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बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

फंदा- अनिल सलूजा, उपन्यास अंश

फन्दा - अनिल सलूजा, बलराज गोगिया, प्रथम उपन्यास

  साहित्य देश के 'उपन्यास अंश' स्तम्भ में इस बार प्रस्तुत है अनिल सलूजा द्वारा लिखित प्रथम उपन्यास 'फंदा' का अंश। यह बलराज गोगिया सीरीज का प्रथम उपन्यास है और अनिल सलूजा जी के नाम से प्रकाशित होने वाला भी प्रथम उपन्यास है।
फन्दा - अनिल सलूजा, बलराज गोगिया, प्रथम उपन्यास

"क.... कौन हो तुम...." - बड़ी मुश्किल के बोल फूट पाया कुलकर्णी साहब के होंठों से।
रंगत एक दम से स्याह पड़ी हुई थी कुलकर्णी साहव की आंखों में खौफ के साये मंडराने लगे थे....। फटी-फटी आंखों से वे अपने सामने खड़े उन पांच नकाबपोशों को देख रहे थे जो कि उनके आठ साल के बेटे बबलू की खोपड़ी से स्टेनगन लगाये खड़े थे।
काले कपड़े में झांकते पांचों नकाबपोशों के होठों पर जहरीली मुस्कान रेंग गई।
एक नकाबपोश आगे बढ़ा- स्टेनगन अपने कंधे पर रखा और मुस्कान को और तेज करते हुए बोला- "जाहिर है हम अच्छे लोग नहीं हैं वर्ना काले कपड़ों में अपने मुंह छुपाकर तुम्हारे पास क्यों आते ।"
"क्या....क्या चाहते हो ?"
“हां....यह सवाल तुमने अच्छा किया।" - नकाबपोश अपनी स्टेनगन को कुलकर्णी साहब के सीने के सटाते हुए बोला- "बलराज गोगिया को फांसी का हुक्म तुमने ही सुनाया था न कुलकर्णी ?"
बुरी तरह से चौंके कुलकर्णी साहब....।   बलराज गोगिया को अच्छी तरह से जानते थे वे । छः हत्याओं का आरोप था उस पर और हत्यायें भी साबित हो चुकी थीं सो कुलकर्णी साहब ने अपना फैसला सुनाते हुए उसे फांसी की सजा सुनाई थी और कल सुबह साढ़े दस बजे उसे फांसी पर चढ़ाया जाना था।
"कहां खो गये कुलकर्णी....।"- नाकबपोश उनकी आंखों में झांकते हुए बोला- "याद करने की कोशिश कर रहे हो ?"
"मुझे याद है कल उसे फांसी भी दी जाने वाली है।"
''लेकिन उसे फांसी नहीं मिलनी चाहिए !"
"क्...या ? उछल पड़े कुलकर्णी साहब ....ए.... ऐसा कैसे हो सकता है?"
"ऐसा ही होना चाहिए, बलराज गोगिया को फांसी नहीं मिलनी चाहिए उसे जेल से आजाद करवाना है तुम्हें।"
"म.... मुझ.....लेकिन में ऐसा कैसे कर सकता हूँ ?" -खौफ के साथ-साथ आश्चर्य मंडरा रहा था उनके चेहरे पर।
"यह हम बतायेंगे तुम्हें....? तुम्हें बस वही करना होगा जो हम कहेंगे?"
"........लेकिन ए.....ऐसा नहीं हो सकता....म.....मैं अपने फर्ज से गद्दारी नहीं कर सकता।"
"अगर तुम यह काम नहीं करोगे तो कोई और काम कर देगा लेकिन तब तुम रूमाल को नीचे गिराकर जल्लाद को इशारा करने के लिए जिन्दा नहीं रहोगे। अभी जब हम बाहर निकलेंगे तो अपने पीछे दो लाशें छोड़ जायेंगे, एक तेरे इस पिल्ले की तथा दूसरी तुम्हारी और इसे"- उसने एक तरह बेहोश पड़ी कुलकुर्णी साहब की खूबसूरत पत्नी की तरफ इशारा किया- "इसे हम अपने साथ ले जायेंगे और तब तक इसके साथ बलात्कार करते रहेंगे जब तक कि यह मर नहीं जाती।"
"नहीं....।" बुरी तरफ से कांप उठे कुलकर्णी साहब- "त...तुम ऐसा नहीं कर सकते.....।" -कह तो दिया था उन्होंने-लेकिन इतना कहने भर के लिए उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ी थी यह वही जानते थे-पसीने से उनके कपड़े तक गीले हो गये थे।
"विल्कुल भी नहीं करेंगे"- मुस्कराया नकाबपोश- "बशर्ते कि तुम वो करो जो हम चाहते हैं।"
          कुलकर्णी के सामने अपनी लाश और बेटे की लाश का नजारा घूमने लगा- दृश्य बदला और उसकी पत्नी से बलात्कार का दृश्य उभरने लगा नकाबपोशों की लम्बी लाईन लगी हुई है और लाईन में सबसे आगे वाला नकाबपोश उनकी पत्नी की इज्जत लूट रहा है— उनकी पत्नी चीख रही थी-स्वयं को छोड़ देने के लिए गिड़गिड़ा रही है लेकिन उसकी गिड़गिड़ाहट को कोई भी नहीं सुन रहा है। दृश्य पुनः बदला-उनकी पत्नी की लाश उनकी आंखों के सामने तरने लगी- खून से लथपथ उसके चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे मरने से पहले उसे अत्याधिक पीड़ा सहनी पड़ी हो और आखिर पीड़ा को सहते हुए उसने दम तोड़ दिया हो।
"न....हीं।" - खौफ से एक दम से चीख उठे, कुलकर्णी साहब - "म.... मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है। म..... मैं वो सब कुछ करूंगा जो तुम चाहते हो....ल....लेकिन मेरी पत्नी वे बेटे को छोड़ दो।" - बेशक कुलकर्णी साहब एक मजिस्ट्रेट थे-मगर मजिस्ट्रेट भी तो एक इंसान होता है और दुनिया का कोई भी ऐसा इंसान नहीं जिसकी कोई कमजोरी न हो।
        कुलकर्णी साहब की कमजोरी उसकी पत्नी व एकमात्र बच्चा था जिसे वे अपनी जान से ज्यादा प्यार करते थे। विजयी मुस्कान खिंच उठी नकाबपोश के होंठों पर- "हमें तुमसे ऐसी ही समझदारी की आशा थी कुलकर्णी....।"
"म....मुझे करना क्या होगा ?"
