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रविवार, 11 सितंबर 2022

अमिताभ बच्चन का क्रेज और यशपाल वालिया

अमिताभ बच्चन का क्रेज और यशपाल वालिया
संस्मरण- योगेश मित्तल

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साहित्य देश ब्लॉग के स्तम्भ 'सिनेमा और साहित्य' के इस अंक में पढें आदरणीय योगेश मित्तल जी का एक रोचक संस्मरण। उपन्यासकार यशपाल वालिया जी की अमिताभ बच्चन के प्रति दीवानगी।
आजकल टीवी में मूवी चैनल इतने हो गये हैं कि हर वक़्त दसियों हिन्दी या डब की हुई फिल्में चलती रहती हैं, फिर इन्टरनेट पर फिल्म देखने की आसानी। आज की जेनरेशन में फिल्मों या किसी फिल्मी कलाकार के लिए सत्तर-अस्सी के दशक के फिल्म दर्शकों का सा पागलपन होगा, मुझे नहीं लगता। 
उन दिनों पहले राजेश खन्ना और बाद में अमिताभ बच्चन ने लोकप्रियता के झण्डे ही गाड़ दिये थे।
अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों ने उन दिनों खासा हंगामा किया था! खूब चर्चा का विषय बनी थीं और खूब हिट हुई थी।
      आम दर्शकों की तरह लेखकों में भी अमिताभ बच्चन का क्रेज बढ़ रहा था। वेद प्रकाश शर्मा अमिताभ के तगड़े फैन थे, लेकिन मेरी जानकारी में तब जितने भी लेखक थे, उनमें से एक ही था, जिसने अमिताभ बच्चन की नई लगने वाली फिल्म - 'पहला दिन - पहला शो' ही देखनी हुआ करती थी और इस जुनून के चलते बहुत से सिनेमा हॉल के बाहर टिकट ब्लैक करने वाले ब्लैकियों से भी खासी पहचान कर ली थी।
ऐसे जुनूनी लेखक थे - यशपाल वालिया।         उन दिनों दिल्ली एवं आसपास के शहरों में हरेक हाल पर फिल्म के चार शो होते थे। पहला शो - जिसकी टाइमिंग थी - बारह से तीन और अमिताभ बच्चन की हर फिल्म का पहले दिन का पहला शो यानि बारह से तीन का शो यशपाल वालिया न देखें, यह तो वालिया साहब के शब्दों के अनुसार सम्भव ही नहीं था। आसमान उलट जाये, धरती पलट जाये, पर यशपाल वालिया अमिताभ बच्चन की नई फिल्म का पहले दिन का पहला शो नहीं देखें, यह तो हो ही नहीं सकता था।
        ऐसा नहीं था कि वालिया साहब बाद में अमिताभ की फिल्म नहीं देखते थे। देखते थे - वही फिल्म बाद में किसी दिन दोबारा अपनी धर्मपत्नी मीना वालिया और बेटे विग्गू उर्फ भारत वालिया के साथ भी देखते थे। फिर कभी अपनी मम्मी और अविवाहित बहन के साथ भी देख लेते थे।
      यशपाल वालिया अपनी पत्नी और बेटे के साथ तब बालीनगर के एक मकान, जिसका नम्बर D- 28 था, में फर्स्ट फ्लोर पर किराये पर रहते थे।
         तब मैं और मेरा परिवार रमेश नगर के  एक मकान 3/15 में  ग्राउण्ड फ्लोर पर किरायदार थे। वह मकान तब ग्राउण्ड फ्लोर तक ही था।
रमेश नगर और बालीनगर बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं। तब यशपाल वालिया और मेरे बीच इतनी घनिष्ठता थी कि रोज सुबह नौ से दस के बीच, उनका अपने वेस्पा स्कूटर पर, मेरे यहाँ आना इतना निश्चित था कि जिस रोज वह नहीं आते, मेरे माता-पिता को भी चिन्ता हो जाती थी। 
         उस दिन अचानक आठ बजे के आस-पास ही वालिया साहब आ गये, मगर उस रोज वह वेस्पा पर सवार नहीं थे। रिक्शे पर भी नहीं थे, पैदल थे।
     मुझे आवाज दी और घर के बाहर जालीदार दरवाजे पर शक्ल दिखाई तो उस समय मेरे पिताजी निकट ही थे, उन्होंने दरवाजा तो खोला, पर बोले - "आज आपकी फटफटिया की आवाज नहीं सुनाई दी!"
