यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 12
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
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लक्ष्मी पॉकेट बुक्स का
ऑफिस खुला हुआ है, यह मैंने रिक्शे में बैठे ही बैठे दूर से
देख लिया था। अतः मैंने रिक्शे वाले को इशारे से समझाकर, रिक्शा
उस ऑफिस के ठीक सामने रोकने की हिदायत दी।
रिक्शा रुका तो मेरे उतरने से पहले ही सतीश जैन की आवाज़ आई - "हज़ार साल की उम्र है तुम्हारी। खूब ऐड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरोगे ।"
"ठीक है, मैं वापस जाता हूँ ।"- मैं रिक्शे से उतरते-उतरते वापस रिक्शे में बैठ गया और बोला -"ईश्वरपुरी होकर आता हूँ । तब तक शटर बंद करके चले जाना ।"
"अरे नहीं, रुको ।"- सतीश जैन तुरन्त अपनी कुर्सी से उठकर बाहर आ गए और रिक्शे वाले को धमकी देते हुए बोले - "खबरदार, जो इस आदमी को यहां से कहीं लेकर गया ।"
मगर रिक्शेवाला भी कम नहीं था, बोला -'बाबूजी, हमें तो पईसा से मतलब है ।" फिर मेरी तरफ इशारा करके बोला -"ये बाबूजी, पईसा देंगे तो हम कहीं भी ले जाएंगे। आप हमको धमकी तो देओ ना।" सतीश जैन अपने असली अन्दाज़ में आ गये, रिक्शे वाले से बोले - "अरे नहीं यार, आपको हम धमकी नहीं दे रहे। आपसे तो रिक्वेस्ट कर रहे हैं, आप यह बताओ - किराया कितना हुआ।"
"बीस रुपये...।" - रिक्शे वाले ने वही बताया, जो
मुझसे तय हुआ था।
मैंने जेब से पचास का नोट निकाल कर रिक्शे वाले की ओर बढ़ाया तो सतीश जैन बोले - "अरे रुको, मैं खुले देता हूँ।" और जेब से बीस रुपये निकाल कर रिक्शे वाले की ओर बढ़ा दिये।
मैंने अपना पचास का नोट वापस अपनी जेब में रख लिया। और रिक्शे से
उतरकर, लक्ष्मी पाकेट बुक्स के ऊंचे चबूतरे पर चढ़ने लगा तो
सतीश जैन ने हाथ पकड़कर मुझे ऊपर खींच लिया। फिर हाथ थामे-थामे ही मुझे ऑफिस में
ले गये।
ऑफिस में उस समय तीन व्यक्ति और थे। एक कोने में एक छोटी टेबल पर
मौजूद शख्स तो एक अधेड़ अवस्था का क्लर्क था, जो सतीश जैन ने नया
ही रखा था, उससे मेरा परिचय बाद में हुआ, लेकिन बाकी दो शख्स, मेरठ में प्रिंटिंग प्रेस चलाने
वाले दो प्रेस वाले थे।
उनमें से एक खान साहब, जिनसे मेरी पुरानी
वाकफियत थी, बोले- "भई, वापस
क्यूँ जा रिया था - रिक्शे पे?"
"जैन साहब, ऐड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरने की दुआ दे रहे
थे, तो क्या मरने के लिए खड़ा रहता।" -मैंने कहा।
"अरे वो तो अभी आपकी ही बात चल रही थी, इसलिए बोल दिया था।" - खान साहब बोले।
सतीश जैन ने खींच कर कुर्सी मेरे पीछे कर दी और बोले - "बैठो महारथी...।"
जो लोग सतीश जैन से कभी न कभी मिलें हैं, उन्हें फौरन सतीश जैन याद आ जायेंगे, क्योंकि यही अन्दाज़ था उनका। अलबत्ता रिक्शे वाले को पैसे देने का यह अन्दाज़ अवश्य चौंकाने वाला था, क्योंकि स्वभावतः वह बेहद कंजूस किस्म के इन्सान थे। मेरे लेखक भाइयों और दोस्तों, बड़े किस्मत वाले होते हैं वह लेखक, जिनके लिए कंजूस पब्लिशर की गाँठ से दमड़ी निकल जाये और वह भविष्य में लेखक से माँगते हुए या उसके हिसाब में जोड़ते हुए भी शर्माये।
ये बीस रुपये का किस्सा आगे बड़ा मजेदार होने वाला है, बस, आप सतीश जैन के किस्से पर बारीकी से नज़र
रखियेगा। खैर, उस समय यह हुआ कि सतीश जैन ने दोनों प्रेस
वालों से कहा - "देखो जी, हमारा लेखक आ गया, अब आप ही पूछ लो, कब तक कहानियाँ तैयार हो रही हैं।"
दोनों प्रेस वालों की नजरें मेरी ओर उठ गईं। मेरे कुर्सी पर