"तुम्हें कुछ नहीं करना होगा जो करेंगे हम ही करेंगे-तुम्हें तो बस हमारे लिए रास्ते खोलने होंगे।"
कहकर वह नकाबपोश कुलकर्णी साहब को बताने लगा कि उन्हें क्या करना है।

फंदा- अनिल सलूजा

"खट.... खट.... खट ।"
भारी बूटों की आवाज सुनकर बलराज गोगिया ने अपना झुका हुआ सिर उठाया। मजिस्ट्रेट के साथ एक इंस्पेक्टर और तीन सिपाही उसकी तरफ आ रहे थे। उन पांचों के पीछे हाथों में एक थाली पकड़े एक पण्डित भी आ रहा था.... । थाली में पूजा वगैरह का सामान था। बलराज गोगिया जानता था कि पण्डित पूजा की थाली लिए उसके पास क्यों आ रहा है क्योंकि आज उसकी जिन्दगी का आखिरी दिन था ।
         ठीक डेढ़ घण्टे बाद उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाना था और मरने से पहले उसे धार्मिक संस्कारों से नवाजा जाना था। मरने से पहले ही उसकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना की जानी थी। मौत की सफेदी तो बलराज गोगिया के चेहरे पर उसी दिन ही पुत गई थी जिस दिन उसे फांसी की सजा का हुक्म सुनाया गया थी। और उसके पश्चात् तो सफेदी का रंग हर दिन गाढा ही होता चला गया। बलराज स्वयं को सम्भालने की कोशिश भी करता, मगर मौत का खौफ उसे सम्भलने ही नहीं देता था। पिछले दिन में तो उसकी भूख ही मर गई थी।
        कुल मिलाकर नब्बे परसेंट तो वह वक्त से पहले ही मर चुका था-अब तो बस उसकी मौत की रस्म पूरी करना रह गई था वरना उसमें बचा ही क्या था। सिपाही ने लोहे की मोटी सीखचों वाले दरवाजे का ताला खोला और अदब से एक तरफ खड़ा हो गया।
मजिस्ट्रेट, पण्डित, और इसपेक्टर के प्रविष्ट होने के उपरान्त चारों सिपाही भी अन्दर प्रवेश कर गये।
"बलराज गोगिया उर्फ बल्लू" - मजिस्टेट उसकी तरफ देखते हुए गम्भीर स्वर में बोले-"ठीक डेढ घण्टे बाद, दस बजकर तीस मिनट पर तुम्हें फांसी दे दी जायेगी- अगर तुम्हारी कोई अन्तिम इच्छा हो तो बताओ कानून उसे पूरी करने की भरसक कोशिश करेगा।"
बलराज ने सूनी-सूनी आंखों से मजिस्ट्रेट की तरफ देखा-लेकिन मुँह से एक शब्द नहीं फूटा उसके, जैसे मौत ने वक्त से पहले ही उसकी आवाज छीन ली हो।
"क्या तुम्हारी कोई अन्तिम इच्छा है बलराज गोगिया उर्फ बल्लू....।" - बलराज ने बोलना चाहा मगर बोल नहीं पाया वह, सो इन्कार में सिर हिला दिया।
मजिस्ट्रेट ने पण्डित की तरफ देखा- "आप अपनी रस्में पूरी कीजिए पण्डित जी।"
            पण्डित आगे बढ़ा और मन्त्र पढ़ने के साथ-साथ उस पर फूल फेंकने लगा जैसे भैंसे को बलि के लिए तैयार किया जा रहा हो.....। तत्पश्चात पण्डित ने उसके माथे पर तिलक लगाया और एक लम्बी सांस छोड़कर मजिस्टेट की तरफ देखने लगा
मजिस्ट्रेट समझ गये कि पण्डित अपना काम पूरा कर चुका है....। एक बार अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली उन्होंने और फिर वापिस मुड़ गये।

