जनसेविका पुलिस- कुशवाहा कांत
(लोकप्रिय साहित्य के सितारे कुशवाहा कांत जी के प्रकाशन से 'चिनगारी' मासिक पत्रिकाएं निकला करती थी। पत्रिका में 'श्री चमगादड़' नाम से वे कुछ हास्य- व्यंग्यात्मक स्तंभ भी लिखा करते थे। बाद में इन्हीं हास्य-व्यंग्य को एक पुस्तक रूप में 'उड़ते-उड़ते' शीर्षक से प्रकाशित किया गया। प्रस्तुत हास्य-व्यंग्य 'जनसेविका पुलिस' उसी पुस्तक से लिया गया है।- साहित्य देश)
साहबों! अगर अपने राम सच न बोल, तो पुलिस के समान जनसेवक कर्मचारी भूत-भविष्य-वर्तमान कभी भी नहीं मिलेंगे। हमारे प्रांत की पुलिस तो सेवा भाव में सबसे 'फ्रण्ट' पर है। ट्रेनिंग पीरियड में इन्हें जबानी अभ्यास भी कराया जाता है, ताकि आगे चलकर ये सेवक जनता की माँ-बहनों को धड़ाके के साथ याद रख सकें।
भारत में सुराज होने पर इन जनसेवकों का रोजगार कुछ ठ-ठ-ठप्प पड़ गया है, वर्ना अंग्रेजी पीरियड में आँखों के एक ही इशारे पर इनकी जेबें भर जाती थी। आजकल तो इन बेचारों को कोई ठोस कार्य ही नहीं रह गया है, अत: हम जनता का कर्तव्य है कि इन्हें कोई नवीन कार्य सौंपें।
एक दिन की बात सुना दूँ। बीच बाजार में अपने एक मित्र जी मिल गये, गोद में चारसालीय 'प्रोडक्शन' लादे। बच्चा बड़ा प्यारा लग रहा था, सो अपनेराम ने बड़े लाड़-प्यार-दुलार से उसे चूमा-चाटा, फिर बातचीत का सिलसिला जो चला तो अन्त में सिनेमा देखने के निश्चय पर आकर रूका। अब मित्रजी बड़े फेर में पड़े। सिनेमा देखने का निश्चय हो चुका, समय भी दस-बारह मिनट ही रह गये, सामने सिनेमा भवन का लाउडस्पीकर रेंक रहा था...मगर गोद का बच्चा वे किसे दें? घर दूर था, पहुँच कर लौटने में काफी देर हो जाती।
"रहने दो कल देख लेंगे..."- अपनेराम ने तसल्ली दी।
वे बोले-"नहीं यार! आज ही देखेंगे। इतने दिन के बाद तो घोंसले से निकले हो...इस बच्चे को मैं लाया ही क्यों? इसे लेकर सिनेमा में बैठे भी नहीं सकता। शैतान रो-रो दूसरों से गाली सुनवायेगा। इसे खड़े-खड़े लिये रहो तो चुप, जरा भी बैठे कि रोनाध्याय प्रारंभ... "
तभी अपनेराम की नजर सामने जा पड़ी-थाना! ...बस उपाय दिमाग में आ गया। चट बोला-"मित्र! बच्चा मुझे दो..."
"क्या करोगे?"-कहते हुए मित्र जी ने बच्चे को दे दिया। मैं तूफानमेलीय रफ्तार से बच्चे को लेकर थाने की ओर भागा। अगर वे मेरे अन्तरंग मित्र न होते तो 'उचक्का मेरा बच्चा ले भागा' था, अत: चुपचाप वही मूर्ति बनकर खड़े रहे।
थाने में आया। थानेदार साहब कुर्सी पर बैठे हुए मेज पर टाँग पसार रहे थे।
" क्या है?.."
"सा-साहब! यह ब-ब-बच्चा खो गया है।"- अपनेराम ने कहा।
" खो गया है?..कैसे?..."
"ऐसे ही...हमें उस मोड़ पर रोता हुआ मिला..."
"आपको मिला?...".
