मैं आवारा, इक बंजारा - भाग-03, अशोक कुमार शर्मा
उन्ही दिनों सुभाष भाई साहब ने कुकनवाली के बाजार में दीपावली के अवसर पर पटाखों की एक दुकान लगाई थी।
वो दुकान इतनी छोटी थी कि वो एक लकड़ी के एक छोटे से बक्से में आसानी से समा गई थी।
उस दुकान से मुझे टिकिया छोड़ने वाली लोहे की एक पिस्तौल, सांप की डिबिया, फुलझड़ी की डिबिया और मुर्गा छाप पटाखों का एक पैकेट फोकट (free) में मिले थे, जिन्हें पाकर में बहुत ही खुश हो गया था।
वैसी ही पिस्तौलें बहुत रोने - धोने के उपरांत मेरे एक - दो आवारा दोस्तों के घरवालों ने भी उनको दिला दी थी।
इसलिए हम सब के तो अब मजे ही मजे हो गए।
हम आवारा दोस्त उन टिकिया छोड़ने वाली पिस्तौलों से एक दूसरे पर फायर करते हुए चोर - पुलिस का खेल बहुत दिनों तक खेले थे और उस खेल में हमे बहुत ही मजा आया था ।
वैसे मैं आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि चाहे चोर हो या पुलिस। बचपन में मैं दोनों ही के नाम से बहुत खौफ खाता था।
पुलिस की गाड़ी देखते ही मैं सिर पर पैर रखकर वहां से रफूचक्कर हो जाया करता था।
पर भले ही मैं उनके नाम से खौफ खाता था, पर बचपन में मैंने बड़ा होने के बाद बहुत से पद प्राप्त करने के सपने देखे थे।
उनमें से पहला था लेखक बनने का सपना।
दूसरा था पुलिस वाला बनने का सपना।
और तीसरा था ड्राईवर बनने का सपना।
मैं मन ही मन सोचा करता था कि इस दुनिया में शायद सबसे ऊंचे और सबसे ज्यादा ताकतवर पुलिस वाले ही होते है, तभी तो सभी उनके नाम से ही खौफ खाते है।
इसीलिए बड़े होने के बाद मैंने पुलिस वाला बनने का सपना देखा था।
दूसरा ड्राईवर बनने का सपना मैंने इसलिए देखा था, क्यों कि उनको देखकर अक्सर मैं सोचा करता था कि ड्राइवरों की कितनी मौज है, जो रोज ही उन्हे गाड़ी चलाने को मिल जाया करती है।
उन दिनों मुझे जब भी किसी बस में बैठने का मौका मिलता था, तो मैं ड्राईवर के आस - पास वाली सीट पर ही बैठना ज्यादा पसंद करता था, ताकि मैं ये देख सकूं कि वो ड्राईवर गाड़ी कैसे चलाता है ?
बाद में घर आकर मैं उनकी नकल किया करता था।
मैं खटिया पर मच्छरदानी तान कर अपनी गाड़ी खुद बनाता था और उसकी आगे की साइड में बैठकर खुद ड्राईवर बन जाया करता था। फिर हवा में स्टेयरिंग की तरह अपने हाथों को गोल - गोल घुमाकर मन ही मन अपनी गाड़ी इधर - उधर मोड़ने की कल्पना किया करता था।
गियर की जगह मैं एक लंबे डंडे का इस्तेमाल किया करता था, जिसे मैं उस खटिया की निवार के पट्टों के बीच बड़ी ही से घोंप दिया करता था।
गाड़ी की आवाज और हॉर्न की आवाज निकालने के लिए ऊपरवाले ने मुझे मुंह दिया ही था, फिर कमी किस बात की थी ?
जब कभी मेरे घरवाले घर पर नहीं हुआ करते थे, तो मैं अपने आवारा दोस्तों को अपने घर बुला लिया करता था, ताकि मेरी बस की सवारियों का भी पक्का इंतजाम सके।
उनमें से कोई एक कंडक्टर बन जाया करता था, जो कागज को काट कर बनाई गई हर स्टेशन की टिकट सवारियों को देता था और बदले में कागज के ही काट कर बनाए गए नोट बतौर बस किराया लेता था।
इस तरह मेरी गृहकार्य की अभ्यास पुस्तिकाओं के खाली पृष्ठों का स्कूल का गृहकार्य करने की बजाय बस के टिकट और नोट बनाने में सदुपयोग हो जाया करता था।
अब आप ही बताइए कि मेरे स्कूल के टीचर मुझे डांटते - डपटते नहीं, तो क्या मेरे जैसे होनहार स्टूडेंट की आरती उतारकर मुझे नवाजते ?