बैठते-बैठते कानों में खान साहब की आवाज गूंजी -"योगेश जी, जरा जल्दी-जल्दी उपन्यास लिख कर दीजिए...। हमारे लड़के एकदम खाली बैठे हैं।"
दूसरा प्रेस वाला भी बोल उठा -"हाँ भाई साहब, हमारे यहाँ भी यही हाल है।"
"खान साहब, मैं कोई मशीन थोड़े ही हूँ, जो जब जिसने कहा, उसे फटाफट लिख कर नॉवल दे दूं। फिर
आप सबको काम देने का कोई ठेका नहीं ले रखा मैंने।"- मैंने कहा।
"अब यार, बातें मत बनाओ।"- सतीश जैन एकदम बोले- "हमारे लिए तो तुम मशीन ही हो। और इन सबका काम भी तुम्हारे लिखने से ही चलेगा। तुम, बस, शुरू कर दो नॉवल, कम्पलीट भी जल्दी हो जायेगा।"
"अब यार, कौन सा नॉवल लिखना है? पहले पिछला हिसाब तो क्लीयर कर दो।" - मैं बोला।
"पिछला भी हो जायेगा। बस, तुम यह उपन्यास लिख डालो।"- सतीश जैन ने लेखक 'व्ही. व्हानवी' नाम से छपा टाइटिल 'भांग की पकौड़ी' मेरे सामने रख दिया।
"यार, यह उपन्यास मैं नहीं लिखूँगा।"
"ऐसा मत कहो, पिछली बार तुम वादा करके गये थे।"
"नहीं यार, एक उपन्यास लिखने का वादा किया था, लिख दूँगा, पर यह मस्तराम टाईप उपन्यास नहीं लिखूँगा।"
"अरे तो मत लिखो तुम मस्तराम टाईप, तुम योगेश मित्तल टाईप लिखो। तुम्हें किसने कहा है कि उपन्यास मस्तराम टाईप लिखना है।"
"पर आपने यह नाम तो मस्तराम टाईप रखा है।"- मैंने कहा।
"तुम छोड़ो नाम को...। बस, एक अच्छा सा उपन्यास लिख दो।"- सतीश जैन ने कहा।
और अन्ततः मैंने व्ही. व्हानवी' के लिए उपन्यास लिखना स्वीकार कर लिया। फिर बोला -"कुछ नोट-शोट तो दे दो।"
सतीश जैन ने जेब से पर्स निकाल एक सौ का नोट दिया -"अभी इससे
काम चलाओ। उपन्यास कम्पलीट होते ही फाइनल हिसाब कर दूंगा।"
मैंने सौ का नोट अण्टी में डाला और उठ खड़ा हुआ।
शाम हो चुकी थी।
दोनों प्रेस वालों की सतीश जैन से मुख्य बातें मेरे लक्ष्मी पाकेट बुक्स पहुँचने से पहले ही हो चुकी थीं, इसलिए वे कल आने को कह कर चल दिये।
वार्तालाप समाप्त कर, सतीश जैन भी आफिस
बन्द करने की तैयारी करने लगे तो मैं उठ गया और बोला - "चलता हूँ।"
"दो-तीन उपन्यास दे दूं - पढ़ने के लिए?"- सतीश
जैन ने पूछा।
"दे दो...।"- मैंने कहा तो एक कोने में रखे वापसी के बण्डल से सतीश जैन ने दो उपन्यास निकाल कर मुझे दे दिये।
दोनों ही उपन्यास व्ही. व्हानवी के थे। मुझे उपन्यास थमाते हुए सतीश जैन बोले - "देखना, कल सुबह तक कुछ मैटर तैयार हो जाये तो...।"
"तैयार हो भी गया तो तुम्हारे एक ही प्रेस वाले के लिए हो पायेगा।"-
मैंने कहा।
"एक ही के लिए चाहिए।" - सतीश जैन बोले - "काम माँगने तो दसियों आते रहते हैं, सबको कहाँ दिया जा सकता है।"
"ठीक है, कोशिश करूँगा - कुछ मैटर तैयार हो जाये।"- मैने कहा और सड़क से ऊंचे लक्ष्मी पाकेट बुक्स के चबूतरे से नीचे उतर कर, पास की गली की ओर बढ़ गया।
उसी गली में पहली मंजिल पर मेरी बड़ी बहन प्रतिमा जैन का परिवार रहता था।
जीजी के यहाँ गया तो भांजे आशू, राजू और भांजी
सोनिया और जीजी, सभी मुझे देखकर खुश हो गये। जीजाजी उस समय
घर पर नहीं थे।
थोड़ी देर बाद वह भी आ गये तो हमने शतरंज की एक बाजी लगाई, फिर सबने साथ-साथ खाना खाया।
उसके बाद मैंने सोनिया से पूछा – “कुछ फुलस्केप पेज हैं तेरे पास।"
पेज और पेन सोनिया से लेकर मैंने उपन्यास आरम्भ कर दिया। दस बजे तक कुछ पेज लिखे, फिर सतीश जैन के दिये व्ही. व्हानवी के उपन्यासों के पन्ने पलटते हुए सरसरी नजर से पढ़ने लगा। बहुत जल्दी दोनों उपन्यासों पर नज़र डालने के बाद मैं सो गया।
सुबह चार बजे के करीब मेरी आँख खुली तो मैंने सोनिया का पढ़ाई के लिए