       वालिया साहब तुरन्त पिताजी के पांव की ओर झुके और बोले - "आज पैदल चलकर आया हूँ! सेहत नहीं बनानी...।"
"बस-बस..।" -पांव में झुके वालिया साहब को पिताजी ने बाहों में सम्भाल लिया। 
      उसी कमरे से सटा एक और कमरा था, जिसका एक द्वार इस कमरे की बायीं दीवार में था और एक द्वार पीछे था, जो अन्दरूनी बरामदे में खुलता था, जिसके साथ ही दायीं ओर किचन थी और इस कमरे में कुछ भी बोलो, आवाज दूसरे कमरे और किचन तक मजे में जाती थी।
      पिताजी के पैर छूने के उपक्रम के बाद वालिया साहब ने तुरन्त आवाज लगाई - "मम्मी जी, आज योगेश जी का सुबह का खाना नहीं बनाइयेगा, हम मेरठ जा रहे हैं।"
मम्मी किचन में ही थीं। वालिया साहब की आवाज सुन बरामदे की ओर के द्वार से प्रकट हुईं तो वालिया साहब लपक कर उनके पांव में भी झुके और अपनी बात दोहरा दी।
         बड़ों के पैर छूने की जो आदत यशपाल वालिया में थी, वैसी आज तो दुर्लभ है ही, तब भी इतनी आम न थी।
मेरे मम्मी-पिताजी को मेरे सभी यार दोस्त मम्मी और पिताजी ही कहते थे, जो कि मैं कहता था। याद नहीं - किसी के मुंह से कभी अंकल जी - आंटी जी सुना हो।
इस तरह मम्मी-पिताजी से मूक इजाज़त लेने के बाद यशपाल वालिया मुझसे मुखातिब हुए - "योगेश जी, तैयार तो हो?"
          बिमल चटर्जी की तरह यशपाल वालिया भी मुझे हमेशा सम्मान देते हुए -'योगेश जी' कहकर ही पुकारते थे, हालांकि उम्र में मैं दोनों ही से काफी छोटा था।
मैं तैयार ही था।
मुझे हमेशा जल्दी उठने और तैयार होने की आदत रही है। दमे का तगड़ा अटैक न हो तो मैं लगभग साढ़े छह बजे तक फ्रेश हो, नहा-धोकर तैयार हो लेता हूँ। सर्दी के दिनों में भी और यह आदत अब तक कायम है। 
          मैं वालिया साहब के साथ घर से बाहर निकला तो पूछा - "आज अचानक मेरठ... कल जब हम मिले थे, तब तो आपने कोई बात नहीं की थी।"
"कल मुझे भी पता नहीं था।"-  वालिया साहब ने कहा।
"क्या पता नहीं था...?" - मैंने पूछा तो बोले - "मेरठ में ईमान-धरम आज लग रही है। और हमने पहले दिन का पहला शो देखना है।"
          रमेश नगर मेन रोड पर आते ही वालिया साहब ने कश्मीरी गेट बस अड्डे के लिए थ्रीव्हीलर किया। बस अड्डे से मेरठ की बस पकड़ी। 
वह बृहस्पतिवार का दिन था।
आम तौर पर देश के हर भाग में कोई भी नई फिल्म शुक्रवार को रिलीज़ होती है, पर तब मेरठ में अपवाद भी था।
            मेरठ के कई हालों में नई फिल्म बृहस्पतिवार यानि वीरवार को रिलीज़ होती थी और तब इस बारे में अखबारों में एक पेज पर सारी डिटेल होती थी। तब एक पेज फिल्मों की सूचना का होता था, जिस में लिखा होता था, कौन सी फिल्म किन-किन सिनेमाघरों में  कब से लग रही हैं या चल रही है। अखबार वालिया साहब सुबह सुबह जरूर पढ़ते थे और फिल्म का पेज तो उन दिनों हर घर में सबसे पहले देखा जाता था।
