इंडियन पल्प फिक्शन का सुनहरा दौर और आज
- गौरव की कलम
आज सुबह सुबह पल्प फिक्शन पर कुछ लिख रहा था तो अचानक 90s की पुरानी यादें ताज़ा हो गयी जब कर्नल रंजीत, वेद प्रकाश शर्मा,ओम प्रकाश शर्मा,सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश काम्बोज, परशुराम शर्मा, इब्ने सफी, देवकी नंदन खत्री, गुलशन नंदा आदि जैसे पल्प फिक्शन राइटर्स का पाठकों में भयंकर चस्का था, एक दौर था जब गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा ने नॉवेल आते ही स्टॉक आउट हो जाते थे, शायद आपको जानकार ताज्जुब हो की नीचे दिए वेद प्रकाश शर्मा की इस नॉवेल की 15 लाख कॉपी रिलीज़ से पहले ही सोल्ड आउट (प्री-बुकिंग) हो गयी थी, और एक समय में इस नॉवेल को बैन करने की मांग उठने लगी और इसका मुख पृष्ठ काला कर दिया गया और आजतक आठ करोड़ से भी ज्यादा प्रतियां बिक चुकी है, या गुलशन नंदा जी जिनके नॉवेल के होर्डिंग्स फिल्मो के होर्डिंग्स की तरह लगाए जाते थे या अय्यारी लेखन के उस्ताद देवकी नंदन खत्री जिनकी अनगिनत कॉपी उस काल में सेल आउट हुई जब इंडियन पल्प फिक्शन अपने शैशव काल में था या इब्ने सफी जिन्होंने जासूसी दुनिया के लेखन में एक कीर्तिमान स्थापित किया।
दरअसल केबल TV के उद्गम ने भारत में पाठको की संख्या कम कर दी थी...फिल्म्स और नाटकों का TV पर इतना सुलभ हो जाना लोगो को मनोरंजन की नयी खुराक थी, जिस से नयी पीढ़ी इस सुख से दूर होती चली गयी, भाग्यवश मैं किताबों हमेशा पास रहा पर छोटा होने के कारण मैं 90s में ज्यादातर कॉमिक्स का ही दीवाना था पर नॉवेल पर भी चोरी छुपे हाथ साफ़ कर लिया करते थे और जैसे जैसे उम्र बढ़ी घर में और नॉवेल पढ़ने की इज़ाजत मिलने लगी तो समझा गुरु की लेखन द्वारा विसुअल ट्रीट किसे कहते है,ये लोग भले ही आज की तरह PR और मार्केटिंग से वंचित रहे हो, फिर भी माउथ पब्लिसिटी और लेखन की बदौलत लाखों करोड़ों पाठको के दिल में राज़ करते थे और शायद आज के दौर में कोई ही नया भारतीय लेखक कितना भी PR यूज़ करके उस ऊँचे मुकाम तक पंहुचा हो जहाँ उपर्लिखित राइटर आसीन है ऐसा दूर दूर तक दिखाई नहीं देता।
ये आलम था की मैंने ऐसे लोग भी देखे है जो 2-2 km चलते चलते भी भी नॉवेल से पढ़ते रहते थे, बच्चे कॉमिक्स के लिए दीवाने थे पर उसी भारतीय पल्प में आज रोचकता का बेहद आभाव है तभी शायद विदेशी राइटर के हिंदी अनुवादित या मूल प्रति नावेल हमारे आज के मौजूदा नए हिंदी राइटर्स से ज्यादा बिकते है, किसी इक्का दुक्का राइटर को छोड़ कर जो आज भी वो सुनहरी मशाल पकडे हुए है।
भले ही पाठकवर्ग आज बहुत ही सिमट गया हो पर हमारे प्रकाशनों को और आगे आना पड़ेगा और लेखकों को अपने ऊपर जिम्मेदारी लेनी होगी ताकि ये मशाल जलती रहे, ये दौर फिर वापस आये।
लेखक- गौरव
पोस्ट का फेसबुक लिंक- गौरव - फेसबुक पोस्ट
- गौरव की कलम
