लेबल

सोमवार, 11 सितंबर 2023

विनोद प्रभाकर- साक्षात्कार

 21 वर्ष की उम्र में मैं एक सफल उपन्यासकार और प्रकाशक बन चुका था- विनोद प्रभाकर

साक्षात्कार की इस शृंखला में इस बार प्रस्तुत है लोकप्रिय साहित्य के सितारे विनोद प्रभाकर उर्फ सुरेश साहिल जी का प्रथम साक्षात्कार। मेरठ निवासी विनोद प्रभाकर जी ने यहां अपने वास्तविक नाम से जासूसी लेखन किया वहीं सुरेश साहिल के नाम से लौट आओ सिमरन जैसी चर्चित कृति का सर्जन भी किया।
वर्तमान में मेरठ के मलियाना में निवासरत सुरेश जी निजी शिक्षण संस्थान का संचालन करते है और दीर्घ समय पश्चात अपनी रचना लेखन में व्यस्त हैं।

01. लोकप्रिय साहित्य में विनोद प्रभाकर या सुरेश साहिल का नाम काफी चर्चित रहा है। लेकिन हम एक बार अपने पाठकों के लिये आपका जीवन परिचय जानना चाहेंगे।

- मेरा जन्म मेरठ जिले के मलियाना ग्राम में हुआ था। जो मेरठ सिटी रेलवे स्टेशन से एक किलोमीटर की दूरी पर है। मेरे पिता श्री किरन सिंह मेरठ जिले की सरधना तहसील के हबड़िया गांव के एक छोटे किसान परिवार से थे। और मेरठ नगर महापालिका में सरकारी ओहदे पर थे।

               मेरी शिक्षा ग्रेजुएट तक रही। किसी कारणवश मुझे पोस्ट ग्रेजुऐशन की पढाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। पूर्व संस्कार ही रहे होंगे की कक्षा पांच तक पहुंचते -पहुंचते मेरे अंदर का लेखक जागृत हो चुका था।  यह बचपन का वह दौर था, जब क्लासरूम में बच्चों के झुण्ड के बीच फिल्मी गानों पर परोडी बनाकर सुनाता था। और ताज्जुब इस बात का रहा कि दस फिट दूर बैठे सख्त मिजाज अध्यापक को मेरी आवाज सुनाई नहीं देती थी। उस वक्त के मेरे ही ग्रुप का एक बच्चा (जिसका नाम शायद चतर सिंह था) कहीं से दो अजीब सी लैंग्वेज सीख कर आया था। और मैं एकमात्र स्टुडेंट था जो हफ्ते भर में उससे धाराप्रवाह उस लैंग्वेज में बातें करने लगा था। वह दोनों भाषायें में आज भी धाराप्रवाह बोलना जानता हूँ। मुझे नहीं लगता लिखने में और बोलने में संस्कृत जैसी प्रतीत होती दोनों भाषायें कहीं बोली भी जाती रही होंगी या अब भी कहीं बोली जाती होंगी।

 बहरहाल, दोनों भाषाओं का इतिहास कुछ भी हो, मगर अब यह भाषायें उन दो देशों की राष्ट्रीय भाषायें बन चुकी हैं, जो मेरे आने वाले उपन्यास के दो काल्पनिक देश हैं।

               बीती सदियों में राजा-महाराजों के बच्चों का बचपन कैसा रहा होगा, यह केवल कल्पना की जा सकती है। मुझे लगता है मेरा बचपन उनसे कम प्रभावशाली नहीं रहा होगा। जिसमें दादा-दादी के गाँव से लेकर मेरे मोहल्ले के पड़ोस तक लाड-प्यार, मान-सम्मान और खर्च करने के लिये भरपूर अधिक पैसा, अपने लिये भी और अपने दोस्तों में बांटने के लिये भी उस वक्त मेरे चहूँ ओर था।

               जीवन में संघर्ष कहीं से कहीं तक भी नहीं। लाख संघर्षो के पश्चात भी जो लोगों को नहीं मिलता, मुझे आसानी से मिलता चला गया। या यों कहा जाये कि समय-समय पर मेरे संघर्षों की बागडोर संभालने के लिये वैसे ही लोग मुझे आसानी से मिलते चले गये। पैसा कमाने की भूख कभी नहीं रही, सो धन-दौलत आवश्यकता से अधिक कभी प्राप्ति नहीं हुयी।

               अब जाकर जीवन के इस पड़ाव पर मुझे अपने जीवन से एक सीख अवश्य मिली है कि बचपन और युवावस्था के  पश्चात जैसे-जैसे इंसान की उम्र और परिवार बढता है, जीवन में दुखों के झंझावत भी उसी रफ्तार से जीवन चक्र का हिस्सा बनने लगते हैं।

02. विनोद जी, आपका बचपन तो बहुत रोचक रहा है। अब बात करते हैं साहित्यिक अभिरूचि की, आपकी साहित्य पठन की रूचि कब से रही है और आपका उपन्यास साहित्य की तरफ झुकाव कैसे हुआ?