   फंदा- अनिल सलूजा

मारुति कार की विण्ड स्क्रीन के बायें कोने पैर लगे रेडक्राॅस के कारण दूर से ही पता चल रहा था कि वह किसी डाक्टर की कार है....। कार की ड्राइविंग सीट पर डाक्टर बतरा बैठा हुआ कार को ड्राइव कर रहा था।
थोड़ी दूरी पर ही बाई तरफ एक मोड़ था....। जैसे ही बतरा की कार मोड़ काटने को हुई, तेज गति से आती हुई एक मोटर साइकिल भड़ाक से उसकी कार से आ टकरायी
एक तेज चीख के साथ मोटर साईकिल सवार उछला और विण्डस्क्रीन से टकरा कर उसे तोड़ता हुआ कार के अन्दर आ गिरा। खुद बतरा का सिर स्टेयरिंग से आ टकराया था।
कार तो पहले ही रोक चुका था बतरा....। सो डाक्टर होने के नाते अपनी कार के हुए नुकसान को देखने से पहले उसने कार के अन्दर पड़े एक व्यक्ति को देखा जो आधा पिछली सीट की तरफ लटका हुआ था जबकि उसकी टांगे अगली सीट पर लटक रही थी।
          और जैसे ही उसने उसे देखने के लिए सीधा किया। एक अप्रत्याशित हरकत की उस व्यक्ति ने जिसके सिर पर हेलमेट था तथा चेहरे पर काला शीशा चढ़ा हुआ था जादु के जोर से जैसे रिवाल्वर प्रकट हुई उसके हाथ में और सीधी डाक्टर बतरा की कमर से जा टकराई।
"खबरदार- अगर जरा भी चीखा तो गोली सीधी पसलियों में  जा घुसेगी।"
ऐसी किसी हरकत की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी बतरा को।  सकते की सी दशा में बैठा वह आंखें फाड़े उसी हेलमेट पहने व्यक्ति को देखने लगा।
              रिवाल्वर बतरा की कमर से लगाये हुए उस व्यक्ति ने अपने दायें बायें गर्दन घुमाई, यह देखने के लिए कि एक्सीडेण्ट ने किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित तो नहीं किया।
लेकिन वहां दूर-दूर तक उसे कोई नजर नहीं आया। आश्वस्त हो उसने बनरा की तरफ देखा।
"चल....।"-  सांप की तरफ फुंफकारा वह हेलमेट वाला - "नीचे उत्तर....।" साथ ही रिवाल्वर का दबाव बढ़ाया उसने, रिवाल्वर के दबाव ने बतरा को सकते की सी स्थिति से उभारा।
"क... कौन हो तुम?" -बुरी तरह से डर गया था बतरा।  
"तेरा बाप.....।" - गुर्राया हेलमेट वाला -"कुछ और ज्यादा सवाल नहीं पूछना, नीचे उतर।"
बेबसी और खौफ से बतरा ने अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी और अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया। पीछे-पीछे हेलमेट वाला भी बाहर आ गया.... । रिवाल्वर को उसने अपनी पैंट की जेब में डाल लिया था और साथ ही हाथ को भी अन्दर ही पड़ा रहने दिया।
"कोई चालाकी मत दिखाना।" - डाक्टर से चेतावनी भरे स्वर में बोला वह - "मेरी पैंट में तो सिर्फ छोटा सा सुराख होगा जिसे मैं बाद में रफू करवा लूंगा लेकिन तेरे सीने में जो सुराख होगा उसे कोई रफू नहीं कर पायेगा।"
"लेकिन.....त....तुम लोग चाहते क्या हो ? कौन हो तुम.....?
