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मंगलवार, 22 जुलाई 2025

The डेड man's प्लान- समीर सागर, उपन्यास अंश

 साहित्य देश के स्तम्भ 'उपन्यास अंश' में इस बार प्रस्तुत है एक बिलकुल अलग कथानक पर आधारित लेखक समीर सागर के प्रथम उपन्यास 'The डेड man's प्लान' के उपन्यास का अंश।

 

 शहर : पुणे (महाराष्ट्र)
दिनांक 19-दिसंबर-2017
समय : शाम 05:15

वो किसी पुरानी सी वीरान इमारत का एक कमरा था, जिस इमारत को शायद किसी वजह से सालों पहले अधूरा छोड़ दिया गया था। जिसको देख कर ही गुमान होता था कि एक लंबे वक़्त से किसी को इस इमारत की याद तक नहीं आई थी। दीवारों पर प्लास्टर नहीं था और ईटो का लाल रंग उस कमरे को एक भयानक सा रूप दे रहा था। खिड़कियों के लिए छोड़ी गयी जगह से, कमरे में हवा की आवाज़ सीटी की तरह गूँज रही थी और उस कमरे के बीचों-बीच इस समय लोहे की एक टंकी रखी हुई थी, जिसके अंदर से उठती हुई आग की तेज़ लपटें उस पूरे कमरे को गर्म कर रही थीं। और साथ ही तप रहा था वह चेहरा, जो उस आग के पास खड़ा हुआ था। लपटों की रौशनी में उसका गोरा चेहरा भी आग की ही तरह लाल नज़र आ रहा था। उसके बिखरे हुए बाल, चेहरे पर बड़ी हुई दाढ़ी, अंगारों की तरह दहकती हुई उसकी आँखें और उसके भींचे हुए जबड़े चीख-चीख कर कह रहे थे कि वह आग सिर्फ आग नहीं बल्कि किसी ज्वालामुखी के फटने की शुरुआत है।


वह आदमी एक-एक कर उस आग में स्याही से गुदे हुए कागज़ के टुकड़े डालता जा रहा था, जो उस आग को बुझने नहीं दे रही थी। उन कागज़ों में कई बड़े कागज़ के पन्ने थे, तो ढेर सारी छोटी-छोटी पर्चियाँ भी थीं और बहुत सारी तस्वीरें भी। कुछ पर हाथों की लिखाई नज़र आ रही थी तो कुछ पर कंप्यूटर टाइपिंग। लेकिन वह आग बिना किसी भेदभाव के हर कागज़ को एक जैसे ही अंजाम तक पहुँचा रही थी, जली हुई खाक।

      फिर उस आदमी ने अपने बैग से कुछ कंप्यूटर हार्ड डिस्क निकालीं और उस आग के हवाले कर दी। लेकिन शायद उसका काम अभी ख़त्म नहीं हुआ था क्योंकि उसने अपने बैग से बहुत से बिजली के उपकरण, बहुत सारे सिम कार्ड और कुछ भरी हुई तो कुछ खाली बोतलें निकालीं और उनको एक-एक कर उस अग्नि में स्वाहा करता चला गया।

जैसे-जैसे वह आग तेज़ होती जा रही थीं और उसमें पड़ी हुई आहुतियाँ पूरी तरह से भस्म होती जा रही थीं। उस आग की हर एक उठती हुई लपट के साथ उस अधेड़ के चेहरे की मुस्कान और भी गहरी होती चली जा रही थी।

          फिर अचानक वह आदमी उठ कर कमरे की खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया और डूबते हुए सूरज की गुलाबी खूबसूरती को निहारने लगा। आसमान में सूरज ढलता जा रहा था और साधारण सी सफ़ेद शर्ट पहने हुए उस अधेड़ के होंठों पर मुस्कान बिखरती जा रही थी। अब उसके चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव थे। उसका चेहरा किसी मासूम बच्चे की तरह बिल्कुल शांत और निर्विकार नज़र आ रहा था। वह जी भर के इस नज़ारे को देख लेना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि आसमान में डूबता हुआ यह सूरज उसके जीवन का आखरी सूरज है। उसको पता था कि यह सूरज तो कल भी उगेगा, लेकिन इस सूरज को देखने के लिए कल वो खुद नहीं होगा। वह जानता था कि इस सूरज के ही साथ उसके जीवन का सूरज भी आज डूबने वाला है। वह जानता था कि कल वह नहीं होगा लेकिन...