- इंसान के जीवन में घटने वाली कोई भी अच्छी अथवा बुरी घटना मार्ग प्रशस्त करके ही घटित होती है। प्राइमरी क्लास तक पहुचंते-पहुचंते मेरे अंदर कवि, शायर और कहानीकार जन्म ले चुका था।

               कक्षा छह में मैंने सर्वप्रथम फिल्म से प्रभावित होकर फिल्म की स्टोरी लिखी थी। जिसे मैंने एक डायरी में किसी नाटक की तरह लिखा। हमारे एक किरायेदार उपन्यास पढने के शौकीन थे, मैंने वह स्टोरी उन्हें पढवाई। उन्होंने कहा कि मैं उपन्यास लिखूं, उपन्यासकार को एक उपन्यास लिखने के 35000 रुपये मिलते हैं। वैसे तो यह जानकारी सत्य से कोसों दूर थी, मगर मुझे उपन्यास लिखने की प्रेरणा देने और एक सपना बुनने के लिये काफी थी। तब तक मुझे पता नहीं था कि उपन्यास होते कैसे हैं।

प्रेरक महोदय ने मुझे राजभारती और राजहंस के एक-दो नॉवल लाकर दिये। समय और सपनों ने उड़ान जारी रखी और मैं कक्षा नौ तक आते-आते एक उपन्यास लिखकर अपने पिता के साथ प्रकाशकों को चक्कर काटने लगा।

03. आपका प्रथम उपन्यास कौन सा था, कब प्रकाशित हुआ? उस उपन्यास का प्रकाशन आसान रहा या फिर कोई परेशान का भी सामना करना पड़ा था?

-किसी भी नये लेखक के लिये अपने नाम और फोटो के साथ उपन्यास प्रकाशित करना कभी भी आसान नहीं रहा। मेरे लिये भी यह आसान नहीं था। मैं जहां भी जाता प्रकाशक की ओर से उपन्यास छापने के लिये बड़ी रकम की मांग की जाती थी। मेरे फादर वह रकम देने के लिये तैयार भी हो जाते, मगर प्रकाशकों का कहना था कि जब तक मार्किट में आपकी पहचान नहीं हो जाती तब तक यही रकम आपको अपने प्रत्येक उपन्यास के लिये देनी होगी। यही वो शर्त थी जो मुझ जैसे किसी भी लेखक को मार्किट में नहीं आने देती थी।

               समय थोड़ा आगे खिसका और दिल्ली की विवेक पॉकेट बुक्स मात्र पचपन सौ रुपये में मेरा उपन्यास छापने के लिये तैयार हो गयी। उस वक्त वहां के मैनेजर थे शशिभूषण शलभ, जिनके कई मैगजीनों में लेख भी छपते रहते थे। वह अच्छे और मिलनसार व्यक्ति थे। मगर तब तक किसी को पता नहीं था कि मेरा उपन्यास छपने से पूर्व ही वह पॉकेट बुक्स बंद होने वाली थी। मेरा उपन्यास भी नहीं छपेगा और  मेरे दिये हुये रुपये भी वापस नहीं मिलेंगे।

               तब शशिभूषण शलभ ने मेरा साथ दिया। समय ने पहलू बदला और उन्होंने मेरी मुलाकात सुनील पण्डित से करवाई, जो विवेक पॉकेट बुक्स के एजेंट के रूप में कार्य करते थे। सुनील पण्डित उस समय सपना पॉकेट बुक्स के नाम से अपने प्रकाशन व्यवसाय को स्थापित कर चुके थे। और अनंतः सपना पॉकेट बुक्स दिल्ली से मेरा पहला उपन्यास अधूरा प्यार सन् 1987 में प्रकाशित हुआ।

