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बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की - 14

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की - 14
        प्रस्तुति योगेश मित्तल
"ऐसी क्या मुसीबत आ गई कि मुझे बुलाने के लिए आपको मेरठ आना पड़ा?" मैंने राजेन्द्र भूषण जैन से पूछा तो वह बोले -"मुझे क्या पता, मुझसे तो गौरीशंकर जी ने रिक्वेस्ट की थी कि जैन साहब, योगेश मेरठ में कहीं होगा, उसके घर पर पता करवाया था, दिल्ली में तो वह है नहीं। आप मेरठ जाकर उसे पकड़ कर लाओ, जो भी खर्चा होगा, आपको हम देंगे।"
वेदप्रकाश शर्मा
वेदप्रकाश शर्मा जी
"काम नहीं बताया उन्होंने।" - मैंने पूछा! 
"मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं। पिछली बार राज कुमार गुप्ता जी ने भेजा था, तब भी हमने कोई सवाल नहीं किया था।" राजेन्द्र भूषण बोले।
मैं सोचने लगा, क्या करूँ? दिल्ली जाऊँ या नहीं?
     मेरठ की मेरी यादों में, दिल्ली से मुझे बुलाने के लिए प्रकाशकों द्वारा किसी को मेरठ भेजने की घटनाएँ तीन बार हुई है। दो बार मनोज पाकेट बुक्स से - एक बार राजकुमार गुप्ता द्वारा तथा एक बार गौरीशंकर गुप्ता द्वारा राजेन्द्र भूषण जैन को मेरठ भेजा गया और एक बार विजय पाकेट बुक्स का मैसेज लेकर टूरिंग एजेन्ट इन्द्र मेरठ आये थे।
मुझे सोच में डूबा देख, राजेन्द्र भूषण जैन बोले -"तो चल रहा है ना मेरे साथ दिल्ली?"
"अभी ये कहीं नहीं जायेगा।" - तभी मेरी बड़ी बहन प्रतिमा जैन की कड़क आवाज गूंजी-"और आप भी कहीं नहीं जाओगे।"
"वो बात यह है भाभीजी, मैं सरला को बोल कर नहीं आया कि आज मेरठ रुकूँगा।" - राजेन्द्र भूषण बोले।
"कोई बात नहीं, आज रात यहीं रुक जाओ, सुबह चले जाना।"-  प्रतिमा जीजी बोलीं -"सरला समझ जायेगी कि भैया-भाभी ने रोक लिया।"
सरला, राजेन्द्र भूषण जैन की पत्नी का नाम था। उनके कोई सन्तान नहीं थी। रात को अकेले में सरला जीजी को डर लगता था, इसलिए राजेन्द्र भूषण जैन मेरठ में ही रुकने के लिए तैयार नहीं हुए तो मैंने भी उनके साथ ही दिल्ली निकलने का प्रोग्राम बना लिया।
      उन दिनों मेरठ से आने-जाने वाली सभी बसें शाहदरा होकर निकलती थीं। राजेन्द्र भूषण जैन शाहदरा उतर गये, वहाँ से उनका विश्वास नगर स्थित घर काफी करीब पड़ता था। उन दिनों वह पराग प्रकाशन के प्रकाशक-लेखक श्रीकृष्ण जी के घर के निकट ही रहते थे। जब भी कभी मेरा शाहदरा की ओर गुजरना होता, मैं विश्वास नगर अवश्य जाता था और सरला जीजी के हाथ का बना दोपहर का खाना खाकर ही आगे बढ़ता था, पर मेरठ से लौटते हुए रात हो रही थी, इसलिए मैं राजेन्द्र भूषण जैन के साथ न उतर कर, कश्मीरी गेट ही उतरा, वहाँ से घर गया। 
अगले दिन मैं सुबह नौ बजे ही मैं घर से निकल गया।
     घर से निकलने के बाद मेरा पहला पड़ाव पटेलनगर था। पटेलनगर में पहले राजभारती जी के घर गया। मुझे देखते ही भारती साहब खुश हो गये और बातों के क्रम में सबसे पहले उन्होंने एक खुशखबरी सुनाई कि उन्होंने एक नयी मैगज़ीन के लिए जो नाम 'अपराध कथाएँ' सबमिट कर रखा था, वह मिल गया है! और मुझे बताया कि उसमें सम्पादक 'योगेश मित्तल' होगा। पर इस लम्बे वाकये की लम्बी कहानी फिर कभी....।
   उस दिन भारती साहब के यहाँ से निकलने के बाद मैंने उनके साथ के ही घर में दस्तक दी। वह फ्लैट :खेल खिलाड़ी' के सर्वेसर्वा सरदार मनोहर सिंह का था। मेरे दस्तक देने पर सरदार मनोहर सिंह की बड़ी लड़की दरवाजे पर आई और मुझे देखते ही बोली- 'अंकल जी नमस्ते'।