वो यह भी जानता था कि कल उगने वाले सूरज के साथ एक ऐसा खूनी खेल शुरू होने वाला है, जिसको यह शहर कभी भूल नहीं पायेगा। उसकी मौत के साथ ही शुरू होने वाला एक ऐसा खेल जो खुद उसने रचा है और जो इस शहर के हर आदमी को उस खेल का एक मोहरा बना देगा।

CHAPTER 1
अनाद्यानंत
(Neither a Beginning Nor an End)
दिनांक 19-दिसंबर-2017
समय : रात 08:45

स्ट्रेचर पर करीब 60 साल का आदमी लेटा हुआ था जिसकी आँखें बंद र्थी और शरीर इस तरह बेजान नज़र आ रहा था कि यह समझना मुश्किल था कि वह अभी जिंदा है या मर चुका है। भागते हुए स्ट्रेचर के साथ डॉक्टर भी तेज़ी से चलते जा रहे थे और एक नर्स भी भागते हुए किसी से कह रही थी "जल्दी से डॉक्टर पालकर को फ़ोन लगाओ, जल्दी करो।"

        उसी स्ट्रेचर के साथ सामान्य सी सूरत वाली एक दुबली-पतली लड़की भी भागती चली जा रही थी जिसके शरीर पर एक साधारण सा ही सलवार-कमीज था और जो उस आदमी को देख कर लगातार रोती जा रही थी और चिल्ला-चिल्ला कर बार-बार बस यही कहे जा रही थी "मेरे पापा को बचा लीजिये प्लीज़... अभी ये ज़िंदा हैं... किसी भी तरह इनको बचा लीजिये... प्लीज़.. प्लीज़"

          उस स्ट्रेचर को खींचते हुए वह लोग जल्द ही एक कमरे के अंदर चले गए और बाहर खड़ी हुई कुछ नर्सों ने उस लड़की को अंदर जाने से रोक दिया। वह लाचार-सी होकर बस रोये ही जा रही थी। कि तभी एक अधेड़ डॉक्टर करीब भागता हुआ सा वहाँ आया और उसके पीछे बहुत सारे डॉक्टर उस को कुछ बताते जा रहे थे। उनमें से एक डॉक्टर कह रहा था "सर इसने किसी तरह का कोई ज़हर पी लिया है और इसकी नब्ज भी डूब रही है। ब्लड-प्रेशर लगातार गिर रहा है और यह ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहा। इसको बेहोशी की हालत में ही यहाँ लाया गया है।"

बिना उस लड़की की तरफ़ देखे वह डॉक्टर लगभग भागते हुए सीधे उस कमरे के अंदर चले गए जहाँ उस बेहोश आदमी को ले जाया गया था।


XXX

दिनांक 21-दिसंबर-2017
समय : रात 11:55

      उस 5 मंजिला विशाल और आलीशान कोठी के चौकीदार ने अपने थर्मस को खोल कर टेबल पर रखे हुए काँच के ग्लास में अभी चाय उड़ेलना शुरू ही किया था कि तभी कानों को फाड़ कर रख देने वाली एक भयानक चीख ने उस माहौल के जरें-जरें को थर्रा डाला।

          सैकेंड के चौथे हिस्से में ही उस चौकीदार की नज़र ऊपर से आ रही उस आवाज़ की दिशा में घूम गयी लेकिन जब तक उसका दिमाग़ उस दृश्य को समझने की शुरुआत कर पाता, धप्प की ज़ोरदार आवाज़ के साथ एक जवान लड़की का जिस्म कोठी की छत से सीधा आँगन के फ़र्श पर आ गिरा और कुछ सैकेंड छटपटा कर, बस शांत हो चुका था। जिस शरीर से यह चीख निकली थी, अब उस शरीर के लगभग हर द्वार से सिर्फ़ लाल सुर्ख खून निकल कर हर तरफ़ बहना शुरू कर चुका था, और ज़मीन पर लगातार बढ़ता हुआ वह खून अपनी कलम से यह इबादत भी लिखता जा रहा था कि, अब यह सिर्फ एक शरीर है, एक बेजान जिस्म।

लेकिन चीख फिर भी नहीं थमी, बस उसने अपना मुँह बदल लिया था। इस बार वो दुगुनी तीव्रता के साथ उस चौकीदार के कंठ से उबल पड़ी जिसकी नज़रों से कुछ दूर उसके मालिक की इकलौती बेटी की लाश पड़ी हुई थी "आलिया बेटी। साहब, साहब, मेमसाहब। देखिए ये क्या हो गया।"

XXX

दिनांक 23-दिसम्बर-2017
समय : रात 11:30

उस अँधेरी गली में लहरा कर चलते हुए उस दुबले-पतले से आदमी की चाल इस बात की साफ़ चुगली कर रही थी कि इस समय वो इतना ज़्यादा नशे में है कि उसको अपना हर अगला कदम रखने के लिए भी शायद हर बार खुद को थोड़ा होश में लाना पड़ रहा होगा।

दीवार के सहारे खुद को आगे बड़ाते हुए उस आदमी को सामने से अपनी तरफ़ आता हुआ उस इंसान का साया भी शायद अंधेरे का ही हिस्सा सा लगा होगा, जो बहुत जल्दी ही उसके बिल्कुल करीब आ कर रुक गया। नशे की झोंक में वो मरियल सा आदमी अकड़ता हुआ सा बोला "क्या चाहिए बे, हट सामने से वरना.. "

          लेकिन इस से आगे के शब्द उसके गले में ही फैस कर रह गए, क्योंकि तब तक उस साये के हाथ में थमा हुआ चाकू उसके जिस्म में एक गहरा सुराग बना चुका था। इस से पहले कि वो कुछ और समझ पाता, चाकू उसके जिस्म से बाहर आ कर दोबारा उसके जिस्म में एक नया घाव बनाता चला गया। चीख अब भी उसके गले में ही अटकी हुई थी, लेकिन अपने जिस्म में बनते जा रहे हर नए घाव के दर्द ने उसकी चीख को बाहर आने की इजाजत दी ही नहीं।