पर मेरे सबसे बड़े भाई सुभाष भाई साहब वास्तव में ही होनहार थे।
वे पढ़ाई में तो होशियार थे ही थे, साथ ही साथ अन्य कार्यों में भी बहुत होशियार थे।
जैसे - तरह - तरह के चित्र बनाकर उनमें रंग भरना, कागज की फिरकियां, नाव और हवाईजहाज बनाना, मिट्टी के घर और खिलौने बनाना इत्यादि।
इसके अलावा नई - नई खोज या आविष्कार करना और दुकान खोलकर खुद दुकानदार बनना भी उनकी रूचियों में शामिल था ।
इसी कड़ी में पटाखों की दुकान खोलने के कुछ दिनों बाद उन्होंने टॉफियों की दुकान भी उसी लकड़ी के छोटे से बक्से में खोली थी, जिसमें पहले वे अपनी पटाखों की दुकान खोल चुके थे।
इस वजह से इस बंदे को भी कभी - कभार मुफ्त में टॉफियां खाने को मिल जाया करती थी।
इस कारण मैं ऊपरवाले से मन ही मन दुआ करता था कि मेरे भाईसाहब की टॉफियों वाली दुकान कभी भी बंद न हो, ताकि मुझे भी मुफ्त में टॉफियां खाने को मिलती रहे।
पर अफसोस !
एक बार में खरीदा गया पूरा माल बिक जाने पर हमेशा ही वे अपनी दुकान वापस बंद कर दिया करते थे, जो मेरे लिए बड़े ही दुख की बात हुआ करती थी।
भाई साहब के तीन - चार दोस्तों के नाम मुझे आज भी याद है, जैसे - पुरुषोत्तम, कल्लू ढाढी, विजय सिंह और डूंग सिंह।
डूंग सिंह बहुत ही फुर्तीला और ताकतवर था। वह बरगद की एक डाल से दूसरी डाल पर किसी बंदर की तरह छलांग लगाकर आ - जा सकता था और चार - पांच लड़कों को अकेला ही पीट सकता था।
उसकी छोटी - छोटी धंसी हुई आंखे और सिर के बाल भूरे रंग के थे और उसका चेहरा ठीक हनुमान जी की तरह ही था।
सब बच्चे उससे बहुत ही खौफ खाते थे।
भाईसाहब की टॉफियां न बिकने पर वो बनियों के लडकों की जेब में जबरदस्ती टॉफियां डाल दिया करता था और दूसरे दिन उनका पेमेंट लाने के लिए बोल दिया करता था।
बनियों के डरपोक लड़के, डूंग सिंह के खौफ के दूसरे दिन ही चुपचाप पैमेंट लाकर भाई साहब के हाथ में थमा दिया करते थे।
ऐसा ही था उस कलियुगी हनुमान डूंग सिंह का जलवा।
भाईसाहब के दूसरे दोस्त पुरषोत्तम की उन दिनों एक दुर्धटना में दुखद मृत्यु हो गई थी।
हुआ यूं था कि वो अपनी गहरे तालाब में तैर रही भैंस पर सवारी करने का लुत्फ उठा रहा था कि अचानक भैंस पलटी मार गई, इस वजह से वो उस गहरे तालाब में डूब गया और सदा - सदा के लिए इस फानी दुनिया से कूच कर गया।
मेरे भाई साहब और हम सब परिवार वालो को इस दुर्घटना से बहुत ही दुख पहुंचा था।
मेरे आवारा दोस्तों में से एक का नाम नपिया था।
मैं नापिया और अन्य आवारा दोस्तों के साथ खेतों मैं जाता, खेजड़ी के पेड़ों पर चढ़ता। उस पर लगने वाली सांगरियां और गौंद खाता।
उनकी डालों को किसी बंदर की तरह हिला - हिलाकर झूला झूलने का मजा लेता।
एक दिन ऐसे ही अपने दोस्तों के साथ झूला झूलते वक्त खेजड़ी की एक पतली डाल टूट गई थी और नपिया उस डाल के नीचे दब गया था ।
ये तो गनीमत रही कि पास की ही दूसरी खेजड़ी पर हमसे कुछ बड़े बच्चे भी हमारी तरह ही झूला झूल रहे थे, वे दौड़ कर हमारी तरफ आए और टूटी हुई डाल को हटाकर नपीया को बचा लिया।
ये तो ऊपरवाले का शुक्र था कि उसको ज्यादा चोटें नहीं आई, वरना घर पहुंचते ही हम सब दोस्तों की भी मार - कुटाई होना निश्चित थी।
नपिया का परिवार बहुत ही गरीब था और वे गांववालों से रोटियां मांग कर अपना गुजारा किया करते थे, पर नपीया बचपन से ही एक चालाक सौदागर था। वो उन मांगी हुई बाजरे की रोटियों के छोटे - छोटे सूखे हुए टुकड़े सदैव ही अपनी जेब में रखता था। वो इन टुकडों का बड़तों ( स्लेट पर लिखने की चौंक ) के बदले सौदा किया करता था।
या कभी - कभी पैसों के बदले भी।
इस प्रकार वो अपना पढ़ाई का खर्च और जेब खर्च, दोनों जुटा लिया करता था।
