मायाजाल - विक्की आनंद
साहित्य देश के उपन्यास अंश स्तम्भ के अंतर्गत इस बार पढें लोकप्रिय उपन्यासकार विक्की आनंद के उपन्यास मायाजाल का एक रोचक अंश।
विनोद के पलटने तक मोना अपने सांचे में ढले दूध जैसे गोरे बदन से कपड़े उतार चुकी थी। सिर्फ अण्डरवियर्स शेष रह गए थे। उसके गोरे बदन पर काले रंग की चड्ढी और काले ही रंग की चोली अलग से चमक रही थी।
दरवाजा अंदर से बंद करके मुड़ने पर विनोद उसे विस्मय से देखता का देखता रह गया।
उसने ऐसा दिलकश-दिलफरेब-हाहाकारी हुस्न पहली बार देखा था।
मोना ने तौबा शिकन अंदाज से दोनों हाथ उठाकर अंगड़ाई ली। उस घड़ी वह किसी नृत्यांगना जैसी मुद्रा में पंजों के बल खड़ी थी। अंगड़ाई लेते समय उसके उन्नत वक्षों में अतिरिक्त तनाव आ गया था। उसने विनोद की ओर देखते हुए कातिलना अंदाज में घनेरी पलकों और नाक को हल्की-सी जुम्बिश दी।
फिर उसका निचला अधर दांतों के बीच दब गया।
गहरी लाल लिपिस्टिक उसके अधरों को अलग-सी चमक प्रदान कर रही थी। व्हिस्की के नशे में थी वह।
उसी नशे में उसके नेत्र जगमग-जगमग कर रहे थे।
आमंत्रण की मुद्रा में उसने अपनी दोनों गुदाज बांहें फैला दीं।
खुद विनोद भी गहरे नशे में था।
जिस होटल में वह ठहरा था, उसके ठीक बाहर मोना से एक गुण्डे ने छेड़छाड़ शुरू कर दी। ऐन वक्त पर पहुंचकर विनोद ने उसे गुण्डे से बचा लिया। गुण्डे ने पहले चाकू, उसके बाद उस्तरे से उस पर वार करने चाहे थे, लेकिन उसका एक भी वार कामयाब न हो सका।
विनोद के हाथों मार खाकर आखिरकार वह भाग निकला और मोना उससे प्रभावित होने के उपरांत थोड़ी देर होटल के विभिन्न हॉलों में घूमती रही। खूब खाया-पिया, खूब मौज की।
और अब!
अब वह विनोद के सुइट में उसके सामने मौजूद थी।
वह इतनी ग्लैमरस-इतनी सैक्सी थी कि विनोद उसके इसरार को इंकार न कर सका।
आगे बढ़कर सांसें टकरायीं, तत्पश्चात् अधरों से अधरों का पुलकित कर देने वाला स्पर्श।
अधरों के स्पर्श के साथ ही तन-बदन में आग लग गई। मोना पहले ही आग पी चुकी थी। उस स्पर्श ने आग की लपटों को और अधिक भड़का दिया।
विनोद ने उसे गोद में उठाया तो उसने अपनी गोरी-गोरी सांचे में ढली मांसल बांहें विनोद की गर्दन में डाल दीं।
वह आसक्त भाव से विनोद की आंखों में देख रही थी।
अन्दर वाले कमरे में बैड था।
उसने मोना को ले जाकर उसी बैड पर डाल दिया।
उसके बाद!