                मगर समय नहीं ठहरा। समय और सपने तेजी से उड़ान भरे हुये थे।  दूसरा उपन्यास छपने से पूर्व ही मेरी मुलाकात  उपन्यासकार वेदप्रकाश वर्मा जी से हुयी, जिनके लगभग सौ उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। और उस समय दिल्ली की स्टार पॉकेट बुक्स से भी वह छपने लगे थे। उनका ख्वाब था पब्लिशर बनना। हम दोनों ने मिलकर दिल्ली के सागरपुर में ऑफिस किराये पर लिया और अपने उपन्यासों के अतिरिक्त नामचीन लेखकों के री एडिशन छापने लगे। हमारा ऑफिस एक था और प्रकाशन अलग-अलग। तब 21 वर्ष की उम्र में मैं एक सफल उपन्यासकार और प्रकाशक बन चुका था। उसके पश्चात विनोद प्रभाकर के नाम से मेरे बहुत से उपन्यास प्रकाशित होते रहे।

04. लोकप्रिय साहित्य में में आपने किन- किन लेखकों को पढा है और आप किन लेखकों से ज्यादा प्रभावित रहे हैं?

 - मैंने अपने जीवन में बहुत कम उपन्यासकारों को पढा है या यों कहो कि अधिक पढने का अवसर ही नहीं मिला। उसका कारण भी रहा है, स्टुडेंट लाइफ में ही मैं उपन्यासकार बन गया।

उस समय मैगजीन बहुत बिकती थी। मैं शॉर्ट स्टोरीज अधिक पढता था और उपन्यास कभी-कभी। क्योंकि मुझे इन सबके साथ-साथ अपनी वह बुक्स भी पढनी पड़ती थी जिनके एग्जाम प्रत्येक वर्ष होते थे। चुनौती एग्जाम में पास होने की भी थी।

                 लेकिन सबसे अधिक उपन्यास मैंने अपनी लाइफ में केवल राजहंस के पढे हैं। उसके बाद जेम्स हेडली चेइज के नॉवल मैं बहुत पसंद करता था। राजहंस के उपन्यासों में उनकी भाषा शैली से मैं बहुत प्रभावित रहा। राजहंस जी के उपन्यासों ने मुझे हमेशा झकझोरा। उनकी भाषा शैली ऐसी थी कि पुस्तक का एक पृष्ठ पढने के बाद उनका कोई भी पाठक बता सकता था कि यह राजहंस का लिखा उपन्यास है अथवा नहीं।

सुरेश साहिल के नाम से प्रकाशित मेरे उपन्यासों की भाषा शैली उन्हीं की लेखन शैली से प्रभावित रही है।

    05. सर, यह क्या कारण रहा कि आपने जासूसी उपन्यास विनोद प्रभाकर नाम से लिखे और सामाजिक उपन्यास सुरेश साहिल के नाम से लिखे। दोहरे नामकरण का क्या कारण था?

-परिवर्तन प्रकृति का नियम है। ॠतुऐ बदलती हैं और चहूँओर बदलाव देखने को मिलता है।  एक अंतराल पश्चात इंसान के आचार-विचार और रूचि में परिवर्तन देखने को मिल ही जाते हैं।

        उपन्यासों की बात की जाये तो ऐसा कई बार हुआ है कि जब पाठकों में सामाजिक उपन्यास बहुतायत में पसंद किये गये तो कभी थ्रिलर- जासूसी की मांग बढी। एक समय ऐसा भी देखा गया जब बुक स्टोलों पर कॉमिक्स तक की भरमार होने लगी।

 क्योंकि मैं केवल अपने शौक के लिये लिखता था, अतः ट्रेड बदलने के साथ मुझे भी लगा कि लगा कि अब मुझे अपने मन के बदलाव के साथ सामाजिक उपन्यास लेखन में उतर जाना चाहिये। इसलिये मैंने अपने वास्तविक नाम विनोद प्रभाकर को ड्रॉप कर के नये नाम सुरेश साहिल से सामाजिक उपन्यास लेखन आरम्भ किया।

 पाठकों ने मेरे सामाजिक उपन्यासों को भी हाथो-हाथ लिया।

   06.  लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में घोस्ट राइटिंग का एक दौर था। लगभग लेखकों ने घोस्ट राइटिंग की और करवाई भी है, क्या आपका भी सामना इस स्थिति से कभी हुआ है?