इस्तेमाल किया जाने वाला टेबल लैम्प जला लिया और उसी की टेबल-चेयर पर आसन जमा, उपन्यास आगे बढ़ाना शुरू किया।
सात बजे से पहले ही घर में पूरी तरह जाग हो गई थी, पर मैं अपने काम में लगा रहा। जीजी ने चाय टेबल पर रखी तो मेरा लिखना रुका।
मैंने लिखे हुए पेज गिने। फिलहाल सतीश जैन को सन्तुष्ट करने लायक मैटर तैयार हो
चुका था।
मेरठ में रहते हुए मेरे दो जोड़े कपड़े जीजी के यहाँ और एक जोड़ा
रामाकान्त मामाजी के यहाँ हमेशा होता था, जब जहाँ रात बिताई,
सुबह वहीं नहा लिये।
स्नान ध्यान कर तैयार होकर नाश्ता करने के बाद मैं जीजी के घर से
निकला।
उस समय सवा आठ से अधिक का समय नहीं हुआ था। मैंने थोड़ा आगे जाकर
ब्रह्मपुरी का रिक्शा किया। सतीश जैन तब ब्रह्मपुरी रहते थे।
उनका घर मुझे मालूम था। उनके घर पहुँच, दरवाजा
खड़खड़ाया। द्वार सतीश जैन ने ही खोला और मुझे देखकर एकदम चौंक गये। मैंने 'भांग की पकौड़ी' के लिए जितना मैटर लिखा था, उनके हवाले कर दिया। वह चाय पीने के लिए कहने लगे तो मैं बोला -
"नहीं, चाय गंगा पाकेट बुक्स जाकर पियूंगा। उनसे कुछ
काम है।"
सतीश जैन इस पर नाराजगी दिखाने लगे, बोले -
"यार, तुम यह ईश्वरपुरी का चक्कर छोड़ दो। तुम जितना भी
लिखो, जो भी लिखो, मुझे दो। मैं
तुम्हें ईश्वरपुरी वालों से अच्छे पैसे दूंगा।"
"ओके... ओके...।" - इस बारे में आफिस में बात करेंगे। मैं शाम को
देवीनगर में मिलूँगा।"- कहकर मैं
पैदल ही ईश्वरपुरी की ओर बढ़ गया।
जब ईश्वरपुरी पहुँचा तो पाया, तब तक किसी का भी ऑफिस खुला नहीं था। तब फिर मैं रायल पाकेट बुक्स के ऑफिस के साथ किराये पर लिये अपने कमरे मैं पहुँचा।
वहाँ चन्द्र किरण जैन और उनके पिताजी से नमस्ते-राम-राम हुई। फिर
कमरे में झाड़ू लगाकर मैंने सफाई की। उसके बाद निकलने ही वाला था कि चन्द्र किरण
जैन चाय ले आये और बोले - "लो, योगेश जी, चाय पियो।"
मैंने कहा - "यार, क्या तुम लोगों में
किरायदार को भी चाय पिलाने का रिवाज है तो चन्द्र किरण जैन ने बड़ा अच्छा सा,
कुछ ऐसा ही जवाब दिया कि ये चाय
किरायेदार योगेश मित्तल के लिए नहीं है। अपने भाई के लिए है।
मुझे अच्छी तरह सारी बातें याद नहीं, लेकिन उस
रोज चन्द्र किरण जैन की बातों से मैं बहुत ज्यादा इमोशनल हो गया था।
चाय पीने के बाद जब मैं कमरे से निकल गंगा पाकेट बुक्स की ओर पहुँचा
तो ऑफिस खुल चुका था और मालिक की कुर्सी पर सुशील जैन विराजमान थे। जो लोग कभी न
कभी सुशील जैन से मिले हैं, वह मुंह बन्द अवस्था में सुशील जैन के चेहरे पर आने
वाली मीठी मुस्कान को कभी नहीं भूल सकते। वो मुस्कान कुछ ऐसी थी कि कोई दुश्मन भी
देख ले तो समझे कि उसे आमंत्रण दिया जा रहा है और मैं तो कई बार सुशील जी के साथ
बैठकर खा पी भी चुका था।
मुझे देखते ही अपनी उसी मुस्कान के साथ बहुत धीमे स्वर में बोले
सुशील जैन - "बड़े दिन लगा दिये दिल्ली में...।"
"बड़े दिन तो नहीं लगाये, आपसे वादा किया था, इसलिए जल्दी आ गया, वरना अभी दो महीने दिल्ली ही रहता।"- मैंने कहा।
"वो किताबें पढ़ीं तूने... जो तुझे दी थीं...?"- सुशील जैन ने पूछा।
"हाँ, पढ़ीं। बकवास हैं। जीजा साली के प्रेमपत्र और देवर-भाभी के प्रेम पत्र...। दोनों में ही सात-आठ सारी कहानियाँ हैं, कहानियों के बीच में जीजा साली में जीजा साली के और देवर भाभी में देवर भाभी के कुछ रसीले, कुछ अति रोमांटिक प्रेम पत्र दिखाये हैं, पर सब बकवास और दोनों में ही सबसे ज्यादा कवि, शायर और चित्रकारों की मिट्टी खराब की हुई है। बल्कि देवर भाभी में तो एक कहानी ऐसी है, जिससे मिलती-जुलती कहानी मस्तराम के उपन्यास में भी आ चुकी है और कवियों का चरित्र कलंकित करने वाली है। जो कवि मस्तराम की कहानियाँ पढ़ते रहे हैं, ऐसी कहानी से आइडिया लेकर भोली-भाली लड़कियों को फंसाने की खूब चेष्टा कर सकते हैं।"
