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शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

कॉपीराइट : प्रकाशकाधीन - योगेश मित्तल

कॉपीराइट : प्रकाशकाधीन 

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पुराने उपन्यासों में कॉपीराइट के आगे प्रकाशकाधीन लिखा होना एक आम बात थी। कुछ प्रकाशकों ने एक पेजी कॉपीराइट फॉर्म बना रखा था तो कुछ प्रकाशकों का चार पेजी कॉपीराइट फॉर्म होता था। 

नाम से छपने वाले लेखकों से कॉपीराइट फॉर्म भरवाना एक रूटीन प्रक्रिया थी, जबकि मेरे जैसे नाम से न लिखने वाले बदनाम से कॉपीराइट फॉर्म भरवाना इतना जरूरी भी नहीं समझा जाता, बल्कि मुझसे तो बहुत कम बार बहुत कम प्रकाशकों ने कॉपीराइट फॉर्म भरवाये। 

मैंने 'प्रणय' नाम से छपे उपन्यासों के लिए या 'मेजर बलवन्त' नाम से छपे उपन्यास के लिए अथवा 'योगेश' नाम से छपे उपन्यासों के लिए भी कभी कॉपीराइट फॉर्म नहीं भरा। 

लेकिन मैंने कॉपीराइट फॉर्म नहीं भरा, इसे मेरी तड़ी मत समझिये कि मैंने कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया या कोई बहुत बड़ी तोप चला दी। 

दरअसल यह प्रकाशकों की दयादृष्टि ही थी कि वे मुझसे कॉपीराइट फॉर्म नहीं भरवाते थे। 

पर क्यों ? एक दिन यह राज भी फाश हो गया। प्रकाशक साहब का नाम नहीं लूँगा, पर अब जो मैं बताने जा रहा हूँ - वह शत-प्रतिशत सच है, बल्कि ऐसा सच है, जिसे जानने के बाद आप कहेंगे - यह तो आम बात है। ऐसा तो होता ही आया है। 

ऐसा होता ही रहता है। 

एक दिन एक प्रकाशक साहब ढेर सारे कागजों में कुछ तलाश कर रहे थे। किसी लेखक को एडवांस कैश नोट दिए थे, जिसका बाउचर था, जो ढूंढें नहीं मिल रहा था। 

मैंने उनका नाम लेकर पूछा, "हुज़ूर, क्या ढूंढ रहे हैं। इज़ाज़त हो तो खाकसार भी कुछ मदद कर दे।" 

उन्होंने ढेर सारी फाइलें मेरी ओर बढ़ा दीं, "ज़रा देख, इसमें फलाँ राइटर को फलाँ पेमेन्ट का एक बाउचर कहीं बीच में न घुसा पड़ा हो।"


मैं एक-एक फ़ाइल देखने लगा तो एक फ़ाइल पर मेरी निगाहें ठिठक गयीं, जिसमे मेरे नाम के बाउचर और मेरे नाम के कॉपीराइट थे। दोनों में साइन मेरे नहीं थे, लेकिन जिसके भी थे - एक ही राइटिंग थी। 

और ख़ास बात क्या थी - जानते हैं ? 

कल्पना कीजिये............

मैं उन दिनों एक उपन्यास के आठ सौ से पन्द्रह सौ तक लेता था, लेकिन बाउचर और कॉपीराइट में पाँच हज़ार की रकम भरी हुई थी। 

प्रस्तुति- योगेश मित्तल 

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