"सब पता चल जायेगा-फिलहाल तो उस कार की तरफ चल और उसमें बैठ जा ।"-  हेलमेट वाले ने कुछ दूरी पर खड़ी सफेद एम्बेस्डर की तरफ इशारा करते हुए कहा।
बतरा ने अपनी थूक सटकी और कांपते कदमों से एम्बेस्डर की तरफ बढ़ने लगा। इस वक्त अगर कोई उसके कलेजे पर हाथ रखता तो अपनी धड़कन से बतरा का कलेजा उसके हाथ को ही पीछे धकेल देता। उसके कार के करीब पहुंचते ही कार की पिछली सीट वाला दरवाजा खुल गया। बतरा समझ गया कि कार में पहले से ही कोई मौजूद है।
जैसे ही बतरा ने कार के अन्दर झांका-घुटी- घुटी चीख निकल गई उसके होंठों से। आश्चर्य से उसकी आंखें फटने लगी-हैरत से उसका मुंह खुल गया।
अन्दर एक और डाक्टर बतरा बैठा हुआ था-बिल्कुल उसकी फोटो स्टेट था वह। उन्नीस बीस का भी फर्क नहीं था।
"अन्दर आ जा डाक्टर....।" अन्दर बैठे डाक्टर बतरा ने मुस्कुराते हुए कहा ।
आश्चर्य का एक और झटका लगा बतरा को.... । उसे ऐसा लगा जैसे उसकी आवाज अन्दर बैठे बतरा ने छीन ली हो। “क... कौन हो तुम...?" - बतरा बोला।
"डाक्टर बसंत कुमार बतरा....।" - अन्दर बैठे बतरा की मुस्कान और भी तेज हो गई।
"न....हीं।" हौले से चीख उठा बतरा - "बसंत कुमार बतरा तो मैं हूँ।”
"पहले थे.... अब मैं हूँ।"
"लेकिन....।"
शब्द अधूरे ही रह गये बतरा के और मुंह से हल्की सी चीख निकल गई।
पीछे खड़े हेलमेट वाले ने उसके कूल्हे पर लात जमा दी थी और वह चीखता हुआ अन्दर बैठे बतरा की गोद में आ गिरा। जब तक वह सीधा होता है हेलमेट वाला भी अन्दर आ चुका था।
अब पिछली सीट पर दो डाक्टर बतरे बैठे थे तथा एक हेलमेट वाला।
“चलो....।" - कार का दरवाजा बन्द करते हुए हेलमेट वाला ड्राईविंग सीट पर बैठे व्यक्ति से बोला। इसी के साथ ही एम्बेस्डर, स्टार्ट हुई और हल्के से झटके के साथ आगे रेंग गई।
"य.... यह तुम मुझे कहां ले जा रहे हो ? क.... कौन हो तुम?" - बारी-बारी से दोनों को देखते हुए डाक्टर बतरा बोला।
"घबरा नहीं डाक्टर-ठीक ग्यारह बजे तुझे आजाद कर देंगे हम....।" -हेलमेट वाला बोला।
"ल.....लेकिन साढ़े दस बजे मुझे कहीं पर जरूरी पहुंचना है।"
"तुम जरूर पहुंचोंगे वहां।" - हेलमेट वाला पुनः बोला- “साढ़े दस बजे जहां पर तुझे पहुंचना है वहां यह डाक्टर बतरा पहुंचेगा।"
“क..... कब ....?"-  उछल पड़ा बतरा और साथ ही उसकी आंखों में हैरत के भाव गोते लगाने लगे।
“अब हैरान मत हो डाक्टर जल्दी से अपना आई-कार्ड निकाल....।"
“लेकिन......
"इन्कार करेगा तो भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा-तुझे मारकर - हम तेरी लाश से वो सब कुछ बरामद कर लेंगे....."
अगला पल भी नहीं लगाया बतरा ने और जेब से आई-कार्ड निकाल लिया जिसे दूसरे बतरा ने झपटकर उसके हाथ से खींच लिया।
और फिर उन्होंने बतरा से वह सारा सामान ले लिया जो कि डाक्टर बतरा के पास होना अनिवार्य था।

फंदा- अनिल सलूजा

फांसी घर के बाहर आठ सुरक्षा गार्ड हाथों में स्टेनगन लिए
खड़े पूरी तरह से सतर्क खड़े थे हालांकि आज किसी ऐसे मुजरिम को फांसी नहीं दी जा रही थी जिसके मरते ही हंगामा खड़ा हो जाता।
            आज जिसे फांसी दी जाने वाली थी उसका तो रिश्तेदार के नाम पर भी कोई नहीं था। लेकिन फिर भी अपनी ड्यूटी को पूरी मुस्तैदी से निभा रहे थे।
          तभी एक टैक्सी फांसी घर के आगे रुकी और उसमें से डाक्टर बतरा उतरकर फांसी घर के गेट की तरफ बढ़ने लगा । फांसी घर के बाहर खड़े सुरक्षा गार्ड उसे जानते थे तभी उसके नजदीक आते ही एक गार्ड बाल पड़ा-“आज आपकी कार नहीं आपके साथ डाक्टर साहब....।"
            एक बार तो हड़बड़ा गया डाक्टर बतरा, लेकिन अगले ही क्षण वह मुस्करा पड़ा- “शुक्र है में यहां पहुंच गया, रास्ते में कार मोटर साईकिल से टकरा गई, भगवान का शुक्र है कि मोटर साइकिल वाले की जान बच गई....। पुलिस कार्यवाही के लिए मुझे कार को वहीं छोड़ना पड़ गया, यूँ भी कार की विण्डस्क्रीन चूर-चूर हो गई थी।"
"ओह।" - दूसरा बोला-"आपको चोट तो नहीं आई "
“बच गया-वर्ना यहां कैसे आ जाता...।" -कहकर बतरा ने अपनी जेब से अपना आडेंटिटी कार्ड निकाल कर एक गार्ड की तरफ बढ़ा दिया।
