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बुधवार, 1 जून 2022

राजहंस उपन्यास साहित्य- महत्ता और प्रासंगिकता

लोकप्रिय उपन्यास साहित्य- महत्ता और प्रासंगिकता

(राजहंस के विशेष संदर्भ में) डाॅ. ओकांरनारायण सिंह
  
लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में उपन्यासों की विशिष्टताओं पर कभी कुछ नहीं लिखा गया। किसी भी साहित्य की व्याख्या में उसकी रचनाओं के संदर्भ में जब तक कुछ वर्णन न हो तो उस साहित्य को समझना कुछ क्लिष्ट हो सकता है। इसी संदर्भ में डाॅ.ओंकार नारायण सिंह (सेवानिवृत्त सह-आचार्य, इतिहास) उपन्यासकार राजहंस उर्फ केवलकृष्ण कालिया जी के उपन्यासों की विशिष्टताओं पर यह विशेष आलेख लिखा है, मेरे विचार से यह लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में प्रथम प्रयास है।

               साहित्य जगत के अन्तर्गत लोकप्रिय बनाम गम्भीर साहित्य विषयक विमर्श अनेकविध चर्चित होता रहा है। कथित बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा मान्य साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य को 'स्तरीय' तथा पॉकेट बुक्स रचनाओं को 'लुगदी साहित्य' की संज्ञा से विभूषित किया जाता रहा है। बिना इस तथ्य पर विचार किये कि तथाकथित स्तरीय साहित्य अपवादों के अतिरिक्त प्रायः पुस्तकालयों तक ही सीमित रहता है, जबकि लुगदी साहित्य की पहुँच घर-घर आबालवृद्ध-महिला तक रही है,जो उनके मनोरंजन का साधन बनने के समानान्तर चिंतन-विचार को भी प्रभावित करता रहा है। वस्तुत: यथार्थ साहित्य वह होता है जो सृजनात्मक मानदण्डों पर खरा उतरने के साथ जन-मन के शोध-बोध अथवा मनन-व्यवहार का भी आधार सिद्ध हो‌, यथा रामचरित मानस।