"ऐसी कौन सी कहानी है, जरा मुझे भी तो सुना।"- सुशील जैन बोले।
मैंने उन्हें वह कहानी सुनाई। उस कहानी में दिखाया था - गोपाल बहुत सीधा सादा सरल प्रकृति का युवक है और एक दुकानदार है। उसकी पत्नी अनीता उससे बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी और तेज तर्रार है। वो जिस जगह रहते हैं, वहीं सामने के घर में एक अविवाहित कवि महोदय अपने माता पिता के साथ रहने आते हैं और वह अनीता को देखकर, उस पर रीझ जाते हैं। अनीता की निकटता हासिल करने के लिए कवि महोदय पहले गोपाल से दोस्ती करते हैं। उन्हें अपना बड़ा भाई बना लेते हैं, फिर वह एक छुट्टी के दिन गोपाल को सपरिवार खाने पर बुलाते हैं और गोपाल अपनी पत्नी अनीता का परिचय भी कवि महोदय और उनके माता पिता से करवाते हैं। अनीता अपने खुले व्यवहार के कारण कवि महोदय के माता पिता का दिल जीत लेती है, कवि महोदय तो थे ही अनीता के आशिक ।
धीरे धीरे दोनों परिवारों में मेलजोल का
सिलसिला बढ़ता जाता है तो कवि महोदय अपनी पुरानी कविताओं के स्टाक में से रोज एक
रोमांटिक कविता अनीता को ऐसे सुनाते हैं, जैसे पहली बार
अनीता को सुना रहे हों और उसी को देखकर लिखी हो और कहते हैं - भाभी, तुम तो मेरी पहली और सबसे अच्छी श्रोता हो, तुम्ही
मेरी प्रेरणा हो, मेरे लिए भी बिल्कुल अपने जैसी एक लड़की
ढूँढ दो, मैं शादी करूँगा तो तुम्हारे जैसी ही लड़की से,
नहीं तो नहीं करूँगा ।
अनीता का सीधा सादा पति गोपाल, अपनी पत्नी से
बेपनाह प्यार करता है, लेकिन कभी उससे प्यार के दो बोल भी
नहीं बोलता, उसे प्यार में दिखावा करना आता ही नहीं। लेकिन
कवि महोदय की चिकनी चुपड़ी मीठी बातों से प्रभावित होकर अनीता कवि जी से प्यार
करने लगती है और एक दिन अपना सर्वस्व कवि जी को समर्पित कर देती है। फिर आरम्भ हो
जाते दोनों के बीच चोरी-छिपे प्रेम पत्र। धीरे धीरे कवि महोदय इतने निडर हो जाते
हैं कि अक्सर भाभी-भाभी करते हुए गोपाल के सामने ही अनीता से लिपट जाते हैं। गोपाल
को बुरा तो बहुत लगता है, पर जब वह अनीता से बात करता है,
अनीता उन्हें घटिया सोच वाला कहकर, डपटकर
खामोश कर देती है। बाद में कवि महोदय का विवाह एक बहुत खूबसूरत और बुद्धिमती महिला
से हो जाता है, लेकिन शादी के बाद भी कवि महोदय अनीता को
समझा देते हैं कि उनका पहला प्यार वही रहेगी और पत्नी जब भी मायके जाती है,
कवि महोदय की अनीता से रासलीला चलती रहती है, लेकिन
एक दिन गजब हो जाता है, जब एक छुट्टी के दिन कवि महोदय के
माता पिता किसी रिश्तेदारी में गये होते हैं, कवि महोदय के
घर उनके कई घनिष्ठ मित्र आ जाते हैं, जिन्हें कवि महोदय ने
अनीता से अपने रिश्ते और रासलीला के किस्से बड़े चटखारे लेकर पहले भी सुना रखे थे।
दरअसल कवि महोदय के लिए तो अनीता उनकी शिकार थी और जब उसे हासिल कर लिया तो वह उसे
अपनी प्रॉपर्टी समझने लगे थे। कवि महोदय उन दोस्तों में अनीता को अपनी छठी और
जबरदस्त सैक्सी प्रेमिका बताते थे।
उस रोज कवि महोदय के दोस्त कवि जी से कहते हैं कि किसी रोज़ हमें भी
तो अनीता का स्वाद चखाओ।
सारे कवि दोस्त जिद्द पर आ जाते हैं तो कवि महोदय दोस्तों से एक मोटी
रकम लेकर अनीता को उन दोस्तों का शिकार बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं। उसके लिए