-रिजर्व नेचर प्राणी होने के कारण मैं अपनी उपन्यास यात्रा के बीच में बहुत कम लोगों से मिलता था और यह मेरी बुरी आदतों में से एक थी। जिसे मैं चाह कर भी नहीं बदल पाया, इसी आदत की वजह से मेरा अधिक लोगों से संपर्क नहीं बढ सका।

 अपने प्रकाशक से भी मैं बहुत जरूरी होने पर ही मुलाकात करता था। इसी बीच यदाकदा किसी लेखक से मुलाकात हो गयी तो ठीक। प्रकाशक ऑफिस में होने वाली चर्चाओं से ही मैं उपन्यास जगत के बारे में जान पाता था। इसलिये मेरी मुलाकात कभी किसी घोस्ट राइटर से नहीं हुयी।

              मेरठ में रहते हुये भी केवल एकाध बार ही अपने जीवन काल में मेरी मुलाकात वेदप्रकाश शर्मा, रितुराज और परशुराम शर्मा से ही हुयी होगी। इसलिये अधिकांश लोग मुझे नाम से जानते थे, चेहरे से नहीं। इसका मुझे अफसोस रहेगा कि मेरठ में रहते हुये भी मैं मेरठ की नामचीन हस्तियों से दूर रहा। राजभारती और वेदप्रकाश वर्मा ही मेरे बहुत करीब रहे, जिनके घर मेरा अधिक आना जाना रहा। तब मैंने आबिद रिजवी का नाम बहुत अधिक सुना था।

              एक समय आया जब उपन्यास व्यवसाय मंदी की ओर बढने लगा था, लगभग सभी उपन्यासकारों की पुस्तकें कम बिकने लगी थी। सन् 2005 के बाद मैंने किन्हीं कारणों से लिखना बंद कर दिया था। तब भी धीरज पॉकेट बुक्स से मेरे पुराने उपन्यास निरंतर छप रहे थे। जब राकेश जैन ने किसी घोस्ट राइटर से मेरे नये उपन्यास लिखवाने की सलाह मुझे दी थी, यहां तक मुझे याद है तिवारी जी उन दिनों धीरज पॉकेट बुक्स में अपने ही नाम से मकड़ा सीरीज पर कुछ उपन्यास लिख चुके थे। उन्हीं का नाम उऩ्होंने घोस्ट राइटिंग के लिये मेरे सामने रखा था। मगर मुझे नहीं लगा की कोई अन्य लेखक मेरी लेखन शैली और मेरे पाठकों के साथ इंसाफ कर सकेगा। मैंने अपने उपन्यासों के लिये घोस्ट राइटिंग से स्पष्ट इंकार कर दिया था। उसके पश्चात मेरे नये उपन्यास छपने बंद हो गये थे। कुछ वर्षों बाद तक मैं अपने पुराने उपन्यासों को नये कलेवर के साथ बुक स्टॉलों पर रखे हुये हमेशा देखता था।

07.  आपके सुरेश साहिल नाम से लिखे लौट आओ सिमरन, किराये का पति जैसे उपन्यासों की पाठकों में आज भी चर्चा होती है। आपके चर्चित जासूसी और सामाजिक उपन्यासों के बारे में भी हम जानना चाहेंगे।

- सन् 1996 तक विनोद प्रभाकर के जासूसी उपन्यास प्रकाशित हुये- नहीं खुलेगा राज, कत्ल के हिस्सेदार बहुत अधिक चर्चित उपन्यास रहे।

                          सामाजिक उपन्यास सुरेश साहिल के नाम से तब मेरे उपन्यास प्रारम्भ हो चुके थे। पहला उपन्यास कोख का कलंक प्रकाशित हुया। और पांच उपन्यास छपने के बाद अन्य प्रकाशन मुझे छापने की जुगत में लग गये थे।

लौट आओ सिमरन, अधूरा मिलन, किराये का पति, प्यासा आसमान, माँ तुझे सलाम इत्यादि उपन्यास बहुत अधिक प्रसिद्ध हुये। यह वह दौर था, जब टी वी चैनल, सीरियल्स का बोलबाला था। और  उपन्यास मार्किट अपना वर्चस्व खोने लगी थी। नामचीन उपन्यासकारों की प्रतियां पहले की तुलना में आधी भी नहीं बिक पा रही थी।

                             फिर भी मेरे उपन्यास पढने वाले पाठकों का ग्राफ प्रत्येक उपन्यास के साथ ऊपर उठ रहा था। मुझे आज भी याद है, एक बार धीरज पॉकेट बुक्स के मालिक धीरज जैन जी ने मुझसे कहा था कि मैं अपना प्रत्येक सेट छापने के बाद जब भी सप्ताहभर के ट्यूर पर निकलता हुँ तो सफर में पढने के लिये केवल तुम्हारे ही उपन्यास लेकर चलता हूँ। मुझे और किसी के उपन्यास अच्छे नहीं लगते।

