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रविवार, 14 अप्रैल 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-25,26

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 25
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"आप भी लीजिए ना...।" कुमारप्रिय ने बिमल जैन को केवल चाय की चुस्की भरते देखकर, बिस्कुट और नमकीन की ओर संकेत करते हुए कहा तो बिमल जैन बोले -"नहीं, ठीक है। आप लीजिए।"

     कुछ पल सन्नाटा रहा।  जब हमारे कपों में चाय लगभग अन्तिम घूँट भर थी, तभी बिमल जैन फट पड़े -"मुझे तो आप लोगों ने बरबाद कर दिया। आगे नहीं करना है - मुझे पब्लिकेशन। अब और एक पैसा नहीं लगाऊँगा !"
"अरे ! क्या हुआ ? ऐसे क्यों नाराज हो रहे हैं जैन साहब ?" कुमारप्रिय चौंकते हुए बोले।
"क्या हुआ ? चाय पी लीजिये। फिर दिखाता हूँ - क्या हुआ ?" बिमल जैन तल्ख स्वर में बोले।

कुमारप्रिय ने चाय का आखिरी घूँट भर कप टेबल पर रख दिया। मैं पहले ही अपना कप खाली कर चुका था।

बिमल जैन खड़े हो गये और दूसरे कमरे की ओर बढ़ते हुए बोले -"इधर आइये !"

मैं और कुमारप्रिय बिमल जैन के पीछे हो लिए।

उस कमरे में घुप्प अन्धेरा था ! बिमल जैन ने दीवार में कहीं फिट स्विचबोर्ड पर हाथ ले जाकर लाइट आॅन की।
छोटा-सा कमरा था।
कमरे में निवाड़ की एक चारपाई बिछी हुई थी।
बिमल जैन ने आगे बढ़ उस चारपाई को खड़ा कर दिया।
अगले ही पल हमें छोटे-बड़े लगभग पचास पैकेट नजर आये।
उन पैकेट्स की ओर इशारा करते हुए बिमल जैन बोले - "अभी मनीआर्डर सिर्फ पाँच सौ रुपये के आये हैं और इतनी सारी वापसी आ चुकी है ! आपने लोगों के पास माल बिना आर्डर के भिजवा दिया था क्या ?"
        "नहीं-नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं है ! माल तो आर्डर पर ही गया था, पर होता है - ऐसा भी होता है ! आर्डर पर भेजे गये माल में भी पच्चीस-तीस परसेन्ट वापसी आ ही जाती है !" कुमारप्रिय ने बिमल जैन को समझाया -"आप टेन्शन मत लीजिये - अब जब मनीआर्डर आयेंगे तो वो भी लाइन लगाकर आयेंगे !"
"वो तो जब आयेंगे - तब आयेंगे, पर अब इन बण्डलों का मैं क्या करूँ ! इन्हें सिर पर मारूँ ! घर में जगह है नहीं ! ऐसे वापसी आयेगी तो कहाँ पर रखूँगा मैं ?"
"चिन्ता मत कीजिये ! ये बण्डल खोलकर किताबें अलग-अलग बण्डल बना कर रखिये ! हम यह माल भी निकलवा देंगे !" कुमारप्रिय ने कहा !
"अब ये बण्डल खोलने-बाँधने का काम भी मुझे करना होगा ?" बिमल जैन चिढ़ते हुए बोले !
"हाँ तो इसमें कौन-सी शर्म की बात है ! बिजनेस आपका है ! प्राॅफिट होगा तो आपको ही होगा न ? आपको बण्डल खोलने-बाँधने में परेशानी है तो बोलिये - हम मिश्रा जी को भेज देंगे ! पर जब-जब आप उन्हें बुलायेंगे ! पचास रुपया तो देना पड़ेगा !"
"नहीं, रहने दीजिये ! हम खुद देख लेंगे !" बिमल जैन नाराजगी और विरक्तता से बोले !
"आप घबराइये बिल्कुल मत !" कुमारप्रिय ने बिमल जैन को फिर से समझाया -"जब आपके पाँच-छ: सैट निकल जायेंगे ! तब सब ठीक हो जायेगा ! पुरानी किताबों के भी बहुत सारे रिपीट आर्डर आने लगेंगे !"