अचानक वो साया पलटा और इस तरह गली के उस अंधेरे में गुम होता चला गया जैसे वो कभी यहाँ था ही नहीं, और पीछे छोड़ गया जमीन पर तड़पता हुआ खून से लथपथ एक जिस्म जिसको बचाने वाला अब वहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं था। जिसका शरीर अब उसको सिर्फ एक ही काम करने की इजाज़त दे रहा था, क्योंकि वहाँ पड़े हुए अब वो सिर्फ़ वही कर सकता था... मौत का इंतज़ार।


XXX

दिनांक 25-दिसंबर-2017
समय : रात 08:40

रात के करीब 9 बजे होंगे। "दीन दयाल हॉस्पिटल" के मुख्य द्वार पर तेज़ी से आती हुई एक पुलिस जीप के पहिये रुके और ड्राईवर सीट से एक पुलिस ऑफ़िसर नीचे उतरा जिसका कद मुश्किल से 5 फीट 10 इंच होगा। लगभग 45 साल की उम्र के उस साँवले रंग और बदसूरत चेहरे वाले ऑफ़िसर के हाथों में एक जलती हुई सिगरेट थी, जो जीप से उतारते ही उसने ज़मीन पर डाल कर अपने जूतों से कुचल दी और बिना कोई इंतज़ार किये वह सीधा हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर पहुँचा। वहाँ बैठी हुई रिसेप्शनिस्ट ने मुस्कुरा कर उसकी और देखा। लेकिन वह बिना मुस्कुराये ही बोला "अजय शास्त्री किस वार्ड में एडमिट हैं?"

वह इंस्पेक्टर सीधा डॉक्टर पालकर के रूम में जा कर रुका और उसके सामने खड़ा हो कर बहुत ही सभ्यता से बोला "मेरा नाम इंस्पेक्टर अमरीश चोपड़ा है डॉक्टर साहब, मुझे आपके एक मरीज़ के बारे में आपसे कुछ पूछताछ करनी है।"

डॉक्टर पालकर गंभीर स्वर में बोले "बैठिये, किस मरीज़ की बात कर रहे हैं आप, कहिए क्या पूछना चाहते हैं।"

"19. दिसंबर को आपके यहाँ एक आदमी भर्ती हुआ था, जिसका नाम अजय शास्त्री है" वह अपनी पुलिस टोपी उतार कर डॉक्टर की टेबल पर रखता हुआ बोला "मुझे जानना है कि उसको क्या हुआ था और अब उसकी हालत कैसी है?"

         डॉक्टर पालकर ने अपनी पीठ कुर्सी की पुश्त से टिकाते हुए कहा "उसने आत्महत्या का प्रयास किया था, वैसे हमने इसकी खबर पुलिस को दे दी थी लेकिन फिर भी आप पूछते है तो बता देता हूँ कि जिस समय उसको लाया गया था उसकी हालत बहुत खराब थी। साँसें लगभग टूट ही रही थीं। हमने बहुत मुश्किल से उसकी जान तो बचा ली, लेकिन अब भी वह बेहोश ही है। उसको तब से एक मिनट के लिए भी होश नहीं आया है। एक डॉक्टर होने के नाते हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि उसकी जान बच जाए।"

        इंस्पेक्टर ने डॉक्टर की आँखों में अपनी आँखें गड़ाते हुए पूछा "क्या आपको पूरा यकीन है कि इस बीच वह वाकई होश में नहीं आया? क्योंकि हमको लगता है कि वह इस अस्पताल से बाहर निकला है।"

डॉक्टर पालकर ने निःसंकोच कहा "मुझे नहीं लगता कि वह इस हालत में है कि अपने बिस्तर से उठ भी सके।"

इंस्पेक्टर चोपड़ा मुस्कुराते हुए डॉक्टर की तरफ़ शक भरी नज़रों से देखता हुआ बोला "हो सकता है यहाँ से छिप कर निकलने में और चुपचाप वापस आने में किसी ने उसकी मदद की हो, जैसे कि उसके किसी पुराने दोस्त ने?"

डॉक्टर थोड़ा असहज से नज़र आने लगे लेकिन साथ ही उनकी आँखों में थोड़ा गुस्सा भी दिखने लगा था। वह झुंझलाते हुए बोले "मैं आपको जो बता सकता था, मैं बता चुका हूँ इंस्पेक्टर साहब। अब आपको जाना चाहिए। मुझे मरीज़ देखने जाना है।"

यह सुनते ही इंस्पेक्टर चोपड़ा अपनी टोपी अपने माथे पर पहनते हुए खड़े हो गया और दरवाजे की तरफ़ जाने लगा। जिसको देख कर डॉक्टर पालकर ने ठंडी साँस छोड़ी। लेकिन तभी वह इंस्पेक्टर एक झटके से मुड़ा और डॉक्टर पालकर की तरफ़ अर्थपूर्ण नज़रों से देखता हुआ बोला "वैसे एक बात आप मुझे बताना भूल गए डॉक्टर साहब, वो ये कि अजय शास्त्री आपका पुराना दोस्त है। मेरी जानकारी सही है ना?"

