समकालीन और उसपर भी प्रतिस्पर्धी लेखकों से सराहना पाना दुर्लभ है। यह सराहना यदि लेखक के लेखकीय जीवन काल में मिले तो यह दुर्लभतम कही जानी चाहिए।
यह एक ऐसी जिंस है जिसके लिए इसके लिए न सिर्फ अच्छा लेखक होना बल्कि उम्दा इंसान होना भी मूलभूत गुण है।
जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा दोनों ही थे। बकौल "आबिद रिजवी" दोपहर में जनप्रिय के घर के सामने से गुजरते घोस्ट राइटर या संघर्षरत लेखकों में से कोई ऐसा नहीं होता था,जो उनकी नजर में आ जाए और बिना खाना खाए गुजर जाए।"
दरअसल,तब मेरठ पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों का बड़ा बाजार था (मेरी समझ से यह भी जनप्रिय की ही देन थी, उन्होंने दिल्ली छोड़ कर मेरठ को अपने लेखन का शहर बनाने के प्रयास में व्यवसायियों को प्रकाशन की राह दिखाई।बाकी सब इतिहास है)
तब के प्रयत्नशील और संघर्षरत लेखक, मैनपुरी,इटावा, बरेली,हापुड़ जैसे शहरों से अपनी पांडुलिपि जमा करने प्रकाशकों के पास आते और पहुंचते न पहुंचते दोपहर तक भूखे रह जाते। जनप्रिय यह पीड़ा समझते थे। कोई लेखक यदि उनकी आंखों के आगे पद जाता तो वह साधिकार उन्हें घर ले आते।
जनप्रिय ने लेखकों की पांडुलिपि देखने की कोशिश नही की। कारण यह था कि वह जानते थे कि 90 फीसद लेखक उनके ही पात्रों पर रची पांडुलिपि लेकर आए हैं।जिन्हे बाद में प्रकाशक "ओम प्रकाश शर्मा" के जाली नाम से ही चिपका कर प्रकाशित कर देगा।वह युवा और संघर्षरत लेखकों को इसलिए दोषी भी नहीं मानते थे। द ट्रिब्यून(संभवतः) को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था वह जानते थे कि यह युवा लेखकों की रोजी रोटी का मसला है। असली दोषी तो प्रकाशक हैं। वह ट्रेड नामों के खिलाफ लामबंद होने के लिए स्थापित लेखकों से आग्रह करते रहे। मगर हासिल वह स्वयं भी जानते ही थे।
बहरहाल साथ लगी कतरन और कवर सामाजिक लेखक साधना प्रतापी की 1970 में प्रकाशित उपन्यास "अंधेरी रात के हमसफर से है" जहां उन्होंने ओम प्रकाश शर्मा की प्रतिष्ठा की बाबत जिक्र किया है। गौरतलब यह कि साधना प्रतापी, सत्तर के दशक में स्वयं ही एक अच्छे लेखक थे।उनकी दो एक किताबों का फिल्मीकरण भी हुआ है।
किताब के नाम और कवर पर न जाएं। यह भ्रामक ही हुआ करती थीं । कहानी एक संघर्षरत लेखक की है, जो अपना उपन्यास प्रकाशित करवाना चाहता है।
आलेख- सत्य व्यास
यह एक ऐसी जिंस है जिसके लिए इसके लिए न सिर्फ अच्छा लेखक होना बल्कि उम्दा इंसान होना भी मूलभूत गुण है।
जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा दोनों ही थे। बकौल "आबिद रिजवी" दोपहर में जनप्रिय के घर के सामने से गुजरते घोस्ट राइटर या संघर्षरत लेखकों में से कोई ऐसा नहीं होता था,जो उनकी नजर में आ जाए और बिना खाना खाए गुजर जाए।"
दरअसल,तब मेरठ पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों का बड़ा बाजार था (मेरी समझ से यह भी जनप्रिय की ही देन थी, उन्होंने दिल्ली छोड़ कर मेरठ को अपने लेखन का शहर बनाने के प्रयास में व्यवसायियों को प्रकाशन की राह दिखाई।बाकी सब इतिहास है)
तब के प्रयत्नशील और संघर्षरत लेखक, मैनपुरी,इटावा, बरेली,हापुड़ जैसे शहरों से अपनी पांडुलिपि जमा करने प्रकाशकों के पास आते और पहुंचते न पहुंचते दोपहर तक भूखे रह जाते। जनप्रिय यह पीड़ा समझते थे। कोई लेखक यदि उनकी आंखों के आगे पद जाता तो वह साधिकार उन्हें घर ले आते।
जनप्रिय ने लेखकों की पांडुलिपि देखने की कोशिश नही की। कारण यह था कि वह जानते थे कि 90 फीसद लेखक उनके ही पात्रों पर रची पांडुलिपि लेकर आए हैं।जिन्हे बाद में प्रकाशक "ओम प्रकाश शर्मा" के जाली नाम से ही चिपका कर प्रकाशित कर देगा।वह युवा और संघर्षरत लेखकों को इसलिए दोषी भी नहीं मानते थे। द ट्रिब्यून(संभवतः) को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था वह जानते थे कि यह युवा लेखकों की रोजी रोटी का मसला है। असली दोषी तो प्रकाशक हैं। वह ट्रेड नामों के खिलाफ लामबंद होने के लिए स्थापित लेखकों से आग्रह करते रहे। मगर हासिल वह स्वयं भी जानते ही थे।
बहरहाल साथ लगी कतरन और कवर सामाजिक लेखक साधना प्रतापी की 1970 में प्रकाशित उपन्यास "अंधेरी रात के हमसफर से है" जहां उन्होंने ओम प्रकाश शर्मा की प्रतिष्ठा की बाबत जिक्र किया है। गौरतलब यह कि साधना प्रतापी, सत्तर के दशक में स्वयं ही एक अच्छे लेखक थे।उनकी दो एक किताबों का फिल्मीकरण भी हुआ है।
किताब के नाम और कवर पर न जाएं। यह भ्रामक ही हुआ करती थीं । कहानी एक संघर्षरत लेखक की है, जो अपना उपन्यास प्रकाशित करवाना चाहता है।
आलेख- सत्य व्यास
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