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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

मेरठ उपन्यास यात्रा,भाग-02

 18.09.2020
  सुबह लगभग 6AM उठा तो देखा जयदेव जी मुझसे पहले ही जाग चुके थे। चाय वाले को call की तो कुछ समय पश्चात चाय आयी। हमने चाय पीते- पीते यू ट्यूब चैनल 'sahityadesh' के लिए जयदेव जी के इंटरव्यू के लिए कुछ प्रश्न भी तैयार कर लिये।  
    आप इंटरव्यू इस लिंक पर देख सकते है- जयदेव चावरिया
    विनोद प्रभाकर जी ने नाश्ता की बहुत अच्छी व्यवस्था की थी। चाय वाला लड़का कुछ समय पश्चात नाश्ता के भी व्यवस्था भी कर गया।हमने जब टिफिन खोला तो पराठों कि खुश्बू ने भूख को तेज कर दिया। चार पराठें, बड़े आकार। 
''सर, इतने बड़े पराठे?''
"हाँ,कुछ ज्यादा ही बड़े हैं। खाना मुश्किल हो जायेगा।"
दो-दो पराठों आचार के साथ खाये तो सच में पेट भर गया और उस दिन हमने उस भारी नाश्ते के अतिरिक्त कुछ नहीं खाया। दोपहर के भोजन का आवश्यक महसूस नहीं हुयी।
"जयदेव भाई, पराठों के हिसाब से साथ में चाय कम है।"
"हाँ।"- जयदेव ने पराठों का कौर खाते के पश्चात चाय का घूँट भरते हुये कहा।
   चाय-नाश्ते के कुछ समय पश्चात विनोद प्रभाकर जी ने फ्लैट में कदम रखे। समय लगभग दस बजे का था। 
"चाय-नाश्ता हो गया?" -विनोद जी ने आते ही पूछा।
''जी सर।''- जयदेव जी का संक्षिप्त उत्तर था।
जयदेव जी की यह कम बोलते हैं।  
"सर नाश्ता तो बहुत heavy था। मुझे लगता है आज शाम तक खाने की आवश्यक नहीं होगी।"
"हाँ सर, पराठॆं स्वादिष्ट भी थे और बड़े भी। थाली में एक ही पराठा आया था।"
"अब आगे क्या विचार है?" - आगे चर्चा के दौरान विनोद जी ने पू़छा।
"यहाँ से आबिद रिजवी जी के पास चलना है।"
"वापसी तो यहीं आओगे?"
"अरे! नहीं सर। 3:30PM को जयदेव जी की ट्रेन है।"- मैंने कहा।
"अच्छा, तो आप तो रुकोगे?"- विनोद जी ने पूछा।
" नहीं सर, मेरी भी ट्रेन है शाम को। टिकट कन्फर्म है।"
"आप तो गुरप्रीत जी कुछ दिन रुकते। अभी तो बहुत बातें बाकी हैं। आपको मेरठ घूमाते।"
"नहीं सर, फिर कभी। अभी तो स्कूल की छुट्टियां खत्म हो रही हैं तो स्कूल भी जाना है।''
मैंने 04.09.2022 से पन्द्रह दिवस की पितृत्व अवकाश की छुट्टियां ले  रखी थी। उन्हीं छुट्टियों में मेरठ का कार्यक्रम बना था।
  विनोद जी की हार्दिक इच्छा थी, मैं कुछ दिन और मेरठ ठहर जाऊं, पर मेरे लिए यह संभव न था। विनोद जी जितने मृदभाषी हैं उतने ही मेहमानबाजी करने में कुशल। विनोद जी के फ्लैट पर जब लेखक मित्र एकत्र हुये तो विनोद जी और इनके सुपुत्र सब लेखक मित्रों की सेवा में तत्पर रहे। चाय, नाश्ता, कोल्डड्रिंक, खाना आदि दौर समय-समय पर चलते रहे। साथी मित्र ना-ना करते रहे पर विनोद जी ने इस विषय पर किसी की बात नहीं सुनी।