वह प्लानिंग यह करते हैं कि किसी तरह अनीता को शराब पिलाकर नशे में कर देंगे और
उसके साथ अपने दोस्तों को मनोरंजन का मौका देंगे।
किन्तु संयोगवश अनीता किसी काम से कवि महोदय के घर आती है और बाहर
दरवाजे पर ही वह कवि महोदय का प्लान सुन लेती है। उसे जबरदस्त धक्का लगता है और वह
अपने पति के नाम एक चिट्ठी में कवि जी द्वारा बरबाद किये जाने की दास्तान लिख देती
है और सुसाइड कर लेती है। पुलिस आती है और कवि महोदय गिरफ्तार कर लिए जाते हैं।
इसी तरह एक धूर्त कवि द्वारा खूबसूरत महिला को अपना शिकार बनाने की
एक कहानी कभी मस्तराम के एक उपन्यास में भी छपी थी, बस, उसमें बीच के प्रेम पत्र नहीं थे और उसमें पत्नी की बेवफाई से दुखी पति मन
ही मन घुलते हुए मर जाता है और उसमें महिला का इकलौता नाबालिग बेटा कवि महोदय की
दोस्तों से बातचीत सुन कर, कवि महोदय का खून कर देता है। यह
किस्सा सुनाने का एक कारण यह भी है कि बहुत से कवियों को अपनी कविता किन्हीं
महिलाओं को सुनाकर, उनकी अनावश्यक रूप से अपने मित्रों में
चर्चा करने की आदत होती है। ऐसा वह अक्सर अपनी शेखी
बघारने के लिए और यह जताने के लिए करते हैं कि उनके अन्दर कितने जबरदस्त गट्स हैं,
वह जब चाहें, जिस महिला को पटा सकते हैं,
किन्तु कवियों और चित्रकारों की ऐसी हरकत उनके दोस्तों में ही महिला
को बदनाम कर देती है। यदि परिचित महिला सच में स्वयं भी कोई कवयित्री है तो भी
उसके परिचय में शालीन और सम्माननीय शब्दों का प्रयोग करने चाहियें।
कवि जो प्रभाव कविता सुनाकर करते हैं, चित्रकार
वही प्रभाव डालने के लिए वांछित महिला के चित्र बनाते हैं। रिश्तों की मर्यादा के
रहते यह सब होये तो ठीक, वरना इन सब बातों का अन्जाम कभी-कभी
बड़ा भयानक होता है।
इस तरह की बहुत सी कहानियाँ बाद में, अपराध कथाएँ,
अग्रणी सत्यकथाएँ प्रहरी, मनपसन्द कहानियाँ
आदि पत्रिकाओं का सम्पादन करते समय भी मेरे पढ़ने में आयीं। सच कहूँ तो आज के युग
में खून के रिश्ते ही भरोसे लायक नहीं रह गये हैं। मुंहबोले रिश्तों में भी
आवश्यकताओं ने ही रिश्तों को कमजोर या मजबूत बना रखा है।
कहानी सुनाने का सिलसिला खत्म हुआ तो सुशील जैन बोले - "योगेश, तेरे लिए हमने एक फैसला किया है कि योगेश मित्तल नाम से तेरा उपन्यास भी
जल्दी ही छापेंगे। तू इतना अच्छा लिखता है, तुझे भी एक अच्छा
ब्रेक तो मिलना ही चाहिए। तू अभी अपना एक विज्ञापन बना दे। हम तीन चार सैट तक तेरी
पब्लिसिटी करेंगे। फिर शानदार प्रोडक्शन के साथ तेरे नाम से तेरा नॉवल छापेंगे।
मेरे लिए यह आश्चर्य का झटका था, पर सुशील जैन के
कहने पर मैंने खूब सोच कर, उन्हें एक नाम दिया - "लाश
की दुल्हन" और उसका विज्ञापन बना कर दे दिया। (गंगा पाकेट बुक्स की पुरानी
कुछ किताबों में आप यह विज्ञापन देख सकते हैं।)
मेरे उपन्यास का विज्ञापन बनने के बाद सुशील जैन बोले - "देवर
भाभी के प्रेम पत्र तो हम इस सैट में नहीं छाप रहे, उसका टाइटिल
भी अब नहीं बनवा रहे हैं, पर यह टाइटिल पहले से बनवा रखा है।
इसलिए इसे तो छापना ही है। यह तू लिख डाल, इसमें हम तेरा ही
नाम डाल देंगे।" और सुशील जैन ने मेरे सामने एक टाइटिल रख दिया। वह गंगा
पाकेट बुक्स में छपने वाली किताब "जीजा साली के प्रेम पत्र" का टाइटिल
था। उसमें टाइटिल कवर पर लेखक के रूप में कोई नाम नहीं था।
मैंने पहले तो यह किताब लिखने के लिए बहुत बार इन्कार किया, पर सुशील जैन ने आखिरकार मुझे वह किताब लिखने के लिए मना ही लिया, पर मैंने यह शर्त रख दी कि किताब में लेखक के रूप में मेरा नाम नहीं डाला
जायेगा।