उसने अपने कपड़े उतारे और खुद भी बैड पर गिर पड़ा। उसे अपने ऊपर गिरता देखकर मोना के मुख से चीख निकल गयी।
किन्तु विनोद का उसको अपने नीचे दबाने का कोई इरादा नहीं था।
उसने अंतिम क्षणों में अपनी दोनों बांहों के सहारे ऐन मोना के ऊपर अपने जिस्म का वजन रोक लिया।
फिर धीरे-से वह नीचे आया।
मोना उसके बोझ में दब गई, लेकिन दबकर कराही नहीं। अलबत्ता उसकी बांहें विनोद की चिकनी पीठ पर जा कसी। उसने विनोद के होंठों को अपने दांतों से भींच डाला।
विनोद उत्तेजित हो चला था।
उसने मोना को कसकर भींचा तो मोना के मुख से कामुक कराह फूट निकली, फिर उसके हाथ मोना के जिस्म के उभारों को सहलाते हुए पीठ की ओर मुड़ गए।
वह चोली का हुक तलाश कर रहा था, जो कि शायद उसे मिल नहीं पा रहा था।
नाकामयाबी के बावजूद उसने अपना प्रयास जारी रखा।
अन्ततः उसे कामयाबी हासिल हुई।
हुक खुल गया।
तत्पश्चात् वे निर्वसन अवस्था में एक-दूसरे की बांहों में समा गए। कामुक सीत्कार उभरने लगी।
‘ओह हनी....आह...।’ सुखद आनन्द की उत्तेजना में सीत्कार भरती मोना उसके चेहरे को अपने वक्षों के साथ भींचती हुई बड़बड़ाई‒‘कितने अच्छे हो तुम‒कितना प्यार तुम्हारी इन बांहों में समाया हुआ है। ओह जानम! तुम्हारी बांहों में सिमटकर इसी तरह प्यार पाती हुई मैं मर जाना चाहती हूं। मुझे-मुझे इतना प्यार करो कि मेरी जन्म-जन्म की प्यास बुझ जाए।’
विनोद ने उसे और अधिक शक्ति के साथ अपनी बांहों में भींच लिया।
दोनों की सांसों की रफ्तार तेज होती जा रही थी।
मोना को उसका कठोर स्पर्श अत्यंत सुखद प्रतीत हो रहा था। वह बदनतोड़ ढंग से विनोद को सहयोग करने लगी। उसके सहयोग से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह समूची विनोद में समा जाना चाहती हो।
उत्तेजना के उन क्षणों में घुटी-घुटी सी चीखें उसके हलक से खारिज होने लगीं। एक बार तो अत्यधिक उत्तेजित स्थिति में उसने विनोद के चिकने कंधे पर दांत गड़ा दिए।
थोड़ी देर बाद वह तूफान आकर गुजर गया।
तूफान गुजर जाने के बाद जिस प्रकार की शांति होती है, ठीक उसी प्रकार की शांति वहां स्थापित हो गई।
मोना विनोद के सीने पर फैल गई।
प्रशंसित दृष्टि से वह विनोद को निहार रही थी। वह अपलक विनोद की आंखों में झांक रही थी।
‘ऐसे क्या देख रही हो?’ कुछ देर बाद विनोद ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
‘देख रही हूं‒कितना प्यार अपने अंदर छिपाए हुए थे तुम।’ मोना मुस्कराकर बोली।
‘पगली...।’
‘दीवानी‒तुम्हारी दीवानी।’
‘कुछ देर पहले तक तो मुझे जानती भी नहीं थी तुम।’
‘कैसे अचरज की बात है। कुछ देर पहले तक हम अनजान थे। एक-दूसरे के लिए बिलकुल अनजबी थे।’
‘हां...और अब?’
‘अब तो हमारे रोम-रोम ने एक-दूसरे से पहचान कर ली है।’ वह पुनः मुस्कराई।
ऐसी मोहक मुस्कान कि विनोद उसे बार-बार देखने को उतावला होने लगा। बातों का सिलसिला थोड़ी देर तक और चला, तत्पश्चात अधरों के स्पर्श ने फिर से चिंगारी कुरेदनी आरंभ कर दी।
दबी हुई चिंगारी फिर से भड़की‒फिर तूफान आया और गुजर गया।
उसके बाद नींद का आक्रमण हुआ।
अस्त-व्यस्त स्थिति में एक-दूसरे के आलिंगन में गुंथकर वे नींद के हवाले हो गए। एक भी वस्त्र उनके बदन पर नहीं था। सीलिंग फैन पूरी रफ्तार से चल रहा था।
पानी बरस चुका था इसलिए हवा में ठंडक थी। ठंडी हवा की थपकी ने उनकी नींद को और भी ज्यादा गहरा कर दिया।
लगभग दो घंटे बाद।
मोना की आंखें इस तरह खुल गई जैसे उसके अंदर कोई टाइमर फिक्स हो जिसने वक्त होने पर उसकी आंखों को खोल डाला हो।
आंखें खुलने के बाद पहले उसने कनखियों से विनोद की ओर देखा, फिर अपनी स्थिति देखी।
