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सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

विश्व पुस्तक मेला - 2025

विश्व पुस्तक मेला -2025
प्रगति मैदान- नई दिल्ली

 भारत धर्म और आस्था प्रधान देश है । यह पर्व और त्योहरों का देश है । यहां हर माह कोई न कोई पर्व या त्योहार मनाया जाता है और लोग पूरी आस्था के साथ ऐसे पर्वों को मनाते हैं । बारह वर्ष बाद महाकुम्भ का आयोजन प्रयागराज में हो रहा और भारतीय संस्कृति को मानने वाले लोग पूरी आस्था के साथ महाकुम्भ में स्नान करने जा रहे हैं । यही है भारत की परम्परा, धर्म और आस्था ।
            जहां एक तरफ महाकुम्भ का धार्मिक आयोजन हो रहा है वहीं नयी दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला-2025 का आयोजन 01-09 फरवरी के मध्य हो रहा है । पुस्तक प्रेमियों का महाकुम्भ तो यही है । 
बायें से- गुरप्रीत सिंह, अंकित, सुनील भादू, राजेन्द्र, ओम सिहाग

इस बार तो पूर्व में ही विचार था कि पुस्तक मेले में जाना ही है और दोस्तों को भी सूचना थी । इस सिलसिले में हरियाणा से मित्र अंकित और सुनील भादू तैयार थे । मेरे ही गांव से शिक्षक साथी ओम सिहाग भी तैयार थे । लेकिन ओम की एक विभागीय डयूटी की सूचना आने के कारण विचार अधूरा रह गया था । मैंने शनिवार शाम को दो फरवरी की दो टिकटें श्री गंगानगर से मेरी और अंकित की कन्फर्म करवा ली थी । 
हमारे यहां से दिल्ली के लिये एकमात्र ट्रेन है दिल्ली सराय रोहिला एक्सप्रेस जो बीकानेर से चल कर मेरे शहर रायसिंहनगर में रात्रि को आठ बजे पहुचंती है । लेकिन मेरी टिकट श्री गंगानगर से थी क्योंकि अंकित श्री गंगानगर से इस ट्रेन में सवार होने वाला था । 
  दो फरवरी शनिवार 
दो फरवरी को मैंने ओम को फोन किया और मेले जाने का विचार बताया तो उसने कहा कि मेरी डयूटी को कैंसिल हो गयी है । मेले में जाने का विचार भी है लेकिन पर बिना कन्फर्म टिकट के यात्रा नहीं करनी । हालांकि इस ट्रेन में सामान्य श्रेणी के डिब्बे लगभग खाली होते हैं । लेकिन यह भी उचित न था कि हम दो रिजर्व श्रेणी में यात्रा करे और एक साथी सामान्य श्रेणी में । और मेरी हार्दिक इच्छा था कि ओम को साथ लेकर जाना ही है । तो मैंने तुरंत संपर्क किया एक और साथी राजेन्द्र सहारण से और उसे साथ चलने के लिये तैयार किया, और इधर ट्रेन आने का समय नजदीक आ रहा था । 
अब हम चार साथी दो । अगर अब दो साथी सामान्य श्रेणी में सफर करे तो परेशानी वाली बात न थी । हालांकि दोनों के विचार बहुत अलग-अलग थे पर ट्रेन के सफर में गांव का साथी होना ही पर्याप्त था । हम रायसिंहनगर से शाम को ट्रेन में बैठे  और सफर पर चल दिये ।
श्री गंगानगर से अंकित मिल गया । चारों ने एक साथ चाय पी और फिर मैं और अंकित अपने रिजर्व डिब्बे की ओर चल दिये। 
तीन फरवरी- रविवार 
हम लगभग साढे सात-आठ बजे सराय रोहिल्ला स्टेशन पर उतरे और एक ऑटो द्वारा लालकिला क्षेत्र में एक धर्मशाला में दो कमरे लिये । एक में मैं और अंकित और दूसरे में ओम और राजेन्द्र ठहरे । 
विश्व पुस्तक मेले का समय सुबह ग्यारह बजे थे । तो हमने पहले यह तय किया की दरियागंज सण्डे मार्किट महिला हाट में लगने वाले पुस्तक बाजार में जाते हैं । 
रास्ते में चाय नाश्ता कर हम पैदल ही गंतव्य की ओर चल दिये हालांकि कम दूरी का रास्ता हमने लोगों से पूछ-पूछ कर ज्यादा दूरी में बदल दिया । क्योंकि ज्यादातर लोगों को महिला हाट की कन्फर्म जानकारी नहीं थी ।
           हम लाल किला, शीशगंज गुरुद्वारा और दरियांगज, ... दरवाजा होते हुये महिला हाट पुस्तक बाजार में पहुच गये । 
  हम चारों में से एकमात्र राजेन्द्र वह व्यक्ति था जिसे किताबों से कोई लगाव न था । जहां मैं और ओम हिंदी प्रेमी थे, साहित्यिक पुस्तकें खोज रहे थे वहीं अंकित अंग्रेजी में  प्रेरणादायक किताबें खोज रहा था ।
  जब यह पुस्तक बाजार इस महिला हाट नामक छोटी सी जगह कि बजाय बाहर खुल में लगता था तब यह काफी विस्तृत था और पुस्तकें भी पर्याप्त संख्या में होती थी । अब इसका क्षेत्र संकुचित हो गया और पुरानी पुस्तकों की संख्या भी कम हो गयी । अब नयी किताबों की पायरेटेड कॉपी ज्यादा उपलब्ध है । कुछ दुकाने तो स्पेशल इसी की हैं, हां ऐसी किताबों का मूल्य वास्तविक मूल्य से कम है ।   
  यहां से मैंने जो पहली किताबें खरीदी वो आध्यात्मिक किताबें ही थी, जिसमें एक स्वामी राम की हिमालय के संतों के संग निवास दूसरी किताब थी पॉल ब्रन्टन की गुप्त भारत की खोज और तीसरी किताब थी मई अडसठ, पेरिस जिसके लेखक थे लाल बहादुर वर्मा, इस किताब का विषय मेरे लिये अज्ञात था ।
            वहीं ओम और अंकित अलग ही घूम रहे थे और राजेन्द्र के पास एक बैग था, जिसमें कुछ था क्या ? शायद खाली बैग हमने किताबों के लिये साथ लिया था पर यहां से हमने दो बैग सिर्फ किताबें रखने के लिये ही ले लिये थे । क्योंकि एक दो एक करते हुये हमने यहां से भी काफी किताबें खरीद ली थी ।
यहां प्राण साहब की जीवनी या आत्मकथा भी नजर आयी पर मूल्य अत्यधिक होने के कारण न ली, पर अब सोचता हूँ यह निर्णय गलत था । वह एक संग्रहणीय रचना थी । 
प्रेमचंद की अमर कहानियां और और प्रेमचंद की प्रतिज्ञा उपन्यास मात्र सौ-सौ रुपये मिल गयी थी । नयी और ओरिजनल किताब । 
आचार्य प्रशांत की किताबों की एक स्टॉल यहां नजर आयी जिस दो विद्यार्थी संचालित कर रहे थे । आचार्य प्रशांत की पढने की इच्छा थी तो स्टॉल के संचालनकर्ताओं से काफी बातचीत भी हुयी ।  और यहाँ से दो किताबों समय और विद्यार्थी जीवन पढाई और मौज खरीद ही ली । किताबों का विषय अच्छा है, पर लेखन शैली थोड़ा परेशान करती है । क्योंकि यह किताबें आचार्य प्रशांत के विभिन्न विडियो का मुद्रण है । जैसा विडियो में बोला गया वैसा का वैसा हि किताब में लिख दिया गया है ।  इन किताबों को अच्छे से संपादित करने का अति आवश्यकता है ।
 हमने यहां से पर्याप्त मात्रा में किताबें खरीदी ली थी । 
            यहां से हम मैट्रो द्वारा प्रगति मैदान पहुंचे । मैट्रो स्टेशन उतरते ही हमने पुस्तक मेले की टिकटे ली और जैसे ही आगे बढे तो मित्र सुनील भादू हरियाणा का फोन आ गया की आप थोड़ा इंतजार करो मैं पहुंच रहा हूँ, पहुंचो भाई हम इंतजार कर लेते हैं । चाय पीते-पीते इंतजार किया और चाय खत्म होने से पहले सुनील कुमार हाजिर हो गये । 
प्रवेश द्वारा से पहले जम कर फोटोग्राफी हुयी और फिर रविवार की भीड़ को चीरते हुये, टिकट दिखाते हुये हमने अंदर प्रवेश किया । 
     सुनील का हिंदी लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में उपन्यास संग्रहण का प्रयास प्रशंसनीय है । आप जिस भी लेखक के उपन्यास की मांग कीजिये वह सुनील के खजाने में मिल जायेगी । कभी-कभी तो लगता है इतना अच्छा काम अगर प्रकाशक या लेखक स्वयं करते तो आज लोकप्रिय साहित्य सुरक्षित होता । खैर, समय -समय की बात है । आज भी  बहुत से प्रकाशक और लेखक परम्परा निभा रहे हैं । 
 दिल्ली के मित्र संदीप जुयाल से भी मिलना था । संदीप के फोन लगातार आ रहे थे, और हम थे कि कहीं न कहीं अटक ही रहे थे । पहले सण्डे मार्किट, फिर मैट्रो में, फिर सुनील का इंतजार और फिर प्रवेश द्वार पर लगी कतार में । संदीप अपनी जगह सही और हम अपनी जगह । 
खैर, आखिर हम पहुंच ही गये विश्व पुस्तक मेले में । जहां बहुसंख्यक स्टॉल, असंख्य किताबें और हमारे मित्र, लेखक, प्रकाशक हमारा इंतजार कर रहे थे । 
            सबसे पहले हम पहुंचे थे फ्लाईड्रिम्स पब्लिकेशन पर जहां हमें मिले मित गुप्ता जी । मिलनसार व्यक्तित्व के मालिक यहीं संदीप से मुलाकात हुयी और उन्हें देर होने का कारण बताया । यह संदीप से पहली मुलाकात थी पर हमें मिलकर ऐसा लगा जैसे हम बहुत बार मिल चुके हैं । एक मित्र का व्यक्तित्व ऐस ही होना चाहिये । कहीं बनावटीपन न हो, अपने जैसा ही हो । 
 विश्व पुस्तक मेले में जो हमारा विशिष्ट प्रयोजन था वह था साहित्य देश ब्लॉग द्वारा लोकप्रिय साहित्यकारों को सम्मानित करने का । यह साहित्य देश का प्रथम प्रयास था और इस प्रथम सम्मान के लिये हमने चुना था लोकप्रिय साहित्य के सितारे योगेश मित्तल जी को । योगेश मित्तल जी के विषय में जितना लिखा जाये वह कम है । दिल्ली के किसी भी प्रकाशन की जानकारी योगेश जी पास है । कौनसा लेखक कैसा लिखता है, किसने किस नाम से लिखा, कौन वास्तिवक लेखक है और कौन घोस्ट लेखन करता है । उनके पास जानकारियो का अथाह भण्डार है जिसे हम ही प्रयोग में नहीं ला पा रहे । इसी क्षेत्र में अगर दूसरा कोई नाम है तो वह थे आबिद रिजवी साहब । दिवंगत आबिद रिजवी साहब से आप मेरठ उपन्यास जगत की कोई भी जानकारी ले लीजिये सब हाजिर है । एक दिल्ली के प्रकाशकों का लेखक था तो दूसरा मेरठ के प्रकाशकों को । पर यह भी दुखद है दोनों लेखक स्वयं के नाम से कभी चर्चित न हो सके जितना घोस्ट लेखन से चर्चित हुये । दोनों की लेखनी में दम था पर स्वयं का लेखन प्रकाशकों के कारण पिच्छे रह गया पर फिर भी दोनों को कभी कोई शिकायत न थी । 
आबिद साहब हमारे मध्य नहीं रहे पर साहित्य देश योगेश मित्तल जी को सम्मानित कर स्वयं को धन्य मानता है । 
3:30 PM नीलम जासूस कार्यालय पर साहित्य देश की तरफ से एक छोटे से कार्यक्रम का आयोजन किया गया था । जिसमें नीलम जासूस कार्यालय के सुबोध जी के अतिरिक्त सामाजिक लेखक सत्यपाल जी, राम पुजारी, अतुल प्रभा जी, पराग डिमरी जी, विकास नैनवाल जी के अतिरिक्त काफी संख्या में पाठक, दर्शक उपस्थित थे । 
इस कार्यक्रम का आप पूरा विवरण निम्न दो लिंको के माध्यम से पढ सकते है । 
योगेश मित्तल जी उपवन्यास साहित्य पर सुनील और मेरी काफी चर्चा हुयी । और हमने उनके विचारों, अधूरी रचनाओं को मूर्त रूप देने के लिये विचार दिये । हम उम्मीद करते हैं योगेश मित्तल जी की और रचनाएं पाठकों के समक्ष आयेंगी । 
यहां से कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात आदरणीय सत्यपाल चावला जी की हार्दिक इच्छा पर हमने बाहर चाय पीने का विचार बनाया । योगेश मित्तल जी से अनुमति लेकर हम बाहर चाय पीने आये तो सत्यपाल जी बताया की उनकी किताबें अब किंडल पर प्रकाशित हो रही है । सत्यपाल जी के लगभग पच्चीस उपन्यास प्रकाशित हुये थे और सत्यपाल जी उन भाग्यशाली लेखकों से एक हैं जिन्हें घोस्ट लेखन का सामना नहीं करना पड़ा । चाय पीते हुये सत्यपाल जी ने चर्चा की कि उनके कुछ उपन्यास उनके पास उपलब्ध नहीं हैं । सुनील भादू जी ने तुरंत उत्तर दिया कि यह उपन्यास उनके पास हैं और जो नहीं है वह शीघ्र ही उनको खोज लेंगे । 
धन्यवाद सुनील जी । चाय के बाद सत्यपाल जी घर को रवाना हुये ।  दिसंबर 2022 को जब मेरठ यात्रा की थी तो तब दिल्ली में सत्यपाल जी से मिलना था पर मिल नहीं पाये । ऐसा ही संयोग विकास नैनवाल जी से हुआ था । एक बार जयपुर में विकास जी से मुलाकात होते-होते रह गयी और वह रही हुयी मुलाकात यहां विश्व पुस्तक मेले में पूर्ण हुयी । 
विकास जी साहित्य विमर्श स्टॉल के संचालक थे । एक अच्छे व्यक्ति होने के साथ -साथ साहित्य पर अच्छी पकड़ रखते हैं, उनके ब्लॉग पर साहित्य समीक्षाएं और अन्य जानकारियां प्रकाशित होती रहती है । पराग डिमरी जी से भी यह पहली मुलाकात थी । 
 गत वर्ष विश्व पुस्तक मेले मैं और राम पुजारी दोनों ने साथ-साथ भी पुस्तक मेला घूमा था लेकिन इस बार मित्र  मण्डली होने के कारण समय कम मिल पाया था । और यह बदलाव होता रहे तो दायरा विस्तृत ही होता है । संदीप, सुनील आदि से आगे मुलाकात कब होगी क्या कहा जा सकता है । दोनों के साथ हमने काफी अगल -अलग स्टॉल की यात्रा की । 
शब्दगाथा पर परवेज जी से यह पहली मुलाकात थी । शब्दगाथ साहित्य क्षेत्र में एक प्रकाशक है । अच्छी पुस्तकों  के साथ अपने पाठकों का विस्तार कर रहा है । 
प्रथम दिवस सर्वाधिक किताबें ओम ने ही खरीदी थी । ओम का साहित्य खजाना समृद्ध हो रहा है । 
शाम होते होते संदीप और सुनील ने विदा ली । संदीप एक विशेष किताब लेकर आये थे वह थी समीर सागर का उपन्यास The डैड Man`s  प्लान । 
दूसरे दिन हम तैयार होकर पहले पहुचे लाल किला लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि सोमवार को लाल किला बंद रहता है । वहां बहुत से दिल्ली दर्शन करवाने वाले एजेंट घूम रहे थे, पांच सौ प्रति यात्री से लेकर सौ रुपये प्रति यात्री तक । हमारे कुछ साथियों का विचार था कि आज दिल्ली दर्शन ही कर लिया जाये पर मेरा विचार तो पुस्तक मेले का ही था । 
आये थे हरि भजन को.... 
तो हम हरि भजन को चल दिये । मैट्रो से हम पहुंचे प्रगति मैदान । उत्साह कल जितना ही आज था । लेकिन वहां पहुचं कर अंकित ने कहा इण्डिया गेट नजदीक है पहले इण्डिया गेट चलते हैं । बस इस विचार से हम वापस घूम लिये । सड़क पर चाय वाले के पास ठहरे चाय पी । और चाय पीकर पुनः प्रगति मैदान को ही चल दिये । इण्डिया गेट का विचार बाद के लिये रखा । 
आज हम एक नम्बर स्टॉल से स्टार्ट करेंगे - मेरा विचार था । 
लेकिन उस  से पहले हॉल नम्बर दो के बाहर लगे पोस्टर, बैनर और हॉर्डिंग जो पुस्तक मेले का प्रचार कर रहे थे कि साथ एक फोटो अभियान भी चला । 
यहां फोटो अभियान के दौरान मित्र ओम की एक अनजान व्यक्ति से नोकझोंक इस बात पर हो गयी की, उसने फोटोग्राफी पर व्यंग्य किया था । जबकि आयोजनकर्ताओं ने वहां पर बड़े-बड़े बैनर, होर्डिंग्स इसलिये ही लगवाये है की लोग फोटो ले सकें । 
फोटो के कार्य से निवृत होकर एक नम्बर स्टॉल से यात्रा आरम्भ की । लेकिन शीघ्र ही हम चारों अलग-अलग हो गये थे । जो आनंद साथियों के साथ आता है वह अकेले में नहीं आता लेकिन यहां पुस्तकों के मामले में सभी के विचार अलग -अलग थे । मुझे जहां मेला घूमना था तो वहीं ओम को साहित्यिक पुस्तकें ही लेनी थी । अंकित को अंग्रेजी में प्रेरणादायक किताबे चाहिये थी और राजेन्द्र कुमार को किसी भी किताब से कोई मतलब  नहीं था । पर चारों घूम रहे थे । शीघ्र ही ओम और अंकित अपनी इच्छित किताबों के लिए अलग हो गये और रह गये मैं और राजेन्द्र । राजेन्द्र भी थकाव और बोरियत सा होकर एक तरफ बैठ गया था । 
          और फिर हम चारों तीन भागों में बंट गये थे । घूमते रहे और किताबें देखते रहे थे । असंख्य किताबों की दुनियां में  से विशेष किताब के दर्शन होना मुश्किल कार्य था ।  लेकिन मुझे कुछ पत्रिकाओं की तलाश थी और मुझे शीघ्र हंस का स्टॉल मिल गया । जहाँ से फरवरी की हंस पत्रिका  ली । और फिर घूमते हुये वहीं पास में एक कॉमिक्स स्टॉल पर नजर गयी । यह देखकर अच्छा लगा कि कॉमिक्स की दुनिया में नये प्रकाशन आ रहे हैं । लेकिन कॉमिक्स के अति मूल्य भी कुछ सोचने को विवश करते हैं । इस स्टॉल पर चन्द्रकांता को पहली बार कॉमिक्स में देखा था । यह एक अच्छा प्रयास था । 
कुछ इधर उधर घूमते -घूमते रहे तब अंकित को फोन आ गया । 
और एक बार फिर हम चार में से तीन एक साथ हो लिये पर अभी तक मिस्टर राजेन्द्र कुमार दूर ही थे । कहां... कुछ पता नहीं । 
 एक बार फिर कारवां बना और एक एक स्टॉल से आगे बढते चले गये । बड़े प्रकाशन गृह के स्टॉल भी बड़े ही थे । वाणी, राजपाल, साहित्य अकादमी, प्रकाशन विभाग,  पेंगुइन जैसे प्रकाशनों के स्टॉल पर भीड़ भी खूब थी । यहां एक स्टॉल पर चंपक पत्रिका का नया रूप देखने को मिला । और वह नयारूप था  चंपक की कहानियों का पुस्तक रूप में प्रकाशन । बाल पाठकों के लिये यह अच्छा प्रयास है । 