"इसकी क्या जरूरत थी डाक्टर साहब-हम तो आपको जानते ही हैं।" - गार्ड कार्ड लेकर उसे गौर से देखते हुए बोला ।
"हर बार यही कहते हो और हर बार कार्ड लेकर उसे गौर से देखते भी हो।"-  मुस्कुराया बतरा - "फिर भी मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं क्योंकि तुम अपनी ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से निभा रहे हो।"
"इस वैग में क्या है......?" - बतरा के हाथ में पकड़े डाक्टरों वाले बक्से की तरफ देखते हुए पूछा ।
अन्दर ही अन्दर कांप उठा बत्तरा-लेकिन अपने चेहरे पर उनके भावों को उजागर नहीं होने दिया।
"डाक्टरी का सामान. .. चैक कर लो....।" -बक्सा आगे बढ़ाते हुए बोला।
गार्ड ने आई-कार्ड वापिस दिया और बक्सा खोलकर एक सरसरी नजर मारकर मुस्कुराते हुए बोला- "आप जा सकते हैं।"
          भगवान का लाख-लाख धन्यवाद करने लगा बतरा-अगर कहीं गार्ड बक्से में पड़े सामान को निकाल कर चैक करता तो वह रिवाल्वर उसकी निगाहों में जरूर आ जाता जो कि ब्लडप्रेशर यन्त्र के अन्दर पड़ा हुआ था।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.... बाल-बाल बच गया था डाक्टर बतरा।
मुस्कुरा कर देखा उसने गार्ड की तरफ और अन्दर चला गया।
  
 फंदा- अनिल सलूजा
बेड़ियों में जकड़े बलराज गोगिया की तरफ देखते हुए मुस्कुराया डाक्टर बतरा- "हेलो यंगमैन....।"
प्रत्युत्तर में बलराज गोगिया ने मुस्कुराना चाहा-मगर हँसी तो उसका साथ छोड़ चुकी थी-निर्विकार ढंग से उसने बतरा की तरफ देखा और सिर झुका लिया।
"मैं डाक्टर बतरा हूँ तुम्हें चैक करने आया हूँ....। ऐसा ही
दस्तूर है हमारे कानून का कि जब तक मुलजिम पूरी तरह से ठीक-ठाक न हो उसे फांसी नहीं दी जा सकती।"
बलराज गोगिया फिर भी कुछ नहीं बोला- बस सूनी-सूनी: आखों से बतरा का चेहरा निहारने लगा।
बतरा ने बलराज गोगिया के आस-पास खड़े दोनों सिपाहियों की तरफ देखा और बोला- “इसकी हथकड़ियां और बडड़ियां खोल दो।"
आज्ञा का पालन किया उन्होंने....। कुछ ही देर में बलराज गोगिया पूरी तरह से आजाद था।
"लेट जाओ....।"-  डाक्टर का अगला आदेश बलराज गोगिया  के लिए था।
बलराज गोगिया जेल के अन्दर बने स्थान पर लेट गया...।
आंखें छत की तरफ टिकाये हुए वह सोचों में डूबा हुआ प्रतीत हो रहा था.... । लेकिन वह सोचों में नहीं डूबा हुआ था बल्कि अपनी तरफ बढ़ रही मौत को देख रहा था जो कि उससे कुछ ही दूर रह गई थी.... ।
केवल दस मिनट शेष रह गये थे-उसके पश्चात् फांसी का फंदा उसके गले में पड़ जाना था।
                 बतरा ने अपना बक्सा खोलकर उसमें से स्टैथेस्कोप निकाला और उसकी दोनों ट्राइयां कानों में डालकर बलराज गोगिया को चैक करने लगा ।
          दोनों सिपाही अपने आप में बातें करने में मशगूल हो गये थे-डाक्टर के क्रियाकलापों में जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखा रहे थे दोनों।
              बलराज गोगिया को चैक करते हुए ही बतरा ने ब्लडप्रेशर चैक करने का यन्त्र निकाला और दोनों सिपाहियों की तरफ देखा....। दोनों अभी भी पूर्वावस्था में ही खड़े थे।
घबरा उठा बतरा कर दिल.... । उस यन्त्र के अन्दर वस्तु ही ऐसी थी कि अगर किसी को भी पता चल जाता तो उसकी तो घण्टी बज जानी थी।
              किसी तरह उसने अपने दिल को मजबूत किया और यन्त्र का लाक खोल दिया। हल्की सी क्लिक की आवाज के साथ यन्त्र का ढक्कन ऊपर उठ गया और उसमें रखा रिवाल्वर किसी नाग की तरह नजर आने लगा। कांपते हाथों से उसने रिवाल्वर बाहर निकाली और फिर तेजी से बलराज गोगिया के हाथ में दे दी।
             छत की तरफ देखता बलराज गोगिया एकदम उछल पड़ा और जब उसकी नजर रिवाल्वर पर पड़ी तो मारे हैरत के उसकी आंखें फटने लगीं। अगर डाक्टर बतरा तुरन्त ही उसका हाथ दबाकर उसे चुप रहने का संकेत नहीं करता तो यकीनन बलराज गोगियां के होंठों से कोई आवाज निकल जानी थी।
फटी-फटी आंखों से वह डाक्टर को देखने लगा....। लेकिन बलराज ने उसे रिवाल्वर अपने कपड़ों में छुपा लेने का इशारा कर दिया ।
   
