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मंगलवार, 17 सितंबर 2019

लोकप्रिय साहित्य पर एक चर्चा- एम.इकराम फरीदी

लोकप्रिय साहित्य पर एक चर्चा

हिंदी सप्ताह चल रहा है।

इस मौक़े पर हिंदी साहित्य की दुर्दशा का मज़ाकरात किया जाता है।
     हिंदी भाषा जितनी विराट ह्रदय की रही है कि उसने सदा बाहरी शब्दों को समाहित और आलिंगन करने में संकोच नहीं किया है, उतना ही हिंदी किताबों के प्रकाशक संकुचित मन के रहे हैं जिन्होंने हिंदी किताबों की लुटिया डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जहां गंभीर साहित्य के नाम पर अधिकांशतः विश्वविद्यालयों या विद्यालयों के प्रवक्ता का दबदबा रहा है जबकि प्रतिभा तो कहीं भी जन्म ले सकती है लेकिन जिस प्रकार कोई बड़ा धर्मगुरु किसी छोटी ज़मीन से नहीं आता है, आला हज़रत का बेटा, नवासा ही बड़ा मुक़र्रिर हो सकता है, किसी ग़रीब का बेटा ज़िंदगी भर सिर्फ हाथ ही चूमता रह सकता है, उसी तरह गंभीर साहित्य में भी अपवाद को छोड़कर बड़े नाम विश्वविद्यालयों या अन्य उच्चपदों से मंसूब नज़र आते हैं।

       लेकिन लोकप्रिय साहित्य को यह ज़रूर गौरव हासिल रहा कि वहां प्रतिभाओं की कद्र हुई | वेद प्रकाश शर्मा नाम का जो धूमकेतु आकाशगंगा में चमकता नज़र आता है, सन 65 की बारिश में उनका कच्चा घर गिर गया था ओर सड़क पर रातें गुज़ारी थी| सुरेंद्र मोहन पाठक साहब भी अपने नौकरी के कर्तव्य की इतिश्री के साथ सिर्फ अपने जुनून के चलते आराम के समय को लेखन के हार्ड वर्क के नाम खर्च किया करते थे। काम्बोज साहब और ओ पी शर्मा जी भी संघर्ष के पर्याय रहे हैं।

 चूंकि लोकप्रिय साहित्य में वही प्रतिभाएं प्रकाशमान हुईं जो विधिवत आगे बढ़ीं।  यही कारण रहा कि दिल से लिखा और दिल में उतरा|  इब्ने सफी साहब के बारे में कहा जाता है कि उनके रीडर उनके नाविल की बाइंडिंग तक का भी सब्र नहीं कर पाते थे और यूँ ही फार्म (16 पेज )को ले जाकर पढ़ा करते थे और खुद ही सिल लिया करते थे।

लेकिन इस पाॅकेट बुक्स ने जब लोकप्रियता के शिखर को छुआ तो इसके प्रकाशकों की बदनीयती ने आज इस धंधे को उस रसातल में पहुंचा दिया है कि अब इसके उभरने की बहुत आशाएं बांधी जाए तब भी वह आशाएं एक पर्सेंट से अधिक नहीं बढ़ पाती।

 जब पॉकेट बुक्स का सितारा बुलंदियों पर था और इसके चुनिंदा लेखक अपना लेखकीय जीवन 30-35 वर्ष से अधिक का जी चुके थे कदाचित कहना चाहिए कि हर शिखर के बाद अवसान की यात्रा शुरू होती है , कोई भी फनकार एक समय के बाद खुद को रिपीट करना शुरू कर देता है कदाचित उसे जो कहना था वह कह चुका होता है , फिर सिर्फ अपनी लोकप्रियता को भुनाता है।  ऐसे में उस फील्ड को नए फनकारों की ज़रूरत होती है जो जेनेटिक स्तर पर उस पुराने फनकार से 30 वर्ष आगे का नज़रिया लेकर पैदा हुआ होता है।       उस समय फील्ड का दारोमदार नए फनकार के कंधों पर ही होता है  और वही उसे अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम कर सकता है लेकिन सन 90 से ऐसे सुअवसर पर पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों ने नए लेखकों के लिए अपने दरवाज़े सदा के लिए बंद कर लिए और फिर वे दरवाज़े यूँ बंद हुए कि अंततः उनमें ताले पड़ गये।

    उस समय प्रकाशकों ने नये लेखकों के आगे ट्रेड नेम का ऑप्शन रखना शुरु कर दिया था क्योंकि वे गुलशन नंदा, पाठक जी, काम्बोज जी, शर्मा जी की तरह कोई अगला भाव खाते लेखक का सामना नहीं करना चाहते थे। वे चाहते थे लेखक उनकी उंगलियों पर नाचे , लेखक उन्हे छोड़कर कहीं का न रहे।  आज की डेट में राकेश पाठक को कौन जानता है लेकिन केशव पण्डित ( ट्रेड नेम) को सब जानते हैं | जब राकेश पाठक को कोई जानता ही नहीं है तो कौन प्रकाशक उन्हे घास डालने बैठा है।

    घोस्ट राइटिंग में कभी भी प्रतिभाशाली राइटिंग नहीं होती है। राइटर की नज़र बस इस बात पर होती है कि मैंने आज 10 पेज लिख दिए तो इतने रुपये कमा लिये | उसे न प्रशंसा मिल रही है ना आलोचना।  यह भी कोई गारंटी नहीं है कि उसी ट्रेड नेम से अगला उपन्यास कौन लिखेगा ?

 परिणाम यह हुआ कि जिन उपन्यासों को पहले ईर्ष्या के चलते हेय दृष्टि से देखा जाता था ,  वो सचमुच हेय का पात्र बन गए और पाठक का ऐसा मन खटटा हुआ कि आज इस पाॅकेट बुक्स के नाम लेवा में लाखों की तादाद से घटकर गिने चुने लोग बाक़ी रह गये हैं।

 मैं नहीं समझता कि इसका दौर कभी लौटेगा।  इस मुर्दे की अब तदफ़ीन हो चुकी है।  कुछ शौक़िया लोग आते और जाते रहेंगे और कुछ हम जैसे जिनका मदावा ही लेखन है , 15 दिन ना लिखा जाए तो मौत के किनारे आ लगते हैं। प्रतिभा अभिशाप बन गई है। विवशतावश लिखते रहेंगे। खैर...

 जय हिंदी
जय मातृभाषा
लेखक- एम. इकराम फरीदी

प्रस्तुत आलेख लेखक के फेसबुक वाॅल से लिया गया है।
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