   अच्छी सेवा के लिए विनोद जी को धन्यवाद। 
विनोद जी की कार से हम मेरठ आबिद रिजवी से मिलने चल दिये। रास्ते में विनोद जी के उपन्यासों की चर्चा चल पड़ी। विनोद जी के उपन्यासों पर फिल्मों की घोषणा भी हुयी, पोस्टर भी जारी हुये पर कुछ कारणों से वह योजना आगे न बढ सकी।
 "विनोद जी आप विनोद प्रभाकर के नाम से जासूसी उपन्यास लिखते थे फिर सुरेश साहिल के नाम से सामाजिक उपन्यास लिखने का विचार कैसे आया?"
विनोद प्रभाकर जी गाड़ी ड्राइव करते हुए, नजरें सामने सड़क पर लगाये हुये थे पर उनका मस्तिष्क प्रकाशक के कार्यालय में घूम रहा था।
"हाँ, यह भी यादगार बात है। मेरे जासूसी उपन्यास अच्छे चल रहे थे पर मन में कहीं न कहीं सामाजिक कहानियाँ भी घूम रही थी। तब सामाजिक उपन्यास किसी अन्य नाम से लिखने का मन किया तो 'सुरेश' भाई के नाम से लिखने आरम्भ किये। प्रकाशन ने कहा की सुरेश नाम छोटा है कुछ और साथ जोड़ों तो सुरेश के साथ साहिल नाम हमें सही लगा।"
"तो इस प्रकार विनोद प्रभाकर जी सुरेश साहिल हो गये।"- जयदेव जी ने कहा।
"आज मेरे बच्चे अपना सरनेम 'प्रभाकर' ही लगाते हैं और भाई के बच्चे अपना सरनेम 'साहिल' लगाने लग गये।"
मेरे दिमाग में तुरंत अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन का ख्याल आया। हरिवंश राय बच्चन का बचपन में 'बच्चवा' कहते थे और उन्होंने 'बच्चवा' को परिष्कृत कर 'बच्चन' बना लिया और यही 'बच्चन' आज उनकी गोत्र हो गयी। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है जहाँ गोत्र बदल जाते हैं।
"आपने अपने बालों का स्टाइल नहीं बदला। उपन्यास के बैक कवर में जो आपकी तस्वीर थी वहाँ जो बालों का स्टाइल था वही आज भी है।"- मैंने विनोद जी के बालों की तरफ देखते हुये कहा।
विनोद प्रभाकर जी ने हँसते हुये कहा-"बिलकुल सही कहा। यह मेरा प्रिय स्टाइल है जो आज भी वैसे का वैसा ही है।"
    विनोद प्रभाकर जी ने जहाँ जासूसी उपन्यासों में अच्छी पहचान बनाई है तो वहीं सामाजिक उपन्यासों में पाठकवर्ग 'लौट आओ सिमरन' उपन्यास के तौर पर आज भी सुरेश साहिल जी को जानता है। फिल्म लेखन में रणवीर पुष्प जी के साथ कार्य किया लेकिन किसी कारणवश यह योजना सफल न हो पायी। वहीं उपन्यासकार वेदप्रकाश वर्मा जी के साथ सफल प्रकाशन संस्थान भी चलाई और वर्तमान में दो निजी शिक्षण संस्थानों का संचालन कर रहे हैं।
   