वो मुफ्त में किसी को रोटी का एक छोटा सा टुकड़ा भी नहीं देता था, इस प्रकार बुरे वक्त ने उसे होशियार और एक चालाक सौदागर बना दिया था।
उसके वे बाजरे की रोटी के सूखे हुए टुकड़े हमे छप्पन भोज से भी ज्यादा स्वादिष्ट लगते थे।
स्कूल से हमारा कोई ज्यादा लेना - देना नहीं था।
मैं लगभग हर रोज ही अपने बीमार होने का बहाना बना दिया करता था।
घर वालो को यकीन दिलाने के लिए मैं ढेर सारा पानी गटककर और उसके बाद अपने गले में अंगूली डालकर उल्टी { कै } कर दिया करता था और इस तरह मुझे बीमार जानकर स्कूल न जाने की परमिशन बड़ी ही आसानी से मिल जाया करती थी।
ये गले में अंगूली डालकर उल्टी करने वाली ट्रिक मुझे स्कूल के ही एक अन्य आवारा लड़के ने सिखाई थी, जो ऐसा ही बहाना बनाकर अक्सर स्कूल नहीं जाया करता था।
पर जब अक्सर ही मैं ऐसा करने लगा, तो घर वाले मेरी इस ट्रिक को समझ गए और मुझे जबरदस्ती स्कूल भेजने की कोशिशें होने लगी, पर मैं भी पक्का अड़ियल टट्टू था। मार खा लेता, पर स्कूल की तरफ एक कदम भी नहीं बढ़ाता था।
मेरा रोना - धोना सुनकर हमारे घर के बिल्कुल सामने रहने वाले मेरे मुंह बोले नानाजी अपनी सफेद मूछें फरफराते हुए अचानक किसी देवदूत की तरह प्रकट होते और बीच - बचाव कर मुझे बचा लेते।
वे मेरे घरवालों को समझाते हुए कहते थे कि अभी यह बच्चा ही तो है, बड़ा होने पर ये अपने आप ही स्कूल जाने लग जाएगा, इसलिए इसके साथ यूं जबरदस्ती करने की कोई जरूरत नहीं है।
यूंँ, इस तरह स्कूल जाने से बच जाने के बाद मैं अपने आवारा दोस्तों के साथ गांव की गलियों में लुका - छिपी, मालदड़ी, सात ताली, कंचे और गुल्ली - डंडा खेला करता था, या खेतों में स्थित मिट्टी के टीलों पर खेलने चला जाया करता था। वहां हम मिटटी के ढेलों की गाड़ियां बना - बना कर खेला करते थे या वहीं पर अपना खुद का स्कूल लगा लिया करते थे।
मैं अपने स्कूल टीचर ज्ञानाराम जी या सेवाराम जी की तरह स्कूल टीचर बन जाया करता था और अपने दोस्तों की हाजिरी लेने के बाद उनसे गिनती, पहाड़े या अन्य किसी विषय के सवाल पूछा करता था।
इस तरह हमने अपने सरकारी स्कूल की एक समांतर व्यवस्था तैयार कर ली थी।
इसलिए अब भला हम आवारा परिंदों को सरकार द्वारा स्थापित स्कूल में जाने की क्या जरूरत थी ?
हमारा वो स्कूल हर बंधन और हर अनुशासन से आजाद था ।
पानी - पेशाब करने की छुट्टी के लिए टीचर से अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
जब मर्ज़ी हो, उठकर चलते बनो। मन हो, तो पढ़ो, नहीं तो चाहे जितना खेलो - कूदो या आपस में बातें करो।
वार चाहे कोई सा भी क्यों न हो, पर वहां शनिवारिय बालसभा किसी भी वार को आयोजित की जा सकती थी।
मेरे दोस्त मुझे त्योहारों के अवसर पर गाए जानेवाले गीत, लोक गीत और हिंदी पाठ्य पुस्तक की आधी - अधूरी कविताएं सुनाया करते थे, तो बदले में मैं जोड़ - जोड़ कर उनको अपनी मनघड़ंत कहानियां और फिल्मी गीत सुनाया करता था।
कभी - कभी हम चित्र बनाने की प्रतियोगिता का भी आयोजन किया करते थे।
वहां छुट्टी के लिए सिर्फ इतवार होना जरूरी नहीं था, बल्कि हर वार इतवार हो सकता था।
मर्ज़ी हो, तो स्कूल आवो, वरना न आवो। इस संबंध में कोई भी रोक - टोक नहीं थी।
मार - कुटाई और होमवर्क की तो हमने सदा - सदा के लिए ही छुट्टी कर दी थी।
वहां किसी की खुद की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं खड़कता था। यानी कि हर सीमा, हर बंधन, और हर अनुशासन से आजाद।
कुछ ऐसी ही थी हम आवारा परिंदो की वो आजाद स्कूल।
हम अक्सर ही सोचा करते थे कि काश ! हमारी सरकारी स्कूल भी कुछ ऐसी ही होती, तो हमे उससे जी चुराने की आश्यकता ही क्या थी ?