मौत की राह में गहराते अंधेरों में यकायक ही बलराज गोगिया को जिन्दगी की एक हल्की सी चमक नजर आई.... ।
         अगले ही पल रिवाल्वर उसके पायजामे के नाड़े में फंस गई। और तब बतरा ने पुनः एक नजर उन दोनों गार्डों पर डाली और अपनी जेब से एक गोली निकाल कर बलराज गोगिया के मुंह की तरफ ले जाने लगा।
गोली को देखते ही बलराज गोगिया समझा कि बतरा उसे वह गोली देना चाहता है....। क्यों ? इसका पता नहीं था उसे-फिर भी उसने अपना मुंह खोल दिया-वह सोचकर कि अवश्य ही इस गोली में कोई ऐसा जादू मन्त्र होगा जो उसे आजाद कर देगा।
          हो सकता है गोली मुँह में जाते ही वह अदृश्य हो जाये और आराम से टहलता हुआ यहां से निकल जाये, जो कुछ भी था -बलराज गोगिया ने गोली लेने के लिए अपना मुंह खोल दिया। बतरा ने गोली उसके खुले मुंह में डाल दी और साथ ही उसे निगल जाने का इशारा कर दिया। अगले ही पल गोली बलराज गोगिया के पेट के अन्दर पहुंच गई।
           चैन की एक लम्बी सांस छोड़ी बतरा ने और डाक्टरी का अन्य  सामान निकलकर बलराज गोगिया को चैक करते हुए बोला- "बाखुदा तुम तो बिल्कुल ठीक ठाक हो, अच्छे खासे हो, जबकि ऐसी हालत में तो आम आदमी वक्त से पहले ही स्वयं को मरा हुआ महसूस करने लगता है। बहुत हौसला है तुममें। वक्त से पहले मौत से डर जाना बेवकूफी होती है और तुम बेवकूफी तो बिल्कुल भी नहीं दिखा रहे....। मौत तो यकीनी है फिर उससे डरना कैसा ?"
चैक करने के साथ-साथ बतरा उसे भाषण भी पिलाता जा रहा था जैसे उसे सीख दे रहा हो।
इधर बलराज गोगिया को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके सीने में कोई अंगारा भड़क रहा हो और उसकी तपिश धीरे-धीरे पूरे सीने में फैल रही हो.... ।
             अपने सीने में तप रहे ज्वालामुखी को किसी प्रकार ठण्डा करने की कोशिश करने के साथ-साथ बलराज गोगिया यह भी सोच रहा था कि बतरा आखिर है कौन-क्यों आजाद करवाना चाहता है वह, उसे रिवाल्वर दी, उसने बलराज गोगिया को देखा-उसे कोई गोली खिलाना, यह सब क्यों कर रहा है बतरा ।
          जबकि वह कोई ऐसा खास शख्स भी नहीं जिसकी किसी को खास जरूरत हो। और भी बहुत कुछ सोचना चाहता था बलराज गोगिया और वह सोचता भी.... लेकिन उसमें पहले ही उसके पेट में पहुंची गोली ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था।
            सीने में सुलग रहा ज्वालामुखी भड़क उठा था- पूरे सीन में जैसे आग भर गई थी- चेहरे पर पीड़ा के लक्षण उजागर होने लगे। और फिर जोर-जोर से चीखने लगा बलराज गोगिया। उसके साथ ही वह उठा और वहीं पर 'कै' कर दी। बुरी तरह से तड़फता हुआ वह जमीन पर लोटने लगा।  बलराज गोगिया की चीख सुनकर दोनों गार्ड बुरी तरह से चौक कर उसकी तरफ देखने लगे-और जब उन्होंने बलराज गोगिया की हालत देखी तो उन दोनों के चेहरों पर पीसने की बूंदे चमकने लगी। फांसी लगने में तो अभी दस मिनट पड़े थे मगर बलराज गोगिया की हालत देखकर ऐसा महसूस हो रहा था कि वह दस मिनट भी नहीं जी पायेगा। घबराते हुए चेहरों के साथ दोनों गार्डों ने बतरा की तरफ देखा जो कि खुद हैरानी से बलराज की तरफ देख रहा था.... । दोनों को अपनी तरफ देखते ही जोर से चीख उठा वह-  "इसने कोई जहरीली चीज खा ली है....।"
"क....या.... " बुरी तरह से उछल पड़े दोनों गार्ड-''ल......लेकिन अभी-अभी तो यह बिल्कुल ठीक-ठाक था। खुदआपने भी इसे ठीक घोषित किया था।" - एक गार्ड शक भरी निगाहों से बतरा को देखते हुए बोला।
"मैं कब कह रहा हूँ कि मैंने इसे ठीक-ठाक घोषित नहीं किया था, लेकिन कोई जहरीली चीज इसने काफी पहले ही खाली थी और उसका असर अब हुआ।"
"लेकिन....।"
"बहस मत करो और इसे फौरन अस्पताल पहुंचाने का बंदोबस्त करो।"-  चीख उठा बतरा - "अगर कैदी को कुछ हो गया तो मैं सारी गलती तुम्हारी ही निकालूंगा।"
“आप जो जी में आये करते रहिये डाक्टर साहब-लेकिन कैडी को हम मजिस्ट्रेट की मर्जी के बिना अस्पताल नहीं ले जायेंगे।"
"चाहे यह मर ही क्यों न जाये ?"