"पापा हैं?"-  मैंने पूछा तो अन्दर से मनोहर सिंह की तेज़ व दबंग आवाज आई -"आ जा भई, अन्दर आ जा...।"
मैंने अन्दर प्रवेश किया तो मनोहर सिंह ने अन्दर किचेन में काम कर रही पत्नी को आवाज दी। भाभी जी सामने आईं तो मनोहर सिंह पंजाबी में बोले -"वो कोट तो लेकर आ, जो हम योगेश के लिए लाये थे।"
     बातों बातों में पता चला कि कुछ दिन पहले मनोहर सिंह व उनकी पत्नी बच्चों के लिए आफ सीजन सेल में कुछ गर्म कपड़ों की खरीदारी के लिए मार्केट गये थे तो भाभी जी ने मनोहर सिंह से कहा -"योगेश जी के पास कोई गर्म कोट नहीं है। सर्दी आने वाली हैं - एक कोट योगेश जी के लिए भी ले लो।"
और एक कोट साइज़ के अनुमान से मेरे लिए ले लिया गया।
"पहन के दिखाओ।" - कोट मेरे हवाले करते हुए भाभीजी ने कहा। 
कोट मेरे साइज़ से कुछ थोड़ा सा बड़ा था। देखकर मनोहर सिंह दुखी हो गये, बोले -"अब तो ये वापस भी नहीं होगा, बदला भी नहीं जायेगा। लाये हुए काफी दिन हो गये। तू काफी दिन से आया नहीं।"
इस पर भाभीजी बोलीं- "क्या? जरा-सा ही तो लम्बा है। और लम्बाई तो खराब नहीं लग रही। हाँ, बाजू की लम्बाई जरूर कुछ बुरी लग रही है तो बाजू को योगेश जी अन्दर को मोड़कर, पहन लेंगे या अपनी बोट्टी से या मम्मी से अन्दर मुड़वा कर टांके लगवा लेंगे। अरे, फैशन थोड़े ही करना है, सर्दी से ही तो बचना है।"
और यही फैसला हुआ कि मैं या तो बाजू अन्दर को मोड़कर पहन लूंगा या अन्दर मुड़वा लूंगा। उस समय तक मेरी शादी हो चुकी थी और हमारा परिवार विकास पुरी में रहने लगा था।
     भाभीजी ने कोट अखबार में लपेट एक बड़े थैले में डालकर मुझे दे दिया। उसके बाद मनोहर सिंह ने भी मुझे एक खुशखबरी सुनाई कि उन्होंने बच्चों की जिस मैगज़ीन 'नन्हा नटखट' के नाम के लिए एप्लाई किया था, वह मिल गया है और अब 'नन्हा नटखट' की सारी तैयारी करनी है। मतलब सारी तैयारी मुझे ही करनी है।
     वहाँ से कोट लिए हुए ही मैं शक्तिनगर के लिए निकला। उन दिनों शक्तिनगर की ओर जाने वाली 108 नम्बर बस शादीपुर डिपो से भी बनकर चलती थी।  शादीपुर डिपो तक मैं पैदल ही गया। वहाँ से बस भी जल्दी ही मिल गी। मैं शक्तिनगर में अग्रवाल मार्ग स्थित मनोज पाकेट बुक्स के आफिस पहुँचा तो पता चला कि गौरीशंकर गुप्ता जी रूपनगर आफिस में हैं।
      उन दिनों गौरीशंकर गुप्ता, अग्रवाल मार्ग स्थित गुप्ता भाइयों के घर के बेसमेंट में स्थित मनोज पाकेट बुक्स के आफिस में न बैठकर, रूपनगर की कोठी में बैठने लगे थे।
       रूपनगर की कोठी में कन्स्ट्रक्टेड एरिया के अलावा बाहर खूबसूरत लॉन भी था। सर्दी के दिनों में सुबह की धूप में वहाँ ईजीचेयर डालकर बैठने का मज़ा ही और था, लेकिन उस दिन गौरीशंकर गुप्ता रूपनगर के निचले फ्लोर पर बने छोटे से आफिस में थे। मुझे देखते ही उस रोज वह जिस तरह खुश हुए, मुझे लगा - मामला कुछ बहुत ही खास है! फिर उनका पहला ही डायलॉग था -"आ भई, बहुत परेशान कर रखा है तूने।"
"ऐसा क्या कर दिया मैंने?" - मैंने पूछा।
"यार, तू कहाँ-कहाँ पैर फंसाये रखता है।"-  गौरीशंकर गुप्ता बोले- "तू एक जगह टिक जा, और कहीं नहीं, बस, मेरे यहाँ आ जा, बोल महीने में कितने पैसे चाहिए? मैं दूंगा। बस, मैं जो काम तुझे दूं, वही करना होगा और...।"
"और क्या...?" - मैंने पूछा!