उस स्कूल में बचपन में मेरे द्वारा बनाया हुआ एक मोर का चित्र और अन्य चित्र प्रसिद्ध लेखक मनोहर धर द्वारा कश्मीर के जनजीवन पर लिखी हुई एक पुस्तक - "मनोरम कश्मीर" के एक पृष्ठ पर आज भी चित्रित है और वो पुस्तक मेरे पास आज भी सुरक्षित मौजूद है ।
[ संलग्न - मेरे द्वारा बचपन में बनाया गया मोर का चित्र ]
उस समय खेतो के टीलों में मैंने एक लोमड़ी देखी थी, जो मेरे देखते ही देखते भाग गी।
कांटेदार झाऊ चूहा भी मैंने पहली मर्तबा वही पर देखा था ।
यूं तो कुकनवाली नाम के उस गांव में इससे पहले भी मैं बहुत सारी अलबेली चीजें देख चुका था।
जैसे - तेल निकालने वाली एक कच्छी घानी, जो बैल द्वारा चलाई जाती थी और उसे चलाते समय दो कटोरीनुमा ढक्कनों से बैल की आंखे बंद कर दी जाती थी, ताकि लगातार गोल - गोल घूमने के कारण उसे चक्कर न आए।
बहुत से जैन मुनि भी देखे, जो नंगे रहते थे और नंगे पांव ही चला करते थे तथा जो एक चींटी को भी मारना बहुत बड़ा पाप और अपराध समझा करते थे।
बंदर, भालू, कठपुतली और जादू के खेल देखे, जिनको देखकर हम बच्चे खूब शोर मचाया करते थे और जी भरकर खूब तालियां बजाया करते थे।
एक नटनी का खेल देखा, जो दो बांसो के सहारे हवा में खींचकर बांधी गई रस्सी पर अपना बैलेंस बनाती हुई चली थी।
और कुछ दिन बाद में एक सफेद बकरे का खेल भी देखा, जो बैलेंस बनाता हुआ लोहे के एक सरिया पर सफलतापूर्वक चला था।
रैबारियों के ऊंटों वाले बहुत से टोलों को देखा, जो बहुत दूर - दूर से वहां ऊंट चराने के लिए आया करते थे।
उन बंजारो और बंजारिनों को भी देखा, जो नमक, गौंद या मिर्च - मसाले बेचने के लिए ऊंट गाड़ियों में सवार होकर या अपने गधों के टोलों के साथ वहां आया करते थे और जिनकी औरते काले या लाल रंग की प्रिंट वाली और छोटे - छोटे गोल काचों और गोटो से जड़ी ओढ़नी और घाघरा पहना करती थी और जिनके चेहरों और हाथों पर बहुत से गोदनें गुदे हुए रहते थे और जिनके शरीर का हर अंग चांदी के गहनों से सजा हुआ रहता था।
इस जाति के पुरुष लोग भी सोने और चांदी के गहनों से लदे हुए रहते थे और जो पगड़ी, धोती और कमीज़ या बख्तरी पहने हुए रहते थे।
पास के ही एक गांव गुगड़वार का काले रंग वाला एक खतरनाक सांड देखा, जो जोर से ' ढरिक बाबा" नाम से चिड़ाने पर हमे मारने के लिए हमारी ओर दौड़ पड़ता था और जिससे बचने के लिए हम सिर पर पैर रखकर वहां से भाग खड़े होते थे।
उस मोर और मोरनी को भी देखा, जो बिना किसी डर - भय के मेरे पिताजी की हथेलियों पर से दाने चुग लिया करते थे।
उन लड़ाकू विमानों को भी देखा, जो उन दिनों चल रहे भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण कभी - कभार नजर आ जाया करते थे और बड़े बच्चे उन्हे पाकिस्तानी घोषित कर उनको मार गिराने के लिए उनकी ओर मिट्टी के ढेले फेंका करते थे।
उनके देखा - देखी हम छोटे बच्चे भी बड़े उत्साह और बहादुरी के साथ उनकी और ढेले फैंका करते थे और बड़े बच्चो के साथ "हिन्दुस्थान जिंदाबाद" और "पाकिस्तान मुर्दाबाद" के नारे लगाया करते थे।
एक एंबेसेडर गाड़ी भी देखी, जिसके दो मुहं देखकर हमने अनुमान लगाया कि ये जरूर दो मुहें सांप की तरह छ: महीने आगे से और छ: महीने पीछे से चला करती होगी ।
बरूपियों के बहुत से बहरूप भी देखे, जिनके "डाकन" { डायन }के डरावने बहरूप के कारण हम आवारा परिंदे डर जाया करते थे, पर बावजूद इसके हम पूरे गांव में उसके पीछे - पीछे शोर मचाते हुए चक्कर लगाया करते थे ।
वे बाराते भी देखी, जो बैल गाड़ियों और ऊंटगाड़ियों में सवार होकर जाया करती थी और उन गाड़ियों के उंट और बैल काच लगे गहनों और कपड़ों से दूल्हे से भी ज्यादा सजे हुए रहते थे।
और उन बैलों और ऊंटों को भी देखा, जो परबतसर या पुष्कर मेले में बिकने के लिए जाया करते थे या जिन्हें वहां से खरीद कर लाया जाता था, उनकी सजावट भी देखते ही बनती थी। उनके गले में पीतल की घंटियां और पैरो में पीतल के ही घुंघरू बंधे हुए रहते थे, जिनके कारण जब वे चलते थे, तो उनसे उत्पन्न रुनझुन - रुनझुन की ध्वनि कानों में किसी मधुर संगीत का सा रस घोल देती थी।
