मैं और मेरी छोटी सी साहित्यिक दुनिया- अजिंक्य शर्मा
(उपन्यास जगत के सुनहरी दौर को रेखांकित करता अंजिक्य शर्मा जी का यह आलेख आपको उस समय में ले जायेगा जब मनोरंजन का माध्यम पुस्तकें होती थी।)
उपन्यास! चार अक्षरों और एक अर्धाक्षर का ये शब्द कुछ लोगों के लिये बिल्कुल नया होता है तो कुछ की इसे सुनकर भृकुटि चढ़ जाती है लेकिन हम जैसे बहुत से पुस्तकप्रेमी ऐसे भी हैं, जिनके दिलों के लिये ये शब्द ऐसा है, जैसे तपती गर्मी में सावन की बौछार।
अगर आप उपन्यास प्रेमी नहीं हैं तो शायद इसे महसूस न कर सकें लेकिन एक उपन्यास प्रेमी इसे अच्छी तरह समझ सकता है। बहुत से पाठकों ने किशोरावस्था से, तो बहुत से ने तो बचपन में ही ये रोग दिल से लगा लिया था। कॉमिक्सों से तरक्की कर हमने उपन्यास पढ़ना शुरू किया और कब ये जीवन का अभिन्न अंग बनती चली गईं, पता भी न चला। वो समय भी कितना सुनहरा था, जब किसी काम से या घूमने कहीं भी जाओ तो चाहे बाजार हो, रेलवे स्टेशन हो, बस स्टैंड हो या गांव-शहर का कोई गली-मोहल्ला ही हो, नजरें किसी ऐसी दुकान या गुमटी को ढूंढतीं थीं, जिन पर एक पतली रस्सी पर कॉमिक्सें लटकी हुईं और सीधे कतार में या आड़े रखे हुए उपन्यास दिख जायें। खरीदने के लिये या किराये पर पढ़ने के लिए ही मिल जायें। शहरों में उम्मीद ज्यादा होती थी क्योंकि शहरों में लाइब्रेरियाँ अधिक हुआ करतीं थी।
लेकिन टीवी पर लगातार बढ़ते चैनलों और फिर इंटरनेट ने इन पुस्तकों के व्यवसाय पर करारा प्रहार किया। फिर बहुउपयोगी विलक्षण यंत्र मोबाइल और उसका स्मार्ट और स्मार्ट से भी ज्यादा स्मार्टफोन के रूप में विकसित हो जाना तो जैसे ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका था।
लाइब्रेरियाँ गायब, किताबें गायब! एक वक्त ऐसा आया कि उम्मीद ही खोने लगी कि कहीं किसी सड़क चलते पहले की तरह कोई लाइब्रेरी दिख जायेगी। पुस्तकों के व्यवसाय में कमी आयी तो लेखकों ने भी लिखने में रुचि लेना कम कर दिया। कुछ ने बिल्कुल ही बन्द कर दिया तो कुछ की नई उपन्यासें आना कम हो गईं। रीप्रिंट आना तक कम हो गये, जो कि पाठकों के लिये और भी दुखदायी था।
कैसा सुनहरा था वो दौर, जब हम हाथ में टेप रिकॉर्डर के कैसेट्स से बड़े लेकिन उसी की तरह आयताकार उपन्यास लेकर उसमें खो जाते थे।
कुछ देर के लिये हम और हाथ में मौजूद उपन्यास, बस यही हमारी छोटी सी दुनिया बन कर रह जाते थे। पढ़ने से पहले उपन्यास का भरपूर स्वाद लेते थे, आवरण पृष्ठ को निहारते थे, सबसे पिछले कवर के चित्र और उस पर उपन्यास के सम्बन्ध में लिखी पंक्तियां पढ़कर एक्साइटेड हो जाते थे। अनिल मोहन के देवराज चौहान सीरीज के नॉवल्स के सबसे पिछले पृष्ठ पर अक्सर लिखा होता था-'काम जितना खतरनाक हो, देवराज चौहान को उसे करने में उतना ही मजा आता है।' अंदर के पृष्ठों में उपन्यास के शीर्षक, कहानी के बारे में जानकारी देने वाली पंक्तियों को देखते थे। और फाइनली जब उपन्यास पढ़ना शुरू करते थे, फिर तो बस उसमें खो ही जाते थे। वो 3-4 घण्टे का समय यादगार होता था, उपन्यास के पात्रों के साथ एक नई ही दुनिया की सैर पर चले जाते थे। कभी बारिश के मौसम में रिमझिम बरसात के मधुर संगीत को सुनते हुए खिड़की के पास बैठकर उपन्यास पढ़ते थे तो कभी गर्मियों की किसी शांत सी दोपहर या सुहानी शाम में किसी उपन्यास के सम्मोहन में खो जाते थे। बारिश के दिनों में गर्मा गर्म चाय की चुस्कियों के साथ उपन्यास पढ़ने का वो अनिवर्चनीय आनन्द, और पूरी किताब खत्म करने के दौरान किताब से आने वाली कागज की खुशबू का भी अलग ही आनन्द होता था।