"सुबह नौ बजे से शाम छ: बजे तक तू मुझे आफिस में दिखना चाहिए।"
"यही नहीं हो सकता।" - मैंने कहा! 
"क्यों नहीं हो सकता। मेरे यहाँ तुझे कोई डिस्टरबेन्स नहीं होगा, तुझे अलग केबिन बनवा कर दूंगा मैं। एक लड़का तेरा ध्यान रखेगा, जब कहेगा, चाय मिलेगी। खाना कहेगा, खाना भी तुझे घर का बना खिलायेंगे।"
"वो सब तो ठीक है भाई साहब, पर नौकरी करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। एक बार राज बाबू के यहाँ की थी, लेकिन मज़ा नहीं आया।"
"तू इसे नौकरी क्यों समझ रहा है। तू अपने केबिन में मालिक बनकर बैठ...।"
"आपने कहा है कि सुबह नौ बजे से शाम छ: बजे तक आप मुझे अपने आफिस में देखना चाहते हैं। टाइम का पंक्चुअल तो मैं राज बाबू के यहाँ भी कभी नहीं रहा।"
"तो होना चाहिए न तुझे टाइम का पंक्चुअल।"
"मैं चाहूँ भी तो नहीं हो सकता।" - मैंने कहा ! 
"क्यों नहीं हो सकता। योगेश, ये बात रहने दे। आदमी चाहे तो क्या नहीं कर सकता और टाइम की पंक्चुअलटी के बिना न तो तू नोट कमा सकता है, ना ही नाम कमा सकता है। और कुछ महीने तक तू मेरे साथ ढंग से चल, मैं तेरे नाॅवल तेरे नाम से भी छापूंगा और तुझे इण्डिया का नम्बर वन राइटर बना दूंगा।"
मुझे हंसी आ गई! 
"हंसा क्यों? मैंने क्या जोक मारा है?"-  गौरीशंकर गुप्ता कुछ नाराज़ हो उठे।
"नहीं भाई साहब, मैं आपकी बात पर नहीं, अपने आप पर हंसा हूँ। पिछले दिनों एक के बाद एक कई प्रकाशकों ने मुझे नाम से छापने का आफर दिया है, लेकिन अभी मेरे पास किसी के लिए लिखने का भी वक़्त नहीं है।"
"तो क्यों नहीं है वक़्त? वक़्त निकाल और मेरे यहाँ काम करने में तुझे क्या परेशानी है। अच्छा चल, तू नौ बजे तक नहीं आ सकता तो दस बजे तक तो आ सकता है ना?"
"मैं तो आठ बजे तक भी आ सकता हूँ भाई साहब, लेकिन मुझे अपनी किस्मत पर भरोसा नहीं। दरअसल जब भी मैं कोई पक्का निर्णय करता हूँ - अचानक मेरे साथ कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि मैं अपने निर्णय पर अडिग नहीं रह पाता।"-  मैं बहुत गम्भीर हो गया था।
"बात क्या है, मुझे बता।"-  गौरीशंकर गुप्ता ने बड़े अपनेपन से मुझसे कहा और फिर मैंने अपनी जिन्दगी में पहली और आखिरी बार किसी प्रकाशक को वो लम्बी दास्तान सुनाई, जो आप सबके सामने फिर कभी अपने एक एपिसोड 'मैं मशहूर क्यों नहीं हुआ' मैं लिखूँगा। 
सुनकर गौरीशंकर गुप्ता भी इमोशनल हो गये और एकदम खड़े होकर मेरे करीब आये और मेरी पीठ थपथपाते हुए बोले -"चल, छोड़। ये बता, इस थैले में क्या है?"
"एक गर्म कोट है।"
"गर्म कोट...! हाँ, ठीक है, सर्दी आने वाली हैं। खरीद कर लाया है?"