कुमारप्रिय ने बार-बार तसल्ली दी ! पर बिमल जैन के चेहरे पर मुस्कान न आ सकी।

बिमल जैन के घर से हम बाहर निकल कर सड़क पर आये तो मैंने कुमारप्रिय से पूछा - "कुमार साहब ! पंकज पाॅकेट बुक्स का पहला सैट भेजे तो दो महीने हो गये हैं ! अब तक तो सारे मनीआर्डर और वापसी आ जानी चाहिए थी ! जैन साहब कह रहे हैं कि सिर्फ़ पाँच सौ के मनीआर्डर आये हैं !"
"योगेश जी, हमारा पब्लिकेशन बिल्कुल नया है ! बुकसेलर आर्डर तो दे देते हैं ! पर पहले माल वो बड़े और एस्टिब्लिश पब्लिशर का छुड़ाते हैं ! रेगुलर माल आता रहने की वजह से पोस्ट आॅफिस वालों से बुकसेलर्स की साँठ-गाँठ चलती है और पोस्ट आॅफिस वाले महीना-महीना भर वीपी पैकेट रोक लेते हैं ! फिर एजेन्ट (बुकसेलर) के पास जब पैसा होता है, वो हमारा - नये पब्लिशर का माल छुड़ा लेता है ! नहीं जुगाड़ होता तो आर्डर दिया होने पर भी माल वापस कर देता है !"
"फिर तो बिमल जैन का पैसा वापस आने में बहुत टाइम लग जायेगा !" मैंने कहा !
"हाँ, सो तो है !" कुमारप्रिय बोले - "रेलवे के माल का पैसा आने में तो और भी ज्यादा देरी हो जाती है ! रेलवे से बुकिंग कराये माल की बिल्टी हम लोगों को रजिस्टर्ड डाक से भेजनी होती है ! वीपी से भेजें तो बुकसेलर वापस कर देता है ! बिल्टी से माल छुड़ाकर बुकसेलर सारा माल बेच लेता है ! उसके दो-तीन महीने बाद ही पैसा भेजता है ! वो भी कई-कई लैटर लिखे जाते हैं तब ! कई बार तो पैसे लेने के लिए टूर भी लगाना पड़ता है या टूरिंग एजेंट भेजना पड़ता है !"
"बिमल जैन के लिए तो यह सब करना बहुत मुश्किल होगा ! बुकसेलर को पत्र लिखने की जिम्मेदारी तो आपको ही निभानी होगी !" मैंने कहा !
"वो तो हम निभायेंगे ! जब तक पब्लिकेशन के पाँच-सात सैट नहीं निकलते - ऐसी बहुत सी परेशानी होती रहती हैं ! ऐसे में बिमल जैन को हौसला रखना होगा ! योगेश जी, कोई प्रकाशन एक-दो सैट निकालने से नहीं चल जाता ! जब तक पब्लिशर के पास बीस टाइटिल नहीं हो - बुकसेलर को आर्डर देने में मुश्किल रहती है ! हम दस किताब से कम भेजते नहीं और टाइटिल दो हैं तो एजेन्ट क्या करेगा ? उसके पास एक किताब लेने का स्कोप है तो केवल दो की जगह वह दस किताब कैसे मँगा लेगा ! जैन साहब की परेशानी अपनी जगह है ! अगर रेलवे से गये किसी माल की पेमेन्ट आ गई तो उनका हौसला बढ़ जायेगा !"
"रेलवे के माल की पेमेन्ट कब तक आ सकती है ?" मैंने पूछा !
"कुछ नहीं कह सकते ! रेलवे से माल मँगानेवाले बुकसेलर तो सबसे ज्यादा बदमाश होते हैं ! उनकी रेलवे कर्मचारियों से साँठ-गाँठ रहती है और अक्सर वे लोग बिना बिल्टी के ही रेलवे का माल छुड़ा ले जाते हैं ! फिर वो माल बेचकर पैसा खा जाते हैं ! पब्लिशर को बिल्टी वापस हो जाती है ! फिर पब्लिशर अपना माल क्लेम करना चाहता है तो उसे पता चलता है - उसका माल चोरी हो गया और चोरी गये माल का पैसा महीनों पत्र व्यवहार के बाद रेलवे से मिलता भी है तो पता चलता है कि माल की लागत भी नहीं मिल पाई !"
"कुमार साहब ! यह सब बिमल जैन को पहले से मालूम होता तो वह कभी पब्लिकेशन नहीं करते !"
"हाँ, पर अब तो कर ही लिये हैं तो दस-बारह सैट निकलने तक तो हौसला रखना ही होगा, वरना मोटा नुक्सान झेलेंगे !" कुमारप्रिय लापरवाही से बोले ! बिमल जैन के नफे-नुक्सान से वह चिंतित नहीं थे !

