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गुरुवार, 8 दिसंबर 2022

कत्ल की सौगात - राहुल

कत्ल की सौगात - राहुल
उपन्यास अंश

चांदनी रात भी इतनी भयानक हो सकती है, सीमा ने सपने में भी नहीं सोचा
था। भागते-भागते उसकी सांस फूल गई थी और शरीर का अंग-अंग थकावट से इस तरह टूटने लगा था कि उसे लगा वह अगले ही पल धमाके से बम की तरह फट जाएगी और अंग-अंग पत्थरों की तरह नीचे घाटी में लुढ़कता हुआ अपना अस्तित्व खो देगा 'हे भगवान!' सीमा पीड़ा और दुःख से पसीने में नहाई हुई आकाश पर
चमकते चांद को देखकर चीख पड़ी 'अरे रक्षा करो भगवान... मुझे इन राक्षसों से बचाओ...।'
तभी उसे ठोकर लगी पर वह औंधे मुंह गिरी। अगर वह अनायास हाथ न टिका देती तो उसका चेहरा चट्टान से टकराकर कीमा बन जाता।
"धांय!"
ठीक उसी पल एक गोली सनसनसाती आई और उसके सिर के बालों को जलाती हुई निकल गई।             सीमा की तो जैसे जान ही निकल गई। अगले ही क्षण वह चट्टान से छिपकली की तरह चिपट गईं। डर के मारे उसके हाथ-पांव ठंडे पड़ गए थे और सांसें रुकती हुई महसूस होने लगी थीं।
मगर जब उसने पलटकर देखा तो जिन्दगी के मोह ने उसे तेजी से हरकत करने पर मजबूर कर दिया। उसने उन चारों राक्षसों को देख लिया था जो मौत की तरह उसका पीछा कर रहे थे
वह तेजी से पास के बड़े पत्थर की तरफ छिपकली की तरह रेंगती हुई बढ़ी। फिर यह देखकर उसका साहस लौट आया कि कुछ फुट की दूरी पर बरसाती नाला था जो सूखा पड़ा था और आदमी की ऊंचाई जितना गहरा था।
        वह पत्थर की आड़ होते ही उठी और तेजी से दौड़कर नाले में कूद गई। कूदते ही पांवों के नीचे गोल-गोल पत्थर आने से उसका संतुलन बिगड़ा मगर उसने तुरंत खुद को संभाल लिया और नाले के रास्ते पहाड़ी के ऊपर दौड़कर चढ़ने लगी।
चांदनी में उसे पहाड़ी के ऊपर बना वह छोटा-सा मकान साफ नजर आ रहा था, जो एकदम सफेद धवल था और चांदनी में नहाया यूं खड़ा था, मानो कोई नन्हा फरिश्ता रास्ता भटककर आकाश से उतर आया हो और अब बैठा सोच रहा हो कि ऊपर सितारों में आंख मिचौली खेले या धरती पर आकर हरी-भरी घाटियों में खो जाए।
            सीमा अपनी शक्ति से कहीं तेजी से दौड़ी-दौड़ी पहाड़ पर चढ़ रही थी। अब न तो उसे चोटों का अहसास था, न ही उखड़ी बिफरी सांसों के टूटने का डर वह पीछे मुड़कर भी नहीं देख रही थी।
ऐसा लगता था जैसे उसे अपनी मंजिल नजर आ गई थी और वह जल्दी से जल्दी वहां पहुंच जाना चाहती थी।
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जैसे-तैसे बड़ी मुश्किल से आधी रात गए मनमोहन को नींद आई थी कि
दरवाजे पर जोरदार दस्तक की आवाज सुनकर आंख खुल गई।
'इसकी तो...' उसका हाथ बरबस तकिये के नीचे रेंगा।
मगर हाथ खींचने के साथ उसने जुबान पर आई बेहूदा सी गाली को दांत भींचकर मुंह में ही दबा दिया। फिर वह जम्हाई लेता हुआ धीरे-धीरे दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा।