डॉक्टर ने इंस्पेक्टर चोपड़ा की आँखों से बिना आँख हटाये कहा "जी हाँ, अजय शास्त्री मेरा पुराना दोस्त है, लेकिन मैं आपको बहुत साफ़ तौर पर बता देना चाहता हूँ कि जिस दिन से वह यहाँ आया है, उस दिन से एक मिनट के लिए भी उसने अपनी आँखें नहीं खोली हैं और आपको शायद यह बात सुन कर थोड़ी तसल्ली होगी कि उसकी इस हालत में अगर उसका कोई दोस्त चाहे भी तो उसको कहीं ले जा नहीं सकता। अगर उसका वो दोस्त कोई डॉक्टर हो, तब भी नहीं।"

"वैसे उसने ऐसा कर क्या दिया जो आप उसके लिए इतनी तहकीकात कर रहे हैं?" डॉक्टर पालकर ने सवालिया नज़रों से देखते हुए अपनी दोनों कोहनियाँ अपनी टेबल पर टिका कर पूछा।

इस बार इंस्पेक्टर चोपड़ा के चेहरे पर व्यंग्य के साथ सख्ती भी साफ़ नज़र आ रही थी "आपके उस बेचारे दोस्त पर 2 लोगों के क़त्ल का इल्ज़ाम है श्रीमान।" इस वाक्य में इंस्पेक्टर चोपड़ा ने बेचारे शब्द पर विशेष जोर दिया था।

अब चौंकने की बारी डॉक्टर पालकर की थी। डॉक्टर पालकर के चेहरे पर वाकई आश्चर्य के हज़ारों भाव आ कर नाचने लगे थे "क्या?"

इंस्पेक्टर चोपड़ा वापस आ कर डॉक्टर की टेबल के सामने खड़ा हो गया और अपने दोनों हाथ उस टेबल पर सख्ती से जमा कर डॉक्टर की आँखों में देखता हुआ धमकी भरे स्वर में बोला "और आपके लिए परेशान होने वाली ख़बर ये हैं डॉक्टर साहब कि वह दोनों क़त्ल उसने 21 और 23 दिसंबर को किये हैं। यानी कि यहाँ, आपके अस्पताल में भर्ती होने के बाद।"

डॉक्टर पालकर ने आश्चर्य के समंदर में गोते लगाते हुए कहा "यह असंभव है।"

इस बार इंस्पेक्टर चोपड़ा व्यंग्य से भरी मुस्कान के साथ बोला "जानता हूँ कि यह असंभव है, लेकिन एक दोस्त जो डॉक्टर हो और दूसरा जो सिर्फ़ बेहोश होने का नाटक कर रहा हो, तो इस असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। मैंने सही कहा ना डॉक्टर साहब?"

इंस्पेक्टर चोपड़ा के इन वाक्यों को सुन कर डॉक्टर पालकर के चेहरे पर गुस्से की लकीरें खींचती चली गई "आप मुझ पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं?"

"जी नहीं, मैं आपको चेतावनी दे रहा हूँ श्रीमान, आपकी और आपके अस्पताल की भलाई इसी में है कि आप किसी भी तरह अजय शास्त्री को होश में लाइए" कहते हुए चोपड़ा ने डॉक्टर पालकर को जलती-सी नज़रों से घूर कर देखा "अगर वह वाकई बेहोश है तो?.... मुझे उस का बयान लेना है, क्योंकि मेरे सवालों के जवाब सिर्फ़ उसके पास हैं।" कह कर इंस्पेक्टर बिना कोई जवाब सुने कमरे से बाहर निकल गया।

XXX

ICU वार्ड के सामने वाली स्टील की बेंच पर लगभग 25 साल की एक साधारण सी लेकिन मासूम चेहरे वाली लड़की बैठी थी, जिसकी आँखें इस समय बंद थीं। उसके चेहरे पर थकान और परेशानी साफ नजर आ रही थी, जो अस्पताल में भर्ती किसी भी मरीज़ के परिवार के चेहरे पर होना स्वाभाविक है। उसको पता ही नहीं चला कि कब उसके बगल में वह काइयाँ इंस्पेक्टर आ कर बैठ गया। उस लकड़ी की तंद्रा तब टूटी जब उसको अपने ठीक बगल से एक आवाज आई "आप वीणा शाखी हैं ना?"

लड़की ने झट से अपनी आँखें खोली और उस इंस्पेक्टर की तरफ देखा और "हाँ" में गर्दन हिला दी।

बदसूरत सी शक्ल वाला वह इंस्पेक्टर अपने चेहरे पर विनम्रता लाने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला "मेरा नाम इंस्पेक्टर अमरीश चोपड़ा है, मुझे तुमसे कुछ पूछना है बेटी।"

वीणा चौंकते हुए बोली "जी पूछिए"

इंस्पेक्टर चोपड़ा अपनी कमर में खोंसी हुई एक डायरी निकाल कर खोलता हुआ बोला "इस हैण्ड-राइटिंग को पहचानती हो बेटी?"