" जी हाँ...यों समझ लीजिए, हमने इसे प-प-पाया...आप इसे सम्हालिये...मैं चला..."
"सुनिये...अपना नाम-पता तो बता दीजिये.."
"जरूर-जरूर! लिखिये श्री-श्री...जरा जल्दी कीजिए मुझे सिनेमा जाना है..?"
थानेदार साहब ने मेरी हुलिया लिख ली।
अपनेराम की सूझ पर मित्रजी दंग रह गये। ठाट से हम लोगों ने साथ-साथ सिनेमा देखा। फिर लौट कर दोनों आदमी थाने गये तो देखा मित्रजी का बच्चा ठाट से जलेबी तोड़ रहा था।
थानेदार साहब बोले-"यह बच्चा तो साहब बड़ा रोता है...पुलिस दौड़ रही है, मगर इसके बाप का पता नहीं"
"मैं खोज लाया साहब !... ये हैं..."- अपनेराम ने कहा।
" आप इसके बाप हैं?"
" जी हाँ"- मित्रजी ने कहा।
"जी हाँ- सेंट-पर-सेंट असली बाप साहब! बड़ी मुश्किल से इनका पता लगा सि-सि-सिनेमा के अन्दर..." मैं बोला।
"सिनेमा के अन्दर?"
"जी-जी नहीं, सिनेमा के बा-बाहर ...ये बिचारे रोते हुए इसे खोज रहे थे।"
"लीजिये साहब। आप अपना लड़का सम्हालिये..बड़े लापरवाह हैं आप लोग...इन्होंने आपके बच्चे को यहाँ पहुँचाया है और आपको यहाँ तक लाये भी हैं, इसलिये इन्हें कुछ इनाम..."
"अवश्य..."-मित्रजी ने पाँच का नोट मेरी ओर बढाया।
हम लोग हँसते हुए वापस हुए।
पुलिस के लिये यह नया काम कैसा रहा साहब? इति श्री इलस्ट्रेटेड-वीकलीयो नम:।
पुस्तक - उड़ते-उड़ते
लेखक- कुशवाहा कांत
(लोकप्रिय साहित्य के सितारे कुशवाहा कांत जी के प्रकाशन से 'चिनगारी' मासिक पत्रिकाएं निकला करती थी। पत्रिका में 'श्री चमगादड़' नाम से वे कुछ हास्य- व्यंग्यात्मक स्तंभ भी लिखा करते थे। बाद में इन्हीं हास्य-व्यंग्य को एक पुस्तक रूप में 'उड़ते-उड़ते' शीर्षक से प्रकाशित किया गया। प्रस्तुत हास्य-व्यंग्य 'जनसेविका पुलिस' उसी पुस्तक से लिया गया है।- साहित्य देश)
साहबों! अगर अपने राम सच न बोल, तो पुलिस के समान जनसेवक कर्मचारी भूत-भविष्य-वर्तमान कभी भी नहीं मिलेंगे। हमारे प्रांत की पुलिस तो सेवा भाव में सबसे 'फ्रण्ट' पर है। ट्रेनिंग पीरियड में इन्हें जबानी अभ्यास भी कराया जाता है, ताकि आगे चलकर ये सेवक जनता की माँ-बहनों को धड़ाके के साथ याद रख सकें।
भारत में सुराज होने पर इन जनसेवकों का रोजगार कुछ ठ-ठ-ठप्प पड़ गया है, वर्ना अंग्रेजी पीरियड में आँखों के एक ही इशारे पर इनकी जेबें भर जाती थी। आजकल तो इन बेचारों को कोई ठोस कार्य ही नहीं रह गया है, अत: हम जनता का कर्तव्य है कि इन्हें कोई नवीन कार्य सौंपें।
एक दिन की बात सुना दूँ। बीच बाजार में अपने एक मित्र जी मिल गये, गोद में चारसालीय 'प्रोडक्शन' लादे। बच्चा बड़ा प्यारा लग रहा था, सो अपनेराम ने बड़े लाड़-प्यार-दुलार से उसे चूमा-चाटा, फिर बातचीत का सिलसिला जो चला तो अन्त में सिनेमा देखने के निश्चय पर आकर रूका। अब मित्रजी बड़े फेर में पड़े। सिनेमा देखने का निश्चय हो चुका, समय भी दस-बारह मिनट ही रह गये, सामने सिनेमा भवन का लाउडस्पीकर रेंक रहा था...मगर गोद का बच्चा वे किसे दें? घर दूर था, पहुँच कर लौटने में काफी देर हो जाती।
"रहने दो कल देख लेंगे..."- अपनेराम ने तसल्ली दी।
वे बोले-"नहीं यार! आज ही देखेंगे। इतने दिन के बाद तो घोंसले से निकले हो...इस बच्चे को मैं लाया ही क्यों? इसे लेकर सिनेमा में बैठे भी नहीं सकता। शैतान रो-रो दूसरों से गाली सुनवायेगा। इसे खड़े-खड़े लिये रहो तो चुप, जरा भी बैठे कि रोनाध्याय प्रारंभ... "
तभी अपनेराम की नजर सामने जा पड़ी-थाना! ...बस उपाय दिमाग में आ गया। चट बोला-"मित्र! बच्चा मुझे दो..."