पर मेरठ में वीरवार को भी फिल्म लगती है, यह बात मुझे पता नहीं थी! मैंने वालिया साहब से कहा -"वालिया साहब आज बृहस्पतिवार है। फिल्में शुक्रवार को लगती हैं।"
"मेरठ में वीरवार को भी लगती हैं।" - वालिया साहब बोले।
मुझे यकीन नहीं हुआ तो मैं बोला - "और नहीं लगी होगी तो मेरठ आना-जाना बेकार हो जायेगा।"
"नहीं होगा...।" - वालिया साहब सहज अन्दाज में बोले।
मुझे बहस करना फिजूल लगा! इसलिये चुप्पी साध ली।
चूंकि बस अड्डे के लिए थ्रीव्हीलर किया था, इसलिये नौ बजे के लगभग हम बस अड्डे पहुँच गये।
        रास्ते भर वालिया साहब अमिताभ बच्चन की विभिन्न फिल्मों की बातें करते रहे। उनके बेस्ट दृश्यों के बारे में बताते थे।
           यूँ मैं भी कम बातूनी नहीं हूँ, पर उस रोज मैं ज्यादातर वालिया साहब की 'हाँ में हाँ' मिलाता रहा।  कभी-कभी ही ऐसा अवसर आया, जब वालिया साहब ने कोई सीन बताया तो मैंने भी उस सीन की कहानी आगे बढ़ा दी। कारण वालिया साहब ने अमिताभ बच्चन की हरएक फिल्म कई-कई बार देखी थी, मैंने ना तो सारी देखी थीं, न ही एक से ज्यादा बार।
जब हम मेरठ रोडवेज़  बस अड्डे पहुँचे, ग्यारह बजने वाले थे। रोडवेज़ से ही वालिया साहब ने रिक्शा किया - ईव्ज़ सिनेमा के लिए। 
तक वालिया साहब को अमिताभ बच्चन ही नहीं सब फिल्मों का पता होता था कि कौन सी फिल्म कहाँ-कहाँ लगी है और खास बात यह थी कि उन्हें याद भी रहता था। 
    ईव्ज़ सिनेमा हॉल के बाहर जबरदस्त भीड़ थी। दूर से लोगों के सिर ही सिर और कुछ लोगों की पीठें नज़र आ रही थी।
वालिया साहब की बात सही थी - ईव्ज़ में ईमान-धरम वीरवार, यानि उसी दिन लग रही थी। 
मैं भीड़ से तब भी बहुत घबराता था, अब भी घबराता हूँ। भीड़ में घुसना मैं हमेशा एवायड करता हूँ।
     वालिया साहब ने मुझे एक लाइटपोल के निकट खड़े रहने को कहा, साथ ही यह भी कहा कि - "यहाँ से हिलना नहीं, कहीं फिल्म देखने की जगह पुलिस का मुंह देखना पड़े।"
         और मुझे अच्छी तरह समझा कर वह भीड़ में घुस गये। अच्छी तरह का मतलब खुल कर, यह समझ लीजिये, जैसे छोटे बच्चे को समझाया जाता है। इस मामले में बिमल चटर्जी और वालिया साहब, दोनों का मेरे साथ एक-सा बर्ताव था। हाँ, भारती साहब का काफी हद तक भिन्न था, पर कभी कभी वह भी एक बुजुर्ग पिता की तरह ट्रीट करने लगते थे।
         लगभग पांच मिनट बाद वालिया साहब भीड़ से निकलकर बाहर आये और आते ही मुंह बना सिर दायें-बायें हिलाया। फिर मुंह लटका कर बोले - "हाऊस फुल..।"
"चलें फिर... वापस चलें...?" मैंने कहा। 
"ऐसे कैसे वापस चलें। योगेश जी, फिल्म तो देखकर ही जायेंगे, चाहें किसी से छीन कर देखनी पड़े।"
मैं हँसा - "छीन कर..., फिर तो फिल्म हम नहीं देखेंगे। पुलिस दिखायेगी हमें। साथ ही शूटिंग भी करेगी और कल मेरठ के अखबारों में छपा होगा....।"