उन दिनों प्रकाशकों द्वारा बुकसेलर से सिक्योरिटी रखवाने का कोई सिस्टम नहीं था ! बाद में बड़े और नामी प्रकाशकों ने यह सिस्टम शुरु किया ! माल उसी बुकसेलर को भेजा जाने लगा, जिसकी सिक्योरिटी जमा होती थी ! यदि वह माल वापस कर देता या पोस्टमैन की गलती से माल वापस हो जाता तो बुकसेलर की सिक्योरिटी प्रकाशक जब्त कर लेता और दोबारा सिक्योरिटी जमा करने पर ही माल फिर से भेजा जाता था ! पर बुकसेलर बड़े प्रकाशकों के माल के लिए ही सिक्योरिटी जमा कराते थे ! छोटे और नये प्रकाशकों को अपने ही रिस्क पर जुआ खेलना पड़ता था !

दरअसल प्रकाशन एक ऐसा व्यवसाय है, जिसमें कदम रखनेवाले को तुरन्त कमाई की उम्मीद कभी नहीं रखनी चाहिए !
प्रकाशन का नाम व प्रतिष्ठा जमने में कम से कम साल-डेढ़ साल का वक्त तो लगता ही है !

वापस गाँधीनगर पहुँच कुमारप्रिय और मैं अलग-अलग हो गये !

                रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं यही सोच रहा था कि कम पूँजी होने पर प्रकाशन व्यवसाय निरंतर चलाना बहुत मुश्किल है ! बिमल जैन एक आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति हैं ! ना जाने किस भावना के वशीभूत उन्होंने प्रकाशन व्यवसाय में पैसा लगा दिया, किन्तु व्यवसाय जारी रखना शायद उनके लिए सम्भव न हो !
और मेरी यह सोच भविष्य में सही साबित हुई।

         उसके बाद कुछ दिन यूँ ही ढीले-ढाले बीते ! मनोज पाॅकेट बुक्स के गौरीशंकर गुप्ता जी ने मुझे छूट दे रखी थी कि बाल कहानियाँ और बाल पाॅकेट बुक्स लिखना जारी रखूँ ! अत: मैंने बच्चों की कहानियाँ लिखना जारी रखा।

दिन पर दिन बीतते रहे ! मेरा बिमल चटर्जी और कुमारप्रिय से मिलना - एक नित्यकर्म था, जो रोज ही चलता रहा।
हाँ, उन दिनों मेरा लेखन कार्य घर पर ही होता था।

घर के नाम पर हमारे पास सिर्फ एक ही कमरा था।  उसी में एक कोने में जमीन पर एक गद्दा बिछा रहता था।  उसी पर पेट के बल लेट के या दीवार के सहारे पीठ लगा टाँगे लम्बी करके बैठ कर लिखना होता था।  बच्चों के एक्ज़ाम बोर्ड जैसा एक क्लिप बोर्ड था।  उसी की क्लिप में पेपर फँसाकर मैं लिखा करता था।

       जब मेरे पास एक बाल पाॅकेट बुक्स और छ: सात बाल कहानियाँ तैयार हो गईं तो मैंने बिमल चटर्जी को बताया और पूछा कि दरीबे चलना है क्या ?
बिमल ने इन्कार में सिर हिलाया और बोले -"अभी गौरी भाईसाहब को देने के लिए कुछ तैयार नहीं है ! खाली हाथ जाकर क्या करूँगा ! आप हो आओ !"
अब मेरे सामने एक समस्या थी ! मुझे गर्ग एण्ड कम्पनी में भी जाना था ! एक बाल पाॅकेट बुक्स का पारिश्रमिक लेना था ! पर मैंने फैसला किया कि सीधे रास्ते से दरीबे नहीं घुसूँगा !
पीछे से ही दरीबे पहुँचूगा ! रास्ता लम्बा जरूर पड़ेगा, पर गर्ग एण्ड कम्पनी की दुकान पहले नहीं आयेगी !
फिर ऐसा ही किया मैंने और मनोज पाॅकेट बुक्स पहुँचा !