           इसी कसौटी पर प्रेमचंद, शरतचन्द्र, निराला, जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा, सुदर्शन सिंह 'चक्र' प्रभृति कवि साहित्यकारों के समानान्तर लोकप्रिय उपन्यास जगत् के देवकीनंदन खत्री, इब्ने सफी, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज, वेदप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत, सुरेन्द्र मोहन पाठक, राजहंस, राजवंश, गुलशन नंदा, प्रेम बाजपेयी, रानू, कुशवाहा कांत, गुरुदत्त, आचार्य चतुरसेन शास्त्री इत्यादि की समीक्षा की जा सकती है।
           उपर्युक्त विचार दृष्टि से प्रस्तुत शोध-आलेख के अन्तर्गत उपन्यासकार 'राजहंस' उर्फ केवलकृष्ण कालिया  के उपन्यासों की रचना शैली एवं सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के साथ-साथ साम्प्रतिक प्रासंगिकता को निरूपित करने का प्रयास हुआ है। इसी संदर्भ में उनके मार्च -1974 में प्रकाशित 'सुहागिन' उपन्यास से सितम्बर 1998 ई. में प्रकाशित 'वापसी' तक के उपन्यासों को समाविष्ट किया गया है।
   'राजहंस' के उपन्यासों की विशिष्टता-  अन्तर्गत तक छू लेने वाले संवाद, मर्मस्पर्शी भाव-संवेदन तथा प्रत्येक परिवेश-व्यवहार का यथार्थ चित्रण रही है जिस शिद्दत से उन्होने 'सुहागिन, उल्फल, प्यासे सपने, प्यासी आँखें, धुआँ, तमाशा, मेहरबान, भीगा आँचल, नन्हां मसीहा, प्यासी आग और अहसास' उपन्यासों में ग्राम्य-संस्कृति सहजता, सरलता, सरसता का निरुपण किया है और उसी प्रखरता से मानवता, सुनीता, दलदल, तीसरा, आग, आहट, झूठे रिश्ते, भटकन, नसीब, दरिंदा, सौतेला, सेवक, राजा साहब, दुखियारी, आवारा, कोहरा, चिराग, कैसे कैसे लोग, तिनके इत्यादि उपन्यासों में नगरीय जीवन की विसंगति-विद्रूपता, साम्बन्धिक जटिलता, स्वार्थ, वासनान्धता विषयक अपसंस्कृति का भी निदर्शन किया है। 
     ग्राम्य आचार-विचार के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद के कथा साहित्य में वर्णित आमोद-प्रमोद राजहंस के उपन्यास अहसास, छोटी बहू के वैवाहिक वृतांतों में जीवन्त होता प्रतीत होता है। वन्य जीवन की दुरुहताएं जहाँ जोगी, तीसरा, प्यारा दुश्मन, मन मंदिर उपन्यासों में प्रकट हुयी है वहीं अभ्यारण्य संस्कृति की विशिष्टताएं 'प्यार नहीं बिकता', 'वापसी' आदि में अभिव्यक्त हुयी हैं। 
     इसी क्रम में कृषि-फार्मों के संघर्ष-द्वंद्व 'बिरजू, आशियाना, अपना कोई नहीं, बेगाना, संगदिल' उपन्यासों में संपूर्ण मार्मिकता से निर्दिष्ट किये गये हैं। 'जन्मदाता, टूटती दीवारें, फरिश्ता, बसेरा, दर्द' इत्यादि में पार्वत्य जीवन की संघर्षशीलता के समानान्तर 'शिकवा, अधूरी सुहागिन, अधूरा पति, दूरियां, आँधी' उपन्यासों में समुद्रतटीय संस्कृति का वैविध्य निरुपित हुआ है।
         एक ओर चाय बागान विषयक जानकारी 'उल्फत, जीवनसाथी, प्यारा दुश्मन' से उपलब्ध होती है तो दूसरी तरफ दस्यु जीवन का लोमहर्षक विवरण 'नजराना, योगी, तीसरा, सेवक' उपन्यासों में प्राप्त होता है। इसी प्रकार तस्कर प्रवृति की दुरभिसंधियों, अनाचार, विनाश का उल्फ़्त का वर्णन 'दलदल, मजबूर, तिनके, अधूरा पति, राजा साहब, आग' आदि उपन्यासों में अनुरेखन हुआ है। 
    बुर्दाफरोशी (मानवतस्करी) का निर्मम, एवं यंत्रणामय निरुपण 'कसक, उसके पीछे, उल्फ़्त, मनमंदिर, आँधी, छोटी बहू, स्वामी' में करने के समानान्तर देह व्यापारगत, दारुणता, विवशता का चित्रण 'उल्फ़्त, दलदल, अंधेरा, उसके साजन, अंधविश्वास, बेवफा दोस्त, तिनके और कैसे-कैसे लोग' में किया गया है। स
         समकालीन समाज में निर्देशित दबंगों के अत्याचार का मर्मान्तक दिग्दर्शन 'सुहागिन, धुँआ, सिसकता, सवेरा, छाव, नन्हां मसीहा, जलते आँसू, बिरजू, दूरियां' इत्यादि उपन्यासों में हुआ है।