 मेरे पाठकों के मार्मिक पत्र भी बहुत आते थे। एक बार महाराष्ट्र से मेरे पास एक पत्र आया जो मुझे अंदर तक हिला गया।

                          प्यासा आसमान मेरा पच्चीसवां सिल्वर जुबली उपन्यास था। मेरे उस पाठक ने लिखा कि इस उपन्यास को पढकर कई दिनों तक रोता रहा और अपने कार्य पर भी नहीं गया। यह बहुत ही इमोशन भरा साबित हुआ। मुझे लगा मैं केवल मनोरंजन क लिये लिखता हूँ, किसी को आहत और परेशान करने के लिये  तो बिलकुल भी नहीं। सच पूछो तो मुझे यह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था उस वक्त। उसके बाद मैंने कुछ उपन्यास लिखने के बाद उपन्यास लेखन बंद कर दिया।

08. आप एक लेखक होने के साथ-साथ प्रकाशक भी रहे और मलियाना में एक प्रतिष्ठित विद्यालय संस्थान भी चलाते रहे, आप विद्यालय और लेखन दोनों में सामंजस्य कैसे स्थापित करते थे?

-उपन्यास लिखना मानसिक संतुष्टि से जुड़ा विषय है और स्कूल सामाजिक कार्यों का दूसरा विषय है। उपन्यास से अलग होने का अर्थ और अहसास ही किसी उपन्यासकार को शून्य की ओर ले जाने के लिये काफी है। यह शौक है जो जीवन में कभी नहीं टूटना चाहता।

              स्कूल में अक्सर दोपहर तक समय देना पड़ता था। इसलिये उसके कुछ देर विश्राम के पश्चात अन्य कार्यों के बीच लेखन के लिये समय मिल ही जाता था। एक बात सत्य है कि मेरे लेखन कार्य में कभी निरंतरता नहीं रही। मैं केवल मूड के हिसाब से उपन्यास लेखन को समय देता था, इसलिये कभी-कभी कलम उठाये हफ्तों तक निकल जाते थे।

पूनम का चांद एक ऐसा उपन्यास भी था जो मैंने 72 घण्टों में पूरा करके प्रकाशन में भी भेज दिया था।

09. आपके कुछ उपन्यासों पर फिल्म निर्माण की चर्चा भी होती रही है। कौन-कौन से वह उपन्यास थे और कौन-कौन सी वह फिल्में थी। उन प्रोजक्ट का क्या रहा?

- 90 के दशक और उसके पश्चात अधिकांश फिल्में देखकर लगता था कि उक्त फिल्म मेरे उपन्यास से  आइडिया लेकर लिखी गयी हैं। मगर मैं हमेशा उदार हृदय रहा हूं, जिसकी वजह से मुझे जीवन में बड़ी-बड़ी हानियां भी उठानी पड़ी। उस वक्त मुम्बई में मेरे दोस्त विक्रम दयाल मुझे फिल्म राइटर्स एसोसिएशन मुम्बई की मेम्बरशिप दिलवा चुके थे।

              इतेफाक से मेरे पास लखनऊ से मेरे एक पाठक का पत्र मुझे मिला। उसमें उन्होंने मुझे जानकारी दी कि राजकंवर की एक फिल्म अब के बरस का एक विज्ञापन टेलिविजन पर आ रहा है, जो आपके उपन्यास अधूरा मिलन से मिलता है।

                     मैंने उस फिल्म का पहला शॉ सिनेमा हॉल में देखा, वह मेरे ही उपन्यास को उठाकर बनाई गयी फिल्म थी। मैंने फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में जानकारी दी। वहां सोलह लोगों की टीम ने मेरा उपन्यास पढकर फैसला दिया कि डायरेक्टर- प्रोड्यूसर राजकंवर द्वारा बनाई फिल्म अब के बरस सुरेश साहिल के उपन्यास पर बनाई गयी है।

प्रोड्यूसर ने फिल्म में न मेरा नाम दिया और न मुझसे परमिशन ली थी। मैंने उस पर वाद दायर कर दिया था। अगले ही महिने एक और फिल्म सूर्या का विज्ञापन टीवी पर चल रहा था, वहां भी मुझे अपने एडवोकेट से नोटिस भेजना पड़ा। नाम तो मुझे मिला पर वह फिल्म रीलिज नहीं हुयी।