"नहीं, खेल खिलाड़ी वाले सरदार मनोहर सिंह और उनकी पत्नी अपने बच्चों के लिए सर्दियों के गर्म कपड़े लाने के लिए निकले थे तो मेरे लिए भी ले आये।"
"एक बात तो है - तू जिस-जिसके साथ काम करता है, उसका दिल जीत लेता है।"
"क्या भाई साहब, मैं तो जैसे आपसे बोलता हूँ, इसी तरह सबसे हंसता-बोलता हूँ। सबके साथ एक जैसा व्यवहार है मेरा।"
"तभी तो कह रहा हूँ। अब देख, जब मैं और राज बाबू साथ-साथ बैठते थे, तब भी हमारे यहाँ अक्सर तेरे बारे में बहुत बातें होती थीं और अब विनय बाबू से तेरे बारे में बात होती रहती है और एक बात कहूँ...।"
"जी....कहिये।"
"अपने मन को मजबूत कर, बहुत लम्बी उम्र होगी तेरी। मैं तो भगवान से प्रार्थना करूँगा कि मेरी उम्र भी तुझे लग जाये। यार, तू बहुत जरूरी आदमी है हम सबके पब्लिकेशन के लिए।" - गौरीशंकर गुप्ता मेरे जीवन में एकमात्र शख्स रहे हैं, जिन्होंने मेरे लिए शुभकामना प्रकट करते हुए इतनी बड़ी बात कही थी कि मेरी उम्र भी तुझे लग जाये। जीवन में फिर कभी ऐसे शब्द कभी भी किसी बहुत ज्यादा अपने या अपने रिश्तेदारों से भी आज तक नहीं सुने।
        बातें होती रहीं। गौरीशंकर गुप्ता जी ने चाय और साथ में बिस्कुट नमकीन भी मंगा ली, लेकिन इतनी देर की बातों में अब तक कोई ऐसी बात नहीं हुई, जिससे मुझे पता चलता कि मुझे मेरठ से बुलवाने का खास कारण क्या था? 
         पर मैं भी अपने मुंह से कोई सवाल नहीं करना चाहता था,  इसलिए जब चाय का आखिरी सिप लेकर मैंने कप रखा तो गौरीशंकर गुप्ता से कहा-"अच्छा, अब चलूँ भाई साहब?"
"अबे, अभी कैसे जायेगा। अभी तो तेरी मेरी कोई बात हुई ही नहीं है, जिस काम के लिए जैन साहब को मेरठ भेजकर तुझे दिल्ली बुलवाया है, वो बात तो अभी तक हुई ही नहीं।"
"अच्छा, मैं तो यही सोच रहा था कि आपने साथ में चाय पीने के लिए बुलवाया था और चाय तो पी ली।"
         गौरीशंकर गुप्ता ठहाका मारकर जोर से हंसे। फिर हंसी रुकने पर बोले - "यार, मेरे पास बहुत सारी स्क्रिप्ट इकट्ठी हो रही हैं। शायद सौ डेढ़ सौ से भी ज्यादा होंगी।"
"किस तरह की स्क्रिप्ट...?" - मैंने पूछा।
"जासूसी भी हैं और सामाजिक भी हैं।"
"पर इतनी सारी स्क्रिप्ट कैसे इकट्ठी हो गयीं?" - मैं अचरज से बोला।
"अरे यार, रोज कोई न कोई नया लेखक आ जाता है। मैं लाख कहूँ कि भई मुझे नहीं चाहिए, पर कई रोने लगते हैं, गिड़गड़ाने लगते हैं कि स्क्रिप्ट के बदले कुछ भी देने के लिए कहते हैं, तो क्या करें।  दूसरे की मजबूरी देख कर तरस आ जाता है। जिन्हें नाम से छपने की जिद्द होती है, वो तो अपनी कहानी उठा कर चल देते हैं, लेकिन जिन्हें पैसा चाहिए होता है, पैर तक पकड़ लेते हैं। अब ऐसे राइटरों से पीछा छुड़ाने के लिए सरसरी तौर पर स्क्रिप्ट देखकर आइडिया लगा लेते हैं कि कितने तक दिये जा सकते हैं और दे-दिवाकर उसे विदा कर देते हैं। अब वो ही स्क्रिप्ट जी का जंजाल बनी हुई हैं, न तो फेंकते बनती हैं, ना ही छापते बनती हैं। अब तू दो-दो चार- चार स्क्रिप्ट ले जा और पढ़कर बता कौन सी as it is छापी जा सकती है, कौन सी एडिटिंग के बाद छप सकती है और कौन सी कूड़े में फेंकनी है।"
"भाई साहब, मेरे पास टाइम कहाँ है स्क्रिप्ट पढ़ कर पास - फेल करने का?"-  मैंने पीछा छुड़ाने की गर्ज से तत्काल कहा तो गौरी भाई भी तत्काल ही बोले -"अरे यार, मैं तुझसे फ्री में नहीं पढ़वाऊंगा - मैं तुझे पढ़ने के भी पैसे दूंगा। सौ रुपये 'पर स्क्रिप्ट'.... ठीक है?"