वह पूरी तरह विनोद की बांहों में थी। विनोद की दायीं टांग उसके बाएं नितम्ब पर आकर रुकी हुई थी।
पहले उसने बहुत धीरे-से अपनी बांहों में गुंथी उसकी बांह निकाली, फिर थोड़ी से ऊपर को उठी। वह पूरी तरह इसलिए नहीं उठ सकती थी क्योंकि विनोद की भारी टांग उसके नितम्ब से फिसलती हुई कमर की गहराई की ओर पहुंची हुई थी।
उसने और अधिक उठने की कोशिश की तो विनोद की बालों वाली टांग उसकी गोरी चिकनी कमर के अंत तक पहुंच गई, फिर उसे अतिरिक्त शक्ति लगाकर विनोद की टांग अपने ऊपर से हटानी पड़ी।
तब विनोद ने कुनमुनाते हुए दूसरी तरफ करवट ले ली। वह कुछ ज्यादा ही गहरी नींद में था।
* * *
मायाजाल - विक्की आनंद
बहुत सावधानी के साथ मोना एक साइड में खड़ी हो गई।
विनोद के करवट बदलने की कार्यवाही ने उसे चौंका दिया था। वह सहमकर बैड की साइड में खड़ी हो गई थी। उस घड़ी उसके जिस्म पर एक नन्हा-सा भी कपड़ा नहीं था।
वीनस की मूर्ति जैसी प्रतीत हो रही थी वह।
मानो हर अंग सांचे में ढला हुआ हो।
उन्नत वक्ष-सपाट पेट-कमर की लोच और लम्बी आकर्षक टांगें।
वह कितने ही क्षणों तक विनोद की किसी अन्य करवट की प्रतीक्षा करती रही, तत्पश्चात् हल्के-हल्के खर्राटे उभरने लगे।
मोना ने झुककर उसे करीब से देखा। वह यह जांच करना चाहती थी कि विनोद नींद में डूब चुका है अथवा नहीं‒अंत में उसने यही निर्णय किया कि विनोद करवट बदलकर सो चुका है।
वह आगे बढ़ी।
बैड के करीब ही उसके उतरे हुए वस्त्र पड़े थे। पहले उसने अण्डरवियर्स उठाए। काली चोली बांहों में डालकर वह अपने दोनों हाथ पीछे ले गई। चोली का हुक लगाया फिर चड्ढी टांगों में डालकर ऊपर को गोल सुडौल नितम्बों तक खींच दी। चोली और चड्ढी दोनों का ही साइज छोटा प्रतीत हो रहा था।
उन्नत वक्ष चोली में समा नहीं पा रहे थे और चड्ढी नितम्बों पर खाल की तरह मढ़ गई थी।
अण्डरवियर्स पहनने के बाद उसने टॉप और स्कर्ट पहन लिए। हाई हील की सैंडिल ने उसे अलग-सा आकार दे दिया।
अपना बड़ा-सा पर्स संभालती हुई वह दबे पांव विनोद के कपड़ों की ओर बढ़ी।
पेेंट में उसे बटुआ मिल गया।
उसके अंदर सौ-सौ के कितने ही नोट ठुंसे हुए थे।
मोना ने फुर्ती से पर्स के नोट खींचकर अपने कब्जे में किए और फिर वह उस किटबैग की ओर बढ़ गई जिसे विनोद विदेशी पर्यटकों की भांति पीठ पर कसकर निकलता था।
उसने किटबैग खोलकर देखा।
अन्दर का सामान एक-एक कर बाहर निकालते हुए वह बैग की तलाशी लेने लगी। कुछ सामान उसकी समझ में नहीं आ रहा था‒जैसे शक्तिशाली गन के पार्ट्स-विचित्र प्रकार की गन थी वह‒उसे समझने में मोना अपना वक्त जाया करना नहीं चाहती थी। विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी मैगजीनें भी थीं और बीच में एक बड़े-से पैकेट में उसे मिला नोटों का पुलिन्दा।
सौ-सौ के नोटों की लगभग पन्द्रह गड्डियां।
एक लाख पचास हजार की रकम।
उस पुलिन्दे को भी मोना ने अपने पर्स में ठूंसना चाहा, किन्तु वह कामयाब न हो सकी। सुतली से बंधे उस पैकेट को लटकाए हुए वह विनोद की ओर मुड़ी।
विनोद ज्यों का त्यों पड़ा सो रहा था।
मोना ने जल्दी-जल्दी उस पैकेट को खोलकर गड्डियां अलग कीं फिर उसके बाद उन गड्डियों को अपने पर्स में सैट करना शुरू कर दिया।
दस गड्डियां तो उसके पर्स में आ गई।
शेष पांच गड्डियों को उसने टेबल के नीचे पड़े अखबार में लपेट लिया। वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी। दरवाजे की ओर बढ़ते हुए एकाएक ही उसकी नजर ड्रेसिंग टेबल के मिरर पर पड़ गई। मिरर में उसे अपने सिर के बाल उलझे हुए नजर आए।
वह उल्टी वापस लौटी।