है ना अजीब बात। लोग अपना नाम छपवाने के लिए प्रकाशकों की मिन्नतें
करते हैं और मैं मना कर रहा था, पर किताब का पहला एडीशन जब
निकला तो संयोगवश या जानबूझकर सुशील जैन ने इनर पेज में लेखक - योगेश मित्तल ही
डाल दिया। हालांकि बाद के एडीशन में मेरा नाम हटा दिया गया था। हाँ, देवर भाभी के प्रेम पत्र लिखने के लिए मैंने सख्ती से मना कर दिया,
इसलिए गंगा पाकेट बुक्स में सम्भवतः "देवर भाभी के प्रेम
पत्र" छापी ही नहीं गई।
खैर, गंगा पाकेट बुक्स से निपटकर, मैं
पहले मामाजी के यहाँ गया। वहाँ खाना खाकर कुछ देर आराम किया, फिर देवीनगर पहुँचा तो वहाँ भी एक सरप्राइज मेरा इन्तजार कर रहा था।
औपचारिक बातों के बाद वहाँ सतीश जैन ने मुझसे कहा - "सुनो भई
कलाकार, हमने तुम्हारी कला सारी दुनिया के सामने लाने का
फैसला कर लिया है।"
"मतलब...?" मैंने पूछा।
"एक अच्छा सा सोशल नाम रखकर योगेश मित्तल नाम का विज्ञापन बनाओ। हम दो सैट तक तुम्हारी पब्लिसिटी करके तीसरे सैट में तुम्हारा उपन्यास तुम्हारे नाम और फोटो के साथ छापेंगे।"
एक ही दिन में मेरे लिए यह दूसरा झटका था। मैंने सतीश जैन को यह नहीं
बताया कि ऐसा ही प्रस्ताव मेरे सामने गंगा पाकेट बुक्स द्वारा पहले ही रखा जा चुका
है और एक विज्ञापन बना दिया। यहाँ उपन्यास का नाम मैंने रखा - मिट्टी का ताजमहल।
आप लक्ष्मी पाकेट बुक्स के पुराने कुछ उपन्यासों में योगेश मित्तल के
उपन्यास "मिट्टी का ताजमहल" का विज्ञापन देख सकते हैं।
जब नाम से छपने की यह दो डील हो गईं तो मुझे लगा कि मुझे यह खबर वेद
भाई को भी देनी चाहिए। आखिर मेरठ में सबसे पहले मुझे मेरे नाम से छापने का
प्रस्ताव तो वेद प्रकाश शर्मा ने ही रखा था।
पर अगले कुछ दिन मैं लक्ष्मी पाकेट बुक्स के लिए 'भांग की
पकौड़ी" और गंगा पाकेट बुक्स के लिए "जीजा साली के प्रेम पत्र' लिखने में लगा रहा। भांग की पकौड़ी पहले खत्म हुआ और उसके बाद सतीश जैन ने
ईमानदारी से मेरा हिसाब क्लीयर कर दिया, लेकिन आखिर में यह
कहकर मेरे सिर पर बम फोड़ दिया कि नावल में सैक्सी सीन हमने किसी और लेखक से लिखवा
कर एडजस्ट करवा लिये हैं। तब मैंने सिर्फ इतना कहा कि यदि किसी खराब सीन के कारण
पुलिस केस बना तो मैं साफ मुकर जाऊँगा कि उपन्यास
मैंने लिखा है। सतीश जैन हंसने लगे और मेरा कन्धा थपथपाते हुए बोले - "घबराओ
मत। कुछ नहीं होगा।"
'जीजा साली के प्रेम पत्र' जिस दिन सुबह सुबह कम्पलीट
की, उसी रोज दोपहर को मैं शास्त्रीनगर वेद प्रकाश शर्मा के
यहाँ गया। उस समय आफिस में कई लोग थे। सभी कुर्सियां भरी हुई थीं। मेरे लिए एक
एक्स्ट्रा कुर्सी मंगानी पड़ी। मुझे सबसे अलग एक कोने में बैठना पड़ा, लेकिन जब उपस्थित सभी लोगों से बातचीत खत्म करके, वेद
भाई ने उन्हें रुखसत कर दिया तो मुझे अपने सामने की कुर्सी पर बैठने का संकेत किया
और पूछा - "चाय तो पियेगा..?" और एक विल्स नेवीकट
के पैकेट से सिगरेट निकालते हुए, सिगरेट मेरी ओर बढ़ा दी।
फिर अपनी सिगरेट जलाने के बाद, माचिस मेरी ओर बढ़ा दी, फिल्मी हीरो राजकपूर वाली स्टाइल में।
राजकपूर वाला किस्सा तो आप सभी जानते होंगे, जो नहीं जानते हैं, उनके लिए मैं बता देता हूँ। कहते
हैं - राजकपूर अपनी सिगरेट जलाने के बाद तीली बुझा देते थे, उसी
तीली से दूसरे की सिगरेट नहीं जलाते थे। ना ही अपनी सिगरेट से किसी और की सिगरेट
जलवाते थे। किसी ने इस बारे में राजकपूर से पूछा तो वह अपनी ही अदा से बोले -
"मैं अपनी आग से - दूसरे को नहीं जलाता।"
सिगरेट का एक लम्बा कश खींचने के बाद वेद ने पूछा - "कब आया
दिल्ली से...?"