'कौन कम्बख्त आ मरा इतनी रात गए।' वह होंठों, ही होंठों में ', बड़बड़ाया- ' दस्तक देने का अंदाज तो किसी औरत का है... घबराया- घबराया... जल्दी-जल्दी जैसे काल ने उसे जबड़े में भींच लिया हो। अच्छा हुआ मैंने रिवाल्वर नहीं लिया... मेरे हाथ में रिवाल्वर देखकर तो सचमुच दिल की धड़कन रुक जाती उसकी...।"
हो।
कमरे और दरवाजे के बीच की दूरी कुछ ज्यादा नहीं थी। लेकिन कुछ तो अस्सी वर्ष की उम्र का तकाजा था और कुछ पिछले साल से तंग करने वाले जोड़ों का दर्द भी एक कारण था कि उसे दरवाजे तक पहुंचने में कम-ज्यादा तीन मिनट लग गए।
इस दौरान दस्तक की आवाज तनिक जोर पकड़ती गई और शोर में बदल गई।
'हूं... हूं... जरूर यह कोई उतावली औरत है... मेरा पिछला लम्बा अनुभव कहता है कि दस्तक देने का अंदाज दोस्ती या दुश्मनी का नहीं... बल्कि इसमें घबराहट छुपी है...।'
'मेरे बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं। जमाने की ऊंच-नीच, अच्छाई-बुराई का अस्सी वर्ष का अनुभव है मेरे पास ।'
'और फिर.... मेरी छठी इंद्री, जो बचपन ही से बहुत तेज है... मैं तो नजरें देखकर दूसरों के दिल-दिमाग की गहराइयों को पढ़ लेता हूं...' 'फिर यह तो दस्तक है...'
मनमोहन ने बड़बड़ाते हुए दरवाजा खोला।
सामने नजर पड़ते ही वह भौंचक्का रह गया। उसे चांदनी रात की दूधिया रोशनी में नहाई हुई बीस - इक्कीस साल की झबरे बालों और हरी आंखों वाली एक लड़की नजर आई।
वह कोई और नहीं सीमा ही थी।
उसकी दाईं आस्तीन और ब्लाउज के सामने का थोड़ा-सा हिस्सा फटा हुआ
था, जिससे उसकी छाती की गोलाइयां बाहर उबली पड़ रही थीं।
'तुम' बूढ़े मनमोहन की अंदर धंसी हुई आंखों में चमक-सी लहराई। उसने सिर से पांव तक गहरी नजरों से सीमा का जायजा लिया।
सांचे में ढला हुआ सुडौल शरीर गेहुआ रंग, जापानी गुड़ियों जैसी छोटी-सी चपटी नाक, फूले-फूले गाल और मोटे-मोटे सैक्सी होंठ ।
एक पल के हजारवें हिस्से में मनमोहन को यूं महसूस हुआ, जैसे उसके कॉटेज के दरवाजे पर स्वर्ग की अप्सरा उतर आई हो।
  
'ऊंह...' कहकर मनमोहन ने जैसे अपने मचलते मन को डांट दिया। उसने इस सोच के साथ बिफरती भावनाओं को थपकी दी - 'इस उम्र में सभी लड़कियां स्वर्ग की अप्सराओं की तरह मोहक लगने लगती हैं और तुझे तो... हां... कितनी लड़कियों में तू सुषमा की झलक देख चुका है... पर यह लड़की... । '
सीमा ने कंपकंपाती आवाज में मनमोहन को संबोधित करना चाहा-
'बाबा...!'
'बाबा होगा तेरा बाप!' मनमोहन ने सीमा के कुछ कहने से पहले ही भड़ककर उसकी बात काट दी - 'मैं तुझे बाबा नजर आता हूं? अभी तो मैं जवान हूं।' 'इस वीरान पहाड़ी पर तुम्हें देखकर मुझे जिन्दगी की उम्मीद हुई है।' सीमा
ने याचना की।
'तो...।'
'भगवान के लिए मुझे अंदर ले जाकर कहीं छुपा दो। '
'हां.... हां, यह घर मैंने तेरे ही लिए बनवाया है कि तू अपने किसी आशिक को ठिकाने लगाकर यहां छुपने के लिए आ सके।'
'मैंने किसी को ठिकाने नहीं लगाया है...'