पहली बार बाहर से आए हुए कुछ साधुओं के पास एक पालतू हाथी भी देखा, जिसकी ऊंट से भी ज्यादा विशाल आकृति को देखकर हम दंग रह गए थे।
उन कुओं को भी देखा, जिनसे बैलो, भैंसो या ऊंटों की सहायता से लाव { मोटा रस्सा }और चड़स {चमड़े का बड़ा थैला } के द्वारा पानी बाहर निकाला जाता था और रात के समय में वो पानी बाहर निकालते वक्त किसान लोग बारिए { विशेष प्रकार के दोहे } भी बोला करते थे, जो काली - अंधेरी सुनसान रात को भी संगीतमय बनाकर सुहावनी और मनभावन रात बना दिया करते थे ।
बिजली के उन पोलों को देखा, जिनको रोपने के लिए रस्सी की सहायता से खड़ा करते वक्त मजदूर लोग " जोर लगा के हइसा" के नारे बुलंद किया करते थे और उनके इन नारों में साथ हम बच्चे लोग भी बड़े उत्साह से दिया करते थे।
फिर कुछ दिनों बाद गांव में बिजली लग जाने पर बड़ी ही हैरत से पहली बार बिजली के बहुत से बल्ब देखे, जिसकी तेज रोशनी में हम सभी आवारा परिंदे खेल कर बहुत ही रोमांचित और आनंदित हुए थे।
बरसात के दिनों में हम बारिश के पानी में खूब उछल - उछल कर और उस पानी से छपाक - छपाक़ की आवाजे निकलवाते हुए हम खूब नहाया करते थे और साथ ही साथ ये गाना भी गाया करते थे -
" इंदर राजा पानी दे।
पानी दे, गुड़ धानी दे।"
और जब वहां पर बहने वाली बरसाती नदी में पानी बहुत ही कम रह जाता था, तो हम उस नदी में चलते हुए उसे पार किया करते थे, फिर उसके किनारे मिट्टी के घरौंदे बना - बनाकर खूब खेला करते थे।
रंग - बिरंगी उन ढेर सारी तितलियों को भी देखा, जो फूल फूल पर मंडराया करती थी और जिनको पकड़ने के लिए हम उनके पीछे- पीछे दौड़ लगाया करते थे।
उन मखमल जैसी मुलायम और लाल चटक लाल रंग वाली " वीर बहुटियों" को भी देखा, जो बारिश के दिनों में जमीन से बाहर निकल आया करती थी और जिन्हें हम लोकल भाषा में " सावन की डोकरी माई" कहा करते थे।
ऐसी बहुत सी बचपन की यादें है, जो किसी फिल्म की तरह आज भी मेरी स्मृति पटल पर अंकित है और जिन्हें मैं आज भी कभी - कभी याद करके अपने बचपन के दिनों में लौट जाया करता हूँ।
यूं ही बचपन के सफर को तय करता हुआ मैं आठ वर्ष की उम्र में कक्षा तीन में आ गया था।
तब मैंने तब की मशहूर बाल पत्रिका "चंदा मामा" पढ़कर अपने पढ़ाकू जीवन की शुरुआत कर दी थी, पर चंदा मामा की कहानियों से ज्यादा मुझे उसके चित्र पसंद आया करते थे, जो चटकदार रंग वाले बहुत ही खूबसूरत हुआ करते थे और बहुत ही मनमोहक लगा करते थे ।
बाद मैं कुछ बड़ा होने पर मैंने चंपक, लोटपोट, पराग और नंदन जैसी बाल पत्रिकाएं भी ढेरों मात्रा में पढ़ी।
कक्षा तीन पास करने के बाद हमारा परिवार खुद के असली गांव रूपगढ़ वापस आ गया था।
रूपगढ़ आने के बाद मैंने कक्षा चार में सरकारी स्कूल में एडमिशन ले लिया, पर मेरी आवारगी यहां पर भी जारी रही। हिंदी की किताब तो मैं धड़ल्ले से पढ़ लिया करता था, पर गणित के सवाल हल करना मेरे लिए आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा ही कठिन कार्य था, परिणाम स्वरूप मैं पहले की तरह ही इस स्कूल से भी पलायन करने लगा और अन्ततः मैंने कक्षा चार में पढ़ाई छोड़ दी।
फिर मेरी बुआजी मुझे पढ़ाने के लिए अपने साथ जयपुर ले गई।
वहां पहली बार मैंने ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन देखा था और वो भी दूसरों के घर।
उस समय जयपुर में भी हर किसी के घर नहीं, बल्कि किसी - किसी के घर ही टेलीविजन हुआ करता था।
वहां मैं एक साल ऋषिकुल विद्यालय में पढ़ा, पर मेरी गणित की कमजोरी वहां भी दूर नहीं हुई।
कक्षा चार पास करने के बाद मैं वापस अपने गांव रूपगढ़ लौट आया।
यूं तो मैंने अपने जीवन में हज़ारों किताबें पढ़ी है, जिनमें कहानियां, कविताएं, पत्र - पत्रिकाएं, धार्मिक, रोमांटिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषय वस्तु वाली सभी किताबें और उपन्यास शामिल है, पर स्कूली किताबें पढ़ने में कभी भी मेरी रुचि नहीं रही, खासकर गणित में।
उसका तो मुझे बड़े - बड़े सींगों वाले किसी मरखन्ने बैल की तरह ही डर लगता था और बाद में ऐसा ही डर मुझे अंग्रेजी से भी लगने लगा।