मैंने दिल्ली से आने के बाद किये गये कामों और लक्ष्मी पाकेट बुक्स
और गंगा पाकेट बुक्स में योगेश मित्तल नाम से दो उपन्यासों के विज्ञापन दिये जाने
के बारे में बताया तो वेद ने कहा - "इसका मतलब तुलसी पेपर बुक्स को तो तूने
कट कर दिया।"
(शेष फिर)
रिक्शा रुका तो मेरे उतरने से पहले ही सतीश जैन की आवाज़ आई - "हज़ार साल की उम्र है तुम्हारी। खूब ऐड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरोगे ।"
"ठीक है, मैं वापस जाता हूँ ।"- मैं रिक्शे से उतरते-उतरते वापस रिक्शे में बैठ गया और बोला -"ईश्वरपुरी होकर आता हूँ । तब तक शटर बंद करके चले जाना ।"
"अरे नहीं, रुको ।"- सतीश जैन तुरन्त अपनी कुर्सी से उठकर बाहर आ गए और रिक्शे वाले को धमकी देते हुए बोले - "खबरदार, जो इस आदमी को यहां से कहीं लेकर गया ।"
मगर रिक्शेवाला भी कम नहीं था, बोला -'बाबूजी, हमें तो पईसा से मतलब है ।" फिर मेरी तरफ इशारा करके बोला -"ये बाबूजी, पईसा देंगे तो हम कहीं भी ले जाएंगे। आप हमको धमकी तो देओ ना।" सतीश जैन अपने असली अन्दाज़ में आ गये, रिक्शे वाले से बोले - "अरे नहीं यार, आपको हम धमकी नहीं दे रहे। आपसे तो रिक्वेस्ट कर रहे हैं, आप यह बताओ - किराया कितना हुआ।"
मैंने जेब से पचास का नोट निकाल कर रिक्शे वाले की ओर बढ़ाया तो सतीश जैन बोले - "अरे रुको, मैं खुले देता हूँ।" और जेब से बीस रुपये निकाल कर रिक्शे वाले की ओर बढ़ा दिये।
"अरे वो तो अभी आपकी ही बात चल रही थी, इसलिए बोल दिया था।" - खान साहब बोले।
सतीश जैन ने खींच कर कुर्सी मेरे पीछे कर दी और बोले - "बैठो महारथी...।"
जो लोग सतीश जैन से कभी न कभी मिलें हैं, उन्हें फौरन सतीश जैन याद आ जायेंगे, क्योंकि यही अन्दाज़ था उनका। अलबत्ता रिक्शे वाले को पैसे देने का यह अन्दाज़ अवश्य चौंकाने वाला था, क्योंकि स्वभावतः वह बेहद कंजूस किस्म के इन्सान थे। मेरे लेखक भाइयों और दोस्तों, बड़े किस्मत वाले होते हैं वह लेखक, जिनके लिए कंजूस पब्लिशर की गाँठ से दमड़ी निकल जाये और वह भविष्य में लेखक से माँगते हुए या उसके हिसाब में जोड़ते हुए भी शर्माये।
"अब यार, बातें मत बनाओ।"- सतीश जैन एकदम बोले- "हमारे लिए तो तुम मशीन ही हो। और इन सबका काम भी तुम्हारे लिखने से ही चलेगा। तुम, बस, शुरू कर दो नॉवल, कम्पलीट भी जल्दी हो जायेगा।"
"अब यार, कौन सा नॉवल लिखना है? पहले पिछला हिसाब तो क्लीयर कर दो।" - मैं बोला।
"पिछला भी हो जायेगा। बस, तुम यह उपन्यास लिख डालो।"- सतीश जैन ने लेखक 'व्ही. व्हानवी' नाम से छपा टाइटिल 'भांग की पकौड़ी' मेरे सामने रख दिया।
"यार, यह उपन्यास मैं नहीं लिखूँगा।"
"ऐसा मत कहो, पिछली बार तुम वादा करके गये थे।"
"नहीं यार, एक उपन्यास लिखने का वादा किया था, लिख दूँगा, पर यह मस्तराम टाईप उपन्यास नहीं लिखूँगा।"
"अरे तो मत लिखो तुम मस्तराम टाईप, तुम योगेश मित्तल टाईप लिखो। तुम्हें किसने कहा है कि उपन्यास मस्तराम टाईप लिखना है।"
"पर आपने यह नाम तो मस्तराम टाईप रखा है।"- मैंने कहा।
"तुम छोड़ो नाम को...। बस, एक अच्छा सा उपन्यास लिख दो।"- सतीश जैन ने कहा।
और अन्ततः मैंने व्ही. व्हानवी' के लिए उपन्यास लिखना स्वीकार कर लिया। फिर बोला -"कुछ नोट-शोट तो दे दो।"
मैंने सौ का नोट अण्टी में डाला और उठ खड़ा हुआ।
शाम हो चुकी थी।
दोनों प्रेस वालों की सतीश जैन से मुख्य बातें मेरे लक्ष्मी पाकेट बुक्स पहुँचने से पहले ही हो चुकी थीं, इसलिए वे कल आने को कह कर चल दिये।
"दे दो...।"- मैंने कहा तो एक कोने में रखे वापसी के बण्डल से सतीश जैन ने दो उपन्यास निकाल कर मुझे दे दिये।