जयदेव चावरिया, आबिद रिजवी जी और विनोद प्रभाकर जी
जयदेव चावरिया, आबिद रिजवी जी और विनोद प्रभाकर जी

             आज आबिद रिजवी जी के घर पर तीन लेखक, तीन पीढ़ियाँ एकत्र हो रही थी। आबिद रिजवी साहब जिन्होंने इब्ने सफी साहब से आशीर्वाद लिया और लेखन आरम्भ किया, विनोद प्रभाकर जी जिन्होंने उपन्यास साहित्य का एक सुनहरा समय देखा, और नये  लेखक जयदेव चावरिया जी, जिनका अभी मात्र एक ही उपन्यास प्रकाशित हुआ है। 
" ये विनोद प्रभाकर जी हैं। उपन्यासकार हैं, खुद का प्रकाशन  भी रहा है।''- मैंने परिचय करवाते हुये कहा।
"मैंने आपका नाम खूब सुना है। मेरठ में रहते हुये भी यह पहली मुलाकात है। आपने शायद मेरा नाम नहीं सुना होगा।"- विनोद जी ने कहा।
" विनोद जी सुरेश साहिल नाम से सामाजिक उपन्यास भी लिखते रहे हैं। "- मैंने कहा।
आबिद रिजवी जी ने बातें ध्यान से सुनी। और धीरे से बोले-" ऐसी बात नहीं है, यह मुलाकात पहली हो सकती है पर आपका नाम मैंने सुना है। आप तो मेरठ से प्रकाशित होते रहे हैं।"
"हाँ, धीरज पॉकेट बुक्स से मेरे उपन्यास प्रकाशित होते रहे हैं।"
आबिद रिजवी का ध्यान जयदेव चावरिया जी की ओर गया और फिर प्रश्नचाचक दृष्टि से मेरी तरफ देखा।
"यह है युवा लेखक जयदेव चावरिया जी।"
"माय फर्स्ट मर्डर केस।"- आबिद रिजवी जी ने तुरंत जयदेव जी के उपन्यास का नाम ले लिया।
"आपको तो सब याद  रहता है।"
आबिद जी धीरे से मुस्कुरा दिये।
फिर धीरे-धीरे विनोद जी और जयदेव जी से विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहे।
आबिद रिजवी जी का प्रिय शिष्य है बल्लू।‌ आबिद रिजवी जी के यहाँ टाइपिंग का बल्लू ही देखता था।  अब भी अक्‍सर बुलाने पर वह आ जाता है। काम के प्रति समर्पित, मिलनासार और हँसमुख बल्लू का परिवार भी प्रकाशन क्षेत्र में है। 
जब धीरज पॉकेट बुक्स की बात चली तो मैंने विनोद जी को बताया की बल्लू के पापा भी धीरज पॉकेट बुक्स में काम करते हैं।
"क्या नाम है?"- विनोद जी ने पूछा।
"....।" बल्लू ने अपने पापा का नाम बताया‌
"अच्छा, मैं उनको जानता हूँ, वह तो एकाउंट का काम देखते हैं।" - विनोद जी ने तुरंत कहा।
"उनसे मेरा जिक्र करना, तो वह जान जायेंगे।"
तब तक चाय नाश्ता आ चुका था। आबिद जी का परिवार की अतिथि सेवा में कोई कमी नहीं रखता। गर्म चाय के साथ कुछ न कुछ गर्मागर्म हाजिर होता है। 
   मैं और बल्लू मेरी किताबें ढूंढने में व्यस्त हो गये। जो किताबें कल नहीं मिली आज तो उन्हें ढूंढना ही था। अब समझ में नहीं आ रहा की वे किताबें कहां गयी।
आखिर में बल्लू को याद आया की पीछे स्नानागार के ऊपर कुछ जगह है जहाँ सामान रखा जा सकता है। और बल्लू अपने कपड़ों की परवाह न करते हुये आखिर वहाँ पहुँच ही गया।
    बल्लू की मेहनत रंग लायी और तीन साल पूर्व के वह तीन कार्टून किताबों के मिल ही गये। हमने वह साल किताबें मेरे एक बैग में रखी। मैं इन किताबों के लिए एक विशेष बैग साथ लेकर गया था।
  