पर उस दिन दुकान पर गौरी भाई साहब नहीं थे !
दुकान पर उनके पिताजी व जगदीश जी थे !
जगदीश जी ने मुझसे कहा - "योगेश जी, आप वकीलपुरे चले जाओ ! गौरी भाई जी वहीं मिलेंगे !"
"वकीलपुरे कहाँ ?" मैंने प्रश्न किया तो जगदीश जी बोले -"आपको वकीलपुरे का हमारा घर नहीं मालूम ?"
"नहीं ! मुझे वकीलपुरा कहाँ है, यह भी नहीं मालूम ?"

यह सुनकर जगदीश जी ने दुकान में काम करनेवाले एक लड़के से कहा -"जा रे, योगेश जी को हमारे वकीलपुरे वाले घर में छोड़कर आ जा !"

उस लड़के ने मुझे वकीलपुरे के उस कमरे तक पहुँचा दिया, जहाँ गौरीशंकर गुप्ता जी मौजूद थे ! पर उस समय वह अकेले नहीं थे !

कमरे में एक साधारण सी मेज थी ! उसके पीछे कमरे की दीवार से कुछ ही एक कुर्सी पर गौरीशंकर गुप्ता विराजमान थे और मेज के दूसरी ओर एक कुर्सी पर एक पहलवान सरीखा लम्बा सेहतमंद व्यक्ति बैठा था ! रंग कुछ दबा-दबा सा था ! चेहरे पर कुछ चेचक के दाग थे ! मुँह बन्द था, किन्तु हरकत में था ! जाहिर था कि मुँह में पान है !
कमरे में प्रेम बाजपेयी के निकट ही एक खाली कुर्सी भी थी और पीछे की दीवार से सटे दो स्टूल भी रखे थे !

"आ भई योगेश !" मुझे देखते ही गौरीशंकर गुप्ता ने हाथ बढ़ाया !
मैंने गौरीशंकर गुप्ता से हाथ मिलाया ! फिर वहीं मौजूद उस दूसरे पहलवान सरीखे व्यक्ति की ओर देखा ! तभी गौरीशंकर गुप्ता उसी व्यक्ति की ओर संकेत करते हुए बोले -"इन्हें तो तू पहचानता ही होगा ! प्रेम बाजपेयी जी हैं और..." मेरी ओर संकेत करते हुए गौरीशंकर बोले -"बाजपेयी जी, यह योगेश मित्तल है ! अपना बिमल चटर्जी इसकी बड़ी तारीफ करता है ! इसे कहीं भी बैठा लो ! कुछ भी लिखवा लो - तुरन्त शुरु हो जाता है ! बिमल चटर्जी कहता है, इसे सोचने में भी वक्त नहीं लगता !"

मैंने प्रेम बाजपेयी जी की ओर देखते हुए हाथ जोड़े तो मुँह से कुछ भी न कह प्रेम बाजपेयी जी ने सिर दाँये-बाँये हिलाया और कुर्सी से उठ खड़े हुए ! फिर अपने दोनों हाथों से मुझे बाँध लिया ! फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा !
प्रेम बाजपेयी जी से यह मेरी पहली मुलाकात थी !

मुझसे अलग होकर प्रेम बाजपेयी एकाएक कमरे से बाहर निकल गये ! फिर बाहरी बरामदे में बनी एक नाली पर पीक थूक कर वापस आये और मुझसे सम्बोधित होते हुए बोले -"योगेश, तुमने मेरा कोई उपन्यास पढ़ा है ?"
"बहुत !" मैंने कहा -"और आपका 'कैंची और नारी' तो कई बार पढ़ा है !"  तब तक मैं गौरीशंकर गुप्ता के इशारे पर प्रेम बाजपेयी के साथ पडी कुर्सी पर बैठ चुका था !

"कई बार क्यों ?" प्रेम बाजपेयी ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा !

इस सवाल के जवाब में मेरा जवाब तो यह होना चाहिए था कि यह उपन्यास मुझे बहुत पसंद है ! प्रेम बाजपेयी का सवाल भी शायद इसी जवाब की प्रतीक्षा में था, लेकिन तब मैं इतना व्यवहार कुशल नहीं था ! मेरा जवाब था -"दरअसल यह उपन्यास मैंने खरीदा हुआ है, जब कोई और किताब पढ़ने को नहीं होती, दोबारा-तिबारा यही पढ़ने लगता हूँ !"
उस समय मेरे द्वारा खरीदे गए बीस-पच्चीस उपन्यासों की लाइब्रेरी का हिस्सा प्रेम बाजपेयी का उपन्यास "कैंची और नारी" भी था !

