कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 4
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
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मनोज पाकेट बुक्स में जब वेद भाई ने छपना आरम्भ किया, उसके बाद मनोज
पाकेट बुक्स में मेरे बहुत ज्यादा चक्कर नहीं लगे।
पर एक बार जब वहाँ पहुँचा, संयोगवश उस
समय वेद भाई भी वहीं मौजूद थे ऑफिस में उनके अलावा सिर्फ गौरीशंकर गुप्ता जी थे।
मनोज पाकेट बुक्स और राज पाकेट बुक्स के ऑफिस जब तक शक़्तिनगर
में रहे, दोनों जगह मैं
खुद को VIP शख्सियत
जैसा महसूस करता रहा था।
मनोज
पाकेट बुक्स में तो मेनगेट से कोठी में दाखिल होकर, सीधे ही बायीं ओर बेसमेंट में जाने वाली
सीढ़ियाँ थीं, जहाँ बाहर कोई दरबान नहीं होता था।
मैं धड़धड़ाता हुआ सीढ़ियों से नीचे उतर जाता और
नीचे पहुँच जाता। सीढ़ियों के साथ गैलरी के दायें बायें केबिन थे।
अग्रवाल मार्ग वाले मनोज पाकेट बुक्स के उस ऑफिस में मेरे अलावा भी सम्भवतः कुछ अन्य लोगों के लिए कोई रोक-टोक नहीं थी। अन्यथा अजनबी लोगों को एकाउन्टेन्ट नवीन ही एकदम रोक देता था। उसका केबिन इस तरह बना था कि सीढ़ियों से गैलरी तक उसकी तीक्ष्ण निगाह से किसी का भी बचना नामुमकिन था। मतलब साफ था कि नवीन की नजरों में आये बिना किसी का भी मनोज पाकेट बुक्स में आना-जाना असम्भव था।तो उस दिन जब मैं मनोज पाकेट बुक्स में पहुँचा, गौरीशंकर गुप्ता और वेद भाई किसी विज्ञापन के बारे में बात कर रहे थे।
मुझे देखते ही गौरीशंकर गुप्ता जी बोले - "आ भई योगेश, तू भी आ जा...।"
“कोई और भी आ रहा है क्या?"- मैंने पूछा।
"नहीं-नहीं, मेरा मतलब है, वेद जी तो बैठे ही हैं, तू भी आ जा। एक से भले दो। सलाह-मशवरे में आसानी हो जाती है।"
गौर कीजियेगा, मनोज पाकेट बुक्स में आरम्भ के कुछ समय के बाद मैं, गौरीशंकर गुप्ता जी और राजकुमार गुप्ता जी के लिए 'आप' से तू हो गया था और गौरीशंकर गुप्ता जी के लिए तो उनके आखिरी समय तक 'तू' ही रहा, लेकिन राजकुमार गुप्ता जी का लहज़ा व्हाट्सएप में बदल गया था, किन्तु वेद प्रकाश शर्मा जी मनोज पाकेट बुक्स और राज पाकेट बुक्स अथवा राजा पाकेट बुक्स में हमेशा ही 'वेद जी' रहे।
इस सन्दर्भ में सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का जिक्र करूँगा, उनका कहना था - लेखक और प्रकाशक में दोस्ती का कोई मतलब नहीं है। लेखक खून-पसीना बहाकर दिल की कलम से एक किताब लिखता है और प्रकाशक लेखक का खून चूसते हैं। परन्तु कई प्रकाशकों के साथ सुरेन्द्र मोहन पाठक के सम्बन्ध भी बेहद दोस्ताना रहे हैं, लेकिन पक्के विश्वास के साथ में अशोक पाकेट बुक्स, एन. डी. सहगल एंड सन्स के बसन्त सहगल का नाम तो मैं बेहिचक ले सकता हूँ।
गौरीशंकर गुप्ता ने एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया और मुझसे पढ़ने को कहा। मैंने विज्ञापन पढ़ा तो गौरीशंकर गुप्ता जी ने पूछा - "कैसा है?"