वीणा ने उस डायरी को देखते ही पहचान लिया "जी हाँ, यह मेरे पापा की डायरी है, उनको कविताएँ लिखने का शौक़ है, और इस डायरी में वो अक्सर छत पर बैठ कर कवितायें लिखा करते हैं। लेकिन आपको मेरे पापा की यह डायरी कहाँ से मिली?"

इंस्पेक्टर चोपड़ा ने गंभीर भाव से कहा "तुम्हारे घर की छत से ही मिली है बेटी। हम अभी वहीं से आ रहे हैं।"

"अब मेरी बात ध्यान से समझना बेटी, हाल ही में शहर में 2 क़त्ल हुए हैं, और हमारी तहकीकात से एक अजीब बात निकल कर आई है, वो ये कि वह खून तुम्हारे पिता ने किये है। मैं जानता हूँ कि वह तो इस समय वहाँ ICU में ज़िन्दगी और मौत से लड़ रहे हैं लेकिन फिर भी इस समय वह एक मात्र इंसान हैं, जो शक के दायरे में हैं।" इंस्पेक्टर चोपड़ा ने उन मासूम लड़की को अपनी चालाक बातों में उलझाते हुए कहा।

इंस्पेक्टर की बात सुन कर पहले तो वीणा चौंक गई, लेकिन फिर अचानक उसकी आँखों में आँसू भर आये "जरा अंदर झाँक कर देखिये इंस्पेक्टर सर, अगर मेरे पापा को एक पल के लिए भी होश आ जाये, तो वो क़त्ल तो क्या, दुनियाँ का कोई भी काम करने से पहले, मुझे अपने सीने से लगाने को तड़प उठेंगे।" कहते हुए वीणा की आवाज़ भारी होती चली गई।

इंस्पेक्टर चोपड़ा सहानुभूति भरे स्वर में बोला'मैं जानता हूँ बेटी, मुझे भी लगता है कि उनको फसाया जा रहा है। अगर तुम मेरी मदद करो.. जो भी जानती हो वो मुझे बताओ... तो हम उनको इस झूठे इल्जाम से बचा लेंगे।"

बीणा आँखों में आँसू लिए रैधे गले से बोली "मेरे पापा की जिन्दगी तो बहुत सीधी सादी है सर, मैं बहुत छोटी थी तभी मेरी माँ एक बीमारी से गुजर गई थी। मेरे पापा ने ही मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया। उनकी पूरी जिन्दगी सिर्फ मेरे चारों तरफ़ ही घूमती है सर, उनकी एक-एक साँस सिर्फ मेरी खुशी के लिए ही चलती है। उनको इस दुनियाँ से और कुछ नहीं चाहिए।"

कहते हुए वीणा लगभग रो पड़ी "हालाँकि वो अपने काम के बारे में ज्यादा बात नहीं करते, लेकिन जितना मुझे पता है, पिछले 25 सालों से वह एक प्राइवेट कंपनी में कंप्यूटर एक्सपर्ट हैं और उनका काम वहाँ आये हुए उन कंप्यूटर को ठीक करना है, जिनके सॉफ्टवेयर में कोई खराबी आ गयी हो। वह रोज़ सुबह घर से निकलते है और रोज़ शाम को घर आ जाते हैं। पिछले 22 साल से बस यही छोटी सी जिंदगी जीते हुए देख रही हूँ उनको। ना उनके ज्यादा दोस्त हैं और उन जैसे इंसान का कोई दुश्मन तो हो ही नहीं सकता।"

"कोई शौक़ नहीं था उनको। ना शराब ना सिगरेट, यहाँ तक कि कभी पान तक नहीं खाया मेरे पापा ने। शौक़ के नाम पर सिर्फ़ उनको कविताएँ लिखने का और शतरंज खेलने का ही शौक़ था। लेकिन मेरी परवरिश में मेरे पापा ने अपने ये छोटे-छोटे शौक़ भी मार दिए।"

“ऐसे इंसान पर अगर कोई क़त्ल जैसा इलज़ाम लगाएगा तो उसको भगवान भी माफ नहीं करेगा। पाप पड़ेगा उसको।" कहती हुई वीणा फफक-फफक कर रो पड़ी।

इंस्पेक्टर चोपड़ा को शायद अहसास हो गया था कि फ़िलहाल इस लड़की से कोई काम की जानकारी नहीं मिलने वाली है। इसलिए वह बोला "ठीक है बेटी, फ़िलहाल में चलता हूँ, लेकिन मुझे तुम्हारी जरूरत शायद कई बार पड़े, तो मुझे तुमको परेशान करने शायद बार-बार आना पड़ेगा। तुम समझ सकती हो ना, पुलिस का काम ऐसा ही होता है।" कहता हुआ वह वीणा के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रख कर वहाँ से विदा हो गया।