     इसी प्रकार धर्म के चोले में मूर्तिमान पाप का आशियाना, स्वामी, छाव, दरिंदा  आदि में पर्दाफाश किया गया है। आॅनर किलिंग सरीखी सामाजिक बुराई अपने दुष्परिणामों सहित 'नजराना', 'नन्हां मसीहा' में अभिव्यक्त होने के समानान्तर घर-परिवार के अनैतिक संबंधों तथा ढकी-छुपी वेश्यावृत्ति का वास्तविक प्रकटीकरण एवं तत्जनित विभीषिकाओं का शिकवा, प्यासे सपनें, सुनीता, मेहरबान, प्यासी आँखें, मानवता, घायल, टूटती दीवारें, भटकन, पापी, आहट, दुखियारी, फैसला, तमाशा, अन्यायी, बड़ी माँ, हवेली की दुल्हन, कोहरा, सेवक, वापसी, अधूरा पति,  इत्यादि उपन्यासों में सजीव चित्रण हुआ है।
     सामाजिक विद्रूपता और दोहरे मापदण्ड 'तमाशा, अँधेरी राहें, अविश्वास, , भटकन, कड़वा सच, सौतेला, बुजदिल, अहसास, जीवन साथी, बेवफा दोस्त, अधूरा पति' इत्यादि में पूरी प्रबलता से निर्दिष्ट करते हुये उनके कारण अनेक जीवन प्रभावित होने का मार्मिक निरुपण किया गया है। 
    मन जीवन का कटु यथार्थ समूची भाव- संवेदना सहित 'शिकवा, प्यासी आँखें, बिरजू, सुनीता, नजराना, अंगारे, अपना कॊई नहीं, दीदी, प्यार नहीं बिकता, प्यासी आग, चिराग, जलते आंसू' में व्यक्त हुआ है। 
  नियतिगत विडम्बनाएं 'योगी, अविश्वास, तीसरा, अधूरी सुहागिन,  सूना आँगन, बेवफा दोस्त' में जीवन को आमूल चूल परिवर्तन कर देने वाली सिद्ध हुयी हैं।  विश्वस्त बनकर विश्वासघात के रूप में घर-घर की कहानी 'प्यासी आँखें, मानवता, दलदल, भटकन, जीवन साथी, आहट, प्यारा दुश्मन, धुँआ, तिनके, कैसे-कैसे लोग, प्यासी आग के अन्तर्गत शब्दित हुयी हैं। 
बेवफाई की फितरत को उकेरते 'शिकवा, मेहरबान, आहट, टूटती दीवारें,  बेगाना, दुखियारी, नसीब, संगदिल,  मेहंदी रचे हाथ, अहसास' आदि उपन्यासों के समानान्तर प्रीति समर्पण की प्रकाष्ठा 'सुहागिन, प्यासे सपने, बिरजू, अधूरी सुहागिन, झूठे रिश्ते, टूटा सपना, नसीब, प्यार नहीं बिकता, दूरियां, बसेरा' आदि में मुखर हुयी है।
      राजहंस के विविधरंगी रचना-संसार के अन्तर्गत जहाँ 'शिकवा, दलदल, पापी, जन्म दाता, आग' में उन्मुक्त महाविद्यालयीन परिवेश निर्दिष्ट होता वहीं 'मेहरबान, सूना आँगन, बसेरा' में फौजी जीवन की विशिष्टताएं निर्दिष्ट हुयी हैं। एक ओर राजनीतिज्ञों द्वारा युवावर्ग को स्वार्थ साधन बना दिग्भ्रमित तथा पतित करने का चित्रण 'आग, औरत, नासूर' आदि में हुआ है  तो दूसरी ओर कौतुहल, लालसा भरे मासूमों को पथभ्रष्ट कर उनका जीवन नष्ट करने के ज्वलंत उदाहरण 'कसक, जीवन साथी, छोटी बहू, तिनके, दूरियां, मनमंदिर, स्वामी' आदि में उपलब्ध होते हैं। इसी क्रम में दहेज के दंश समानान्तर दहेज कानून के दुरुपयोग का मार्मिक विवरण 'मेंहदी रचे हाथ' उपन्यास में निरुपित हुआ है। जबकि 'कड़वा सच' में घर- समाज में परिव्याप्त दबी-ढकी सड़ांध समूर्त होती है।
   समलैंगिकता की व्यथा 'झूठे रिश्ते', तथा 'दरिंदा' में वहाँ मर्मस्पर्शी रूप से अभिव्यक्त होती है वहीं ड्रग्स के दावानल में झुलसती नयी पीढी का यातनामय जीवन 'तीसरा, चिराग, प्यार नहीं बिकता, कैसे-कैसे लोग' में निरुपित हुआ है। अभिजात संस्कृति के वैभव का 'बड़ी माँ, हवेली की दुल्हन, टूटा सपना' उपन्यासों में निदर्शन उपन्यासों के समानान्तर दारिद्रय की वेदना एवं शोषण 'घायल, अँधेरी राहें, उसके पीछे, नन्हां मसीहा, दीदी, भीगा आँचल' आदि में मुखरित हुयी है। 'बेवफा दोस्त' में मित्रता जा चरम तथा 'आवारा' में प्रतिशोध की दारुणता निर्दिष्ट हुयी है। 