"नहीं भाई साहब। कई बार स्क्रिप्ट इतनी बेकार होती हैं कि पढ़ने का मन ही नहीं होता।''- मैं टालने के मूड में था, पर जैसा कि हमेशा हर जगह होता आया था, मुझे 'ना' करना ही नहीं आता था। ढंग से 'ना' करना मेरे लिए कभी सम्भव ही नहीं हुआ।
         गौरीशंकर गुप्ता मेरी बात के जवाब में कह उठे -"अरे तो यही तो तुझे करना है, जो बेकार स्क्रिप्ट हो, उसे एक तरफ फेंक और उसके पहले पेज पर ही 'काटा' ( X ) लगा कि बेकार है, तेरे लिए तो यह काम बहुत आसान है। मुझे मालूम है - तू एक-एक घण्टे में फैसला कर लेगा। तू विनय भाई जी से पूछ ले, उनसे भी मैंने तेरी बहुत तारीफ की है कि उपन्यासों के बारे में रीडिंग, करेक्शन, एडीटिंग योगेश मित्तल से बढ़िया कोई नहीं कर सकता, ये काम तो मैं उसी से करवाऊँगा। तू नहीं करेगा तो सोच विनय भाई की नज़र में मेरी क्या बात रह जायेगी।"
"नहीं भाई साहब, मेरी तबियत भी ठीक नहीं रहती। आपको बताया ही है।"-  गौरी भाई के सभी दांव बूमरैंग की तरह उलटते हुए मैं बोला। ऐसा करते हुए मेरे दिमाग में राॅयल पाकेट बुक्स वाले जैन साहब और वेद प्रकाश शर्मा की बातें भी गूंज रही थीं कि मुझे लोगों को 'मना करना' 'ना करना' सीखना चाहिए, पर गौरीशंकर गुप्ता वो शख्स थे, जिन्होंने मेरी राइटिंग पर ध्यान दे, मुझे अरुण कुमार शर्मा से कहकर मनोज पाकेट बुक्स में तब बुलवा लिया था, जब प्रकाशन जगत के गिनती के लोग ही मुझे पहचानते थे और अब तो यह हाल था कि मेरठ में सीक्रेट सर्विस प्रकाशन कार्यालय के संस्थापकों में से एक आदरणीय तिलकचन्द जैन कई बार कह देते थे- जो योगेश मित्तल को नहीं जानता, वो कोई पब्लिशर तो हो ही नहीं सकता। बेशक जैन साहब यह मुझे खुश करने के लिए बोलते हों, पर उस समय यह सच्चाई भी थी कि फिक्शन छापने वाले तकरीबन सभी प्रकाशक मुझे नाम और शक्ल से पहचानते थे।
पर गौरीशंकर गुप्ता जी पर मेरा तबियत का बहाना भी नहीं चला, वह मुझे समझाते हुए बोले -
"अरे तो ये काम तो तबियत खराब में भी हो सकता है। तबियत खराब में तू वेद प्रकाश काम्बोज और सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास नहीं पढ़ता क्या? बस, वो न पढ़ कर, तू ये स्क्रिप्ट पढ़, इसमें तुझे पैसे भी मिलेंगे। अच्छा चल, एक स्क्रिप्ट पढ़ने के तुझे डेढ सौ रुपये दूंगा और जिस स्क्रिप्ट में एडिटिंग और ठीक ठाक करने का काम होगा, वो तुझसे ही करवाऊँगा, उसके अलग से पैसे दूंगा, अब तो 'हाँ' कर दे।"
       और मैंने 'हाँ' कर दी तो गौरीशंकर गुप्ता गम्भीर होकर बोले -"देख योगेश, यह काम मैं किसी और से भी करा सकता था, पर जैन साहब को मेरठ भेजकर इसीलिए बुलवाया कि मुझे मालूम है - तू जिस स्क्रिप्ट पर हाथ रख देगा, उसे दस-बीस हज़ार से लाख-दो लाख बेचना भी मेरे लिए मुश्किल नहीं होगा। औरों की क्या कहूँ... बहुतों की तो हिन्दी भी ठीक नहीं है।"