"पढ़े कहाँ तक हो ?" प्रेम बाजपेयी ने पूछा !
"डिग्री के हिसाब से तो आप मुझे अनपढ़ ही समझिये !" मैंने कहा !
"हो सके तो पढ़ाई भी जारी रखो ! आनेवाले समय में बीए - एमए की डिग्रियों का महत्त्व बहूत ज्यादा होगा !" प्रेम बाजपेयी ने कहा !
"जी !" मैंने बस इतना ही कहा ! उसके बाद लिखने को लेकर भी कुछ बातें हुईं !   
प्रेम बाजपेयी और गौरी शंकर गुप्ता की बातें संभवतः ख़त्म हो चुकी थीं ! अतः प्रेम बाजपेयी ज्यादा देर नहीं रुके ! जाते-जाते एक बार फिर उन्होंने मुझे आलिंगन में बांधा, फिर हाथ भी मिलाया और मुस्कुराते हुए कहा-"फिर मिलेंगे !"
मुझे प्रेम बाजपेयी से वह मुलाक़ात बहुत अच्छी लगी !
प्रेम बाजपेयी के जाने के बाद गौरीशंकर गुप्ता ने चिर-परिचित अंदाज़ में मुस्कुराते हुए कहा -"क्या ले आया ?"
"एक बाल उपन्यास है और सात कहानियां हैं, जो एक पॉकेट बुक्स में पूरी रहेंगी !" मैंने कहा !
"दिखा !"
मैंने अपने कंधे पर लटकते झोले में से दोनों स्क्रिप्ट निकाल कर गौरी शंकर गुप्ता की ओर बढ़ा दी !
(शेष फिर )

 -आगामी किश्त में जमील अंजुम जी से मुलाक़ात आपको खुशी अवश्य देगी ! जमील अंजुम वह शख्स थे, जिन्होंने "मनोज" नाम से छपनेवाले बहुत सारे उपन्यास लिखे।

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 26
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गौरीशंकर जी ने दोनों पाण्डुलिपियों पर सरसरी नजर डाली ! फिर मुस्कुराते हुए बोले -"पढ़ने की जरूरत है ?"
"टाइम हो तो पढ़िए जरूर - मज़ा तो आएगा !" मैंने कहा !
"बस, आ गया मज़ा !" गौरीशंकर हंसे -"मुझे तो तेरा जवाब सुनकर ही मज़ा आ गया !"
मैं मुस्कुरा दिया !
"चाय पियेगा ?"
"आप भी साथ देंगे तो जरूर पियूँगा !"
"अरे यार, मैंने तो अभी, तेरे आने से पहले बाजपेयी साहब के साथ पी है ! पर चल तेरे साथ भी पी लूंगा ! वो क्या है कि तुझे देखकर मेरा दिल वैसे ही बहुत खुश हो जाता है !" गौरीशंकर गुप्ता निरंतर हँसते-मुस्कुराते बोले ! 
"ओह ! मुझे नहीं पता था कि मैं जोकर जैसा लगता हूँ !" मैंने कृत्रिम भोलेपन से कहा तो गौरीशंकर गुप्ता के अधरों से  फूटने वाला ठहाका बड़ा जोरदार था ! फिर थोड़ी देर बाद वह अपनी हंसी रोककर बोले -"ये सही कहा तूने ! जोकर जैसा तो नहीं, पर जोकर से कम भी नहीं है ! लेकिन मेरी खुशी का कारण कुछ और है !"
"क्या ?" मैंने पूछा !
"यह कि हम बनियों में भी कोई जबरदस्त लिखनेवाला है !" गौरीशंकर गुप्ता सहज भाव से बोले, लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि उनकी इस बात पर खुश होऊं या सिर पीटूँ ! ये बनिया-ब्राह्मण-क्षत्रिय वाली बात कभी किसी लेखक के मुंह से नहीं सुनी थी ! ना ही मेरे दिल-दिमाग में आई थी !
तभी बात का सिलसिला टूट गया !

अचानक किसी के आने की आहट उभरी थी और मेरी और गौरीशंकर गुप्ता, दोनों की निगाहें द्वार की ओर घूम गयीं थी !

द्वार पर जो शख्स था, उसने चटख रंग की चार खानों वाले डिज़ाइन की शर्ट और ब्राउन से कलर की पतलून पहन रखी थी !
शर्ट का निचला हिस्सा पतलून में था और एक चौड़ी बेल्ट पेट पर बंधी थी !