"बेशक यह मर जाये.....।" - दूसरा गार्ड कठोर लहजे में बोला ।
"ठीक है।" हारे हुए स्वर में बोला बतरा - "तुम मजिस्ट्रेट को सूचित करके खुद ही इसे ले जाना। मैं चलता हूँ.....।"
और जैसे ही बतरा चलने को हुआ दूसरे गार्ड ने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया। चौंक कर बतरा उसकी तरफ देखने लगा-"मेरा रास्ता क्यों रोका ?"
"कैदी की हालत तुम्हारे यहां आने के बाद ही खराब हुई है डाक्टर।"-गुर्राहट उबली गार्ड के मुख से - "इसलिए फिलहाल तो तुम कहीं नहीं जा सकते....।"
"त...तुम मुझ पर शक कर रहे हो ?" - गुस्से से तमतमा उठा बतरा का चेहरा।
"तुम कुछ भी समझो-लेकिन जब तक अस्पताल में यह जांच नहीं हो जाती कि कैदी को जहर कब दिया गया था या उसने खुद लिया-तुम शक के ही दायरे में रहोगे।"
मन ही मन मुस्कुरा पड़ा बतरा ।
वह खुद भी तो यही चाहता था कि बलराज के पास रहे और वही हो रहा था। लेकिन ऊपर से उसने हारी हुई एक सांस छोड़ी और बोला- “ठीक है तुम मजिस्ट्रेट को फोन करो।"
उस गार्ड ने अपने साथी की तरफ देखा ।
उसके देखने का मतलब समझ दूसरा गार्ड फौरन बाहर निकल गया।
करीब पांच मिनट बाद जब गार्ड वापिस लौटा तो मजिस्ट्रेट कुलकर्णी उनके साथ था। आजू-बाजू हाथों में गनें लिए दो बाॅडी गार्ड उनके बराबर चल रहे थे।
बाॅडी गार्डों पर नजर पड़ते ही बतरा के होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान आकर गायब हो गई वे दोनों बाॅडीगार्ड उसके अपने ही आदमी थे। यानि सारा बन्दोबस्त हो चुका था। मजिस्ट्रेट कुलकर्णी साहब ने अपनी बुझी हुई आंखों से एक नजर बतरा पर डाली- फिर बतरा को कवर किये गार्ड की तरफ देखते हुए बोले- "क्या हुआ कैदी को...?"
"मालूम नहीं सर ।" - गार्ड तुरन्त ही सीधा होते हुए बोला- “डाक्टर कैदी का चैकअप कर रहे थे कि कैदी की हालत एक दम से खराब होने लगी- डाक्टर के मुताबिक कैदी ने कोई जहरीली वस्तु खा ली है।"
               कुलकर्णी साहब ने बलराज गोगिया की तरफ देखा जो कि फर्श पर लगभग बेहोशी की अवस्था में पड़ा था मुँह से झाग निकलने लगी थी उसके। उन्होंने बतरा की तरफ देखा- "फिलहाल तो आप खुद को हिरासत में समझिये डाक्टरबतरा ।"
“क....यों।" - बुरी तरह से उछल पड़ा बतरा.....। लेकिन मन ही मन वह कुलकर्णी साहब को उनकी एक्टिंग पर शाबासी दिये बिना नहीं रह सका.... ।
"कैदी की हालत आपकी मौजूदगी में खराब हुई है जबकि आपके आने से पहले कैदी भला चंगा था।"
"हो सकता है कैदी ने मेरे आने से पहले ही कोई जहरीली वस्तु खा ली थी।"
"इसका फैसला अस्पताल के एम.एस. ही करेंगे....।"-  कहकर अपने साथ आये दोनों गाड़ से बाई तरफ वाले गार्ड की तरफ देखा- "तुरन्त ही एम्बूलैंस का बंदोबस्त करो।"
"जी....।"-  बॉडी गार्ड हौले से मुस्कुराया और वापिस मुड़ गया।
“और आप।” - कुलकर्णी साहब ने बतरा की तरफ देखा- "हमारे साथ अस्पताल में चलेंगे ताकि कहीं बाद में आप कोई बहाना न बना सकें।"
"सांच को आंच नहीं।" - बतरा बोला- "जब मैंने कुछ किया ही नहीं तो फिर मैं डरूं क्यों-मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ।".