नेशनल बुक ट्रस्ट के स्टॉल पर जब हम तीनों एक किताब पर बागड़ी श्रीगंगानगर में बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा की एक बोली बोली में चर्चा कर रहे थे । तो हम चौंक गये, क्योंकि वहां पास खड़े एक व्यक्ति नें बागड़ी में ही हमारी किसी बात का समर्थन किया था । और यह सुखद आश्चर्य था । अपने शहर, गाँव का व्यक्ति कहीं भी मिल जाये आदमी को एक सुखद अहसास होता ही है । बागड़ी बोली राजस्थानी भाषा की एक बोली है जो श्री गंगानगर और हनुमानगढ में बोली जाती है, जिसमें राजस्थानी, पंजाबी और हिंदी के शब्द होते हैं, कोमल और मृदुल बोली है  बागड़ी । 
उस सज्जन से परिचय हुआ तो वह रमेश कुमार वर्मा थे जो हनुमानगढ जिले के निवासी थे । कुछ समय उसने सामान्य वार्ता और परिचय हुआ, साथ में फोटो हुई और फिर हाथ मिले और हम विदा हो गये । 
पुस्तक मेला मात्र किताबों को ही मिला नहीं, यह दो दिलों का भी मेला है । 
अब कहीं राजेन्द्र का फोन आया और उसने पूछा की तुम कहां हो ? 
हम कहां हैं ? 
हम घूमते- घूमते हॉल नम्बर पांच में पहुंचे गये थे । सभी हॉल अंदर से एक ही हैं । बाहर से गेट अलग- अलग हैं । मैंने राजेन्द्र को अपनी स्थिति बताई और उसे वहां पहुंचने को कहा लेकिन राजेन्द्र के वहां पहुंचते-पहुंचते हम क ई और बुक्स स्टॉल घूम लिये थे । तभी हमें सामने खड़े राजेन्द्र महोदय नजर आये । एक तरफ हम हैं जो किताबें खोज रहे हैं और दूसरी तरफ मिस्टर राजेन्द्र सहारण है सिर्फ हमें ही खोज रहे हैं । 
 एक बार हम फिर सभी मिले और अब हॉल से बाहर निकलने का विचार बना लिया लेकिन यह मन है कि किताबों से भरता ही नहीं है । 
मुझे शब्दगाथा पर परवेज जी से मिलना था । तो मैं उनको शब्दगाथा स्टॉल का कहकर मिस्टर ओम के साथ एक बार फिर उन्हीं गलियों में जा घुसा । हमें घूमते घूमते समय काफी बीत गया था क्योंकि जैसे जैसे हम आगे बढे तो हमें कुछ और किताबें याद आ गयी थी, जैसे ओम को हिंदी पंक्तियां स्टॉल से एक प्रोफेसर की डायरी चाहिये थी तो मुझे युवाल नोआ हरारी की सेपियन्स -मानव जातिका संक्षिप्त इतिहास नामक रचना चाहिये थी । खैर, ओम को वांछित किताब तो मिल गयी पर मुझे न मिली । 
 अब हॉल से बाहर बैठे साथियों के लगातार फोन आ रहे थे और हम एक बार सभी बाहर निकल आये । यहां कुछ देर बैठे और हमारी नजर सामने हॉल नम्बर छह पर गयी जो बाल साहित्य से संबंधित था । अब पुस्तक मेले में है तो सभी साहित्य का अवलोकन आवश्यक है । मैं जितनी बार भी पुस्तक मेले में गया हूँ तो यह देखने में आया है कि कुछ हॉल मुख्य स्थान से थोड़ा से अलग हटकर होते हैं और अधिकांश लोग वहां पहुंच नहीं पाते । पिछली बार भी ऐसा ही कुछ हुआ था । 
तो हम सब थके हारे सभी हॉल नम्बर छह की ओर बढ चले, सभी...नहीं-नहीं मिस्टर राजेन्द्र इस में शामिल न थे । वह अपनी इच्छा से वहीं बैठ गये थे । तो हम पहुंच गये बाल साहित्य के क्षेत्र में यहां स्टेशनरी, बाल साहित्य के अतिरिक्त विज्ञान से संबंधित प्रयोगात्मक सामग्री भी पयार्प्त मात्रा में थी, जो काफी रोचक थी । यहां हिंदी पुस्तकों की संख्या में अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें ज्यादा थी । 