"आइये जमील साहब !" गौरीशंकर गुप्ता कुर्सी से खड़े हो गए थे ! अतः मैं भी खड़ा हो गया !
आज अगर आप किसी बड़े प्रकाशक के यहां जाएँ तो पहले तो ये ही जरूरी नहीं है कि आपकी सीधे प्रकाशक से ही मुलाक़ात हो जाए ! और फिर मुलाक़ात होने पर यह भी जरूरी नहीं है कि प्रकाशक सीट से उठकर आपका स्वागत करे, लेकिन उन दिनों लेखकों को भरपूर इज्जत भी मिलती थी !

हालांकि बाद में बदलते समय के साथ-साथ उगते सूरज को सलाम और बाकी सबको राम-राम की परिपाटी ने जन्म ले लिया था !

बहुत वक्त बाद ऐसा दृश्य मुझे उन दिनों के विख्यात उपन्यासकार प्यारेलाल 'आवारा' और साधना प्रतापी के साथ देखने को मिला था ! पर वह किस्सा बाद के पन्नों में पढियेगा !

जमील नाम मेरे लिए नितांत अपरिचित था ! इसलिए प्रश्नवाचक मुद्रा में मैंने गौरीशंकर गुप्ता की ओर देखा ! वो तुरंत सब समझ गए और मुझसे बोले -"योगेश, यह जमील अंजुम जी हैं ! हमारे लिए "मनोज" के सामाजिक उपन्यास यही लिख रहे हैं !"

फिर जमील अंजुम को मेरे बारे में बताते हुए वह बोले -"जमील साहब, यह योगेश मित्तल है, जितना छोटा है - उतना ही बड़ा उस्ताद है ! यह समझ लीजिये - जितना ज़मीन के बाहर नज़र आ रहा है - उतना ही अंदर है ! हमारे बाल पॉकेट बुक्स का सारा काम इसने और बिमल चटर्जी ने संभाल रखा है !"

जमील साहब ने मुस्कुराकर मेरे साथ हाथ मिलाया ! हाथ मिलाते-मिलाते बोले -"यूनिक पर्सनालिटी है आपकी ! एक बार जो आपसे मिल लेगा - वो भूल नहीं सकता !"
मैं मुस्कुराया -"चलिए, आप तो नहीं भूलेंगे, यह यकीन आ गया !"
"और आप तो हमें भूल जाएंगे !" जमील अंजुम ने चुटकी ली !
मैंने असहमति में सिर हिलाया और बोला -"याददाश्त कुछ ज्यादा ही अच्छी है मेरी ! फिर हम और आप एक ही ग्रह के प्राणी है ! साथ-साथ काम करेंगे ! उठना-बैठना रहेगा तो भूलने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता !" मैंने कहा !

तभी एक नौकर एक ट्रे में पानी के गिलास ले आया !
"बेटे तीन चाय बनवा ला...!" गौरीशंकर गुप्ता ने उस नौकर से कहा !

नौकर पानी की ट्रे मेज पर रखकर चला गया ! मैंने और जमील अंजुम ने पानी पिया, किन्तु गौरीशंकर ने गिलास एक ओर रख दिया !
     
फिर जमील अंजुम अपनी किसी स्क्रिप्ट के बारे में पूछने लगे तो गौरीशंकर गुप्ता ने बताया कि ट्रांसलेशन के लिए दी हुई है !
जमील अंजुम अपने उपन्यास उर्दू में लिखते थे ! उनका हिंदी ट्रांसलेशन किन्हीं देशराज जी द्वारा किया जाता था !

जमील अंजुम से बातें करते-करते गौरीशंकर ने मेज की दराज से एक सामाजिक नॉवल के टाइटल कवर के प्रूफ निकाले और जमील अंजुम और मुझे दिखाने लगे !

मुझे इसलिए - क्योंकि उस समय मैं वहां मौजूद था, वरना वह टाइटल जमील अंजुम को ही दिखाने के लिए निकाले गए थे !

उन दिनों ऑफसेट का ज़माना नहीं था ! कलर प्रिंटिंग भी ब्लॉक्स द्वारा की जाती थी ! छपनेवाली किताब का कलर डिज़ाइन आर्टिस्ट से बनवाने के बाद उसके ब्लॉक बनवाये जाते थे !

