राजभारती के साथ- युगांक धीर
2000 से 2015 तक मैं दिल्ली में पटेल नगर में रहा ! ... बीच में एक-दो महीनों के लिए अपने परिवार के पास मुंबई चला आता था ... मई-जून और दिसंबर-जनवरी में ... और फिर वापस दिल्ली लौट जाता था ... जहां राजकमल और वाणी प्रकाशन के लिए मैं अनुवाद और संपादन का काम कर रहा था !
इसी बीच ... "अमिताभ की संघर्ष कथा" और "सार्त्र का सच" नाम से मेरी दो मौलिक पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं !
साथ ही मैंने आजादी की लड़ाई के आधार स्तंभ रहे घनश्याम दास बिड़ला के सुपुत्र और हिंदुस्तान टाइम्स के भूतपूर्व चेयरमैन कृष्ण कुमार बिड़ला की आत्मकथा "इतिहास का स्पर्श बोध" और कुलदीप नैयर की आत्मकथा "एक जिंदगी काफी नहीं" और उन्हीं के द्वारा लिखी गई भगत सिंह पर अब तक की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक "सरफरोशी की तमन्ना" समेत कई दर्जन महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया !
पटेल नगर में रहने के कारण पुराने साथी, वरिष्ठ मित्र और पल्प गुरु राज भारती जी के साथ हफ्ते में तीन-चार बार ... या लगभग रोज ही मुलाकात होने लगी ! मैं पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित उनके घर जाता ... हम इकट्ठे चाय पीते ... और फिर नीचे उतरकर थोड़ा घूमते-फिरते !
दस-ग्यारह वर्ष तक ... या यूं कहें कि राज भारती जी के निधन तक ... यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा ! इन 10-11 वर्षों के दौरान मैं ही उनका इकलौता नियमित मित्र था !
उन दिनों कभी -कभी प्रेमनाथ धम्मी यानी पम्मी से भी मुलाकात हो जाती ... जो उन दिनों राज भारती की हॉरर सीरीज के लिए घोस्ट राइटिंग कर रहे थे !
यह सच है कि पम्मी पूरी तरह से अपने बलबूते पर उपन्यास नहीं लिखते थे ! राज भारती जी उन्हें प्लॉट देते थे ...और अक्सर उर्दू से अनुवाद की जा सकने वाली सामग्री भी ! उपन्यास पूरा होने के बाद भी राज भारती जी शुरू के कुछ पन्ने खुद लिखते थे ... और कई जगह संशोधन करते थे !
राज भारती जी को तब एक उपन्यास के 18,000 मिलते थे ! वे कहते थे ... इसमें से एक तिहाई यानी 6,000 मेरे नाम की गुडविल का है ... बाकि 12 में से आधे मेरे और आधे पम्मी के !
मैं कहता था ... यह ठीक नही है ... आपको 9,000 खुद रखने चाहिए और 9,000 पम्मी को देने चाहिए !
पर वे कहते थे जो दे रहा हूं वही ठीक है ! वैसे वे कई बार पम्मी को अपनी राशन की दुकान से कुछ राशन भी ले देते थे ... जिसे पम्मी बस में दूर-दराज अपने घर ले जाता था ... शायद पश्चिम पुरी से बहुत आगे कहीं रहता था ... मै जगह का नाम भूल रहा हूं ... सुल्तानपुरी या ऐसा ही कुछ !
मेरा घर बस स्टाप के पास ही था ... इसलिए कई बार पम्मी को बस में बिठाने के बाद ही मैं घर जाता था !
घोस्ट राइटिंग के पारिश्रमिक के लिए कोई निश्चित पैमाना नहीं था ... इतना दे देते थे कि लिखने वाले का गुजारा चलता रहे और वह आगे लिखता रहे ! फिर भी ... उपन्यास से होने वाली कुल कमाई का 20-30 प्रतिशत तो होता ही था !
ज्यादातर प्रकाशक भी आर्थिक तंगी में रहते थे ... जबकि बड़े प्रकाशक घोस्ट राइटर को उस जमाने में 10-12 हजार तो दे ही देते थे जब पम्मी 6,000 में राज भारती के लिए लिख रहे थे ... और खुद राज भारती 18,000 ले रहे थे ! यह उनका ढलान का दौर था ... इससे पहले वे ज्यादा भी लेते रहे थे ! उस समय उनके उपन्यासों की 13,000 प्रतियां छप रही थीं ... जबकि इससे पहले 25-30 हजार तक भी छप चुकी थीं !