स्कूल मुझे जैलखाना लगता था, तो उसके टीचर्स लगते थे उस जैलखाने के खूंखार जेलर।
वो इसलिए, क्यों कि वे टीचर्स हम मासूम बच्चों के कोमल - कोमल हाथों पर फटाक से दो तीन - डंडे रसीद कर दिया करते थे या वे हमे
इन्सानी बच्चो से मुर्गे के बच्चे बना दिया करते थे।
उस जेलखाने की दीवारों से मुझे हमेशा से ही सख्त नफ़रत थी। और वो इसलिए, क्यों कि मैं जन्म से ही किसी बाज की तरह मुक्त आकाश में अपने डेने फैलाकर उड़ने वाला एक आजाद पंछी था, इसलिए मुझे स्कूल के बंद पिंजरे में किसी तोते की तरह रहना भला कैसे कबूल होता ?इसीलिए मैं स्कूल से भागकर किसी एकान्त जगह मैं छुप जाया करता था या अपने आवारा दोस्तो के साथ दिन भर मटरगस्ती करता हुआ इधर - उधर घूमता रहता था या बकरियां चराने वालो के साथ पहाड़ियों या जंगल में चला जाया करता था।
वहां पहाड़ियों पर मूंग के दाने जैसे लगने वाले खट्टे - मिट्ठे फल डांसरिया खाता।
प्यास लगने पर कानजी की खान से या डाबिया नाम के एक छोटे से पहाड़ी तालाब से पानी पीता।
गांव वाले कुएं के छोटे से होज में अन्य आवारा दोस्तों के साथ नहाता और मछली की तरह उसमें तैरता ।
बंदरों की तरह मैं और मेरे दोस्त बरगद के पेड़ों पर उछल - कूद मचाते।
लुका - छिपी, झूरी - डंका, मालदड़ी और गुल्ली - डंडा जैसे स्थानीय खेल खेलते।
रात को छुपकर खेतो से ककड़ियां और मतीरे चुराते।
ग्रुप बनाकर दूसरे दुश्मन ग्रुपों से लड़ाई - झगड़ा करते ।
बीड़ी के जोरदार सुट्टे लगाकर नाक में से धुंआ बाहर निकालते थे और मौज उड़ाते थे।
यानी कि बचपन में की जाने वाली सभी संभावित शरारतों में से शायद ही कोई ऐसी शरारत बची हो, जो मैंने अपने दोस्तों, यानी कि आवारा परिंदो के साथ मिलकर न की हो ।
जैसा कि मैंने पहले बताया कि उन दिनों मैं बीड़ी पीना और तंबाकू खाना, दोनों ही सीख गया था। आखिर सीखता भी क्यों नहीं, मैं एक होनहार बच्चा जो था।
और यहां एक बात और बता दूं कि उस वक्त बीडी खरीदने के लिए न तो मेरे पास और न ही मेरे आवारा दोस्तों के पास एक भी फूटी कोड़ी नहीं हुआ करती थी।
सब के सब एक नंबर के फोकटीये ।
आज के बच्चो को जब देखता हूं, तो मुझे बहुत ही आश्चर्य होता है, क्यों कि उनके लिए रोज पांच - दस रुपए खर्च करना आम बात सी है।
उनके घरवाले अपने बच्चो को इतनी बढ़िया - बढ़िया फैंसी ड्रेसें लाकर देते है कि वे छोटे बच्चे किसी शोरूम में रखे हुए गुड्डे और गुड़ियाओ की तरह ही लगते है।
और एक फटी किस्मत वाले हम थे, जो कि फटे हुए हाफ पेंट पर तिर्कियां लगाकर पहना करते थे और किसी पहुंचे हुए संत- महात्माओं की तरह अधिकतर नंगे पांव ही रहा करते थे।
पान खाने की जगह हम बरगद के कोमल लाल पत्तों को खा लिया करते थे और इमली में गुड़ मिलाकर हम चूर्ण की गोलियां बना लेते थे, जिनको हम खाते कम और बेचने की कोशिश ज्यादा किया करते थे।
लोहे के पुराने कनस्तरों को काटकर हम टेंपू बना लेते थे और टूटी - फूटी हवाई चप्पलों के तलो को गोल काटकर उसके लिए टायर बना लेते थे।
ऐसे टेंपू बनाना मेरे सबसे बड़े भाई सुभाष भाईसाहब ने ही हम सबको सिखाया था।
चूंकि बीड़ी खरीदने के पैसे हमारे पास नहीं होते थे, इसलिए लोगो द्वारा पीकर फैंकी हुई बिडियों के टोटे चुपके से उठाकर अपनी जेब में डाल लिया करते थे और फिर किसी एकान्त जगह जाकर और किसी बड़े पत्थर पर रगड़कर एक झटके में ही तिल्ली जला लिया करते थे और फिर उस तिल्ली से बीड़ी के उन टोटो को सुलगा कर बड़े ही मजे से जोरदार सुट्टे लगाकर उनको पीते थे और नाक में से धूंआ बाहर निकालकर बड़े ही खुश हुआ करते थे।
इस कार्य में मैं और मेरे सभी दोस्त, यानी कि हम सब आजाद और आवारा परिंदे बहुत ही एक्स्पर्ट थे।
पर मैं यहां उन दोस्तों के नाम आपको नहीं बताऊंगा, क्यों कि अब वे सभी बड़े और इज्जत वाले बन चुके है । उनका नाम लिखकर मैं समाज मैं उनकी तौहीन नहीं करवाना चाहता, पर अपने रामजी को तो इस तौहीन की कोई फिकर नहीं ।
मैं बहरूपियों की तरह अपना असली चेहरा छुपाकर और मुखौटा लगाकर नहीं जीना चाहता।