एक कलर डिज़ाइन के चार ब्लॉक्स बनते थे ! काला, लाल, पीला और नीला ! ब्लॉक बनाने वाले उसके प्रूफ छोटी प्रिंटिंग मशीन पर निकलवाते थे ! प्रूफ निकालने के लिए मशीन पर काले रंग का अलग प्रूफ फिर, नीले, पीले और लाल के भी अलग-अलग प्रूफ निकाले जाते ! काले के साथ नीले-पीले-लाल  का रिजल्ट भी चेक किया जाता था और अंत में चारों कलर छापने के बाद के रिजल्ट का जो प्रूफ निकाला जाता था, जो कि आर्टिस्ट के बनाये टाइटल से हुबहू मैच करता था !

प्रूफ जिस पेपर पर निकाले जाते थे, वह पतला सफ़ेद, किन्तु चमकदार होता था, जिसे उन दिनों क्रोमो आर्ट पेपर कहा जाता था ! बाद में टाइटल मोटे कार्ड जैसे पेपर पर छपता था !

आजकल कलर प्रिंटिंग पर लेमिनेशन की पर्त चढ़ाई जाती है, तब ऐसा नहीं था ! मोटे आर्ट कार्ड पर टाइटल छपने के बाद उसमें चमक नहीं होती थी ! अतः कवर पर कलरलेस वार्निश की पर्त चढ़ाई जाती थी, जिससे टाइटल की ख़ूबसूरती खूब बढ़ जाती थी !
टाइटल चमकने लगता था !

उसके बाद टाइटल में क्रीज़िंग कराई जाती थी, जो छपने वाली पुस्तक की मोटाई के हिसाब से, तथा किताब खोलते समय टाइटल न उखड़े का ध्यान रखते हुए आगे-पीछे दोनों तरफ चौथाई या एक तिहाई इंच की होती थी, जिसके कारण टाइटल पुस्तक से उखड़ने की संभावना नगण्य होती थी !

गौरीशंकर गुप्ता ने जो टाइटल दिखाया था, वह एक सामाजिक उपन्यास का टाइटल था और "मनोज" नाम से छपने वाले किसी उपन्यास का था ! टाइटल जमील अंजुम को भी पसंद आया और मुझे भी !

फिर चाय आने तक गौरीशंकर गुप्ता और जमील अंजुम के बीच ही बातें होती रहीं ! मैं मूक दर्शक बना बैठा रहा ! इस बीच मैंने ध्यान दिया कि गौरीशंकर बातें करते-करते एक कागज़ पर कुछ लिख रहे थे !
लिखने के बाद गौरीशंकर ने वह कागज़ चार तहों में मोड़ा और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोले -"तू दरीबे हमारी दुकान पर होता हुआ जाइयो ! यह कागज़ जगदीश जी या पिताजी को दे देइयो !"
मैंने कागज़ बिना देखे अथवा ध्यान दिए जेब में रख लिया !

थोड़ी देर में लड़का चाय ले आया !
चाय के दौरान हम लोग फिल्मों की बातें करने लगे थे ! शुरूआत किसने की थी - यह तो याद नहीं ! पर गौरीशंकर जमील अंजुम से फिल्म 'दिल एक मंदिर' की चर्चा कर रहे थे, जो उन्हें बहुत पसंद थी ! कहानियों में कुछ वैसे ही इमोशन हों, ऐसा सुझाव दे रहे थे ! दिल एक मंदिर की हीरोइन मीनाकुमारी भी गौरीशंकर गुप्ता को बहुत पसंद थी !

जैसे ही मैंने चाय का आखिरी घूँट भरकर कप रखा गौरीशंकर मुझसे बोले -"जमील साहब तो अभी काफी देर बैठेंगे ! बेटा, तुझे तो देर हो रही होगी ! हमारी दुकान पर जाकर पिताजी को या जगदीश जी को वह कागज़ दे दीजियो, जो मैंने तुझे दिया है !"

यह इशारा था मेरे लिए कि योगेश मित्तल, तुम निकल लो ! और मैं तो शुरू से ही खत का मज़मून लिफाफा देखकर भांपने वालों में रहा हूँ ! उठ खड़ा हुआ !

उठते-उठते दिल में आया कि गौरी भाईसाहब से कहूँ कि कम से कम एक उपन्यास की पेमेंट कर दें ! पर जमील अंजुम के सामने कुछ झिझक सी हुई और मैं जमील अंजुम तथा गौरीशंकर से हाथ मिलाकर वहां से निकल लिया !