       उस दिन गौरीशंकर गुप्ता जी ने मुझे चार स्क्रिप्ट दीं। देना तो वो ज्यादा चाहते थे, किन्तु कागज़ का भार भी कम नहीं होता। इसलिए स्क्रिप्ट ले जाने में, मुझे ज्यादा परेशानी न हो, इसलिए छ: रखते-रखते चार पर आ गये।
फिर दिल्ली में मैं बहुत व्यस्त हो गया। मेरठ जाने का ख्याल भी आता तो मैं उसे दुत्कार देता था।
         सरदार मनोहर सिंह की 'नन्हा नटखट' की तैयारी के लिए बार-बार काॅमिक्स बनाने में उस्ताद बन चुके हरविन्दर माँकड़ और परविन्दर मिचरा के अलावा उन दिनों हरीश बहल, मधु मुस्कान में कार्टून बनाने वाले हरीश सूदन और सरिता, गृहशोभा आदि में 'बेदी' नाम से कार्टून पेज बनाने वाले जितेन्द्र बेदी जी तथा अन्य कई लोगों से भी मिला। लेकिन काम आये अपने हरविन्दर माँकड़, परविन्दर मिचरा तथा दिल्ली से बाहर के आर्टिस्ट, जिनमें बिहार में छपरा का राजू नाम का एक आर्टिस्ट भी था। 
        अपराध कथाएँ भी शुरू हो गई थी और उसके शुरुआती अंक के लिए राजभारती जी ने कम्प्यूटर टाइपिंग करवाने का फैसला किया। कम्प्यूटर टाइपिंग उस समय आम न थी, शुरुआत ही थी और पश्चिमी दिल्ली में पालम गाँव के एरिया में कृष्ण मुरारी गर्ग नाम के युवक ने तीन-चार कम्प्यूटर लगाकर, कम्प्यूटर टाइपिंग करने और सिखाने का एक अच्छा सेन्टर खोला था। उस समय वहाँ आस-पास तो क्या, दूर-दूर तक कम्प्यूटर कहीं नहीं था। अपराध कथाएँ तैयार करवाने के लिए मुझे रोज पालम जाना पड़ता था।
        उन दिनों कम्प्यूटर में ब्लैक एंड व्हाइट मानीटर होते थे। जो लोग कम्प्यूटर के बारे में जानते हैं, उन्हें मालूम ही होगा कि आरम्भ में कम्प्यूटर के जो मॉडल आये थे, उनमें सबसे पहला 'टू एट सिक्स', फिर 'थ्री एट सिक्स' उसके बाद 'फोर एट सिक्स' आये थे। मैंने जो पहला कम्प्यूटर खरीदा था, वो एक 'फोर एट सिक्स' सेकेण्ड हैण्ड खरीदा था।  उसकी हार्ड डिस्क 'फोर एम बी' थी और शुरुआत में रैम सिर्फ आठ केबी थी, जिसे बाद में मैंने बढ़वा कर, सोलह केबी करवा लिया था।
      और हाँ, शुरुआत में आने वाले 'नये टू एट सिक्स' की कीमत उस समय लगभग साठ हज़ार पड़ती थी। इस लिहाज़ से आज जरा सोचिये कि कम्प्यूटर के मामले में हम कितने सुखी हैं।
       तब लिखते - पढ़ते - सम्पादन व प्रूफरीडिंग करते, छ: महीने कैसे गुजर गये पता ही नहीं चला। इन छ: महीनों में एक खास बात यह भी हुई कि राजभारती जी के छोटे भाई महेन्द्र सिंह के बड़े बेटे रिम्पी ने भी अपने यहाँ कम्प्यूटर लगा लिया और अपराध कथाएँ का काम कृष्ण मुरारी गर्ग के यहाँ से रिम्पी के यहाँ होने लगा। उसके बाद उत्तमनगर में भी रामगोपाल नाम के एक शख्स ने भी अपने यहाँ कई कम्प्यूटर लगा लिये।
        हम कुछ कहानियाँ रामगोपाल के यहाँ भी टाइप करवाने लगे, क्योंकि रिम्पी ने सिर्फ एक कम्प्यूटर लगाया था और उसे और भी बहुत से काम होते थे, इसलिए उसके यहाँ काम की गति बेहद धीमी थी।