आज सुबह सुबह पल्प फिक्शन पर कुछ लिख रहा था तो अचानक 90s की पुरानी यादें ताज़ा हो गयी जब कर्नल रंजीत, वेद प्रकाश शर्मा,ओम प्रकाश शर्मा,सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश काम्बोज, परशुराम शर्मा, इब्ने सफी, देवकी नंदन खत्री, गुलशन नंदा आदि जैसे पल्प फिक्शन राइटर्स का पाठकों में भयंकर चस्का था, एक दौर था जब गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा ने नॉवेल आते ही स्टॉक आउट हो जाते थे, शायद आपको जानकार ताज्जुब हो की नीचे दिए वेद प्रकाश शर्मा की इस नॉवेल की 15 लाख कॉपी रिलीज़ से पहले ही सोल्ड आउट (प्री-बुकिंग) हो गयी थी, और एक समय में इस नॉवेल को बैन करने की मांग उठने लगी और इसका मुख पृष्ठ काला कर दिया गया और आजतक आठ करोड़ से भी ज्यादा प्रतियां बिक चुकी है, या गुलशन नंदा जी जिनके नॉवेल के होर्डिंग्स फिल्मो के होर्डिंग्स की तरह लगाए जाते थे या अय्यारी लेखन के उस्ताद देवकी नंदन खत्री जिनकी अनगिनत कॉपी उस काल में सेल आउट हुई जब इंडियन पल्प फिक्शन अपने शैशव काल में था या इब्ने सफी जिन्होंने जासूसी दुनिया के लेखन में एक कीर्तिमान स्थापित किया।
दरअसल केबल TV के उद्गम ने भारत में पाठको की संख्या कम कर दी थी...फिल्म्स और नाटकों का TV पर इतना सुलभ हो जाना लोगो को मनोरंजन की नयी खुराक थी, जिस से नयी पीढ़ी इस सुख से दूर होती चली गयी, भाग्यवश मैं किताबों हमेशा पास रहा पर छोटा होने के कारण मैं 90s में ज्यादातर कॉमिक्स का ही दीवाना था पर नॉवेल पर भी चोरी छुपे हाथ साफ़ कर लिया करते थे और जैसे जैसे उम्र बढ़ी घर में और नॉवेल पढ़ने की इज़ाजत मिलने लगी तो समझा गुरु की लेखन द्वारा विसुअल ट्रीट किसे कहते है,ये लोग भले ही आज की तरह PR और मार्केटिंग से वंचित रहे हो, फिर भी माउथ पब्लिसिटी और लेखन की बदौलत लाखों करोड़ों पाठको के दिल में राज़ करते थे और शायद आज के दौर में कोई ही नया भारतीय लेखक कितना भी PR यूज़ करके उस ऊँचे मुकाम तक पंहुचा हो जहाँ उपर्लिखित राइटर आसीन है ऐसा दूर दूर तक दिखाई नहीं देता।
ये आलम था की मैंने ऐसे लोग भी देखे है जो 2-2 km चलते चलते भी भी नॉवेल से पढ़ते रहते थे, बच्चे कॉमिक्स के लिए दीवाने थे पर उसी भारतीय पल्प में आज रोचकता का बेहद आभाव है तभी शायद विदेशी राइटर के हिंदी अनुवादित या मूल प्रति नावेल हमारे आज के मौजूदा नए हिंदी राइटर्स से ज्यादा बिकते है, किसी इक्का दुक्का राइटर को छोड़ कर जो आज भी वो सुनहरी मशाल पकडे हुए है।
भले ही पाठकवर्ग आज बहुत ही सिमट गया हो पर हमारे प्रकाशनों को और आगे आना पड़ेगा और लेखकों को अपने ऊपर जिम्मेदारी लेनी होगी ताकि ये मशाल जलती रहे, ये दौर फिर वापस आये।
लेखक- गौरव
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गौरव |
सर बहुत अच्छा लगा । आप हर बार नई जानकारी लाते है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी
हटाएंबहुत जानकारीमय लेख....👌👌👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी।
हटाएंउम्दा जानकारी
जवाब देंहटाएंनब्बे के दशक की यादें ताज़ा हो गई..
जवाब देंहटाएंSahi baat kahi hai Gaurav bhai!
जवाब देंहटाएंKhoob kahi Gaurav
जवाब देंहटाएंWell done bro loved it
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