"अच्छा है...।"- मैंने कहा।
"बस, अच्छा...?"
"अब... अच्छा है तो अच्छा ही कहूँगा...।"- मैंने कहा।
"ये तू कह रहा है - जिसने यहाँ बैठकर, पता नहीं कितने विज्ञापन बनायें हैं।"
"तो क्या यह विज्ञापन अच्छा नहीं है...?" -मैंने पूछा।
"अच्छा क्यों नहीं है, जब तू कह रहा है... और वेद जी ने बनाया है तो अच्छा तो होगा ही, पर सोच जरा, क्या इससे भी अच्छा विज्ञापन बनाया जा सकता है...अगर बनाया जा सकता है तो क्यों न हम सबसे अच्छा विज्ञापन बनायें। देख योगेश, हमने कई बड़ी-बड़ी मैगजीनों में विज्ञापन देना है। तो विज्ञापन ऐसा तड़कता-भड़कता होना चाहिए कि पढ़ते ही मज़ा आ जाये। रीडर ससुरा, नावल तो जब पढ़ेगा, तब पढ़ेगा। मज़ा तो तब है कि वह गलती से अगर कहीं विज्ञापन पढ़ ले तो नावल जल्दी से जल्दी पढ़ने के लिए पागल हो जाये और कहीं दिख जाये तो रोटी खाना भूल जाये।"
मैं कुछ बोलता, उससे पहले ही वेद ने कहा -"मैं समझ गया ।"
और उसने बनाये हुए विज्ञापन को उठाया और कागज को एक बार फाड़ा, दोनों टुकड़े जोड़ दोबारा फाड़ा और जोड़-जोड़ कर फाड़ते हुए कुछ एक क्षण में टुकड़े-टुकड़े कर दिया और सारे टुकड़े गौरीशंकर गुप्ता जी के हाथ में थमा दिये, शायद इसीलिये... क्योंकि डस्टबिन उन्हीं की साइड था। गौरीशंकर गुप्ता जी ने वे टुकड़े डस्टबिन के हवाले कर दिये।
उसके बाद वेद भाई ने गौरीशंकर गुप्ता से एक ब्लैंक पेपर माँगा और अपना पेन निकाला, ढक्कन खोला और आनन फानन में वहीं बैठे-बैठे कुछ ही देर में एक विज्ञापन तैयार कर दिया।
जितनी देर वेद भाई की कलम चली, ऑफिस में पिनड्राप साइलेंस कायम रहा। न मैं कुछ बोला, ना ही गौरीशंकर गुप्ता।
वेद भाई को पब्लिशर की टेबल पर कुछ लिखते देखने का वह, मेरा पहला अवसर था।
विज्ञापन तैयार करने के बाद वेद भाई ने पहले मुझे दिखाया। मैंने तो पहले वाला भी 'ओके' कर दिया था। वेद भाई की उन दिनों जो धाक थी, अनावश्यक रूप से आलोचना के लिए मैं खुद को तैयार कर ही नहीं सकता था। और यह दूसरा विज्ञापन तो गज़ब ही था।
उपन्यास कौन सा था? विज्ञापन किस उपन्यास का था, पर यह याद है कि वो विज्ञापन बहुत सी फिल्मी पत्रिकाओं और शायद मनोहर कहानियाँ में भी छपा था। वह विज्ञापन गौरीशंकर गुप्ता ने भी एकदम 'ओके' कर दिया, कोई क्रिटिसाइज नहीं, कोई कमेन्ट नहीं, कोई कम्पलीमेन्ट नहीं, लेकिन वेद भाई ने वो विज्ञापन गौरीशंकर गुप्ता जी से वापस ले लिया, बोले - "अभी तो विज्ञापन देने में टाइम होगा, है ना..?"
"हाँ...।" - गौरीशंकर गुप्ता जी ने स्वीकार किया।
"स्लाट तो आपने पहले से बुक कर रखा होगा...?"