कभी कोई काम आ जाने पर उपन्यास बीच में छोड़ना पड़ता था, तब भी दिमाग में यही प्रश्न बने रहते थे-"फिर क्या हुआ?" "उसके आगे कहानी में कौन सा नया मोड़ आया?" जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा, अनिल मोहन, अमित खान आदि लेखकों के हम दीवाने हुआ करते थे। आज भी हैं। बस, आज वो माहौल नहीं है। pdf-pdf का शोर है, जो लेखकों के लिये बेहद नुकसानदेह है हालांकि पाठकों के एक वर्ग के लिये मुफीद है, जो सचमुच नॉवल नहीं ले सकते क्योंकि आज के दौर में जब लाइब्रेरियाँ लगभग गायब हो गईं हैं तो किराये पर उपन्यास मिलना तो सम्भव ही नहीं है। और हर कोई सभी किताबें पूरी कीमत देकर खरीद भी नहीं सकता।
बहरहाल, ये एक अलग मुद्दा है। इंटरनेट के ब्रह्मास्त्र से लैस स्मार्टफोन के आगे तो अब टीवी भी अपनी चमक खोने लगा है। हाल ये है कि कमरे में टीवी चलता रहता है और सामने बैठे परिवार के 4-5 में से 2-3 सदस्य तो मोबाइल में ही खोए रहते हैं। ऐसे चमक-दमक भरे, तेजी से भागते माहौल में उपन्यासों को कौन पूछता है? हम और आप पूछते हैं क्योंकि उपन्यासें हमारा पहला प्यार रहीं हैं लेकिन नई पीढ़ी...उसे तो सोशल मीडिया और इंटरनेट ने जकड़ लिया है। हम उपन्यासों, कॉमिक्सों का वो सुनहरा समय वापस तो नहीं ला सकते लेकिन यादें...!
बस वह यादें शेष हैं।
लेखक- अजिंक्य शर्मा(ब्रजेश शर्मा)
Just click here
अजिंक्य शर्मा परिचय, उपन्यास समीक्षा, साक्षात्कार
(उपन्यास जगत के सुनहरी दौर को रेखांकित करता अंजिक्य शर्मा जी का यह आलेख आपको उस समय में ले जायेगा जब मनोरंजन का माध्यम पुस्तकें होती थी।)
उपन्यास! चार अक्षरों और एक अर्धाक्षर का ये शब्द कुछ लोगों के लिये बिल्कुल नया होता है तो कुछ की इसे सुनकर भृकुटि चढ़ जाती है लेकिन हम जैसे बहुत से पुस्तकप्रेमी ऐसे भी हैं, जिनके दिलों के लिये ये शब्द ऐसा है, जैसे तपती गर्मी में सावन की बौछार।
अगर आप उपन्यास प्रेमी नहीं हैं तो शायद इसे महसूस न कर सकें लेकिन एक उपन्यास प्रेमी इसे अच्छी तरह समझ सकता है। बहुत से पाठकों ने किशोरावस्था से, तो बहुत से ने तो बचपन में ही ये रोग दिल से लगा लिया था। कॉमिक्सों से तरक्की कर हमने उपन्यास पढ़ना शुरू किया और कब ये जीवन का अभिन्न अंग बनती चली गईं, पता भी न चला। वो समय भी कितना सुनहरा था, जब किसी काम से या घूमने कहीं भी जाओ तो चाहे बाजार हो, रेलवे स्टेशन हो, बस स्टैंड हो या गांव-शहर का कोई गली-मोहल्ला ही हो, नजरें किसी ऐसी दुकान या गुमटी को ढूंढतीं थीं, जिन पर एक पतली रस्सी पर कॉमिक्सें लटकी हुईं और सीधे कतार में या आड़े रखे हुए उपन्यास दिख जायें। खरीदने के लिये या किराये पर पढ़ने के लिए ही मिल जायें। शहरों में उम्मीद ज्यादा होती थी क्योंकि शहरों में लाइब्रेरियाँ अधिक हुआ करतीं थी।
लेकिन टीवी पर लगातार बढ़ते चैनलों और फिर इंटरनेट ने इन पुस्तकों के व्यवसाय पर करारा प्रहार किया। फिर बहुउपयोगी विलक्षण यंत्र मोबाइल और उसका स्मार्ट और स्मार्ट से भी ज्यादा स्मार्टफोन के रूप में विकसित हो जाना तो जैसे ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका था।