आबिद रिजवी का कुछ समय से स्वास्थ्य सही नहीं है। उपन्यास साहित्य के रोचक किस्से सुनाने वाले आबिद जी इस बार ज्यादातर शांत चित्त होकर बातें सुनते रहे। आबिद जी के स्वास्थ्य की कामना करते हैं। 
जब कल मैं रामपुजारी जी और सुबोध भारतीय जी के साथ आबिद रिजवी जी के घर आया तो वह उपन्यास नहीं मिले थे। तब बल्लू ने कहा कि उपन्यास न मिलने के पीछे कोई वजह तो होगी। और वह वजह आज स्पष्ट हो गयी। एक शहर के, एक ही क्षेत्र में कार्यरत दो उपन्यासकार कभी नहीं मिले और आज वह मुलाकात हो गयी। जिनके पीछे वह तीन कार्टून उपन्यास ही थे। 
    
आबिद रिजवी जी से अनुमति लेकर हम मेरठ बस स्टेण्ड की ओर चल दिये।  रास्ते में विनोद प्रभाकर जी (सुरेश साहिल) अपने लेखन प्रकाशन समय की बातें बताते चले जा रहे थे साथ में जब जिस सड़क से मुड़ते तो उस समय की यादें उनके दिमाग में आ जाती थी।
  
     मेरठ से विदा होकर हम दिल्ली दरियागंज पहुंचे। हालांकि रास्ते में सामाजिक उपन्यासकार सत्यपाल जी से मिलना था लेकिन कुछ कारणों से यह मिलना न हो सका।
Sunday Book Market Delhi
Sunday Book Market Delhi

         दिल्ली का 'सण्डे बुक बाजार' अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। मैं सन् 2010 में पहली बार यहां आया था। तब यह बाजार नयी सड़क पर था। समय के साथ स्थान परिवर्तन होता रहा। अब यह बाजार सड़क ने किनारे न होकर 'महिला हाट' नामक जगह पर लगता है।  पाठक मित्रों को स्पष्ट कर दू, महिला हाट उसी सड़क पर ही स्थित है कही अन्यत्र नहीं। 
मैं और जयदेव जी कुछ समय तक वहाँ घूमते रहे। 3:30 PM जयदेव भाई की ट्रेन थी तो वह चले गये। अब मैं बुक बाजार में अकेला रह गया। एक भारी बैग को उठाना बहुत मुश्किल काम था। जब जयदेव जी साथ थे दोनों बैग को आसानी से उठा सकते थे, पर अब तो यह बैग परेशानी पैदा कर रहा था। लेकिन जैसे भी, बैग को छोड़ा हो नहीं जा सकता उसमें एक छोटी दुकान जितनी किताबें तो थी। 
Sundaybookmarket
Sunday Book Market Delhi

   बुक बाजार में लोकप्रिय साहित्य से संबंधित कुछ दुकानों पर उपन्यास उपलब्ध थे। पर अधिकांश उपन्यास 'रीमा भारती, केशव पण्डित' और राजा पॉकेट बुक्स, रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित अंतिम उपन्यास थे या फिर कुछ Ghost writing वाले। 
यहाँ से सामान्य खरीददारी की। मेरे पास राम पुजारी जी का 'ट्राइपाॅड' था, जो यूट्यूब वीडियो बनाने के लिए लिया था। 
राम पुजारी को फोन किया की यह ट्राइपोड कहां पहुंचाऊं तो उन्होंने जिद्द ही कर ली की आप 'नीलम जासूस कार्यालय' अवश्य आओ।
  मेरे लिए भारी बैग को उठाकर ले जाना मुश्किल काम था। पर राम‌ भाई का अनुग्रह। 
सण्डे बाजार से टैक्सी से पुनः कश्मीरी गेट मैट्रो स्टेशन और मैट्रो से रोहिणी पहुंचा।  वहाँ से पुनः ऑटो से नीलम कार्यालय। इस दौरान भारी बैग का जो परिवहन किया, कंधों और कमर का जो दर्द से बुरा हाल हुआ वह सिर्फ महसूस किया जा सकता है। मैट्रो के छोटे से 'entry- exit' गेट से उस बैग को लेकर जाना, बहुत ही कठिन काम था। एक बार कोशिश की कि पीठू बैग को बड़े बैग में रख‌ लू, पर बड़े बैग में इतनी किताबें थी कि छोटा बैग उस में समा ही नहीं रहा था।
  चलो, जैसे-तैसे नीलम जासूस कार्यालय- रोहिणी पहुँच ही गये। शाम के छ बज चुके थे। 
नील‌म जासूस कार्यालय प्रमुख 'सुबोध भारतीय' गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। लम्बा कद, भारी शरीर, हास्य प्रवृत्ति और गहन अध्येता सुबोध जी मिलनसार व्यक्ति हैं।  कुछ देर के इंतजार पश्चात राम पुजारी का आगमन हुआ और फिर साहित्य चर्चा आरम्भ हुयी। 
नीलम जासूस कार्यालय लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के अतिरिक्त अन्य साहित्यिक रचनाएँ भी प्रकाशित करता है।  self publishing की व्यवस्थाएँ भी देता है। सुबोध भारतीय जी ने इस विषय पर बहुत अच्छी बात कही।
"उपन्यास प्रकाशन तो नाश्ता है, भोजन का काम तो अन्य पुस्तकों के प्रकाशन से ही होता है।"
  तब तक नाश्ता आ चुका था। राम पुजारी जी ने अतुल जी को फोन किया तो उन्होंने कहां की वह पहुँच ही रहे हैं।
समोसे के साथ चाय का आनंद लेते हुये विभिन्न विषयों पर बाते होती रही। 
"प्रकाशन जगत में चाय-समोसे बहुत प्रसिद्ध रहे हैं।"
"मेहमान का स्वागत तो जरूरी है।"
"योगेश मित्तल जी के संस्मरण पढे हैं। अक्सर चर्चा होती है की प्रकाशक के पास गये तो उन्होंने चाय समोसे मंगवा लिये। वहीं परम्परा आप निभा रहे हैं।"
हमने चाय खत्म ही की थी तब तक 'अतुल प्रभा जी' ने कार्यालय में प्रवेश किया‌। जिनके चेहरे पर प्रभा थी, ह्रदय में भी और बातचीत के दौरान यह भी पता चला की उनका व्यक्तित्व भी अतुल्य है। 
"गुरप्रीत जी आपका नाम सुना है, आपका ब्लॉग मैं अक्सर पढता रहता हूँ। मुलाकात का यह प्रथम अवसर है।"
"यह तो राम भाई का अनुग्रह कहो या जिद्द जिसके चलते मैं यहाँ पहुँच गया।"
राम भाई ने बात आगे बढायी -"दिल्ली आये और नीलम जासूस कार्यालय न आये तो आपकी यात्रा अधूरी रह जाती।"
  यह सच भी है। इस छोटी से मुलाकात में बहुत कुछ सीखने और समझने को मिला।
सुबोध भारतीय जी अपनी ऑफिस चेयर पर विराजमान थे उनके पास ही रामपुजारी जी बैठे थे। सुबोध जी के टेबल के सामने अतुल जी और मैं थोड़ा सा साइड़ में बैठा था। 
  मेरी नजर सुबोध जी पर थी, अचानक मेरे ध्यान में एक बात आयी।
"अतुल जी, एक बात बताइये। सुबोध जी किस व्यक्ति की तरह नजर आते हैं?"
अतुल जी ने एक पल को सोचा और फिर बोले-"अमित शाह की तरह।"
"बिलकुल सही कहा।"
हँसते हुये सुबोध जी ने बताया की एक बार वह किसी होटल में गये तो वहाँ बैठे व्यक्ति ने धीरे उसे पूछा- सर, आप अमित शाह जी हो ना?
  "सुबोध का व्यक्तित्व अमित शाह जी से मिलता है। बस इस Cap का ही फर्क है।"- राम पुजारी जी ने कहा।
"बस कद का फर्क है। इनका कद बड़ा है।"
सुबोध जी ने 'कद' शब्द को ग्रहण किया और तुरंत उत्तर दिया -"नहीं, हमारा 'कद' उनके सामने छोटा है।"
 नीलम जासूस कार्यालय एक सम्मिलित हँसी से गूँज उठा। 
हाँ, एक बात और याद आ गयी। यह तो पता नहीं सुबोध जी ने किस संदर्भ में कही थी पर कथन रोचक था।
"नौकरी के लिए कह रखा था सालों से, सालों से।"
सुबोध जी एक हास्यप्रिय और खुशमिजाज व्यक्ति हैं।
बातों का क्रम बदला।
"आपने 'हैसटैग' पढी होगी, कैसी लगी?"- सुबोध जी ने पूछा।
"शहरी जीवन की रोचक कहानियाँ है। मुझे इसमें बस एक ही कमी लगी।"
सुबोध जी की प्रश्नवाचक निगाहें मेरी ओर थी। एक पल के विराम  पश्चात मैंने कहा।
"मुझे इस किताब में कमी बस इतनी लगी की इसमें कहानियाँ कम है। आठ की जगह दस होनी चाहिए।"
"हा...हा...हा...।" - एक जोरदार ठहाका गूँजा - "यह शिकायत लगभग पाठकों की है।"
  बातचीत की डोर अतुल जी ने संभालते हुये साक्षात्कारकर्ता की तरह प्रश्नों का क्रम आरम्भ किया। 