        छ: सात महीने बाद अचानक एक पोस्ट कार्ड मेरे घर के पते पर आया, उसमें लिखा था - 'योगेश जी, शीघ्र अति शीघ्र मेरठ आकर मिलो।' - सतीश जैन।
पत्र में लक्ष्मी पाकेट बुक्स की मोहर भी लगी थी।
         मेरठ से किसी ने मुझे याद किया, यह एहसास मेरे दिल में खलबली मचाने के लिए काफी था। उन दिनों 'खेल खिलाड़ी', 'विश्व क्रिकेट', 'नन्हा नटखट' और 'अपराध कथाएँ' सभी का काम कम्पलीट था और मनोज पाकेट बुक्स के यहाँ के उपन्यासों का पढ़ना और करेक्शन, एडीटिंग भी बन्द थी।
      मैं राजभारती जी से मिला और उनसे कहा -"मैं कुछ दिनों के लिए मेरठ जाना चाहता हूँ।"
"कुछ दिन ठहर कर चले तो मैं भी साथ चलूँगा।"- भारती साहब बोले -"अग्निपुत्र सीरीज़ का नाॅवल कम्पलीट हो जायेगा।"
        आम तौर पर मैं हमेशा भारती साहब की बात मान लिया करता था, पर सतीश जैन का पोस्ट कार्ड आया है, यह ख्याल मेरे दिमाग में घूम रहा था तो बोला- "यार लक्ष्मी पाकेट बुक्स का अर्जेन्ट मिलने का लैटर आया है।"
"ठीक है, फिर तो फटाफट जा और वहीं रुके तो मंगल-बुध को धीरज पाॅकेट बुक्स में ग्यारह- बारह बजे तक चक्कर मार लेइयो, मैं वहीं मिलूँगा।"
         इसके बाद मैं सरदार मनोहर सिंह से भी मिला और उन्हें भी मेरठ जाने के बारे में कहा तो वह बोले -"ठीक है, जा, पर वहीं जमकर मत बैठ जाइयो।"
          वह शुक्रवार का दिन था। सर्दियाँ शुरू हो गईं थीं, इसलिए स्वेटर के ऊपर मैंने मनोहर सिंह का दिया गर्म कोट भी पहन लिया। पत्नी ने हालांकि मना किया कि इसकी बाजू कुछ लम्बी है, मुड़वा लो, तब पहनना, पर मैंने कहा -"अरे ठण्ड से बचाव रखना है, बाजू मोड़ लूँगा।"
        पत्नी ने फिर कुछ नहीं कहा, क्योंकि मेरे घर में सभी भली भाँति जानते थे कि ठण्ड में अक्सर मेरी तबियत खराब हो जाया करती है। दमा जोर पकड़ लेता है। 
        लेकिन मेरठ की बस के सफर में ही मुझे पता चल गया कि कोट की बाजू अन्दर को मोड़ लेने का सिस्टम ज्यादा देर काम नहीं करता, हर बार मोड़ने के थोड़ी देर बाद ही बाजू फिर से खुलकर लम्बी हो जाती थी।
       शाम साढे़ पांच बजे के करीब मैं मेरठ पहुँचा तो सोचा कि लक्ष्मी पाकेट बुक्स का आफिस तो बन्द होने को होगा, इसलिए पहले वेद भाई के यहाँ चलते हैं।
       रिक्शे द्वारा शास्त्रीनगर वेद प्रकाश शर्मा के घर पहुँचा तो वेद भाई ड्राइंग रूम में मुझसे मिले और मिलते ही सबसे पहले मुझसे कहा- "ये कोट क्या छोटे भाई का पहन आया है?"
वेद भाई जानते थे, मेरा छोटा भाई राकेश मुझसे लम्बा है।
"नहीं-नहीं, मेरा ही है, वो 'खेल खिलाड़ी' वाले सरदार मनोहर सिंह ने मेरे लिए खरीदा था, पर उनके पास नाप नहीं था, आइडिये से लिया था, आइडिया थोड़ा सा गलत बैठ गया।"
"तो इसकी बाजू थोड़ी सी अन्दर को मुड़वा ले, ऐसे तो माँगे का लगे है।"
"हाँ ऐसा ही करूँगा।"-  मैंने कहा! 
"और बता, अब कहाँ-कहाँ लिख रहा है?"