लेकिन वीणा से कुछ दूर रखी हुई एक अन्य बेंच पर बैठे हुए उस नौजवान की आँखें अब भी वीणा को ही देख रही थीं। वो खूबसूरत सा लड़का जिसकी उम्र किसी भी तरह 22 साल से ज्यादा नहीं थी। जिसकी आँखों पर नज़र का एक चश्मा चढ़ा हुआ था लेकिन उस चश्मे के पीछे से झाँकती हुई उसकी चमकीली आँखों में एक ज्वालामुखी सा धधक रहा  था, जो अपने मोबाइल की तरफ़ झुक कर खुद को उसमें व्यस्त होने का झूठा आभास करा रहीं थीं, लेकिन जिसके कान किसी माइक्रोफ़ोन की तरह वीणा और चोपड़ा की हर बात बहुत ध्यान से सुन रहे थे। वो लड़का जिसके गले में लटके हुए उसके कॉलेज आई-कार्ड पर उसका वही नाम लिखा हुआ था जो उसकी माँ ने उसको दिया था, अजातशत्रु।


XXX

दिनांक 25-दिसंबर-2017
समय : रात 11:55

रात के करीब 12 बज रहे थे। इंस्पेक्टर चोपड़ा इस समय अपने थाने की कुर्सी पर लुढ़क कर बैठा हुआ था और उसके दोनों पैर सामने वाली टेबल पर रखे हुए थे। अपने दोनों हाथों को अपनी गर्दन के पीछे बांधते हुए वह गहरी सोच में डूबा हुआ बोला "यार दयाराम, कुछ समझ में नहीं आ रहा ये केस। जो संदिग्ध है वो अस्पताल में बेहोश पड़ा है या हो सकता है वह असली खूनी ही ना हो। हो सकता है असली खूनी पुलिस को गुमराह करने के लिए उसका नाम बीच में ला रहा हो।"

बगल में खड़ा एक अधेड़ उम्र का सिपाही चापलूसी भरे अंदाज में बोला "अरे सर, आप तो कितने बड़े-बड़े केस चुटकी बजाते ही सुलझा देते हैं। फिर ये मामूली सा केस क्या चीज़ है। मुझे यकीन है कि आप थोड़ा सा दिमाग़ लगायेंगे और बहुत आसानी से इसकी तह तक पहुँच जाएँगे।" कहते हुए उसने प्लेट में रखा हुआ समोसा अपने दोनों हाथों से इंस्पेक्टर चोपड़ा की तरफ इस तरह बढ़ाया जैसे वह मंदिर में किसी देवता को भोग लगा रहा हो।

समोसे पर नज़र पड़ते ही इंस्पेक्टर चोपड़ा की आँखों में हल्की सी चमक आई और शायद मुँह में पानी भी, हालाँकि प्रत्यक्ष में वहाँ पानी नज़र नहीं आया। उसने प्लेट दयाराम के हाथों से लेते हुए कहा "बोल तो तू सही रहा है दयाराम, शायद अभी तक मैंने इस केस पर अपना पूरा दिमाग़ लगाया ही नहीं था। चलो हम पूरी घटना को दोबारा सोच कर देखते हैं।"

"तारीख 21-दिसंबर, सूरज स्टील के मालिक निर्मल सिंह की 25 साल की लड़की। क्या नाम था उसका? हाँ याद आया, आलिया सिंह। 1 साल पहले ही लंदन से आई थी। यहाँ उसका कोई दुश्मन हो ऐसा लगता नहीं है, और उसके घरवालों का भी कहना है कि उनको किसी पर शक नहीं है। इतने बड़े आदमी की लड़की जो कुछ घंटे पहले तक अपने परिवार के साथ कॉमेडी मूवी देखते हुए ठहाके लगा-लगा कर हँस रही थी। अचानक ऐसा क्या हुआ कि उसी रात वह अपनी बिल्डिंग की छत से कूद गई। ऐसा क्या हुआ होगा उन कुछ घंटों में?"

"उसका एक मंगेतर जिसका नाम अभय है, जो उस समय भी लंदन में ही था और उस दिन.. यानी कि लगभग पूरा दिन उसकी अपने मंगेतर से भी कोई बात नहीं हुई थी। आत्महत्या जैसा कोई सीन तो लग नहीं रहा मुझे यहाँ।"

         फिर अगले दिन हमारे थाने के लैंडलाइन पर एक फ़ोन आता है और फ़ोन करने वाला बस इतना कहता है कि 'थाने के सामने वाली चाय की दुकान पर एक बैग रखा हुआ है और उस बैग में एक किताब है, जिसमें आपके लिए एक पत्र है। वहाँ से अपना बैग ले लीजिये।' फिर फ़ोन कट जाता है।"

"हम उस चाय वाले की दुकान पर जाते है तो वह बताता है कि यह बैग लगभग 10 दिन पहले एक अधेड़ सा आदमी रख कर गया था और उसने कहा था कि थोड़ी देर में आ कर ले जाऊँगा। उस समय उसकी दुकान पर इतनी ज़्यादा भीड़ थी कि चाय वाले को उसकी सूरत याद ही नहीं है।"