लाइब्रेरियाँ गायब, किताबें गायब! एक वक्त ऐसा आया कि उम्मीद ही खोने लगी कि कहीं किसी सड़क चलते पहले की तरह कोई लाइब्रेरी दिख जायेगी। पुस्तकों के व्यवसाय में कमी आयी तो लेखकों ने भी लिखने में रुचि लेना कम कर दिया। कुछ ने बिल्कुल ही बन्द कर दिया तो कुछ की नई उपन्यासें आना कम हो गईं। रीप्रिंट आना तक कम हो गये, जो कि पाठकों के लिये और भी दुखदायी था।
कैसा सुनहरा था वो दौर, जब हम हाथ में टेप रिकॉर्डर के कैसेट्स से बड़े लेकिन उसी की तरह आयताकार उपन्यास लेकर उसमें खो जाते थे।
कुछ देर के लिये हम और हाथ में मौजूद उपन्यास, बस यही हमारी छोटी सी दुनिया बन कर रह जाते थे। पढ़ने से पहले उपन्यास का भरपूर स्वाद लेते थे, आवरण पृष्ठ को निहारते थे, सबसे पिछले कवर के चित्र और उस पर उपन्यास के सम्बन्ध में लिखी पंक्तियां पढ़कर एक्साइटेड हो जाते थे। अनिल मोहन के देवराज चौहान सीरीज के नॉवल्स के सबसे पिछले पृष्ठ पर अक्सर लिखा होता था-'काम जितना खतरनाक हो, देवराज चौहान को उसे करने में उतना ही मजा आता है।' अंदर के पृष्ठों में उपन्यास के शीर्षक, कहानी के बारे में जानकारी देने वाली पंक्तियों को देखते थे। और फाइनली जब उपन्यास पढ़ना शुरू करते थे, फिर तो बस उसमें खो ही जाते थे। वो 3-4 घण्टे का समय यादगार होता था, उपन्यास के पात्रों के साथ एक नई ही दुनिया की सैर पर चले जाते थे। कभी बारिश के मौसम में रिमझिम बरसात के मधुर संगीत को सुनते हुए खिड़की के पास बैठकर उपन्यास पढ़ते थे तो कभी गर्मियों की किसी शांत सी दोपहर या सुहानी शाम में किसी उपन्यास के सम्मोहन में खो जाते थे। बारिश के दिनों में गर्मा गर्म चाय की चुस्कियों के साथ उपन्यास पढ़ने का वो अनिवर्चनीय आनन्द, और पूरी किताब खत्म करने के दौरान किताब से आने वाली कागज की खुशबू का भी अलग ही आनन्द होता था।
कभी कोई काम आ जाने पर उपन्यास बीच में छोड़ना पड़ता था, तब भी दिमाग में यही प्रश्न बने रहते थे-"फिर क्या हुआ?" "उसके आगे कहानी में कौन सा नया मोड़ आया?" जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा, अनिल मोहन, अमित खान आदि लेखकों के हम दीवाने हुआ करते थे। आज भी हैं। बस, आज वो माहौल नहीं है। pdf-pdf का शोर है, जो लेखकों के लिये बेहद नुकसानदेह है हालांकि पाठकों के एक वर्ग के लिये मुफीद है, जो सचमुच नॉवल नहीं ले सकते क्योंकि आज के दौर में जब लाइब्रेरियाँ लगभग गायब हो गईं हैं तो किराये पर उपन्यास मिलना तो सम्भव ही नहीं है। और हर कोई सभी किताबें पूरी कीमत देकर खरीद भी नहीं सकता।
बहरहाल, ये एक अलग मुद्दा है। इंटरनेट के ब्रह्मास्त्र से लैस स्मार्टफोन के आगे तो अब टीवी भी अपनी चमक खोने लगा है। हाल ये है कि कमरे में टीवी चलता रहता है और सामने बैठे परिवार के 4-5 में से 2-3 सदस्य तो मोबाइल में ही खोए रहते हैं। ऐसे चमक-दमक भरे, तेजी से भागते माहौल में उपन्यासों को कौन पूछता है? हम और आप पूछते हैं क्योंकि उपन्यासें हमारा पहला प्यार रहीं हैं लेकिन नई पीढ़ी...उसे तो सोशल मीडिया और इंटरनेट ने जकड़ लिया है। हम उपन्यासों, कॉमिक्सों का वो सुनहरा समय वापस तो नहीं ला सकते लेकिन यादें...!
बस वह यादें शेष हैं।
लेखक- अजिंक्य शर्मा(ब्रजेश शर्मा)
Just click here
अजिंक्य शर्मा परिचय, उपन्यास समीक्षा, साक्षात्कार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें