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रविवार, 25 सितंबर 2022

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 22

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 22
 प्रस्तुति- योगेश मित्तल
सुशील कुमार से मेरी पहली मुलाकात उत्तमनगर, नन्दराम पार्क के बी ब्लॉक क्षेत्र में रामगोपाल के यहाँ हुई थी, जहाँ उन दिनों राजभारती जी द्वारा आरम्भ की गई नयी अपराध पत्रिका 'अपराध कथाएँ'  तथा माया पाकेट बुक्स में रजत राजवंशी नाम से प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास 'रिवाल्वर का मिज़ाज' कम्प्यूटर पर टाइप हो रहा था। 
रामगोपाल और उसकी पत्नी निशा दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। उनके दो लड़के थे। उत्तमनगर में ही अपना मकान भी था, लेकिन रामगोपाल ने साइड बिजनेस के रूप में किसी भाई या अन्य के तीसरे नाम से कम्प्यूटर टाइपिंग और प्रिन्ट आउट का काम कर रखा था। 
       रामगोपाल के मकान में बाहर सामने खड़े व्यक्ति के हिसाब से बायीं ओर अन्दर जाने का लोहे की सलाखों का बड़ा और ऊंचा गेट था और दायीं ओर एक आम दरवाजों सा दरवाजा था, जो उस बाहरी कमरे का द्वार था, जिसमें तीन ब्लैक एण्ड व्हाइट मानीटर वाले फोर एट सिक्स कम्प्यूटर लगे थे। प्रिन्टर एक ही था। 
        जब हमने रामगोपाल के यहाँ काम आरम्भ करवाया था, तब तीन में से एक ही कम्प्यूटर पर एक भारी बदन की बहुत ही भले स्वभाव की लड़की उषा ही दिन भर टाइपिंग करती थी। शाम को जब रामगोपाल आफिस से लौटता तो टाइप्ड मैटर के पढ़े गये प्रूफ देखकर करेक्शन लगाने का काम वह स्वयं करता था। बाद में उषा की शादी तय हो गयी तो उसने काम छोड़ दिया और तब रामगोपाल के यहाँ कम्प्यूटर सीखने तीन लड़कियाँ आने लगी। एक मीना तो सामने ही रहने वाली जाट या गुर्जर लड़की थी, बाकी दोनों गढवाली लड़कियाँ आशा और कुसुम थीं। उन लड़कियों के आने के बाद रामगोपाल के यहाँ काम बहुत बढ़ गया। सीखने आई लड़कियाँ टाइपिंग भी करने लगीं थीं और रामगोपाल उनसे सिखाने के पैसे लेने की जगह काम करने के पैसे देने लगा था, लेकिन तब कम्प्यूटर जल्दी-जल्दी खराब होने लगे।  कभी पहला कम्प्यूटर खराब हो जाता तो कभी दूसरा, फिर कभी तीसरा। 
तब कम्प्यूटर ठीक करने वाला एक ही शख्स रामगोपाल के सम्पर्क में था। नजफगढ़ में 'रायल कम्प्यूटेक' नाम से कम्प्यूटर रिपेयरिंग की शाप खोले बैठा शख्स सुशील कुमार। संयोगवश उन दिनों बार-बार जब भी सुशील रामगोपाल के यहाँ आया, मैं हमेशा वहीं मौजूद था, इसलिये उससे पहचान ही नहीं, दोस्ती भी हो गई।
        रामगोपाल के यहाँ सुशील से औपचारिक बातें ही हुआ करती थीं,लेकिन एक बार संयोग ऐसा हुआ कि सुशील मेरे और रामगोपाल के घर के बीच पड़ने वाली बिन्दापुर रोड पर टकरा गया। वह अपनी बाइक पर था और मैं पैदल। 
         उसने बाइक अचानक ही मेरे इतने करीब लाकर रोकी कि बस हम टकराये नहीं, इतना ही फासला था। उसके सिर पर हैलमेट था, इसलिये चेहरा नज़र नहीं आया और मैं एकदम घबरा गया। तेजी से मैं आगे बढ़ने को था कि उसने एक हाथ से मेरा एक हाथ पकड़ा और दूसरे से हैलमेट उतारा। लम्बा आदमी था, इसलिये एक पांव सड़क पर टिकाये, उसने मोटर साइकिल सम्भाल रखी थी। 
अपनी शक्ल मुझे दिखाते हुए सुशील मुस्कुराया -"डर गये?"
"हां... नहीं...।"-  मैं हड़बड़ाया। सच तो यह था कि एकबारगी मैं सचमुच डरा बेशक न हुआ होऊँ, घबरा अवश्य गया था।
"मैं हूँ सुशील...।"-  सुशील मेरा हाथ छोड़ एक हाथ से बाइक का स्टेयरिंग सम्भालते हुए बोला। 
"रामगोपाल के जा रहे हो?" - मैंने पूछा। 
"नहीं, नारायणा...। किसी से मिलना है।" - सुशील ने कहा। 
"इधर से....?"-  मैंने आश्चर्य जताया। 
"हां, पीछे इसी सड़क पर किसी से मिलना था, उससे मिलकर आ रहा हूँ, अब तिलक पुल से रोड पर निकल, चन्नन देवी से सीधे जेल रोड पर पहुँच, आगे नारायणा की तरफ निकल जाऊंगा। आपने पटेलनगर जाना है तो चलो, मैं छोड़ दूंगा।"-  सुशील ने कहा। 
      दरअसल तब तक सुशील राजभारती जी और उनसे मेरे रिश्ते के बारे में बखूबी जानने लगा था और उसे मालूम था कि राजभारती जी वेस्ट पटेलनगर रहते हैं। 
"नहीं यार, अभी तो कहीं नहीं जाना, पर मिल ही गये हो तो एक बात बताओ।" - अचानक मेरे दिल में उससे कम्प्यूटर के बारे में पूछने का विचार आया और शब्दों को मैंने अधरों से उगल दिया। 
"कम्प्यूटर के बारे में पूछना है..?"-  सुशील मेरे अन्दाज़ से ही समझ गया - मैंने क्या पूछना है। 
"हां, कितने का आ जाता है एक कम्प्यूटर?" - मैंने पूछा। 
"आपको चाहिये तो अभी मेरे पास एक फोर एट सिक्स आया है, रेट टू रेट दे दूंगा... बिना प्राफिट के...।" - सुशील ने कहा। 
"फिर भी... कितने का पड़ेगा?"
"दस हज़ार का... इतने की ही मेरी खरीद है। आपसे आने जाने का पेट्रोल का खर्चा भी नहीं लूँगा।और बोलो...।"
"नहीं, पर दस हज़ार तो बहुत हैं। इतने नहीं हो पायेंगे।"-  मैंने कहा। 
"अच्छा, आप रहते कहाँ हो?"
"यहीं आगे की गली में बी फोर्टी नाइन में"-  मैंने कहा।
"आपको तो गली में सब जानते होंगे?" -सुशील ने मेरे कद को देखते हुए कटाक्ष किया। 
"हां...।" - मैं मुस्कुरा कर बोला। 
"ठीक है, आऊँगा, किसी दिन...। तब बात करेंगे।" - सुशील ने कहा। 
             उसके बाद ही संयोग ऐसा हुआ था कि ड्रीमलैण्ड पब्लिकेशन्स के साथ मेरी श्रीगणेश महापुराण लिखने के लिये, अनचाहे ही आकस्मिक डील हो गयी और मैंने इस बारे में अपनी पत्नी राज से जिक्र किया तो वह बोली- "तब तो आपको कम्प्यूटर ले ही लेना चाहिये।"
मैंने सुशील को फोन किया।
फोन पर मैंने सुशील से कहा- "यार, दस पन्द्रह दिन में एक सस्ता सा कम्प्यूटर सिस्टम चाहिये। मिल जायेगा क्या?"
"मित्तल साहब, अभी तो हाथ में कोई नहीं है। मैं अपने दोस्तों से पता करके दो तीन घण्टे बाद आपको फोन करता हूँ।"
               उन दिनों भारत में मोबाइल क्रान्ति नहीं आई थी। फोन पर बातचीत लैण्डलाइन फोन द्वारा ही होती थी। गनीमत थी कि सुशील के यहाँ और मेरे यहाँ भी लैण्डलाइन फोन था। 
            मैं इन्तजार करता रहा, लेकिन सुशील का फोन नहीं आया, बल्कि लगभग दो घण्टे बाद अचानक ही सुशील खुद आ गया। विशेष बात यह थी कि वह बाइक पर ही गत्ते के डिब्बों में रख, पीछे की सीट पर मजबूती से, रस्सी से बांधकर, एक फोर एट सिक्स कम्प्यूटर सिस्टम अपने साथ लेकर आया था। 
                 अचानक ही उसे कम्प्यूटर लाया देख, मैं घबरा गया, क्योंकि उसे देने के लिये मेरे पास कुछ भी नहीं था। मैंने सुशील के निकट पहुँच धीरे से फुसफुसा कर कहा- "यार, तुम तो अभी ले आये? अभी तो मेरे पास कुछ भी नहीं है।"
"कोई बात नहीं, अगले महीने दे देना। एक साथ नहीं हो पाये तो चार किश्तों में देना।"-  सुशील ने कहा। 
ये बातें बहुत धीमे स्वर में की गई थीं, फिर भी मेरी पत्नी राज ने सुन लीं और तुरन्त ही उसने सुशील से पूछ लिया- "भाई साहब, कितने का पड़ेगा यह कम्प्यूटर?"
"मित्तल साहब के लिये दस हजार का है। किसी और को देना होता तो साढ़े बारह से कम का नहीं देता।"-  सुशील टेबल पर मानीटर, सीपीयू, कीबोर्ड, माउस सैट करने के बाद कम्प्यूटर ऑन करते हुए बोला। 
उसने कम्प्यूटर के सारे फंक्शन मुझे अच्छे से समझाये। फिर बोला- "आपने तो हिन्दी में काम करना है, इसमें मैंने बहुत सारे हिन्दी फान्ट भी डाल दिये हैं।"
                  हम बात कर ही रहे थे कि आश्चर्यजनक रूप से मेरी पत्नी ने दस हज़ार रुपये लाकर सुशील की ओर बढ़ा दिये। सुशील और मैं दोनों ही अचम्भित हो उठे। तभी मेरी पत्नी ने मुझसे कहा- "अब तुम बिना किसी टेन्शन के गणेशजी की कहानियाँ लिखनी शुरू कर दो।"
            सुशील तो कम्प्यूटर छोड़ कर चला गया, लेकिन मेरे लिये समस्या यह थी कि मुझे कम्प्यूटर में कुछ भी करना नहीं आता था। पालम में अमेरिकन कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट में कृष्ण मुरारी गर्ग से और उत्तमनगर के नन्दराम पार्क में रामगोपाल के यहाँ कम्प्यूटर पर काम अवश्य करवाया था, लेकिन कभी भी कम्प्यूटर पर बैठा नहीं था। 
                मैं रामगोपाल के यहाँ गया। रामगोपाल तो उस समय अपनी नौकरी पर गया हुआ था, मगर उसके कम्प्यूटर कैफे में कुसुम नेगी और मीना टाइपिंग कर रही थीं। कुसुम मुझसे बहुत ज्यादा फ्रेंक थी। अपनी हर व्यक्तिगत बात भी मुझसे शेयर कर लेती थी। मैंने उसे कम्प्यूटर लेने की बात और अपनी समस्या बताई तो उसने पहले तो मुझे बधाई दी, फिर मुझसे कहा- "आप एक काॅपी ले आओ और पहले कम्प्यूटर में हिन्दी फॉन्ट की सैटिंग करके यह नोट करो कि अंग्रेजी की कौन सी 'key' को दबाने से हिन्दी का कौन सा फान्ट फाइल में आता है। फिर आप हर 'key' को शिफ्ट के साथ दबाकर कौन सा फॉन्ट आता है, यह नोट करें। फिर आल्टर की के बारे में भी मैं आपको बता देती हूँ। हिन्दी कीबोर्ड अच्छी तरह याद होने के बाद आपको टाइपिंग में कोई मुश्किल नहीं होगी।"
       मैंने एक कापी लाकर उस पर  अंग्रेजी के हरेक फॉन्ट को पुश करने पर कौन सा हिन्दी फॉन्ट टाइप होता है, सब नोट किया। 'आल्टर की' के अक्षर भी नोट किये। 
कुसुम ने मुझे पेजमेकर फाइल में ओपन करना, सेव करना समझाया। 
              उसके बाद मैंने सबसे पहले कापी पर नोट किये, अंग्रेजी के अक्षरों की 'key' पुश करने पर हिन्दी का कौन सा अक्षर आयेगा, यह याद किया, जो कि एक घण्टे में ही मुझे याद हो गया। 
             उसके बाद मैंने कम्प्यूटर स्टार्ट कर, पेजमेकर फाइल ओपन करके 'गणेश' नाम की एक फाईल बनाई और श्रीगणेश महापुराण का आरम्भ कर दिया, किन्तु मेरा कम्प्यूटर बहुत स्लो था। उसमें हार्ड डिस्क भी सिर्फ चार एमबी की थी और रैम आठ केबी। मुझे लगा कि पूरा श्रीगणेश महापुराण टाइप करने में चार एमबी कम न पड़ें, इसलिये कम्प्यूटर में रैम आठ से सोलह केबी करवाई तथा हार्ड डिस्क सोलह एमबी की लगवाई, जिसकी वजह से मुझे कई हज़ार और खर्च करने पड़े। इसके बावजूद कम्प्यूटर स्लो ही रहा। स्टार्ट होने में भी काफी देर लेता था। 
            उन दिनों मैंने फ्लॉपी का एक पूरा बाक्स लाकर रखा हुआ था। श्रीगणेश महापुराण का सारा मैटर में फ्लॉपी में कापी करके कीर्तिनगर इण्डस्ट्रियल एरिया में स्थित ड्रीमलैण्ड पब्लिकेशंस में के आफिस में श्री वेदप्रकाश चावला जी के पास ले जाता था। फ्लॉपी से उनके यहाँ कम्प्यूटर पर काम करने वाले बहुत से लोगों में से कोई भी शख्स, मैटर अपने कम्प्यूटर में स्टोर करके मुझे फ्लॉपी दे देता था, किन्तु विजय- विकास सीरीज़ का मैटर में उसी फ्लॉपी स्टोर करके, रामगोपाल के यहाँ ले जाकर, उसके यहाँ से प्रिन्ट आउट निकलवा लेता था। फिर फ्लॉपी से मैटर डिलीट कर देता था, ताकि वही फ्लॉपी दोबारा-तिबारा इस्तेमाल कर सकूँ। 
            जब विजय-विकास सीरीज़ का लगभग अस्सी पेज का मैटर तैयार हो गया तो मैंने सोचा, अब यह मैटर मुझे वेद को दिखा देना चाहिये। वह पढकर पास कर दे, आगे का काम उसके बाद करना चाहिये। वैसे तो मुझे अपने काम पर सौ परसेन्ट विश्वास था कि जो भी लिख रहा हूँ, वेद को पसन्द आयेगा ही आयेगा, किन्तु वेद ने कहा था - कुछ फार्म लिखने के बाद उसे दिखा अवश्य दूं तो प्रिन्ट आउट लेकर एक दिन सुबह सुबह मैंने मेरठ के लिए प्रस्थान किया। 
वेद भाई के यहाँ पहुँचा तो वह आफिस में ही मिल गये। 
उन्होंने अभी पन्द्रह पेज ही पढ़े थे कि आफिस में कुछ बुकसेलर आ गये, जिन्हें तुलसी पेपर बुक्स का माल चाहिये था। 