उसने फुर्ती से कंघा उठाया और विनोद की ओर बार-बार देखती हुई अपने सिर के बालों को संवारने लगी। विनोद की जो स्थिति बाल संवारने से पहले थी, वही बाल संवारने के बाद रही।
वह घोड़े बेचकर सो रहा था।
उसके अंदर सौ-सौ के कितने ही नोट ठुंसे हुए थे।
मोना ने फुर्ती से पर्स के नोट खींचकर अपने कब्जे में किए और फिर वह उस किटबैग की ओर बढ़ गई जिसे विनोद विदेशी पर्यटकों की भांति पीठ पर कसकर निकलता था।
उसने किटबैग खोलकर देखा।
अन्दर का सामान एक-एक कर बाहर निकालते हुए वह बैग की तलाशी लेने लगी। कुछ सामान उसकी समझ में नहीं आ रहा था‒जैसे शक्तिशाली गन के पार्ट्स-विचित्र प्रकार की गन थी वह‒उसे समझने में मोना अपना वक्त जाया करना नहीं चाहती थी। विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी मैगजीनें भी थीं और बीच में एक बड़े-से पैकेट में उसे मिला नोटों का पुलिन्दा।
सौ-सौ के नोटों की लगभग पन्द्रह गड्डियां।
एक लाख पचास हजार की रकम।
उस पुलिन्दे को भी मोना ने अपने पर्स में ठूंसना चाहा, किन्तु वह कामयाब न हो सकी। सुतली से बंधे उस पैकेट को लटकाए हुए वह विनोद की ओर मुड़ी।
विनोद ज्यों का त्यों पड़ा सो रहा था।
मोना ने जल्दी-जल्दी उस पैकेट को खोलकर गड्डियां अलग कीं फिर उसके बाद उन गड्डियों को अपने पर्स में सैट करना शुरू कर दिया।
दस गड्डियां तो उसके पर्स में आ गई।
शेष पांच गड्डियों को उसने टेबल के नीचे पड़े अखबार में लपेट लिया। वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी। दरवाजे की ओर बढ़ते हुए एकाएक ही उसकी नजर ड्रेसिंग टेबल के मिरर पर पड़ गई। मिरर में उसे अपने सिर के बाल उलझे हुए नजर आए।
वह उल्टी वापस लौटी।
उसने फुर्ती से कंघा उठाया और विनोद की ओर बार-बार देखती हुई अपने सिर के बालों को संवारने लगी। विनोद की जो स्थिति बाल संवारने से पहले थी, वही बाल संवारने के बाद रही।
वह घोड़े बेचकर सो रहा था।
दरवाजे पर पहुंचकर मोना ने अंतिम बार विनोद की ओर मुड़कर देखा, फिर वह सावधानी के साथ बाहर निकल आयी।
उसने इधर-उधर कॉरीडोर में देखा।
फिर वह तेज कदमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ गई। उसके चेहरे की घबराहट को स्पष्ट नोट किया जा सकता था। पर्स उसके कंधे से लटकता हुआ कमर तक पहुंचा हुआ था और अखबार में लिपटी गड्डियों को उसने दाहिने हाथ में मजबूती से दबा रखा था।
होटल के रिसेप्शन काउंटर के सामने से गुजरती हुई वह कुछ ज्यादा ही नर्वस नजर आ रही थी। उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं।
सीढ़ियों के निकट वह लड़खड़ाई, किन्तु फिर तुरन्त ही संभल गई।
होटल के बाहर ही उसे टैक्सी मिल गई।
उसने टैक्सी ड्राइवर को चर्नी रोड का एक ऐड्रेस बताया और फिर चैन की लम्बी सांस लेती हुई टैक्सी कार की पिछली सीट पर फैल गई।
उस घड़ी जब टैक्सी कार होटल से दूर निकल आयी, तब उसके चेहरे से तनाव के निशान कुछ कम हुए।
रात के सन्नाटे में चर्नी रोड के एक अंधेरे भाग में टैक्सी कार ने उसे छोड़ दिया।
वह सधे हुए कदमों से आगे बढ़ी।
सड़क पार करके उसने सामने वाली बिल्डिंग में कदम रखा।
ग्राउंड फ्लोर पर ही उसका फ्लैट था।
उसने कॉलबैल बजाई। प्रतीक्षा की, फिर कॉलबैल बजाई फिर प्रतीक्षा।
तीसरी बार में दरवाजा खुला।
दरवाजा खोलने वाला काले सफेद बालों वाला अधेड़ व्यक्ति था। उसके चेहरे पर गहरी उदासी छायी हुई थी।
‘मां कैसी है अंकल?’ बूढ़े को देखते ही मोना कदरन ऊंचे स्वर में बोली।
‘बस तेरी राह देखती-देखती अभी थोड़ी देर पहले ही सोयी है।’ बूढ़े व्यक्ति ने कम्पित स्वर में कहा।
‘और दवा?’