"हाँ...।"
"तो ठीक है, विज्ञापन का मैटर, मैं आपको एक-दो दिन में देता हूँ । देखता हूँ...कुछ और भी बढ़िया बन जाये शायद...।"
गौरीशंकर गुप्ता जी ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला, पर बिना कुछ कहे ही बन्द कर लिया।
मैं समझता हूँ - तब वेद भाई उस दौर में पहुँच चुके थे, जब हर प्रकाशक इस बात से भी डरने लगे कि उसकी किसी बात से 'वेद जी' नाराज न हो जायें।
इस बारे में एक बार बातों ही बातों में राजकुमार गुप्ता जी की पर्सनली मुझसे ही कही एक बात मुझे याद आ रही है। उनका कहना था कि लम्बी रेस के घोड़े की मालिश-वालिश भी तगड़ी करनी पड़ती है और उसकी खिलाई-पिलाई का भी भतेरा (बहुतेरा) ध्यान रखना पड़ता है।
इसी तरह एक बार राजा पाकेट बुक्स में राजकुमार गुप्ता जी को विज्ञापन सम्बन्धी चर्चा पर, यह कहते सुना था कि 'विज्ञापन में हमें यह नहीं सोचना है कि जो लिख रहे हैं उपन्यास में है या नहीं। एक बढ़िया सा सवाल उठाकर क्वेश्चन मार्क लगा सकते हैं। लेकिन सवाल ऐसे होने चाहिए कि पाठक रहस्य जानने के लिए पागल हो जाये।'
यह खास बात आप सब नोट कीजिये कि अपना माल (उपन्यास) बेचने के लिए पाठकों को पागल बना देने की सोच राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता, दोनों ही भाइयों में थी।
वेद भाई से दोस्ती तो बहुत पहले से हो गई थी, जब बारिश के मौसम में उनकी परछत्ती में बैठकर, साथ में कुछ पेज भी लिखे थे और समय भी बिताया था, पर हिन्दी उर्दू भाषाओं पर मेरी पकड़ के बारे में वेद भाई कायल तब हुए, जब सुरेश चन्द जैन के साथ तुलसी पाकेट बुक्स की नींव रखी गई।
आरम्भ में तुलसी पाकेट बुक्स का ऑफिस ईश्वरपुरी के उसी मकान में रखा गया, जहाँ सुरेश जैन ने कंचन पाकेट बुक्स और माधुरी पाकेट बुक्स आरम्भ की थीं। तुलसी पाकेट बुक्स का ऑफिस भी बिल्कुल वही था, कंचन और माधुरी वाला।
किस्सा तब का है - जब सम्भवतः तुलसी पाकेट बुक्स के पहले ही सैट की किताब 'विजय और केशव पंडित' कम्पोजिंग में चल रही थी। मैं यूँ ही टहलते हुए चहलकदमी करते हुए तुलसी पाकेट बुक्स के ईश्वरपुरी ऑफिस में पहुँच गया। ऑफिस की पुश्त वाली दीवार के साथ दो ही कुर्सियाँ थीं, जिनमें द्वार के साथ की पहली कुर्सी पर सुरेश जैन बैठे थे। उनके सामने बड़ी टेबल थी, जिसके पीछे कई कुर्सियाँ रखी थीं, जिनमें से एक पर कोई शख्स बैठे थे। सुरेश जी और वेद भाई से 'हैलो-हाय' कर हाथ मिलाने के बाद दूसरी कुर्सी पर मैं बैठ गया। मेरे बैठते ही वेद भाई ने मेरी ओर 'विजय और केशव पंडित' का एक फार्म बढ़ा दिया और कहा - "योगेश, यार, जरा इसको पढ़ डाल तो...।"
मैंने देखा, फार्म पर करेक्शन लगी हुईं थीं। मतलब प्रूफरीडिंग हो चुकी थी। यह देख मैंने कहा -"इसके तो प्रूफ पढ़े हुए हैं।"
"मैंने पढ़े हैं।" वेद भाई ने कहा - "एक नज़र तू भी डाल ले... गलती नहीं छूटेगी।"
तब हमारे आपसी रिश्ते 'आप' की फारमैलिटी से आगे बढ़कर 'तुम' और 'तू' पर आ चुके थे।