आमतौर से 1,000 प्रतियों पर लेखक को 1,000 से 2,000 तक देने का चलन था ... एक लाख प्रतियां तो एक से दो लाख तक पारिश्रमिक ! ( यह उस समय की बात है जब उपन्यास की कीमत 20 से 40 रुपए तक होती थी ! )
पर घोस्ट राइटर 10-20 या 30 हजार से ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकता था !
लुगदी उपन्यास बहुत सस्ते होने और विक्रेता को 40-50 प्रतिशत कमीशन देने के कारण प्रॉफिट मार्जिन साहित्यिक प्रकाशनों की तुलना में बहुत कम होता था ! एक जमाने में हिंद पॉकेट बुक्स वाले भी नामी साहित्यकारों को 5 प्रतिशत रॉयल्टी देते रहे थे !
2007-8 के आसपास एक महीना ऐसा आया जब मेरे पास अनुवाद या संपादन का कोई काम नहीं था ! राज भारती जी ने सुझाव दिया कि मेरे लिए एक उपन्यास लिख डालो ... मैं तुम्हें 8,000 दे दूंगा !
मैंने शुरू भी कर दिया ... और राजभारती जी ने मुझे दो हजार रुपए भी दिए !
सिर्फ तीन-चार अध्याय ही लिखे थे कि मुझे अनुवाद का नया काम मिल गया !
अंतरंग मित्रता और उदार स्वभाव के कारण राज भारती जी ने उपन्यास को पूरा करने के लिए जोर भी नहीं डाला ! पर वे मेरे द्वारा लिखे अंशों को खूब रस लेकर पढ़ते थे ... और फिर कहते थे ... "यह तो साहित्यिक उपन्यास बनता जा रहा है ... बहुत मजेदार है ... पर हॉरर कहां है ? यह तो मिस्टर एक्स टाइप का उपन्यास बन रहा है ... फिर भी लिखते रहो ... काफी दिलचस्प है !"
राज भारती जी ने शुरु का अंश अपने प्रकाशक को भेजकर कंपोज भी करवा लिया था ... ताकि एक आइडिया लग जाए कि मुझे कितने पृष्ठ लिखने हैं !
इस उपन्यास का प्लॉट पूरी तरह से मेरा खुद का था और मौलिक था !
मेरी अब भी इच्छा है कि यह हॉरर सस्पेंस उपन्यास लिखूं ... और अपने नाम से छपवाऊं !
देखो .... यह इच्छा कब पूरी होती है !
इसी बीच ... "अमिताभ की संघर्ष कथा" और "सार्त्र का सच" नाम से मेरी दो मौलिक पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं !
साथ ही मैंने आजादी की लड़ाई के आधार स्तंभ रहे घनश्याम दास बिड़ला के सुपुत्र और हिंदुस्तान टाइम्स के भूतपूर्व चेयरमैन कृष्ण कुमार बिड़ला की आत्मकथा "इतिहास का स्पर्श बोध" और कुलदीप नैयर की आत्मकथा "एक जिंदगी काफी नहीं" और उन्हीं के द्वारा लिखी गई भगत सिंह पर अब तक की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक "सरफरोशी की तमन्ना" समेत कई दर्जन महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया !
पटेल नगर में रहने के कारण पुराने साथी, वरिष्ठ मित्र और पल्प गुरु राज भारती जी के साथ हफ्ते में तीन-चार बार ... या लगभग रोज ही मुलाकात होने लगी ! मैं पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित उनके घर जाता ... हम इकट्ठे चाय पीते ... और फिर नीचे उतरकर थोड़ा घूमते-फिरते !
दस-ग्यारह वर्ष तक ... या यूं कहें कि राज भारती जी के निधन तक ... यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा ! इन 10-11 वर्षों के दौरान मैं ही उनका इकलौता नियमित मित्र था !
उन दिनों कभी -कभी प्रेमनाथ धम्मी यानी पम्मी से भी मुलाकात हो जाती ... जो उन दिनों राज भारती की हॉरर सीरीज के लिए घोस्ट राइटिंग कर रहे थे !
यह सच है कि पम्मी पूरी तरह से अपने बलबूते पर उपन्यास नहीं लिखते थे ! राज भारती जी उन्हें प्लॉट देते थे ...और अक्सर उर्दू से अनुवाद की जा सकने वाली सामग्री भी ! उपन्यास पूरा होने के बाद भी राज भारती जी शुरू के कुछ पन्ने खुद लिखते थे ... और कई जगह संशोधन करते थे !