'तो क्या आंख-मिचौली खेलने आई है।' 'यह बात नहीं...' सीमा ने पीछे मुड़कर देखा
'चलती-फिरती नजर आ। मेरा घर इसलिए नहीं है कि यहां आधी रात को
धमा चौकड़ी मचाई जाए।'
-
सीमा इतनी आतंकित थी कि जवाब देने के बजाए उसने डुबकी लगाई और बूढ़े मनमोहन की बगल के नीचे से 'गड़ाप' से अंदर चली आई।
मनमोहन 'अरे... अरे...' ही करता रह गया।
'अंदर आकर दरवाजा बंद कर दो' सीमा गिड़गिड़ाई ।
'क्यों बंद कर दूं? चांदनी रात और ठंडी-ठंडी हवाओं का आनंद क्यों न 'उठाऊं?'
 
'मैं कह रही हूं कि दरवाजा अंदर से बंद कर दो फौरन । '
'तू कौन होती है मुझे हुक्म देने वाली? निकल जा यहां से !'
'ईश्वर के लिए।' सीमा और भी अधिक आतंकित हो गई। वह अपने मुंह से ठीक से पूरे वाक्य भी नहीं निकाल पा रही थी मुझ पर दया करो...' -
"क्यों करूं दया?'
'कुछ लोग मेरा पीछा कर रहे हैं। वह मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे।'
'दरवाजा बंद नहीं होगा।' मनमोहन अकड़ गया।
"क्यों?" 'चांदनी रातें शुरू से ही मेरी कमजोरी रही हैं। मैं उस वक्त तक यूं ही खड़ा रहूंगा। जब तक तू यहां मौजूद है।'
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है मेरी जान पर बनी हुई है, बड़े मियां और तुम्हें मजाक सूझ रहा है। " 'मजाक तू कर रही है, मुझे बड़े मियां कहकर मनमोहन बोला- 'नजले के कारण से बाल सफेद हो गए। वनस्पति घी खा-खाकर दांत झड़ गए और
मिलावट वाले खानों ने चेहरे पर झुर्रियां डाल दीं तो उसका यह मतलब कब
हुआ कि मैं बड़े मियां हूं।"
'हे भगवान!'
'अभी मेरी उम्र ही क्या है। अस्सी साल से छः- सात महीने कम या छः-सात महीने ज्यादा । तुझ जैसी चार-चार लड़कियों से एक ही समय में प्रेम करता रहा हूं।'
'वाह... वाह... कैसी ठंडी चांदनी फैली हुई है। चांद में बैठी एक बुढ़िया बैठी चरखा कात रही है। एक बात तो बता, चांद पर जाने वालों ने उस बुढ़िया से मुलाकात क्यों नहीं की?'
लड़की ने देखा कि बूढ़े पर उसकी बातों का कोई असर नहीं हो रहा है तो उसका पारा चढ़ गया। वह बिफरी हुई शेरनी की तरह बूड़े पर टूट पड़ी और कोशिश करने लगी कि किसी तरह उसे सामने से हटाकर दरवाजा बंद कर दे। मगर बूढ़ा मनमोहन टस से मस भी नहीं हुआ । चट्टान की तरह दरवाजे में जमा खड़ा रहा। लड़की हांफते हुए पीछे हट गी।
फिर वह मनमोहन के शरीर के घूंसे बरसाने लगी। मगर मनमोहन की बूढ़ी मगर मजबूत हड्डियों पर पड़ पड़कर उसके हाथ दर्द करने लगे थे। 'दरवाजा बंद नहीं करोगे?' उसने कमर पर हाथ रखकर निर्णायक स्वर में
पूछा।
'आह! सोलह साल की उम्र से मेरी यही कैफियत है।' 'क्या?' लड़की ने आंखें निकालीं
'तुझी पर निर्भर नहीं है। जब भी किसी लड़की ने मुझे या मैने किसी लड़की को छुआ है मेरे पूरे बदन में मीठी-मीठी सनसनाहट दौड़ गई है। क्या तुम लड़कियों के स्पर्श में कोई विशेष बिजली छुपी होती है कि इधर हाथ लगाया और उधर करंट दौड़ गया?'
सीमा ने कहा-
'देखो, मैं बहुत बुरी हूं।'
'बेशक... बेशक.... बुरी न होती तो आधी रात को किसी शरीफ आदमी की नींद खराब न करती।'
'क्या?'