मुझे ऊपरवाले ने जैसा बनाया है, बस ! मैं वैसा ही दिखना चाहता हूं और वैसे ही अपनी जिंदगी जीना चाहता हूं, चाहे कोई मुझे बेवकूफ समझे या आवारा। मेरी सेहत पर इसका कोई भी फर्क नहीं पड़ता। पर रोज - रोज बहरुपियों की तरह मुखौटे लगाकर लोगो को बेवकूफ बनाना और इस तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करने के बावजूद भी खुद को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ इन्सान दर्शाना मेरी लेखकीय फितरत में नहीं है और न ही मेरी कंचन सी शुद्ध आत्मा को ये सब मंजूर ही है।
यहां गलती मेरी नहीं, ऊपरवाले परमात्मा की है।
उसने मेरे अंदर दिल तो किसी आवारा बंजारे या आवारा परिंदे का लगा दिया, पर उसको कंट्रोल करने के लिए पहरा बिठा दिया किसी पहुंचे हुए महात्मा की आत्मा का।
इसीलिए मैं कोई ग़लत कार्य करना तो दूर, अगर किसी ग़लत कार्य को करने की तनिक सी सोच भी लेता हूं, तो वो पहरेदारनी आत्मा रिजर्व बैंक के सायरन की तरह जोरो से बजने और चीखने - चिल्लाने लगती है।
इस वजह से मैं चाहने के बावजूद भी कोई ग़लत कार्य नहीं कर पाता।
यही वह वजह है कि आज तक मैंने बचपन में कि गई शरारतों के अलावा दो बार छोटी - मोटी चोरियां और दो - तीन बार झूंठ बोलने के अलावा और कोई भी बड़ा गलत कार्य नहीं किया है।
उन बचपन की शरारतों का मतलब ये कत्तई मत लगा लेना दोस्तों कि उस समय कभी हमने अच्छे कार्य किए ही नहीं थे।
कुछ अच्छे कार्य भी किए थे। और आज भी कुछ न कुछ अपनी हैंसियत और ओंकात के मुताबिक़ कर ही रहे है।
उन सब अच्छे कार्यों को भी मेरे द्वारा किए गए ग़लत कार्यों में जोड़ - घटाकर सही - सही हिसाब करना। फिर मेरे बारे में अपनी कोई राय या धारणा बनाना।
और उन अच्छे कार्यों की छोटी सी फेहरिस्त यह है कि सर्दियों के दिनों में हम कुत्तों के छोटे - छोटे पिल्लों को कड़कती सर्दी से बचाने के लिए पत्थर के घर बनाकर उन पिल्लों को उन घरों में रखा करते थे और अपने - अपने घरों से रोटियां चुराकर उन पिल्लों को और उनकी मम्मियों को बड़े ही प्यार से खिलाया करते थे।
वे पिल्ले हमे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारे लगते थे। दिन भर उनके साथ खेलना - कूदना और उन रूई सी मुलायम त्वचा वाले पिल्लों को गोद में लेकर दुलारना हमें बहुत ही अच्छा लगा करता था।
आज भी मैं अपनी नक़ली रेपुटेशन और बड़ी उम्र को दर किनार कर उन मासूम पिल्लों को कड़कती सर्दी से बचाने के लिए कभी - कभार पत्थर के घर बनाता हूं या अन्य कोई वैकल्पिक इंतजाम करता हूंँ।
पहले की तरह आज भी मैं उनके लिए कभी - कभी खाने की व्यवस्था करता हूं और इस तरह मैं एक छोटा बच्चा बनकर अपने बचपन के उन सुनहरे दिनों को फिर से जीने की कोशिश करता हूँ।
यह कार्य मुझे इतनी खुशी देता है कि मैं बता नहीं सकता । फिर भला मैं अपनी रेपुटेशन और बड़ी उम्र की परवाह क्यों करूं ?
उन पिल्लों की रक्षा, सुरक्षा और देखभाल करने के अलावा हम पक्षियों को भी दाना डाला करते थे और छोटी - छोटी कटोरियों में उनके लिए पानी भी रखा करते थे और जब किसी पक्षी का अंडा या छोटा बच्चा घोंसले से गिर जाया करता था, तो हम बड़ी ही एतिहात से उनको वापस उनके घोंसले में रख दिया करते थे।
जब सुअर पकड़ने वाले लोग किसी सुअर को पकड़कर रस्सी से उसकी टांगे बांध देते थे और फिर दूसरे सूअरों पकड़ने के लिए उनके पीछे दौड़ पड़ते थे, तो उनके दूर जाते ही हम उस सुअर की टांगों से बंधी हुई रस्सी को ब्लेड से काट दिया करते थे और इस प्रकार उस बेबस और लाचार जानवर को आजाद करके हम वहां से रफ्फूचक्कर हो जाया करते थे। इसी प्रकार भीखमंगो को भी घर से रोटियां चुराकर उनको खिलाया करते थे।
इंसान हो या जानवर। भावुक और संवेदनशील होने की वजह से मैं बचपन से ही किसी को भूखा - प्यासा नहीं देख सकता था ।
घायल परिंदो और छोटे जानवरों को शिकारियों से बचाने के लिए रात को किसी सुरक्षित स्थान पर बैठाना और उनके लिए दाना - पानी का इंतजाम करना मैं अपना परम कर्तव्य समझता था और आज भी समझता हूँ।
मेरी अल्प और छोटी बुद्धि को आज भी समझ में नहीं आता कि पढ़े - लिखे और समझदार होने के बावजूद भी लोग इन मासूम और बेजुबान जानवरों को सिर्फ अपनी चटोरी जीभ के स्वाद के लिए उनको मारकर आखिर खा कैसे लेते है ?