 यहां सरकार द्वारा दो विज्ञान के मॉडल भी थे, जिनमें से एक फोटो द्वारा स्केच तैयार करता था और दूसरा फोटो को एनिमेशन में बदलता था । लेकिन दोनों की कार्य निम्नस्तर का था । हाँ, प्रयोग अच्छा था, निशुल्क था । पर स्कैच चेहरे से न मिलता था, हाँ फोटो का एनिमेशन फोटो में बदलना कुछ हद तक ठीक था । 
 दिल्ली में हमारे गाँव से मित्र चुन्नी लाल बरोड़ रहते हैं जो DSSS में चित्रकला के अध्यापक हैं । उनको फोन ओम के पास आया कि पुस्तक मेले में आपसे मिलना है । आप हमारा इंतजार करना । वहां घूमते-घूमते ओम ने यह बात बताई तो हमने । तभी थका हारा राजेन्द्र भी हॉल में आ गया । वह ही क्यों हम सब थक गये थे । वहां से निकल कर हम सुप्रीम कोर्ट मैट्रो स्टेशन की तरफ बढे । जैसे ही हम बाहर निकले तो चुन्नी साहब को फोन आ गया कि आप कहां हो ?
हमने अपनी स्थिति बताई तो पता चला कि वह भी पुस्तक मेले में हॉल नम्बर छह में हैं । शायद हमारा वहां से निकलना और उनका पहुंचना हुआ होगा । 

मैं और ओम वहां से थके हारे वापस आये । तीनों मित्र मिले । और वापस मैट्रो स्टेशन की ओर बढ गये । और देखो, जो किताब मुझे पुस्तक मेले में नहीं मिली वह यहां बाहर बैठे एक विक्रेता से मिल गयी, और वह भी आधे मूल्य में । 

 हम एक चाय वाले के पास पहुचें यहां कुछ देर वार्तालाप हुआ और चाय का आनंद लिया । यहां से विदा होकर हम पैदल ही इंडिया गेट की तरफ चल दिये । अंकित की हार्दिक इच्छा थी इंडिया गेट घूमने की, कुछ खरीददारी की । सुबह हम लालकिला नहीं जा पाये तो कम से कम इंडिया गेट ही सही । 4:00 PM लगभग का समय हमने यहां बिताया, फोटोग्राफी की और हम पुनः मैट्रो स्टेशन आ गये । मुझे याद है पहली बार मैं एक एग्जाम देने के लिये जब दिल्ली आया था तब पहली बार इंडिया गेट गया था, यह सन् 2010 गर्मियों की बात है अब पन्द्रह साल बाद इंडिया गेट आना हुआ । 

 बाजार से खरीददारी करते हुये हम अपने धर्मशाला पहुचें । अब शाम कुछ देर आराम किया और फिर हमें अपने रेल्वे स्टेशन सराय रोहिल्ला भी तो पहुंचना था । हालांकि ट्रेन का समय 10:45 PM था लेकिन इस बार हमारे पास कोई आरक्षित सीट न थी, हमें सामान्य क्षेणी की ही यात्रा करनी थी और उसके लिये यह आवश्यक था  जैसे ही ट्रेन खुले और हम अपनी सीटों पर कब्जा जमा लें । हालांकि भीड़ कम होती है लेकिन रात के सफर में नींद भा आवश्यक है और इसके लिये आवश्यक ऊपर की सीट । जैसे ही ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची तो हम और भीड़ एक साथ डिब्बे में घुस गये । और यह भी सुखद संयोग रहा कि हमें चारों को एक ही डिब्बे में चार ऊपर की सीटें मिल गयी ।
अब ट्रेन अपने गंतव्य की ओर अग्रसर थी और आराम से नींद ले सकते थे ।
धन्यवाद।
- गुरप्रीत सिंह 
 

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