‘आखिरी खुराक दे चुका हूं‒उसके बाद दवा कहां से दूंगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि जहां खाने को पैसे न हों‒जिस घर में दो दिनों से अनाज का एक दाना तक न आया हो, वहां दवा आने के बारे में क्या कहा जाए और गरीबी के इस आलम में मूजी मर्ज भी तो मिला है‒कैंसर जिसका नाम भर सुनकर मरीज आधे से ज्यादा मर जाता है।’
‘अब सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी अंकल‒सारी तकलीफें।’ मोना बूढ़े के पीछे आती हुई सहज स्वर में बोली।
फ्लैट का दरवाजा खुला रह गया था।
उन्होंने सपने में नहीं सोचा था कि कोई चोरों की तरह उनके फ्लैट में दाखिल हो जाएगा।
अन्दर कमरे में एक जर्जर चारपाई पर बेहद कमजोर बूढ़ी औरत पड़ी सो रही थी। उसके सिराहने रखी छोटी-सी टेबल पर ढेर सारी छोटी-बड़ी शीशियां रखी थीं।
किसी में दवा थी तो कोई खाली थी।
‘तू कह रही है सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी और मैं कह रहा हूं कि कैंसर किसी भी तरह ठीक नहीं होगा। इतना पैसा कहां से आएगा?’ बूढ़ा दर्द भरी आवाज में बोला।
‘ये लो अंकल‒आज मैं अपनी मां के इलाज के लिए ढेर सारा पैसा लेकर आयी हूं।’
मोना ने अखबार और पर्स में छिपे नोटों की गड्डियां निकालकर टेबल पर डाल दीं।
चोरों की तरह फ्लैट में दाखिल होनेवाला और कोई नहीं विनोद ही था‒विनोद दि टाइगर।
जिसके पीछे दिल्ली और बम्बई की पुलिस कई हत्याओं और लूट के मामलों में पड़ी हुई थी।
जब मोना उसके सुईट में चोरी कर रही थी, आंख उसकी उसी वक्त खुल गई थी, लेकिन वह हकीकतन इस बात का ख्वाहिशमंद था कि उस चोर लड़की के गिरोह के सरगना तक पहुंच सके जिसने मोना जैसी अच्छी‒सीधी-सादी लड़की को चोरी करने के लिए मजबूर कर दिया।
इसलिए वह पीछा करता हुआ सावधानी के साथ वहां तक पहुंच गया था।
मगर!
वहां सरगना या गैंग होने की जगह कहानी ही दूसरी थी। खिड़की से कमरे का नजारा करती आंखों ने जब उस छोटे से परिवार की गरीबी की कहानी सुनी‒जब ये जाना कि दो दिनों से वहां अनाज का एक दाना भी नहीं आया था‒तब उसकी आंखें नम हो गई।
वह आया तो पीछे इसलिए था कि मोना की गर्दन दबोच लेगा, किंतु गरीबी और बीमारी के शिकंजे को देख वह सहम गया।
‘इतना पैसा तू कहां से लायी मेरी बच्ची?’ बूढ़ा नोटों की गड्डियों की ओर देखता हुआ कह रहा था।
‘ले आयी अंकल‒ये न पूछो कहां से‒किस बेचारे शरीफ आदमी की जेब से।’
‘चोरी की तूने?’
‘मां को एड़ियां रगड़-रगड़कर मरते नहीं देख सकती‒नहीं देख सकती।’ मोना बूढ़े के सीने से सिर टिकाकर सुबकती हुई बोली।
‘मोना‒मेरी बच्ची। ये क्या किया तूने?’ बूढ़े ने दुखी स्वर में प्रलाप किया।
‘अंकल! मैं अपनी मां को बचाने की कोशिश कर रही हूं।’
‘चोरी करके?’
‘आप कुछ भी कहें।’
‘नहीं मोना‒नहीं। चोरी करना जुर्म है। पाप है। न जाने वह किस मुसीबत में होगा।’
‘मैंने कुछ भी गलत नहीं किया।’
ये तू समझती है न।’
‘मैं ठीक समझती हूं।’
‘उससे पूछ‒उसके दिल पर क्या गुजर रही होगी जिसका इतना सारा रुपया तू चुरा लायी है।’
‘उसका दिल बहुत मजबूत है. ...
उपन्यास- मायाजाल
लेखक- विक्की आनंद
प्रकाशक- डायमंड पॉकेट बुक्स
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