रास्ते में मैं यही सोच रहा था कि आगाज़ जब खाली जेब रहने का हुआ है तो अब गर्ग एंड कंपनी से भी पेमेंट पता नहीं मिलेगी या नहीं !

दरीबा कलां मनोज पॉकेट बुक्स में पहुँच मैंने गौरीशंकर जी द्वारा दिया गया तह किया कागज़ उनके पिताजी पन्ना लाल गुप्ता जी को थमाया और कहा - "ये गौरी भाई साहब ने दिया है !"

पन्नालाल जी ने कागज की तहें खोलीं, तब तक मैं वापस जाने के लिए पलट चुका था ! इससे पहले कि मैं दुकान से नीचे उतर पाता, तेज आवाज़ कानों में पडी -" ओ लड़के ! रुक !"
मैंने पलट कर देखा ! कागज़ गद्दी पर खुला पड़ा था और पन्नालाल जी गल्ले में से रुपये निकाल रहे थे !

कागज़ पर लिखा था - योगेश को डेढ़ सौ रुपये दे दो ! 

पन्नालाल जी ने गल्ले से डेढ़ सौ रुपये निकाल कर मेरे हवाले कर दिए ! मैं बता नहीं सकता - अपनी उस समय की मनोभावना को !

पैसे पतलून की अंदरूनी जेब में रखकर मैं चलने को हुआ, तभी एक बार फिर आवाज़ उभरी -"रुक !"
मैं फिर से रुक गया ! पलटकर देखा ! पन्नालाल जी के हाथ में एक सफ़ेद कागज़ और पेन था ! कागज़ और पेन मेरी ओर बढ़ाते हुए वह बोले -"इस पर लिख एक सौ पचास रुपये नगद पाए और नीचे पूरा नाम लिखकर साइन कर दे !" 

मैंने कागज पर लिखकर साइन करके पन्नालाल जी को दिया तो वह कागज़ उन्होंने गल्ले में रख दिया ! मैं उन्हें हाथ जोड़, विदा ले मनोज पॉकेट बुक्स की दुकान से उतर गया !
तभी कान में आवाज़ पडी -"और भई योगेश !"
आवाज़ मनोज पॉकेट बुक्स के साथवाली दुकान से आई थी।
साथवाली दुकान नारंग पुस्तक भण्डार से, आवाज़ चन्दर की थी। उन दिनों वही नारंग पुस्तक भण्डार का सर्वेसर्वा था।

        उस दिन से पहले चन्दर से मैं विशेष घनिष्ठ नहीं था। पर उस दिन चन्दर से मुझे बहुत अपनापन मिला।
      उस दिन से पहले मेरी चन्दर से दुआ-सलाम के अलावा कभी कोई लम्बी बात-चीत नहीं हुई थी। हाँ, बिमल चटर्जी अपनी लाइब्रेरी के लिए किताबें नारंग पुस्तक भण्डार से ही लेते थे और तब से लेते आ रहे थे, जब वह लेखक नहीं थे। कोई किताब नारंग की दुकान पर न मिलने पर रतन एंड कंपनी से या पंजाबी पुस्तक भण्डार से लिया करते थे ! मनोज पॉकेट बुक्स की दुकान तब वहां नहीं होती थी।

      मनोज पॉकेट बुक्स का काउंटर खुलने के  बाद भी बिमल का नारंग पुस्तक भण्डार से जरूरत योग्य किताबें खरीदने का क्रम बना रहा।  हाँ, मनोज का सेट या नारंग के पास कोई किताब न होने पर, वह किताब अब मनोज के काउंटर से ली जाने लगी थी।

       चन्दर से बिमल चटर्जी की गहरी यारी थी ! ज़ाहिर था - मेरे बारे में बिमल की चन्दर से चर्चा होती रहती थी, इसलिए चन्दर मुझे अच्छी तरह जानता था।
चन्दर ने जब मुझे आवाज़ दी, मैं ठिठक गया।
"आ जा, ऊपर  आ जा !" चन्दर ने मेरी ओर हाथ बढ़ाया। मैंने हाथ मिलाया तो उसने हाथ थाम मुझे ऊपर खींच लिया। 

(शेष फिर)
और फिर चन्दर ने मुझे बताये सफल होने के गुर।
लिखने के लिए नए रास्ते।

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-23,24
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-27,28


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