'प्यासी आँखें' में वैवध्य तथा पुनर्विवाह की कारुणिकता का विपरीत पदन 'तमाशा' में विधुर के बेमेल पुनर्विवाह के दुष्परिणामों के रूप में प्रकट हुआ है। संदेह के दंश से त्रस्त जीवन 'अधूरा पति, अविश्वास, दर्द और बेवफा दोस्त' के अन्तर्गत एक ऐसी भूल की भेंट चढ जाते हैं, जो कभी हुयी ही नहीं थी। 'जन्मदाता' येनकेन प्रकातेण वासनापूर्ति के परिणामस्वरूप उत्पन्न जीवन की व्यथा तथा वैधानिकता को प्रश्नबद्ध करती है। 'तमाशा' मृगमरीचिका ग्रस्त साम्बन्धिक जटिलताओं का दस्तावेज है।  'भटकन' नारी मन जीवन की अधूरी लालसाओं का कथानक है।  बचपन के प्यार की नियतिगत विडम्बना के निवारणार्थ सहारा देने के बावजूद सामाजिक प्रताड़ना से विचलित होकर बेसहारा  कर दिये जाने की कापुरुषता का रेखांकन 'बुजदिल' में किया गया है, इसी प्रकार हर्षित नारी के बलात्कारी के साथ ही सामाजिक रीति नीति की विवशतावश विवाह कर दिये जाने के बाद की मन:स्थिति अथवा संत्रास का जीवंत वर्णन 'सुहागिन' तथा 'सौतेला' में निर्दिष्ट हुआ। पति द्वारा पत्नी के पतन का कारण भूत होने की लिप्सा, कुत्सितता 'अँधेरी राहें, दरिंदा, तमाशा, दूरियां' में पिता द्वारा पुत्री तथा भाई द्वारा बहन के प्रति ऐसी ही वंचना क्रमशः 'अन्यायी, घाव, मेहरबान, अधूरा पति' में निर्देषित करते हुये संबंधों का काला पक्ष उजागर किया गया है। 
समकालिक लेखक-प्रकाशक द्वंद्व से सम्बद्ध विवादों का निरुपण 'अँधेरा' में हुआ है। पिता की भूलों का दुष्परिणाम पुत्र द्वारा और भाई की भूल का खामियाजा बहन द्वारा भुगतना क्रमशः 'फैसला, प्यास, दुश्मन, आवारा, मानवता, चिराग' में मार्मिक रूप से अभिव्यक्त हुआ है। इसी प्रकार हत्यारे द्वारा किसी की हत्या किये जाने पर उससे जुड़े ‌लोगों के जीवन एवं सपनों की भी उसके साथ ही हत्या हो जाने का चिरंतन यथार्थ, उसके पीछे में शिसात्मक दृष्टि से प्रदर्शित हुआ है।
  सारांशत: लोकप्रिय साहित्य में परिगणित उपन्यासों के रचयिता राजहंस की भावप्रवण भाषा शैली, संवाद संवेदन, विषयचयन, मार्मिक व्यथा, अभिव्यंजना, प्रासंगिकता व यथार्थ प्रस्तुतीकरण उनके साहित्य को गंभीर साहित्य से किसी भी प्रकार कमत्तर नहीं रहने देता। प्रत्यत् स्तरीयता की कसौटी पर खरा सिद्ध होने के समानान्तर मात्र पुस्तकालयों की शोभा बढाने के स्थान पर जन-मन को आंदोलित करते हुये प्रचुर पाठक समुदाय अर्जित करता है। 
          प्रणय प्रतिगत वेदना, कसक के समानान्तर प्रेमिल भाव, संवेदनागत, उत्फुल्लता, हासविलास के हृदयस्पर्शी निदर्शन तो उनके अधिकांश उपन्यासों की विशेषता है। साथ ही परित्यकता, विधवा व अपहृत महिला के प्रति संकुचित दृष्टि-व्यवहार, पितृसत्तात्मक संस्कृति के अन्तर्गत नारी-पुरुष के विचलन के प्रति दोहरे मापदण्ड, धार्मिकता के कलेवर में पनपती कलुषता, संबंधों की ओट में बढते दुराचार और आसक्ति, शोषण, षड्यंत्रगत उभयपक्षीय प्रलोभन-पतन की अपसंस्कृति का भी प्रकटीकरण उनकी लेखनी द्वारा हुआ है।  समकालीन 'आॅप्रेशन ब्लू स्टार' के संदर्भ में रचित उपन्यास 'स्वामी', सुपारी किलिंग को निदर्शित करते हुये 'आग, दलदल, छोटी बहू, प्यासी आग, बिरजू, सूना आंगन' इत्यादि युगीन प्रासंगिक विषयों को संस्पर्शित करते हैं। काॅलेज परिवेशगत प्रदूषण 'पापी, अधूरी सुहागिन, आग, नासूर' आदि उपन्यासों में तथा नाश के पर्याय नशे से उद्भूत दारुण गाथा 'तीसरा, चिराग, आवारा' में अभिव्यक्त हुयी है। 
     कतिपय संवाद सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक कोटि के  प्रतीत होते हैं। यथा...
- तो मेरे साथ जी नहीं तो मेरे भी क्यों? (शिकवा)
-  जो प्यार करते हैं वे नफरत नहीं कर पाता करते,  जो नफरत कर सकते हैं, उन्हे प्यार कभी था ही नहीं। (प्यासे सपने)
- जो सह नहीं सकता, वह लिख भी नहीं सकता। वह केवल शब्दों का जाल बुन सकता है। (अँधेरा)
- जब भी दर्द सहने की सीमा से आगे निकलने लगता है, उसे पन्नों पर बिखेर कर देखता रहता हूँ। (मेहरबान)
- जिस खून की गर्मी में आज तुम स्वयं को गलाती चली जा रही हो, उसी का रंग चुराकर पन्नें रंगती चली जाओ। (भटकन)
- जिंदगी बेवफा हो सकती है,....पीड़ा बहुत वफादार होती है। (दीदी)
- उप‌न्यासकार कोई भी हो, यदि अनुभव के आधार पर लिखता है तो वह मनुष्य होकर मनुष्यों की बात ही करता है। (दुखियारी)
प्रस्तुति-
डाॅ.ओंकार नारायण सिंह, सेवानिवृत्त सह-आचार्य, इतिहास, 
पुरोहितों का वास,
समदड़ी रेलवे स्टेशन(जिला बाड़मेर)राजस्थान