         और जब हम उस लिफ़ाफ़े को खोलते हैं तो उसमें लिखा होता है कि 'कल रात आलिया सिंह ने आत्महत्या नहीं की है, बल्कि उसका क़त्ल हुआ है, और वह क़त्ल मैंने किया है। मैं जल्द ही एक और क़त्ल करने वाला हूँ लेकिन तुम लोग मुझे रोक नहीं पाओगे।' इसका मतलब वो ख़त लिखने वाला पुलिस को खुला चैलेंज दे रहा था कि "हो दम तो रोक कर दिखाओ" कहते हुए इंस्पेक्टर चोपड़ा ने उस समोसे का एक टुकड़ा अपने मुँह से काटा और अचानक बुरा-सा मुँह बनाता हुआ बोला "क्या यार दयाराम, सूखा समोसा ले आया, चटनी कहाँ है इसकी। अब कभी सूखा समोसा खिलाया मुझे, तो चटनी मैं तेरी बना दूंगा।"

         दयाराम थोड़ा सा डर गया था। पर इंस्पेक्टर चोपड़ा वापस अपने टॉपिक पर आता हुआ बोला "उस खत के आख़िर में लिखा था कि 'मैं आपको ज़्यादा परेशान नहीं करूंगा साहब, अगले क़त्ल के बाद आपको अपना नाम भी बता दूंगा।"

"वह खत हाथ से लिखा हुआ नहीं था, कंप्यूटर प्रिंट था इसलिए हमारे लिए आगे के सारे रास्ते बंद हो गए थे। लेकिन साथ ही यहाँ एक सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा हो गया था जिसने मेरे दिमाग़ को हिला कर रख दिया कि वो बैग 10 दिन से उस चाय वाले की दुकान पर पड़ा हुआ था और वो लड़की मरी 21 तारीख़ को। उस ख़त के लिखने वाले को 10 दिन पहले से कैसे मालूम था कि वो लड़की आत्महत्या करने वाली है। या फिर उसका कत्ल हो जाएगा।"

"उसके बाद अगले ही दिन यानी कि..."

"2.3 दिसंबर, भूषण गायकवाड, उम्र 35 साल, एक चरसी, नाकारा और निकम्मा आदमी जिससे उसकी बीवी और बच्चे पहले ही इतना ज़्यादा परेशान थे कि अगर वो इस तरह कत्ल ना भी होता, तो हो सकता है एक दिन उसकी बीवी ही उसको मार देती। लेकिन फ़िलहाल बीवी ने मारा नहीं है, क्योंकि उसकी बीवी उस रात कीर्तन में पड़ोसी के यहाँ थी, जिस रात किसी ने गली में उसके चरसी पति भूषण को चाकू मार दिया। 5 वार हुए, 2 पीठ पर और 3 सीने पर, वहीं निपट गया होगा वो साला तो।"

"वैसे तो हमारे लिए ये एक मामूली क़त्ल ही रहता क्योंकि इस तरह के लोगों के खून तो होते ही रहते हैं शहर में, लेकिन अगले दिन सुबह फिर थाने के लैंडलाइन पर एक फ़ोन आया कि 'थाने के पीछे वाली दीवार पर लाल रंग का एक गोला बना हुआ है, उसके बीच में थोड़ा सा कुरेद कर देखोगे तो एक चिट्ठी मिलेगी, उसको पढ़ लेना।"

"फिर हम वहाँ गए और हमको सच में वहाँ एक लाल रंग का गोल निशान दिखा जो शायद ईंट से रगड़ कर बनाया हुआ था। वहाँ एक छोटे से छेद में जो शायद वहाँ पहले से ही होगा, उसमें मिट्टी भरी हुई थी जो बहुत अच्छी तरह से सूख चुकी थी और उस मिट्टी में दरारें भी दिख रही थीं यानी कि बहुत दिनों पहले उस मिट्टी से वह गड्ढा बंद किया गया होगा, कम से कम 8-10 दिन पहले। उस मिट्टी को हटाने के बाद हमको वहाँ एक पत्र मिला जैसा कि फ़ोन पर कहा गया था।"

"हमने उसको खोला तो उसमें लिखा था 'भूषण गायकवाड का क़त्ल मैंने ही किया है, और अभी इस शहर में ऐसे कई क़त्ल होने वाले है। अब बारी है अपना वादा निभाने की जो पिछले खत में मैंने तुम लोगों से किया था। मेरा नाम अजय शास्त्री है। उम्र 62 साल। तुम बहुत आसानी से मुझे ढूंढ लोगे। और मैंने यह खत अपने हाथों से लिखा है। तो जब तुम मुझे ढूंढ लो तो मेरी हैण्ड-राइटिंग मिला कर तसल्ली कर लेना कि यह दोनों खून वाकई मैंने ही किये हैं या नहीं। और अब अपना पूरा जोर लगा दो क्योंकि मैं तीसरा क़त्ल भी करने वाला हूँ और तुम मुझे रोक नहीं पाओगे। जब तुम लोग मेरा घर ढूंढ लो तो मेरे घर की छत पर चले जाना, वहाँ मैंने तुम्हारे लिए एक तोहफा रख छोड़ा है। ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ आँगन के आखरी में हैं और इस बार तो पट्टे ने आख़िर में अपना नाम भी लिखा था, अजय शास्त्री"