उस फार्म में बिन्दी की मामूली गल्तियाँ थीं, जो मैं सही करता चला गया, पर मुझे शाब्दिक गलती नज़र आई। वहाँ एक स्थान पर 'शमा' शब्द इस्तेमाल किया गया था। मुझे गलत लगा तो मैंने उसे काटकर 'समा' कर दिया और फार्म वेद भाई की ओर बढ़ा दिया। वेद भाई की नज़र उस करेक्शन पर पड़ी तो वह स्टाइल से बोले - "योगेश जी, तुमने यहाँ पर सही को गलत कर दिया।"
मैं अपनी हिन्दी के मामले में तब कान्फीडेन्ट ही नहीं ओवर कान्फीडेन्ट का शिकार हुआ करता था, वेद जी की बात सुनते ही बोल उठा - "सवाल ही नहीं होता।"
"वैसे ही...।" वेद भाई ने गर्दन को झटका दिया - "तुम तो यार, गलती देखे बिना ही अकड़ रहे हो।"
"प्रूफरीडिंग में, मैं एक परसेन्ट भी चूक नहीं कर सकता। चाहो तो आप राकेश भाई से पूछ लो।"- मैंने धीरज पाकेट बुक्स की दिशा में संकेत करते हुए राकेश जैन जी के बारे में कहा।
"ये तो कोई बात नहीं हुई यार, इतना ओवर कान्फीडेन्स भी ठीक नहीं, माना कि तुम्हारी प्रूफरीडिंग बहुत अच्छी है, पर इस ओवर कान्फीडेन्स से तो लगता है, तुम्हें घमण्ड है।"
सुरेश जैन ने हल्की मुस्कान के साथ सिर को विशेष अन्दाज़ में खम दिया, जिसका मतलब था, वह वेद भाई की बात से सहमत हैं।
मैं जिन्दगी के हर कदम पर एक विद्यार्थी ही रहा हूँ। जब भी मुझे किसी दूसरे की बात सही लगी, उसे अपना लिया और तब मुझे यही लगा कि 'सवाल ही नहीं पैदा होता' कहते हुए मैं जरूरत से ज्यादा जोश में आ गया था। शर्मिन्दगी से मेरा सिर झुक गया, पर अपना खिसियानापन छुपाने के लिए, मैं मुस्कुराया और वेद भाई से कहा - "सॉरी, पर किस गलती की बात कर रहे हो?"
वेद भाई ने फार्म मेरी ओर बढ़ा दिया और उस जगह उंगली रख दी, जहाँ मैंने 'शमा' को 'समा' कर दिया था।"
मेरा 'कान्फीडेन्स' एक बार फिर 'ओवर' हो गया और मैं बोला - "यहाँ 'समा' ही आयेगा। आपने गाना नहीं सुना - समा है सुहाना-सुहाना...। शमा तो मोमबत्ती की लौ को कहते हैं, जिसके साथ परवाने का जिक्र आता है।"
वेद भाई ने मेरी बात का कोई जवाब न दे, फार्म सुरेश जैन की ओर कर दिया और कहा -"आप बताओ...।"
सुरेश जी ने इंगित पंक़्ति पर नज़र डाली और 'समा' शब्द पर ध्यान दिया और बोले - "मेरे ख्याल से योगेश जी, सही हैं।"
वेद भाई को सुरेश जी की बात पर यकीन नहीं आया। तभी अचानक मेरठ के दैनिक जागरण के एक पत्रकार, जिनका नाम शायद 'ओम' करके कुछ था; तुलसी पाकेट बुक्स के ऑफिस में आये। वेद जी तुरन्त बोले - "योगेश जी, न मेरी - न आपकी, ओम जी फैसला करेंगे कि कौन सही है।"
ओम जी तुरन्त बोले - "अरे भई बात क्या है...? मुझे किस बात का अम्पायर बना रहे हो?"
शेष भाग-05
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
इस श्रृंखला के अन्य भाग यहाँ पढें
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -01
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -02
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -03
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -04
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -05
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -06
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