दोनों ही उपन्यास व्ही. व्हानवी के थे। मुझे उपन्यास थमाते हुए सतीश जैन बोले - "देखना, कल सुबह तक कुछ मैटर तैयार हो जाये तो...।"
"एक ही के लिए चाहिए।" - सतीश जैन बोले - "काम माँगने तो दसियों आते रहते हैं, सबको कहाँ दिया जा सकता है।"
"ठीक है, कोशिश करूँगा - कुछ मैटर तैयार हो जाये।"- मैने कहा और सड़क से ऊंचे लक्ष्मी पाकेट बुक्स के चबूतरे से नीचे उतर कर, पास की गली की ओर बढ़ गया।
उसी गली में पहली मंजिल पर मेरी बड़ी बहन प्रतिमा जैन का परिवार रहता था।
पेज और पेन सोनिया से लेकर मैंने उपन्यास आरम्भ कर दिया। दस बजे तक कुछ पेज लिखे, फिर सतीश जैन के दिये व्ही. व्हानवी के उपन्यासों के पन्ने पलटते हुए सरसरी नजर से पढ़ने लगा। बहुत जल्दी दोनों उपन्यासों पर नज़र डालने के बाद मैं सो गया।
जब ईश्वरपुरी पहुँचा तो पाया, तब तक किसी का भी ऑफिस खुला नहीं था। तब फिर मैं रायल पाकेट बुक्स के ऑफिस के साथ किराये पर लिये अपने कमरे मैं पहुँचा।
"बड़े दिन तो नहीं लगाये, आपसे वादा किया था, इसलिए जल्दी आ गया, वरना अभी दो महीने दिल्ली ही रहता।"- मैंने कहा।
"वो किताबें पढ़ीं तूने... जो तुझे दी थीं...?"- सुशील जैन ने पूछा।
"हाँ, पढ़ीं। बकवास हैं। जीजा साली के प्रेमपत्र और देवर-भाभी के प्रेम पत्र...। दोनों में ही सात-आठ सारी कहानियाँ हैं, कहानियों के बीच में जीजा साली में जीजा साली के और देवर भाभी में देवर भाभी के कुछ रसीले, कुछ अति रोमांटिक प्रेम पत्र दिखाये हैं, पर सब बकवास और दोनों में ही सबसे ज्यादा कवि, शायर और चित्रकारों की मिट्टी खराब की हुई है। बल्कि देवर भाभी में तो एक कहानी ऐसी है, जिससे मिलती-जुलती कहानी मस्तराम के उपन्यास में भी आ चुकी है और कवियों का चरित्र कलंकित करने वाली है। जो कवि मस्तराम की कहानियाँ पढ़ते रहे हैं, ऐसी कहानी से आइडिया लेकर भोली-भाली लड़कियों को फंसाने की खूब चेष्टा कर सकते हैं।"
"ऐसी कौन सी कहानी है, जरा मुझे भी तो सुना।"- सुशील जैन बोले।
मैंने उन्हें वह कहानी सुनाई। उस कहानी में दिखाया था - गोपाल बहुत सीधा सादा सरल प्रकृति का युवक है और एक दुकानदार है। उसकी पत्नी अनीता उससे बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी और तेज तर्रार है। वो जिस जगह रहते हैं, वहीं सामने के घर में एक अविवाहित कवि महोदय अपने माता पिता के साथ रहने आते हैं और वह अनीता को देखकर, उस पर रीझ जाते हैं। अनीता की निकटता हासिल करने के लिए कवि महोदय पहले गोपाल से दोस्ती करते हैं। उन्हें अपना बड़ा भाई बना लेते हैं, फिर वह एक छुट्टी के दिन गोपाल को सपरिवार खाने पर बुलाते हैं और गोपाल अपनी पत्नी अनीता का परिचय भी कवि महोदय और उनके माता पिता से करवाते हैं। अनीता अपने खुले व्यवहार के कारण कवि महोदय के माता पिता का दिल जीत लेती है, कवि महोदय तो थे ही अनीता के आशिक ।
"एक अच्छा सा सोशल नाम रखकर योगेश मित्तल नाम का विज्ञापन बनाओ। हम दो सैट तक तुम्हारी पब्लिसिटी करके तीसरे सैट में तुम्हारा उपन्यास तुम्हारे नाम और फोटो के साथ छापेंगे।"
फिर अपनी सिगरेट जलाने के बाद, माचिस मेरी ओर बढ़ा दी, फिल्मी हीरो राजकपूर वाली स्टाइल में।
(शेष फिर)
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
वाकई में योगेश सर के किस्से लाजवाब है हालाकि उनके द्वारा आपने किस्सों में काफी नई जानकारी भी मिलती रहती है। योगेश सर की प्रेत लेखन का भी बेसब्री से इंतजार है।
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंइस संस्मरण से किसी अति रोचक उपन्यास से ज्यादा सुखद अनुभूति हुई।
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