"अगले दिन हम इस शहर में अजय शास्त्री को ढूँढने निकल पड़े, जो काम बहुत मुश्किल तो नहीं था, लेकिन फिर भी हमको पूरा दिन ही लग गया और शाम तक हमको इस शहर में 5 अजय शास्त्री मिले। लेकिन उनमें से कोई भी 40 साल से ऊपर की उम्र का नहीं था। लेकिन फिर भी हमने उनकी अच्छी तरह पूछताछ की, और उनकी हैण्ड-राइटिंग भी उस खत से मिलाई, लेकिन उन में से किसी की भी हैण्ड-राइटिंग उस ख़त से नहीं मिली। फिर आज गाम हमको एक और अजय शास्त्री की ख़बर मिली, लेकिन जब हम उसके घर गए तो हमको पड़ोसियों से पता चला कि वह तो पिछले कई दिनों से अस्पताल में भर्ती है।"

"लेकिन एक काम की बात यह पता चली कि उसकी उम्र उतनी ही है जितनी कि उस खत में बताई गई थी। तो लाजमी था कि हमको उसको देखने अस्पताल जाना ही था।"

"उसके घर के दरवाज़े पर तो ताला था लेकिन जैसा कि खत में लिखा हुआ था, वहाँ आँगन के आखरी में वाकई एक सीढ़ी थी जो छत की तरफ जा रही थी। हम सोच रहे थे कि वहाँ जाने क्या मिलेगा हमको, जाने किस तोहफे के बारे में लिखा था उसने, लेकिन वह छत लगभग खाली ही थी। वहाँ छत के कोने में एक टेबल रखी हुई थी और जब हमने उसकी दराज खोली तो हमको उसमें एक डायरी मिली जो उसी हैण्ड-राइटिंग में लिखी हुई कविताओं से भरी हुई थी, जिस हैण्ड-राइटिंग में वह खत लिखा हुआ था, हू-ब-हू वही।"

"फिर यह जानने के लिए कि क्या वाकई यह अजय शास्त्री की ही हैण्ड-राइटिंग है हम अस्पताल गए और वहाँ पहुँच कर यह बात साबित हो गई कि वो डायरी और यह ख़त, दोनों अजय शास्त्री ने ही लिखा है।"

अब तक दयाराम इंस्पेक्टर चोपड़ा के पीछे खड़े हो कर अपना बड़ा सा मुँह फाड़ कर 4-5 बार ऊँघ चुका था। इंस्पेक्टर चोपड़ा की सारी बातें उसके सर के ऊपर से निकलती नज़र आ रहीं थीं और उसको देख कर इस बात का अंदाज़ा भी सहज ही लगाया जा सकता था कि उसको शायद बचपन से ही कहानियाँ सुनने का ज़रा भी शौक़ नहीं रहा है।

अपनी बात खत्म कर के जैसे ही इंस्पेक्टर चोपड़ा अंगड़ाई लेता हुआ खड़ा हुआ, दयाराम फिर से खुद को पहले की तरह मुस्तैद दिखाने की कोशिश में व्यस्त हो गया और चापलूसी भरे अन्दाज़ में बोला "वाह सर, आपकी तो बात ही निराली है।"

इस पर इंस्पेक्टर चोपड़ा ने उसको गुस्से से घूर कर देखा "इसमें क्या निराला था बे, यह सब तो हम दोनों पहले से ही जानते है। जवाब तो हमको इस बात का चाहिये कि.....

"कौन है जो अजय शास्त्री से उसकी राइटिंग में ऐसा ख़त लिखवा सकता है?"

"इस अजय शास्त्री ने ज़हर क्यों पीया?"

"अगर मान लेते हैं कि अजय शास्त्री ने ही खून किये है तो वो ऐसा क्यों कर रहा है और उससे भी बड़ी बात ये कि कर कैसे रहा है?"

"आलिया की मौत से 10 दिन पहले ही उसको कैसे पता था कि वह आत्महत्या करेगी, हालाँकि उसका कहना है कि यह एक कत्ल है और यह खून उसी ने किया है?"

“जिन दो लोगों के कत्ल का वो दावा कर रहा है उन से अजय शास्त्री की क्या दुश्मनी थी?"

"उन दोनों में से एक तो बहुत ही अमीर बाप की बेटी है जबकि दूसरा एक सड़क-छाप चरसी था, दोनों का जीवन एक दुसरे से दूर-दूर तक मेल नहीं खाता। फिर दूसरा आदमी वह चरसी ही क्यों?"

"क्या डॉक्टर पालकर अजय शास्त्री की मदद कर रहा है?"

"क्या उसकी बेटी वीणा कुछ ऐसा जानती है जो वह हमसे छिपा रही है?"

"और अंत में सबसे बड़ा सवाल यह कि अगर वाकई ये कोई सीरियल किलर है, तो उसके दूसरे खत के मुताबिक़ वो अब तीसरा क़त्ल भी करने वाला है, और हम नहीं जानते कि अगर उसकी ये धमकी सच है तो अब किस बदकिस्मत की जान जाने वाली है।"

"हर तरफ सवाल ही सवाल हैं यार, दिमाग़ काम नहीं कर रहा और ऊपर से तूने यह सूखा समोसा खिला दिया मुझे, बिना चटनी वाला" कहते हुए इंस्पेक्टर चोपड़ा ने दोबारा अपनी कुर्सी पर अपने पूरे शरीर का वजन रख दिया।

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The डेड man's प्लान - समीर सागर



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