम से खिवाड़ करता हूँ। मेरी आँखों में रहती है आंसूओं‌ की बूंदें और मेरे सामने छाया रहता है घनघोर अंधकार, मैं भी तड़पते हुए दिल की जलन बुझाने का व्यर्थ प्रयत्न करता हूँ।
(उपन्यास अंश)
       'तुरन' को जानने की जिज्ञासा सभी में रही है, वह चाहे कांत जी के पाठक हो या फिर उनके शिष्य या संबंधी। पर 'तुरन' को कितने लोग जान सके यह कोई भी न जान सका। तुरन एक अनसुलझी पहेली की तरह बनी रही। और ऐसा नहीं की इस पहेली को सुलझाने का प्रयास नहीं किया गया। प्रयास तो किया गया लेकिन परिणाम....।
        परिणाम क्या निकला यह आप स्वयं पढ सकते हैं। कुशवाहा कांत जी की जीवनी में भी यह प्रश्न उठा। लेखक ज्वालाप्रसाद केशर ने कुशवाहा कांत जी की जीवनी 'कुशवाहा कांत- मेरी दृष्टि में' शीर्षक से लिखी है जिसमें तुरन का प्रश्न भी उठा है।
जीवनी के अंश देखिएगा-
'न कुछ हम हँस के सीखे हैं, न कुछ हम रो के सीखे हैं,
जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं, तुम्हारे हो के सीखे हैं।'


       कुशवाहा कांत के पाठकों के मन में उपर्युक्त पंक्तियाँ और साथ ही 'तुरन' सदैव रहस्य बन कर घुमड़ती रही है। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण रचनायें 'तुरन' को ही क्यों समर्पित की? अपने सर्वप्रिय कथाकार के जीवन के इस अनजाने पर 'बोलते' पहलू के लिए पाठकों की उत्सुकता अस्वाभाविक भी नहीं कही जा सकती।
भैया कांत ने अपनी इस रहस्यमयी 'समर्पिता' को आरम्भ से ही कुछ इस अंदाज से अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया था कि उनके निकटस्थ व्यक्तियों को भी रहस्य भेदन के लिए व्याकुल होना पड़ा, पर किसी के हाथ व्याकुल औत्सुक्य के अतिरिक्त और कुछ आया ही नहीं।
'तुरन' सदैव रहस्य बनी रही।


       अब यह 'तुरन' वास्तविकता में थी या कोई कुशवाहा कांत जी की कल्पना यह रहस्य हमेशा यथावत रहा और अब तो 'तुरन' एक रहस्यमयी पहेली बन कर हर गयी। इस रहस्य से पर्दा तो न कभी उठा और न कभी उठ पायेगा, लेकिन कुशवाहा कांत के पाठकों के लिए उनके कुछ उपन्यासों के साथ-साथ यह रहस्य और भी गहरा होता चला गया इसका कारण स्वयं कुशवाहा कांत थे, जिन्होंने 'तुरन' को इस तरह से प्रस्तुत किता की वह कल्पना से ज्यादा सजीव प्रतीत होने लगी।
कुशवाहा कांत जी की जीवनी के लेखक 'ज्वालाप्रसाद केशर' जीवनी में‌ लिखते हैं- 'भैया कांत ने 'जलन', 'रक्त मंदिर'(प्रथम संस्करण) और 'विद्रोही सुभाष' (प्रथम संस्करण) में, तुरन प्रकरण पर वास्तविकता की पोलिस करके उसे 'सजीव' बना दिया था।

        यह रहस्य सिर्फ कुशवाहा कांत ही जानते थे। जीवनी लेखक 'ज्वालाप्रसाद केशर' के शिष्य मुकुन्द ने भी एक बार ज्वालाप्रसाद से भी यही प्रश्न किया था।
"यह तुरन कौन थी भैया?"
सुनकर मुझे हँसी आ गयी। अनायास ही मुख से निकल गया-"अगर भैया के अन्य उपन्यासों की अनेकानेक नायिकायों की तरह उसे भी समझ लो तो कोई हर्ज है?"
बस यही थी तुरन की कहानी पता नहीं अब तुरन कहा है, क्या वह थी या सिर्फ एक कल्पना थी। एक ऐसी कल्पना जिसे लेखक ने अपने साथ हृदयंगम कर लिया जिसे लेखक जीने लगा था।
'तुरन' और भैया 'कांत' का वास्तविक संबंध क्या था? इसे विश्वास के साथ संभवतः आज भी कोई नहीं कह सकता। तुरन के प्रति उनके हृदय में अपार मोह रहा- आजीवन।
(जीवनी अंश)
          ऐसा नहीं की कुशवाहा कांत जी ने तुरन को लेकर कोई चर्चा न की हो। चर्चा तो की लेकिन स्पष्ट कभी कुछ न कहा। बस उतना ही कहा जितना अनुमान पाठक लगाते रहे हैं। ज्वालाप्रसाद केशर लिखते हैं- 'एक बार भैया को कहते सुना था, याद नहीं आता किससे?- "तुरन को मेरी कल्पनाओं की दुनिया में में ही अगर चाहोगे तो देख पाओगे.....जाने कब एक लहर उमड़ी थी और मैं उसमें बह गया। यह तो मेरी कलम की करामात है, जो कल्पना को इतनी साकार, इतनी सजीव कर देती है सभी उसे लेकर घिर्री खा रहे हैं।" (जीवनी अंश) ( घिर्री = चक्कर )

       बस कहीं-कहीं यह भी सुनने में आता है कि कुशवाहा कांत के प्राणघातक हमले के पीछे 'तुरन' के संबंधी शामिल थे।
       इस विस्तृत संसार में कुछ रहस्य ऐसे होते हैं जिनके जो हमेशा रहस्य ही बने रहते हैं। कुशवाहा कांत के जीवन का यह यह रहस्यवादी भी ऐसा ही जो पाठकवर्ग के लिए हमेशा रहस्य ही बना रहा।


   बस तुरन की कहानी भी एक ऐसी कहानी है जिसके वास्तविकता किसी को नहीं पता। कुछ किंवदंतियां और कुछ अनुमान, कुछ जनश्रुतियां और कुछ अफवाहें इस कहानी को नित नये रूप प्रदान करती है। लेकिन वास्तविकता क्या थी कोई कुछ नहीं जानता और अगर किसी को पता है तो वह खामोश है।
   बस तुरन अब एक रहस्य बन कर रह गयी। बस एक विचार उठता है- एक थी तुरन
और एक प्रश्न गूंजता है- आखिर कौन थी तुरन?
लेकिन उत्तर कहीं नहीं। 
- गुरप्रीत सिंह
   राजस्थान 
कुशवाहा कांत जी के उपन्यासों की समीक्षा
कुशवाहा कांत उपन्यास
गुरप्रीत सिंह, राजस्थान-335051
गुरप्रीत सिंह, राजस्थान-335051

3 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक... कई बार कलाकार ऐसी ही कई किरदारों को अमर कर देते हैं...जैसे मोना लीसा हो गयी और अब तुरन...

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  2. बहुत ही रोचक लेख। कुशवाहा जी की जीवनी पूरी पढ़नी होगी।

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