"गुरप्रीत जी, क्या कारण है आजकल युवावर्ग हिंदी किताबें नहीं पढ रहा?"- अतुल जी ने प्रश्न किया।
"आज का युवा मैट्रो में अंग्रेजी किताब हाथ में पकड़ना अपनी शान समझता है, पर हिंदी नहीं पढना चाहता।"- रामपुजारी जी ने कहा।
"चाहे उस अंग्रेजी पढनी भी न आये, मुश्किल से एक पृष्ठ पढ पाये, पर हाथ में अंग्रेजी किताब ही होगी।"- सुबोध भारतीय जी ने बात आगे बढायी।
" यह समस्या मैट्रो शहरों की हो सकती है या सभी शहरों की हो सकती है, पर हमारे गाँवों की यह समस्या नहीं है। मेरे साथी मित्र सभी हिन्दी पढते हैं इसलिए मुझे ऐसा नहीं लगता।"- मेरा उत्तर था।
"युवा वर्ग को हिंदी साहित्य से जोड़ने के लिए क्या करना चाहिए।"
"पहले आप सभी से मेरा एक प्रश्न है। अपनी पसंद की पाँच हिन्दी में लिखित रचनाएँ बताये?"
राम पुजारी जी और अतुल सर कुछ सोचते तब तक सुबोध भारतीय जी ने अपनी पसंद की पांच किताबें बतायी।