'मुझे तेरी स्वीकारोक्ति से खुशी हुई है, वरना कितनी ही बुरी लड़कियां क्यों
न हों। अपने आपको न जाने क्या समझती...।'
'मैं तुम्हारा कत्ल कर दूंगी।' सीमा चौखी 'आखिरी बार कहती हूं, दरवाजे के पास से हट जाओ बुड्ढे । '
"मैं तो उसी समय कत्ल हो गया था। जब तुझ पर पहली नजर डाली थी।" वह बोला- 'क्या अभी तक मुझे यकीन नहीं आया कि मैं बुड्ढा नहीं हूं। मेरे शरीर पर न जा, दिल देख । '
सीमा ने आव देखा न ताव, फटे हुए ब्लाउज के गिरेहबान में हाथ डालकर चाकू निकाला और उसे खोलकर बूढ़े की तरफ लपकी ।
मनमोहन ने कहा-
'अरी, मैं तो पहले ही घायल हो चुका हूं-यह क्या कर रही है?"
फिर मनमोहन ने अपनी जगह से हटे बिना बड़े इत्मीनान से लड़की की कलाई पकड़ ली। धीरे-धीरे ऐसे प्यार भरे अंदाज में, जैसे किसी नन्हीं सी बच्ची के साथ खेल रहा हो। उसका हाथ मरोड़ते हुए उसने चाकू छीनकर दरवाजे से दूर फेंक दिया।
'तेरे नर्म-नाजुक, सुकोमल हाथ चाकू के लिए नहीं, चूड़ियों के लिए बनाए गए हैं।' मनमोहन ने सीमा का हाथ छोड़ते हुए बड़े आसक्त अंदाज में कहा ।
'अभी ये हाथ देखे ही कहां हैं तुमने ?'
'जूडो-कराटे जानती है तो उसे भी आजमा लें। अरमान निकालने के लिए मुझ जैसा भोला-भाला आदमी कोई और नहीं मिलेगा। '
लड़की हैरत और भय से पोपले मुंह वाले हड्डियों के उस ढांचे को देखने लागी, जिसकी भौंह तक सफेद हो गई थीं। मगर गजब की शक्ति थी उसमें । वह हैरानी से सोचने लगी-
'बीस इक्कीस वर्ष की छोटी-सी जिन्दगी में मैंने कई जवान मर्द देखे हैं, उनमें से एक भी इस बूढ़े की टक्कर का नहीं है।'
'अब तक तो मैं यही समझती आई थी कि किसी मां की कोख से मेरी फौलाद जैसी कलाई मोड़ने वाला मर्द पैदा ही नहीं हुआ।'
'हालांकि अस्सी वर्ष पहले इस बुड्ढे की मां यह कारनामा अंजाम दे चुकी है।'
'इस बूढ़े ने कितनी सरलता और कितनी विनम्रता से मेरा हाथ मरोड़कर चाकू छीन लिया और कैसी उपेक्षा से मुझे चूड़ियां पहनने और जूडो-कराटे के दांव आजमाने की सलाह दे रहा है।'
हारे हुए अंदाज में सिर झुकाकर और आंखों में आंसू भरकर सीमा भई हुई आवाज में बोली-
'बाबा...'
'फिर वही बाबा । ' बूढ़ा खीझा ।
आंखों में आंसू भरे होने के बावजूद वह हंस पड़ी। पहली बार उसके चेहरे पर भय और आतंक की छायाओं की जगह हल्की-सी प्रफुल्लता की लहर दौड़ गयी।
'इतने शक्तिशाली आदमी को बाबा कहना, मूर्खता ही तो थी।' सीमा दांतों तले निचला होठ दबाकर सोचने लगी।
फिर मनमोहन से हंसकर बोली-
'बूढ़े नहीं, जवान... जवानों के जवान !"