वेद ने मुझसे कहा -"यार, स्टार्टिंग तो बहुत अच्छी है, लेकिन इसे मैं फुरसत में रात को पढ़ूँगा। तू इसे कान्टीन्यू रख और जल्दी से कम्पलीट कर...।"
उसके बाद वेद भाई ने उपन्यास के प्रिन्ट आउट टेबल की दराज में रख दिये और आगन्तुकों से वार्तालाप करने लगे। 
साथ की साथ चाय का दौर भी चलता रहा। 
             थोड़ी ही देर बाद मैं वहाँ से उठने ही वाला था कि वहाँ सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव आ गये, जो कि उन दिनों सुरेश इन्दुसुत नाम से पंडित बने उन थे। इसी नाम से धार्मिक पुस्तकें भी लिख रहे थे। शास्त्रीनगर स्थित अपने फ्लैट में सम्भवतः उन्होंने ज्योतिष कार्यालय भी खोल रखा था। उनके फ्लैट में एक बार मैं जा चुका था और उनकी मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठा चुका था। 
मुझे उठता देख, सुरेश इन्दुसुत जी ने मेरे कन्धे पर हाथ रख दबा दिया और बोले -"यह क्या योगेश जी, हम आये और आप चल दिये। अरे ऐसी भी क्या नाराज़गी है।"
"बैठ जा योगेश..। अभी तेरे चाय पीने का कोटा पूरा नहीं हुआ है।" - वेद भाई ने मुझे बैठने के हाथ से इशारा किया और बोले। 
            मैं बैठ गया। और फिर सुरेश इन्दुसुत और वेद भाई बातें करने लगे, पर उस समय वेद भाई अपने सैट में कोई धार्मिक पुस्तक बढ़ाने की स्थिति और मूड में नहीं थे, इसलिये बात ज्यादा देर नहीं चली। हां, चाय आ गई तो चाय का दौर चलता रहा। 
सुरेश इन्दुसुत के जाने के बाद मैं उठने लगा तो वेद भाई ने कहा -"रुक यार, अब खाना खाकर ही जाइयो। कढ़ी चावल बने हैं।"
लंच टाइम हो रहा था! वेद मुझे साथ लेकर घर के अन्दर ड्राइंग रूम में पहुँचे।
हमारे लिये वहीं सेन्टर टेबल पर खाना लग गया।
बचपन से दमे का रेगुलर मरीज़ होने के कारण मैं चावल और दही का प्रयोग बहुत कम करता हूँ, लेकिन कढ़ी और राजमा के साथ मैं कभी कभी चावल खा लिया करता हूँ।
उस रोज मैंने वेद भाई से अपनी इस सतर्कता भरी आदत के बारे में कुछ नही कहा। 
"वैसे इसमें प्लाट क्या लिया है?" - वेद ने भोजन आरम्भ करने से पहले मुझसे उपन्यास के विषय में सवाल किया।
                 मैंने खाना शुरू करने से पहले चार लाइनों के संक्षेप में वेद भाई को मुहम्मद करीम तेलगी को लेकर प्लाट की संरचना के बारे में बताया, फिर बोला- "क्या लिखा है? यह तो तुम ये अस्सी पेज पढ़ना शुरू करोगे तो खुद ही पता चल जायेगा। जो कुछ लिखा है, सारा सुना दिया तो पढ़ने का मज़ा जाता रहेगा। इसलिये आगे का मैटर तुम पढ़कर ही जानना।"
"हाँ, यह ठीक रहेगा।"-  वेद ने कहा। फिर हम भोजन में व्यस्त हो गये।
               भोजन के बाद मैं उठने लगा तो वेद ने विल्स नेवीकट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला -"एक-एक चाय और हो जाये?"