1. आवारा मसीहा
2. चित्रलेखा
3. नाच्यो बहुत गोपाल
4. झूठा सच
5. सीधी सच्ची बातें

" सर, इनमें से कितनी किताबें ऐसी हैं जिनको किशोर वर्ग पढ सकता है। अधिकांश की भाषा इतनी क्लिष्ट है की सामान्य पाठक तो दूर विशेष पाठक भी नहीं समझ सकता।"
"हाँ, यह बात तो सही है।"- अतुल जी ने समर्थन किया।
"हमारे पास बाल साहित्य है, अच्छा है। लेकिन उसके बाद किशोर साहित्य नहीं है जो भविष्य के लिए पाठक तैयार कर सके।"
"हाँ, यह बात तो है।"
"आपकी दृष्टि में क्या समाधान है?"
मैंने मुस्कुराते हुये कहा, -"अतुल जी, मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ, एक पाठक हूँ, मेरा समाधान कहां महत्व रखता है।"
"फिर भी, एक पाठक के तौर पर भी कुछ विचार तो होंगे।"
"खुशवंत सिंह का साहित्य पढें, आर.के. नारायण को पढें यह लेखक रोचक लिखते हैं। चाहे ये अंग्रेजी में लिखते हैं पर अनूवाद पढा है मैंने बहुत रोचक है। पर हिंदी में ऐसा रोचक साहित्य मूल रूप में उपलब्ध ही नहीं।"
"बिलकुल सही बात कही है।''- सुबोध भारतीय जी ने कहा।
" मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति है जो किशोर वर्ग हेतु रोचक साहित्य लिख सकता है और वह हैं आप।"- अतुल जी‌ ने सुबोध भारतीय जी की‌ ओर संकेत कर कहा।
"हैसटैग युवाओं को पसंद आयी है।"- राम‌ पुजारी जी ने कहा,-"आपको आगे भी रोचक साहित्य लिखना चाहिए।"
"यह जिम्मेदारी मैं लेता हूँ।"- सुबोध भारतीय जी ने कहा।
यह निर्णय एक संतोषजनक निर्णय लगा। एक लेखक, एक प्रकाशक हिंदी में उस रिक्त स्थान को पूर्ण करने का दायित्व लेता है जिसके कारण हिंदी का किशोर या युवावर्ग साहित्य से दूर हो रहा है। 
 मैंने घड़ी की तरफ देखा तो समय काफी हो चला था। मुझे रोहिणी से सराय रोहिल्ला स्टेशन भी पहुंचना था और वहाँ से मेरी ट्रेन भी थी। और मुझे नहीं लगता था की यह वार्ता का क्रम समाप्त होगा। इस वार्ता को मुझे ही विराम देना था।
"राम भाई, मुझे निकलना होगा। ट्रेन का समय हो जायेगा।"
और फिर 'ना-ना' करते हुये भी बातों का सिलसिला चलत रहा।
  "मेरी तरफ से आपके लिए यह पुस्तक है।" -अतुल जी ने अपना प्रथम उपन्यास 'पल-पल दिल के पास' मेरी तरफ बढाते हुये कहा।
अतुल जी द्वारा लिखित 'पल-पल दिल के पास' इनके जीवन की दारुण कथा है। उपन्यास बहुत ही मार्मिक है।
पल पल दिल के पास अतुल प्रभा
अतुल प्रभा जी के साथ

सुबोध जी द्वारा गुरुदत्त का उपन्यास 'गुंठन' भेंट में प्राप्त हुआ।
  और समय को देखते हुये, भविष्य में‌ पुनः मिलने का वायदा कर मैं नीलम जासूस कार्यकाल से विदा हुआ।  

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4 टिप्‍पणियां:

  1. सुबोध भारतीय9 फ़रवरी 2023 को 8:03 pm बजे

    बहुत खूब लिखा है शब्द चित्र की भांति।

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  2. अदभुत व्यक्तित्व के मालिक हैं गुरप्रीत जी।

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  3. रोचक रही यह यात्रा। काफी लोगों से मिलना हुआ और काफी कुछ सीखना भी हुआ। हमने भी काफी कुछ सीख लिया।

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  4. बहुत ही रोचक लगा आपका ये यात्रा वृतांत । दोनो भाग एक ही बैठक में पढ़ लिए ।
    नए पुराने लेखकों की बातचीत पढकर और उनके फोटो देखकर ऐसा लगा, जैसे आप सब के साथ मैं भी वहां मौजूद रहा हूं ।
    अशोक कुमार शर्मा ( लेखक )
    रूपगढ़ ( सीकर)
    9928108646

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