          मैंने वेद को बताया कि पिछले छ: महीने तो भारती पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के लिये ही लिखा है और यह भी बताया कि भारती साहब ने एक नई मैगज़ीन निकाली है -'अपराध कथाएँ' और मनोहर सिंह भी 'खेल खिलाड़ी' के साथ-साथ 'विश्व क्रिकेट' और 'नन्हा नटखट' छाप रहे हैं। सबका काम मैं ही देख रहा हूँ।
सुनकर वेद प्रकाश शर्मा ने मुझसे कहा -"एक बात बता, तेरे दिमाग का कोई स्क्रू ढीला-वीला तो नहीं है।"
"क्या मतलब?"-  मैंने पूछा।
"ये बड़े-बड़े अखबारों के सम्पादकों को पब्लिक जानती-पहचानती है क्या?" 
मैं तत्काल कुछ नहीं कह पाया। 
वेद भाई ने फिर कहा-"बेवकूफ आदमी, तेरे हाथ में जो हुनर है, उसका तो तू सत्यानाश कर रहा है। ये सम्पादकी-वम्पादकी में तू जितना टाइम खराब करै है, उतने में दो नहीं तो एक बढ़िया सा नाॅवल तो आसानी से कम्पलीट कर सकै है। गलत तो नहीं कहा मैंने?"
"नहीं, कहा तो ठीक है, पर...।"
"पर-वर क्या कर रहा है। ये जो भी मैगज़ीन निकल रही हैं, चल रही हैं, कितने दिन चलेंगी? बिना विज्ञापन के ये सब जल्दी बन्द हो जायेंगी और विज्ञापन इन्हें मिलेंगे नहीं। तू क्यों अपना टाइम खराब कर रहा है। कह दे राजभारती से भी और मनोहर सिंह से भी कि तू ये प्रूफरीडिंग, एडीटिंग नहीं करेगा, इसके लिए किसी और को ढूँढ लें।"
"यार, यह मुश्किल है! पर मैं यह सब काम करते हुए भी लिख तो रहा हूँ।"
"क्या लिख रहा है? मनोज पाकेट बुक्स के लिए बाल पाकेट बुक्स और बाकी लोगों के लिए विक्रान्त सीरीज़। इससे क्या तेरा मुकद्दर बन जायेगा?"
इस बीच सेन्टर टेबल पर चाय और बिस्कुट-नमकीन पकौड़े आ गये।पकौड़े शायद भाभी जी ही बना रही थीं।
        चाय के घूंट भरते-भरते वेद भाई ने कहा -"योगेश, ये सम्पादकी तेरे लिए बेकार है। इससे कोई फ्यूचर नहीं सैट होने का। फ्यूचर तो भाई उपन्यास लिखने से ही बनेगा। वो भी कहीं न कहीं सेक्रीफाइस करके अपने नाम से छपने पर।"
"ये बात तो है।" - मैं धीरे से बोला। दरअसल वेद उस समय लेखक या दोस्त नहीं प्रतीत हो रहा था। उसका व्यवहार एक बड़े भाई जैसा था, हालांकि वह उम्र में मुझसे बड़ा नहीं था।
"अच्छा बता, तूने गंगा पाकेट बुक्स को वो उपन्यास दिया, जिसकी उन्होंने पब्लिसिटी की थी। लक्ष्मी पाकेट बुक्स को वो नावल दिया, जिसकी उन्होंने पब्लिसिटी की थी?"
"यार, मैं छ: सात महीने बाद तो मेरठ आया हूँ।"- मैंने कहा।
"बहुत अच्छा किया, पर वो नाॅवल कम्पलीट करके लाया? नहीं न? तो फिर यहाँ क्या घास खोदने आया है?"
"नहीं, वो लक्ष्मी पॉकेट बुक्स से सतीश जैन जी का लैटर आया था।" मैं जेब से सतीश जैन का वह लैटर निकालने लगा, जो मैं साथ लेकर आया था।
       वेद शायद समझ गया। तुरन्त बोला - "रहने दे... रहने दे। मुझे लैटर मत दिखा! मुझे मालूम है - मामा ने लिखा होगा।"
लक्ष्मी पाकेट बुक्स के स्वामी सतीश जैन समूचे मेरठ में मामा नाम से ही सम्बोधित किये जाते थे।
जेब से मेरा हाथ खाली बाहर निकला तो वेद भाई ने फिर कहा -"और मामा ने तुझसे क्या काम कराना होगा, कहे तो अभी बता दूँ।"
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -15

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