7 टिप्‍पणियां:

  1. राजहंस के नाॅवल के संबंध में अच्छी जानकारी दी गयी है।

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  2. बहुत बढ़िया जानकारी - धन्यवाद 🌹👌

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  3. इस अभिनव प्रयास के लिए हार्दिक बधाई
    एक समय था जब राजहंस के नए उपन्यास के लिए प्रतीक्षा रहती थी।
    अत्यंत ही रोचक ज्ञानवर्धक और सारगर्भित आलेख

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  4. राजहंस जी के अच्छे उपन्यासों की सूची में एक उपन्यास अजनवी था जिसका कथानक तो अब या्द नहीं... लेकिन ये जरूर कहूँगा कि ये उपन्यास बहुत ही अच्छा था।

    आज युवा और प्रौढ बहुत व्यस्त हो गये हैं और जो समय मिलता है वो टीवी के विभिन्न कार्यक्रमों में निकल जाता है। उन उपन्यासों के पात्रों जैसी भावनाओं का आज अभाव है इसलिये युवाओं का आकर्षण भी पुस्तकों के प्रति नहीं रहा।

    अब ऐसे दौर में भूल चुकी किताबों व कलमकारों को सामने लाने का आपका प्रयास अति सराहनीय है गुरप्रीत जी। आपको शुभकामनायें।

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  5. अच्छी समीक्षा

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  6. राजहंस के उपन्यास काफी पढ़े है।उनकी याद ताजा कराने के लिए धन्यवाद
    आलेख बहुत ही रोचक और ज्ञान वर्धकहै। इस नवाचार के लिए बहुत बहुत बधाई।

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