"हो जाये...!"-  मैं उठते-उठते फिर से बैठ गया। चाय के मामले में, मैं उन दिनों पूरा बेशर्म था। कहीं भी जाऊँ, अगर चाय की तलब हुई तो मेजबान के पूछने की प्रतीक्षा भी नहीं करता था, खुद ही फरमाइश कर देता था और मेरे साथ हमेशा ही यह खुशकिस्मती रही कि मेरी फरमाइश पर कभी किसी मेजबान ने नाक-भौंह नहीं सिकोड़ीं, बल्कि खुशी-खुशी न केवल मेरे लिये चाय मंगवाई व हमेशा मेरा साथ भी दिया।
चाय से पहले हम दोनों ही सिगरेट के कश लेते रहे। दूसरा-तीसरा कश लेने के बाद वेद ने बेहद गम्भीरता से कहा -"एक बात कहूँ योगेश...।"
"दो कह...।" मैंने अपने मजाकिया अन्दाज़ में नीचे से ऊपर सिर हिलाया।
"तू अपना सारा ध्यान नावल लिखने में लगा। तेरे अन्दर गट्स हैं, लेकिन नाम और धन कमाना है तो यह एडिटिंग, प्रूफरीडिंग और नावल घटाने-बढ़ाने के काम बन्द करेगा, तभी तेरा कुछ भला होगा।"
"छोड़ यार, मैं अपने भले-बुरे की नहीं सोचता, मेरी तो एक ही थिंकिंग है कि जहाँ तुरत-फुरत नोट मिलें, जिस काम में मिलें, कर डालो। मैं दमे का रेगुलर मरीज़ हूँ। जब भी दमे का अटैक होता है, कई बार तो ऐसा लगता है कि बस अब जान बचनी मुश्किल है, इसलिये नाम और शोहरत के बारे में, मैं सोचता ही नहीं।"
"तुझे सोचना चाहिये!" - वेद ने कहा। 
"सोचूँगा....।" मैंने धीरे से कहा। 
                      वेद प्रकाश शर्मा मेरे जीवन का पहला और आखिरी शख्स था, जिसके सामने मैं अपनी दमे की बीमारी को लेकर इमोशनल हो गया था। इतना इमोशनल मैं कभी भी बिमल चटर्जी, कुमारप्रिय, राजभारती, यशपाल वालिया अथवा अनिल मोहन के सामने भी नहीं हुआ था, जिनके साथ अक्सर मेरा रोजाना उठना-बैठना होता रहता था।
      फिर चाय आने तक हमारे बीच खामोशी रही। चाय आने के बाद वेद ने गम्भीर स्वर में पूछा- "मेरा उपन्यास कब तक कम्पलीट कर देगा?"
"अब शुरू कर दिया है तो कम्पलीट भी हो ही जायेगा।"-  मैंने कहा।
        दरअसल अपनी दमे की बीमारी के कारण, मैं किसी भी प्रकाशक को निश्चित समय बताना इग्नोर करने लगा था। इसका एक कारण यह भी था कि जब जब मैंने किसी प्रकाशक को कोई निश्चित समय बताया, हमेशा मैं झूठा ही साबित हुआ था, चाहे वो झूठ एक या दो दिनों का रहा हो और मेरे पिताजी ने मुझे कुछ ऐसे संस्कार दिये थे कि झूठ से मुझे सख्त नफरत थी। झूठ सुनने से भी और बोलने से भी। 
        चाय पीकर उठते हुए मैंने वेद से कहा-"ये अस्सी पेज पढ़कर मुझे फोन कर देना। आगे का मैटर अब मैं तुम्हारा फोन आने पर ही लिखूँगा।"
"ठीक है, कल परसों में, मैं तुझे फोन करूँगा।" - वेद ने कहा।
वेद के यहाँ से निकल, मैं देवीनगर अपनी बड़ी बहन के यहाँ गया। दो तीन घण्टे बहन और भांजों और भांजी के साथ बिताने के बाद मैं मेरठ से दिल्ली के लिये चल दिया।
उस दिन घर पहुँचते-पहुँचते रात हो गई थी। रात के भोजन का वक़्त था। भोजन तैयार था। खा-पीकर मैं अपनी रात को ली जाने वाली दवा का सेवन करने के बाद सो गया। 
सुबह जल्दी उठने की मेरी हमेशा से आदत रही है। तबियत ठीक हो तो चार साढ़े चार बजे के करीब अमूमन उठ ही जाता हूँ
रोज की तरह उठा तो सोचा- कुछ काम ही करते हैं।