फंदा- अनिल सलूजा
एम्बूलैंस पूरी रफ्तार से अस्पताल की तरफ जा रही थी। एम्बूलैंस के स्ट्रेचर पर बलराज गोगिया अब बेहोशी की अवस्था में पड़ा था उसके पास ही दो बेंचों पर चार पुलिस कर्मी हाथों में गनें लिये बैठे थे।
                    एम्बूलेंस से आगे एक एम्बेसेडर थी जिसमें खुद मजिस्ट्रेट कुलकर्णी दोनों गार्डों के साथ सवार थे। एम्बूलैंस के पीछे एक पुलिस की जिप्सी थी जिसमें छः पुलिस वाले बिल्कुल चौकन्नी अवस्था में बैठे थे-किसी भी खतरे का सामना करने के लिये वे पूरी तरह से तैयार थे। उसी जिप्सी की ड्राईविंग सीट के बगल में बतरा बैठा हुआ था। आँखें सोच पूर्ण मुद्रा में सिकुड़ी हुई थीं उसकी, वह जानता था जहर की जो गोली उसने बलराज गोगिया को दी थी वह दरअसल घातक जहर नहीं था बल्कि एक ऐसा जहर थी जो सिर्फ आधा घण्टा तक अपना असर इस प्रकार दिखाता था कि सामने वाला भी उसकी मौत को यकीनन मान बैठता। आधे घण्टे बाद गोली का असर खत्म होने के पश्चात् आदमी पुनः पूर्व हालत में आ जाता था...।
           और उसे बलराज गोगिया को गोली दिये हुए पच्चीस मिनट बीते थे, पांच मिनट अभी शेष थे बलराज गोगिया के स्वस्थ होने में।
        इधर एम्बूलेंस में बैठे चारों गार्ड में से एक गार्ड वलराज गोगिया की तरफ देखते हुए कह रहा था - "बहुत चालाक निकला हरामजादा - ऐन फांसी के वक्त से कुछ देर पहले कोई जहर खा लिया-अब इसका ट्रीटमेंट होगा-और फांसी की तरीख नये सिरे से लगेगी जो कि पन्द्रह दिन बाद भी हो सकती है और महीने वाद भी। यानि अपनी जिन्दगी को और बढ़ा लिया, इसने ।”
"क्या पता अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दे यह।"
दूसरा बोला।
"ऐसा कमजोर दिल का नहीं लगता यह।"
तीसरा बोला- "छः- छः कत्ल किये हैं साले ने। वे भी इस ढंग से कि कोई सुने तो हैरान, रह जाये, हर आदमी को बहुत ही वीभत्स मौत दी है इसने।"
“मुझे तो डॉक्टर पर शक हो रहा है।" - चौथा भला कहां पीछे रहने वाला था - "जरूर उसी ने ही इसे जहर दिया होगा।"
“शक तो मुझे भी पड़ रहा है, मगर जहर देने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा। आखिर कोई तो कारण होना चाहिए था-अगर डाक्टर को इससे दुश्मनी थी तो भी उसे इसे जहर देने की क्या जरूरत थी-यूं भी दस मिनट बाद इसे फांसी लगने वाली थी ऐसी हालत में जहर देना जानबूझकर मौत के कुएं में छलांग लगाना माना जाता ।
और समझदार डाक्टर से ऐसी बेवकूफी की उम्मीद नहीं की जा सकती।”-  पहले पहला गार्ड बोल पड़ा।
"जो भी हो अस्पताल पहुंचते ही पता चल जायेगा।"-  तीसरा गार्ड बोला।
         अपनी बातों में चारों गार्ड इस कदर मस्त थे कि उन्हें पता तक नहीं चला कि बलराज गोगिया न केवल होश में आ चुका है। बल्कि उनकी बातें भी सुन रहा है। अपने पायजामें के नाड़े में फंसी रिवाल्वर का स्पर्श महसूस कर उसने राहत की एक सांस ली लेकिन हिला नहीं वह।  अभी वह ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहता था जिससे कि वह स्वयं ही अपनी फरारी के तमाम रास्ते बन्द कर ले।
        उसे पूरा विश्वास था कि बतरा अवश्य ही कुछ करेगा और वह उसकी तरफ के होने वाले किसी एक्शन के ही इंतजार में था। इधर बतरा ने अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली। बत्तीस मिनट ही चुके बलराज गोगिया को गोली दिये हुये।
यानि अब तक उसे न केवल होश में आ जाना चाहिए बल्कि पूरी तरह चौकस भी हो जाना चाहिए।
        गर्दन घुमाकर बतरा ने अपने पीछे नजर मारी। काफी दूरी पर एक ट्रक आता दिखाई दिया उसे। एक जहरी मुस्कान रेंग गई बतरा के होंठों पर और उसी के साथ ही उसने अगड़ाई लेने वाले अंदाज में अपने दोनों हाथ ऊपर उठा दिये।
यह सकेंत था -पीछे आ रहे ट्रक के लिए जिसमें कि उसके
साथी सवार थे।
अगले ही पल ट्रक ने रफ्तार पकड़ी और शीघ्र ही जिप्सी को ओवर टेक करता हुआ आगे निकल गया। जैसे ही ट्रक आगे निकला।
"धड़ाम....धडाम।"
एक के बाद एक कई बम सड़क पर आ गिरे और धुएं का गाढ़ा वादल उबलने लगा । शीघ्र ही पुलिस की जिप्सी उस धुएं के बादल में गुम हो गई। धुएं का फायदा उठाया बतरा ने और धीमी हो चुकी जिप्सी में से छलांग मार दी।
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