मनमोहन को हंसती - मुस्कराती हुई लड़की बहुत प्यारी मालूम हुई। उसने सोचा-
'बिल्कुल सुषमा... बिल्कुल सुषमा की हंसी । काश यह तेजी से समय का बहता हुआ झरना जम जाए... चांदनी यूं ही चिटकी रहे।'
'ठंडी ... ठंडी हवाएं चलती रहें और यह झबरी-झबरी, फूले-फूले गालों वाली
लड़की यूं ही हंसती मुस्कराती रहे... मुझे सुषमा के जीवित होने का अहसास
दिलाती रहे...'
'मैं... मैं इस मुस्कान को अमर बना दूंगा...'
'हां... हां... आज मेरी खोज पूरी हुई... मैं इसी दिन के लिए तो जी रहा था। ' 'मैं... मैं... मर जाऊंगा... मगर मैं अपने प्यार... अपनी सुषमा को नहीं मरने दूंगा...'
इस बीच सीमा ने भी अपने सामने खड़े इंसान की कमजोरी को भांप लिया
था और झट से नीति से काम लेते हुए मनमोहन के ख्यालों के ताने-बाने को
बिखेरते हुए बोली- 'देखो, नौजवान मैं.... मैं तुम्हें यह नहीं बताऊंगी कि मैं कौन हूं, कहां से आई हूं और क्या करती हूं। फिर भी...'
'बहुत अच्छा करोगी' बूढ़े मनमोहन की चंचलता पलटकर आई 'मैं सीधा- सादा, चरित्रवान और साधु प्रकृति का आदमी हूं। संसार के मोह माया और हंगामों से तंग आकर इस वीरान चोटी पर उन संन्यासियों की तरह आ पड़ा हूं, जो पुराने जमाने में हिमालय की गुफाओं में चले जाते थे। मैं बैरागी, तेरी आवारगियों और बदमाशियों की आपबीती सुनकर क्यों पाप मोल लूंगा।'
सीमा ने बुरा-सा मुंह बनाया-
'मैं जो भी हूं - आवारा, बदमाश, कातिल... ।'
'मैंने तुझे कातिल तो नहीं कहा।' मनमोहन ने फिर सीमा की बात बीच में काट दी - 'हालांकि तुझ पर कातिल का शब्द खूब फबता है। तूने किसी और को कत्ल किया हो या नहीं किया हो। मगर मेरे दिल पर जरूर छुरी चला दी है।'
'बात भी करने दोगे या यूं ही बीच-बीच में बात उचकते रहोगे । '
"किसने रोका है तुझे बात करने से ?'
'तुमने!'
'मैंने कोई तेरी गज भर की जुबान तो नहीं पकड़ी।'
'कुछ बदमाश मुझे कत्ल करने पर तुले हैं।'
'अपना वाक्य ठीक कर ले-कुछ बदमाश तेरे हाथों कत्ल होने पर उतारू हैं।' 'फिर बोले बीच में।" यह बोली- 'मेरा पीछा किया जा रहा है। किसी भी क्षण वे बदमाश यहां पहुंच सकते हैं।'
'अच्छा!'
'हां, मेरे साथ तुम भी बेगुनाह मारे जाओगे।'
'क्यों, मैं क्यों मारा जाऊंगा जिसे मारना चाहते हैं, खुशी-खुशी मारें लाश भी उठा ले जाएं। मैं बीच में टांग अड़ाऊं तो जो चोर की सजा, वह मेरी सजा।' ',
'क्या बक रहे हो ?' सीमा फिर बिगड़ गई।
'हां.... हां... मैं तो साफ-साफ कह दूंगा - वह रही तुम्हारी शिकार। वे मुझे कुछ नहीं कह सकते।" 'सबसे पहले वे तुम ही को खत्म करेंगे।' सीमा गुस्से से गुर्राई - 'तुमने उनकी
दुश्मन को शरण दी है। '
'झूठ मत बोल किसी शांतिप्रिय, शरीफ इंसान पर लांछन मत लगा। कब दी है मैंने तुझे शरण ?'
'बुड्ढे!'