                   उन दिनों हमारे यहाँ एक डाइनिंग टेबल और उसकी छ: कुर्सियाँ भी थीं, जो सेकेण्ड हैण्ड सस्ती मिलने और घर में रखने के लिये काफी जगह होने के कारण खरीद ली गयीं थीं, किन्तु लंच या डिनर के काम नहीं आती थी। उसकी तीन कुर्सियाँ तो घर में इन्ट्री वाले ड्राइंग रूम प्लस डाइनिंग हाल जैसे बड़े कमरे की पीछे की दीवार से सटी रहती थी। बाकी दो कुर्सियाँ दांये-बांये के चौड़े वाले हिस्से में लगी रहती थी। सिर्फ एक कुर्सी फ्रन्ट साइड के लम्बे हिस्से में डाइनिंग टेबल के नीचे खिसकी रहती थी, पर जब हमें उस पर बैठना होता था तो खींच लेते थे।
               उसी डाइनिंग टेबल पर हमारा ब्लैक एण्ड व्हाइट वेस्टन टीवी और लैण्डलाइन टेलीफोन रखा रहता था, क्योंकि वहीं पीछे की दीवार पर पावर प्लग का बोर्ड था, जिसमें कई साकेट लगे थे, जिससे टीवी और कम्प्यूटर एक साथ चलाने में भी कोई दिक्कत नहीं थी। उसी दीवार पर फोन की लाइन के तार भी सैट थे। 
उन दिनों हम कम्प्यूटर सीपीयू और मानीटर के प्लग साकेट में लगे नहीं रहने देते थे। जब काम करना होता, लगा देते, फिर निकाल देते थे।
            मैंने प्लग लगाये। कम्प्यूटर ऑन करने का बटन पुश किया और कम्प्यूटर स्टार्ट होने का इन्तजार करने लगा। उन दिनों कम्प्यूटर स्टार्ट होने में भी आज के मुकाबले कुछ ज्यादा ही वक़्त लेता था।
          मैं देर तक इन्तजार करता रहा, लेकिन कम्प्यूटर स्टार्ट नहीं हुआ। बार-बार आफ-आन करके कोशिश की, किन्तु कम्प्यूटर स्टार्ट नहीं हुआ।
काम करने का सारा मूड ही खराब हो गया।
अब नींद तो उड़ चुकी थी। मैं एक उपन्यास लेकर ही बैठ गया और पढ़ने लगा।
उन दिनों हमारे यहाँ एम टी एन एल का लैण्डलाइन फोन भी था। सात बजे तक तो मैं उपन्यास पढ़ता शान्त बैठा रहा, लेकिन उसके बाद मैंने सुशील को फोन मिलाया। दूसरी ओर काफी देर तक घण्टी बजती रही, रिसीवर किसी ने नहीं उठाया।
मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। मैं थोड़ी-थोड़ी देर रुक-रुककर बार-बार नम्बर डायल करने लगा, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। दूसरी ओर से रिसीवर किसी ने नहीं उठाया।
                      तब तक घर में पूरी तरह जाग भी हो चुकी थी। मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा तो बता दिया कि कम्प्यूटर स्टार्ट ही नहीं हो रहा है और सुशील के यहाँ कोई फोन नहीं उठा रहा है। 
                  अपने सर्वाधिक प्रिय मित्रों में से एक यशपाल वालिया जी की कृपा और मेहरबानी से तब मुझे तम्बाकू का पान खाने की भी आदत पड़ चुकी थी। सिगरेट पीने की लत कुमारप्रिय के संसर्ग में गाँधीनगर में ही सीख चुका था और घर के लोगों की रोक-टोक की परवाह न कर, पान और सिगरेट की गुलामी करता रहता था, लेकिन जैसा कि पान बीड़ी सिगरेट की तलब रखने वालों की आदत होती है, पान, बीड़ी, सिगरेट लेने के उनके ठिकाने लगे-बंधे होते हैं। उत्तमनगर में रहते हुए मैं वाणी विहार खड़ंजे में बिजली के एक ऊंचे टावर के पास ही पड़े लकड़ी के खोखे में पान की दुकान में बैठने वाले खूबसूरत लम्बे बलराम उर्फ बल्लू की दुकान से पान और सिगरेट लिया करता था।
          उस दिन जब मैं पान की दुकान पर पहुँचा, मुझे देखते ही बल्लू ने पान लगाना आरम्भ कर दिया। मेरा हमेशा का रूटीन था, जब भी पान की दुकान पर जाता, सादी-पीली पत्ती के दो जोड़े लगवाता था और अब तो बल्लू मेरी शक्ल देखते ही दो जोड़े लगाने लगता था। फिर एक जोड़ा मुझे खाने को, चबाने को देता और एक बांध देता। 
उसने एक जोड़ा बांध कर, बीड़ा मेरी ओर बढ़ाया और बोला -"आज कुछ परेशान हैं भाई साहब?"