क्या उन्हे उन बेबस, मजलूम, और बेजुबान जानवरों पर जरा भी दया नहीं आती ?
इसलिए मेरा तो मानना है कि इंसान अभी पूर्ण रूप से इंसान नहीं बना है । अभी उसका इंसान बनना बहुत बाकी है।
खैर !
इन कार्यों के अलावा मेरा और मेरे आवारा दोस्तों का दिनभर का एक और कार्य होता था।
और वो कार्य था - तोतो को पकड़ना, उनके लिए सरकंडों के पिंजरे बनाकर उनको उनमें रखना और उनके लिए दाना - पानी का इंतजाम करना।
मैंने तो नहीं, पर मेरे एक - दो दोस्तों ने जंगल से खरगोश के बच्चे भी एक - दो बार पकड़े थे और तोतो की तरह उनके लिए भी दाना - पानी का इंतजाम किया था ।
हमे वे सफेद - सफेद और मुलायम - मुलायम खरगोश के बच्चे कुत्तों के पिल्लों की तरह ही बहुत ज्यादा प्यारे लगते थे।
हम उनको अपनी गोद में ले लेते थे और उनकी रेशम जैसी मुलायम त्वचा पर हाथ फेरकर उनको बड़े ही प्यार से दुलारा करते थे।
पर यहां मैं सभी छोटे बच्चो से कहना चाहूंगा कि पक्षियों और छोटे जानवरों को दाना - पानी तो डालना ठीक है, पर उनको किसी पिंजरे में लाकर बंद करना बहुत ही बुरी बात है । इससे उनकी स्वतंत्रता का तो हनन होता ही होता है, इसके अलावा वे बैचारे अपना प्राकृतिक जीवन जीना भी भूल जाते हैं।
न तो वे खुशी से फुदक सकते है और न ही जरूरत पड़ने पर लम्बी उड़ान भर सकते हैं।
इसलिए मेरा तो मानना है कि प्रकृति का आनन्द उसको गुलाम बनाकर उसे ड्राईंगरूम में सजाने में नहीं, बल्कि उसकी खूबसूरती को देखकर, उसकी मुलायमता को छूकर और उसकी भावनाओं का अहसास कर खुश होने में है ।
पर न जाने ये साधारण सी बात दुनिया कब समझेगी ?
उपरोक्त कार्यों के अलावा हमारे कुछ शौक भी थे । जैसे - दीपावली पर फुलझडियां और पटाखे छोड़ना।
होली के दिनो में होलिका दहन के लिए गोबर के छोटे - छोटे छेददार उपलो की माला बनाना।
धुलंडी के रोज रंग- गुलाल खेलना।
मकर संक्रांति पर प्लास्टिक की थैलियों से और झाड़ू की सींको से पतंगे बनाना और उनको उड़ाना।
डांसरिए नाम के छोटे - छोटे और खट्टे - मीठे फल तोड़ने के लिए पहाड़ों में जाना।
बैर के दिनों में बैर लाने के लिए जंगलों में भटकना ।
बांध के पानी में नहाना और उसके पानी में उछलकूद मचाते हुए तैरना।
रेतीले धोरों पर दौड़ते हुए चढ़ना और फिर उनकी चोटियों पर से नीचे की ओर तेजी से फिसलना ।कागज की नाव बनाकर उनको पानी में तैराना और कागज के ही हवाई जहाज बनाकर उनको मिग विमान की तरह आसमान में उड़ाना।
कागज की फिरखिया हाथ में लेकर दौड़ना और फिर उनको हवा की वजह से घूमती हुई देखकर अत्यंत ही खुश हो जाना।
पहाड़ी पर स्थित गढ़ या महलों में जाना और पकोड़े या खीर - पूड़ी बनाकर उनकी दावत उड़ाना ।
स्वनिर्मित रामलीला पार्टी बनाकर उनमें अभिनय करना और उस रामलीला में राम - लक्ष्मण की तरह तीर चलाकर राक्षसों का वध करना।
मेलों में जाना और वहां जाकर अपनी शरबत की दुकान लगाना। फिर वापस लौटते वक्त वहां से बांसुरी, व्हीसल, गुब्बारे, खिलौने और केमरे खरीदना और उन कैमरों में सेल्युलायड वाली फिल्मी रीलें देखना ।
आत्मकथा जारी रहेगी.....भाग-04
भाग- 01
भाग- 02
भाग- 03
भाग-04
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