'फिर बुड्ढा! काश तू लड़की न होती अरे, मैं तो मजे से सो रहा था। अच्छा-
सा रोमांटिक सपना देख रहा था कि तूने आकर सारा मजा किरकिरा कर दिया।'
'अब तो मैं आ ही गई हूं। तुम्हारी मेहमान हूं।'
"वाह वाह, मान न मान... मैं तेरी मेहमान दोबारा मत कहना कि तू मेरी मेहमान है या मैने तुझे शरण दी है।'
सीमा ने सोचा-
'मैं इस बुड्ढे को डराने में सफल हो गई हूं... अब थोड़ा और नाटक करूं तो...' वह मनमोहन को कुछ और भयभीत करने के लिए बोली-
'अफसोस तो यही है, गेहूं के साथ घुन भी पिस जाते हैं। तुम कुछ कहो न
कहो वे तो यही समझेंगे कि तुमने जरूर मुझे शरण दी होगी।' 'कुछ ऐसे ही सिर फिरे लोग हैं। जान की खैर चाहते हो तो दरवाजा बंद करो और अंदर चलकर बैठो।'
'जान की खैर वे चाहें, जिन्हें जान प्यार हो। मैं तो कुछ और ही चाहता हूं।'
'दो-दो हाथ करना चाहते हो तो यह समझ लो, वे कई बदमाश हैं। ' 'लड़कियों पर तो आशिक हुआ जाता है उनसे दो-दो हाथ नहीं किए जाते।'
'तुम...' सीमा एक कदम पीछे हट गई- 'मुझे कत्ल करना चाहते हो ?'
'तुझे कत्ल होते देखना चाहता हूं।'
'क्या... क्या... क्या...?'
'मैंने आज तक किसी लड़की को कत्ल होते नहीं देखा।' मनमोहन ने बड़े विनोद भाव से कहा- 'मेरा ख्याल है, खून में नहाई हुई तेरी लाश तुझसे भी
ज्यादा अच्छी मालूम होगी।'
सीमा ने झुरझुरी ली।
मनमोहन ने मसूढ़े बाहर निकाल दिए-
'तेरे वे बदमाश हैं कहां? आधे घंटे से उनके आने और तेरे कल्ल होने का इंतजार कर रहा हूं।'
'तुम्हारा इंतजार खत्म होने वाला है। '
'आखिर बात क्या है? मुझे तो वे लोग भी तेरी तरह मूर्ख नजर आते हैं। या तो उन्हें पीछा करना नहीं आता या फिर वह कल्ल करने की कला में अनाड़ी हैं।" बूढ़े मनमोहन की विनोदी बातों से सीमा को अपनी धमनियों में खून दौड़ता हुआ महसूस होने लगा। वह सोचने पर मजबूर हो गई-
'बदमाश छाया की तरह मेरे पीछे लगे हुए थे। '
'एक पल के लिए भी मैं उनकी नजरों से ओझल नहीं हुई थी।" 'फिर वे बदमाश पहुंचे क्यों नहीं। एकाएक कहां गायब हो गए थे?" 'आधे मिनट में मुझ तक पहुंचने वाले आधे घंटे में भी यहां तक नहीं पहुंच सके हैं। '
'क्या यह संभव है कि ईश्वर को मेरी जान बचाना मंजूर हो और सारे बदमाश या तो एक साथ अंधे हो गए हों या धरती में समा गए हों । '
           मनमोहन को घूरते पाकर सीमा ने झट से सफाई दी- 'शायद वह रास्ता भटककर किसी दूसरी तरफ निकल गए हैं।' यह कहते हुए हालांकि खुद सीमा को भी अपनी बात का एतबार नहीं था। 'फिर तो उनका इंतजार करना फिजूल है- बिल्कुल।' मनमोहन ने अंदर आकर दरवाजा बंद कर दिया। 'दरवाजा क्यों बंद किया है?" सीमा ने अक्खड़ स्वर में पूछा।
"औरत री औरत तेरी कौन-सी कल सीधी दो मिनट पहले तक खुद ही दरवाजा बंद करने के लिए चापलूसी कर रही थी । ' 'बको मत!"
'गुस्से में चाकू तक लेकर दौड़ पड़ी थी। वह तो मेरे सितारे अच्छे थे कि जवानी की मौत से बच गया।'
'मेरी बात मानते हो या नहीं?"
'अब तेरी ही बात मानकर दरवाजा बंद किया है कि चलो पंगेबाजी बहुत हो गई, अब प्यार मोहब्बत की थोड़ी-सी बातें हो जाएं।'
उपन्यास अंश 

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