"हाँ, थोड़ा तो हूँ।" - मैं बोला।
"मैं समझ गया था। आज आते ही आपने कुछ कहा नहीं ना...?" बलराम उर्फ बल्लू ने कहा।
दरअसल मेरी आदत है, जब भी किसी से मिलता हूँ, बड़ी गर्मजोशी से मिलता हूँ। यह आदत मुझे अपने पिताजी से विरासत में मिली है। पनवाड़ीे बलराम उर्फ बल्लू की दुकान पर आते ही पान लगाने का आर्डर मैं कभी नहीं देता था, वो तो बल्लू को अब परमानेन्ट पता होता था, पर पान के खोखे पर पहुँचते ही रोजाना के मेरे कुछ निश्चित डायलॉग हुआ करते थे, जैसे -
"और भाई... बल्लू भाई...।"
"राम-राम, बल्लू भाई....।"
"और  कैसे हो बल्लू भाई...?"
मगर उस दिन मैं दुकान पर पहुँच कर खड़ा हो गया था, बोला कुछ नहीं।
"आज यार, कम्प्यूटर खराब हो गया, स्टार्ट ही नहीं हो रहा और जिससे कम्प्यूटर लिया था, उसे दस बार फोन कर लिया, फोन उठा ही नहीं रहा है वो!"-  मैंने कहा- "काम बहुत है और अब मैं कम्प्यूटर पर ही लिखता हूँ।"
                  बल्लू को पता था कि मैं लेखक हूँ और कहानियाँ हाथ से भी लिखता हूँ तथा सीधे कम्प्यूटर पर भी टाइप करता हूँ। गौरी पाकेट बुक्स के अरविन्द जैन जब पहली बार उत्तमनगर मेरे घर आये थे, बीच रास्ते में बल्लू पनवाड़ीे से ही मेरा पता पूछते हुए आये थे, पर तब अरविन्द ने गौरी पाकेट बुक्स आरम्भ नहीं की थी, उन दिनों वह पूजा पाकेट बुक्स में ज्यादातर मशहूर उपन्यासकारों के उपन्यासों के रिप्रिन्ट और इक्का-दुक्का नये उपन्यास छापा करते थे।
           मेरी समस्या सुनते ही बल्लू ने तुरन्त समाधान बताया - "अपना कम्प्यूटर लंगड़े को दिखा दो, बहुत होशियार है। लोगों को सिखाता भी है। कम्प्यूटर एसेम्बलिंग करना, कम्प्यूटर बनाना सिखाता है।"
"लंगड़े....!" मैं चौंका-"यह लंगड़ा कौन है...?"
"नाम तो मुझे नहीं मालूम... पर यह टावर के साथ की गली में है। कद में आप से भी छोटा है और मचक-मचक कर चलता है।"
                 कोई मुझसे भी ज्यादा काबिल, मुझसे भी छोटे कद का है और मचक-मचक कर चलता है, यह जानकारी मेरे लिए एकदम नयी थी।
 मैंने बल्लू से पूछा-"वो लंगड़ा रहता कहाँ है?"
"इसी गली में दूसरा-तीसरा मकान है।"- बल्लू ने बिजली के टावर के साथ वाली गली की ओर संकेत किया।
मेरे मन में दो बातें आयीं। एक - सुशील से कम्प्यूटर लिया है, इसलिये उसी से कान्टेक्ट करूँ और उससे सम्पर्क होने का इन्तजार करूँ।
दूसरी - उस लंगड़े और अपने से भी छोटे कद के जीनियस से एक बार मिल ही लूँ।
बल्लू को पान के पैसे देकर पलटते हुए मैं असमंजस में था, मगर मेरे कदम लंगड़े की गली में ही मुड़ गये।
शेष आगामी अंक में
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की - भाग-01
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की - भाग-15
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की - भाग- 21
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की - भाग- 23

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