राज भारती जी को तब एक उपन्यास के 18,000 मिलते थे ! वे कहते थे ... इसमें से एक तिहाई यानी 6,000 मेरे नाम की गुडविल का है ... बाकि 12 में से आधे मेरे और आधे पम्मी के !
मैं कहता था ... यह ठीक नही है ... आपको 9,000 खुद रखने चाहिए और 9,000 पम्मी को देने चाहिए !
पर वे कहते थे जो दे रहा हूं वही ठीक है ! वैसे वे कई बार पम्मी को अपनी राशन की दुकान से कुछ राशन भी ले देते थे ... जिसे पम्मी बस में दूर-दराज अपने घर ले जाता था ... शायद पश्चिम पुरी से बहुत आगे कहीं रहता था ... मै जगह का नाम भूल रहा हूं ... सुल्तानपुरी या ऐसा ही कुछ !
मेरा घर बस स्टाप के पास ही था ... इसलिए कई बार पम्मी को बस में बिठाने के बाद ही मैं घर जाता था !
घोस्ट राइटिंग के पारिश्रमिक के लिए कोई निश्चित पैमाना नहीं था ... इतना दे देते थे कि लिखने वाले का गुजारा चलता रहे और वह आगे लिखता रहे ! फिर भी ... उपन्यास से होने वाली कुल कमाई का 20-30 प्रतिशत तो होता ही था !
ज्यादातर प्रकाशक भी आर्थिक तंगी में रहते थे ... जबकि बड़े प्रकाशक घोस्ट राइटर को उस जमाने में 10-12 हजार तो दे ही देते थे जब पम्मी 6,000 में राज भारती के लिए लिख रहे थे ... और खुद राज भारती 18,000 ले रहे थे ! यह उनका ढलान का दौर था ... इससे पहले वे ज्यादा भी लेते रहे थे ! उस समय उनके उपन्यासों की 13,000 प्रतियां छप रही थीं ... जबकि इससे पहले 25-30 हजार तक भी छप चुकी थीं !
आमतौर से 1,000 प्रतियों पर लेखक को 1,000 से 2,000 तक देने का चलन था ... एक लाख प्रतियां तो एक से दो लाख तक पारिश्रमिक ! ( यह उस समय की बात है जब उपन्यास की कीमत 20 से 40 रुपए तक होती थी ! )
पर घोस्ट राइटर 10-20 या 30 हजार से ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकता था !
लुगदी उपन्यास बहुत सस्ते होने और विक्रेता को 40-50 प्रतिशत कमीशन देने के कारण प्रॉफिट मार्जिन साहित्यिक प्रकाशनों की तुलना में बहुत कम होता था ! एक जमाने में हिंद पॉकेट बुक्स वाले भी नामी साहित्यकारों को 5 प्रतिशत रॉयल्टी देते रहे थे !
2007-8 के आसपास एक महीना ऐसा आया जब मेरे पास अनुवाद या संपादन का कोई काम नहीं था ! राज भारती जी ने सुझाव दिया कि मेरे लिए एक उपन्यास लिख डालो ... मैं तुम्हें 8,000 दे दूंगा !
मैंने शुरू भी कर दिया ... और राजभारती जी ने मुझे दो हजार रुपए भी दिए !
सिर्फ तीन-चार अध्याय ही लिखे थे कि मुझे अनुवाद का नया काम मिल गया !
अंतरंग मित्रता और उदार स्वभाव के कारण राज भारती जी ने उपन्यास को पूरा करने के लिए जोर भी नहीं डाला ! पर वे मेरे द्वारा लिखे अंशों को खूब रस लेकर पढ़ते थे ... और फिर कहते थे ... "यह तो साहित्यिक उपन्यास बनता जा रहा है ... बहुत मजेदार है ... पर हॉरर कहां है ? यह तो मिस्टर एक्स टाइप का उपन्यास बन रहा है ... फिर भी लिखते रहो ... काफी दिलचस्प है !"
राज भारती जी ने शुरु का अंश अपने प्रकाशक को भेजकर कंपोज भी करवा लिया था ... ताकि एक आइडिया लग जाए कि मुझे कितने पृष्ठ लिखने हैं !
इस उपन्यास का प्लॉट पूरी तरह से मेरा खुद का था और मौलिक था !
मेरी अब भी इच्छा है कि यह हॉरर सस्पेंस उपन्यास लिखूं ... और अपने नाम से छपवाऊं !
देखो .... यह इच्छा कब पूरी होती है !
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