"क्या करोगे?"-कहते हुए मित्र जी ने बच्चे को दे दिया। मैं तूफानमेलीय रफ्तार से बच्चे को लेकर थाने की ओर भागा। अगर वे मेरे अन्तरंग मित्र न होते तो 'उचक्का मेरा बच्चा ले भागा' था, अत: चुपचाप वही मूर्ति बनकर खड़े रहे।
थाने में आया। थानेदार साहब कुर्सी पर बैठे हुए मेज पर टाँग पसार रहे थे।
" क्या है?.."
"सा-साहब! यह ब-ब-बच्चा खो गया है।"- अपनेराम ने कहा।
" खो गया है?..कैसे?..."
"ऐसे ही...हमें उस मोड़ पर रोता हुआ मिला..."
"आपको मिला?...".
" जी हाँ...यों समझ लीजिए, हमने इसे प-प-पाया...आप इसे सम्हालिये...मैं चला..."
"सुनिये...अपना नाम-पता तो बता दीजिये.."
"जरूर-जरूर! लिखिये श्री-श्री...जरा जल्दी कीजिए मुझे सिनेमा जाना है..?"
थानेदार साहब ने मेरी हुलिया लिख ली।
अपनेराम की सूझ पर मित्रजी दंग रह गये। ठाट से हम लोगों ने साथ-साथ सिनेमा देखा। फिर लौट कर दोनों आदमी थाने गये तो देखा मित्रजी का बच्चा ठाट से जलेबी तोड़ रहा था।
थानेदार साहब बोले-"यह बच्चा तो साहब बड़ा रोता है...पुलिस दौड़ रही है, मगर इसके बाप का पता नहीं"
"मैं खोज लाया साहब !... ये हैं..."- अपनेराम ने कहा।
" आप इसके बाप हैं?"
" जी हाँ"- मित्रजी ने कहा।
"जी हाँ- सेंट-पर-सेंट असली बाप साहब! बड़ी मुश्किल से इनका पता लगा सि-सि-सिनेमा के अन्दर..." मैं बोला।
"सिनेमा के अन्दर?"
"जी-जी नहीं, सिनेमा के बा-बाहर ...ये बिचारे रोते हुए इसे खोज रहे थे।"
"लीजिये साहब। आप अपना लड़का सम्हालिये..बड़े लापरवाह हैं आप लोग...इन्होंने आपके बच्चे को यहाँ पहुँचाया है और आपको यहाँ तक लाये भी हैं, इसलिये इन्हें कुछ इनाम..."
"अवश्य..."-मित्रजी ने पाँच का नोट मेरी ओर बढाया।
हम लोग हँसते हुए वापस हुए।
पुलिस के लिये यह नया काम कैसा रहा साहब? इति श्री इलस्ट्रेटेड-वीकलीयो नम:।
पुस्तक - उड़ते-उड़ते
लेखक- कुशवाहा कांत
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