                         इसी बीच मुम्बई आते-जाते मेरी दोस्ती बॉलीवुड़ के टॉप राइटर रणवीर पुष्प से हुयी। उसके साथ मिलकर मैंने दो फिल्में लिखी। फिल्म गोविंदा, जैकी श्राफ और महिमा चौधरी अभिनेता थी। जिसकी शूटिंग पूरी नहीं हो सकी।

सन् 2005 के बाद मैं मुम्बई नहीं गया। मेरा लेखन कार्य भी काफी वर्षों तक छूटा रहा।

विनोद प्रभाकर जी  और रणवीर पुष्प जी

10. वर्तमान में आप क्या लिख रहे हैं? आपके लेखन के विषय में पाठक जानने को उत्सुक हैं।

- इस बार सबसे अलग विषय चुना है। पांच बच्चों को लेकर लिखी गयी कहानी है। जिसमें विज्ञान और फतांसी का अद्भुत मेल है। यह उपन्यास मेरे लेखकीय जीवन को पुनः स्थापित करेगा, मुझे पूर्णविश्वास है।

इस वक्त उसके प्रकाशन के लिये ऐसे प्रकाशक की तलाश है जो उस उपन्यास की अकाट्य रश्मियों को समझे और विश्व स्तर पर उसे प्रकाशित करे।

 11. अपने पाठकों और साहित्य देश ब्लॉग के लिये कोई दो शब्द।

- सन् 1995 के बाद का समय सुरेश साहिल के नाम रहा। जब मेरे उपन्यासों पर लिखा जाता था- सर्वाधिक लोकप्रिय सामाजिक उपन्यासकार

यह सभी पाठक मित्रों की ही देन था। आज भी बहुत से पत्र मेरे पास खराब हालत में सुरक्षित हैं। मैं अपने पाठक मित्रों को तहदिल से आभार व्यक्त करता हूँ।

अगर आज लुगदी साहित्य का वो दौर जीवित है, उस दौर के उपन्याकारों की पहचान जीवित है तो उसका श्रेय केवल एक ही व्यक्ति को जाता है- साहित्य देश के संचालक गुरप्रीत सिंह जी को, जिन्होंने लुगदी साहित्य को जीवित रखने का अक्षुण्ण कार्य किया है। और यह कार्य उनके अलावा किसी ने नहीं किया। उन प्रकाशकों ने भी नहीं जिनकी यह जिम्मेदारी थी, जिन्होंने उपन्यास लेखक को केवल बेचारा बनाकर रखा।

गुरप्रीत सिंह जी के लिये चंद शब्द-

आपने साहित्य देश के अंतर्गत लुप्तप्राय लेखकों को ढूंढकर कीमती माला में पिरोने का अविस्मरणीय कार्य किया है। जिसके लिये आप बधाई के पात्र हैं।

विनोद प्रभाकर उर्फ सुरेश साहिल

9760008735

 इस साक्षात्कार के लिये साहित्य देश टीम विनोद प्रभाकर जी का हार्दिक धन्यवाद करती है।

अन्य विशेष लिंक

विनोद प्रभाकर उपन्यास सूची

सुरेश साहिल उपन्यास सूची

मेरठ उपन्यास यात्रा विनोद प्रभाकर जी के संदर्भ में

वेदप्रकाश वर्मा उपन्यास सूची

4 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक साक्षात्कार। विनय प्रभाकर जी की लेखन यात्रा के विषय में जानकर अच्छा लगा। उनके नवीन उपन्यास की प्रतीक्षा रहेगी।

    जवाब देंहटाएं

  2. उपन्यास सूची ने साक्षात्कार को और शानदार बनाया👍👌

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही शानदार और अतुल्य जानकारी, सुरेश जी से मैं मेरठ में मिला, काफी बातें हुई। शानदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं और आज भी बहुत कुछ जाना तो आश्चर्य के साथ आनंद की अनुभूति भी हुई। अच्छा लगता है एक ऐसे लेखक के बारे में जानना और पढ़ना जिसे पढ़ते हुए कितनों का पचपन बीता। आप दोबारा कामयाबी को छुएं यही आशा है। गुरप्रीत जी को भी बहुत बहुत धन्यवाद, दिलशाद दिलसे

    जवाब देंहटाएं

Featured Post

मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...