"महान उपन्यासकार यशपाल वालिया और पिद्दी लेखक योगेश मित्तल, अमिताभ बच्चन की फिल्म  'ईमान-धरम' की टिकट छीनते हुए गिरफ्तार...।" वालिया साहब ने मेरी बात पूरी की और बोले -"घबराने की कोई बात नहीं है। मेरठ का कोई न कोई पब्लिशर आपको जरूर छुड़ा लेगा और आप मुझे छुड़ा लेना! इतना तो कर सकोगे।"
         मैंने इन्कार में सिर हिलाया और हँसते हुए बोला - "जब आप किसी से टिकट छीनोगे, मैं तो तभी ईश्वरपुरी भाग जाऊँगा और किसी भी जैन के यहाँ चाय पियूंगा।"
 
तब ईश्वरपुरी मेरठ में प्रकाशकों का गढ़ था।
"बड़े गद्दार हो यार...।" - वालिया साहब मेरी भाग जाने और किसी जैन के यहाँ चाय पीने की बात पर बोले।
"बड़ा नहीं, छोटा..।" - मैंने दायाँ हाथ अपने सिर पर रख, कद की ओर इशारा किया। 
               तभी वालिया साहब सब कुछ भूल अचानक फिर से भीड़ में लपके।
        मैंने भी देखा - एक शख्स एक हाथ ऊंचा किये, बहुत सारे टिकट पंखे की तरह घुमा रहा था और उसके इर्दगिर्द टिकट माँगने वाले इकट्ठे हो गये थे।
पर उनमें कोई भी यशपाल वालिया जैसा तजुर्बेकार नहीं था।
वालिया साहब ने उससे इशारे से ही पूछ लिया - "कितने...?"
उसने बीस रुपये बताये।
            तब गैलरी की टिकट तीन चार रुपये से ज्यादा की नहीं होती थी। बालकोनी आदि की भी दस से ज्यादा की नहीं थी।
          वालिया साहब ने उसके एक हाथ में दस-दस के चार नोट पकड़ाये और उसके दूसरे हाथ से टिकट  छीनते हुए से खींचे और भीड़ से बाहर निकल, मेरे करीब आये। आते ही बोले - "तो बुला लो पुलिस, मैं तो छीन लाया।"
मैंने हाथ जोड़े और बोला - "बड़े भाई, मज़ाक कर रहा था।"
वालिया साहब हंसे और बोले- "आज घर से जल्दी निकल आये, आपने तो नाश्ता भी नहीं किया होगा।"
मैंने स्वीकृति मे सिर हिलाया। 
"आओ कहीं बैठकर कुछ खाते हैं। अभी तो फिल्म में टाइम है।"
           तब मेरठ में जगह जगह सुबह बेड़मी पूरी सब्जी और जलेबियाँ बना करती थीं! वहीं पास ही एक ऐसी दुकान दिख गई, जहाँ हमने नाश्ता किया, चाय पी। सारा खर्च वालिया साहब ने किया!
छोटा होने के कारण यह फायदा मुझे हमेशा मिलता रहा है, चाहे बिमल चटर्जी हो, राज भारती हो, कुमारप्रिय हो या यशपाल वालिया या कोई और...।
           फिर फिल्म देखने के बाद जब हम वापस दिल्ली लौटे तो रास्ते भर वालिया साहब ईमान-धरम के भिन्न भिन्न दृश्यों की बात करते रहे। 
   तो दोस्तो, अमिताभ बच्चन की ऐसी दीवानगी का आपके पास है - ऐसा कोई और किस्सा।
प्रस्तुति-  योगेश मित्तल
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1 टिप्पणी:

  1. 1985 से 2001 का समय याद दिला दिया, सनी देओल को लेकर ऐसी ही दीवानगी थी।
    😂😂😂😂😂

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