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शनिवार, 3 अप्रैल 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-04

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा

जैसा कि मैं आपको पहले बता चुका हूं कि स्कूल के दिनों में मैं स्कूल से भागकर किसी एकान्त जगह में छुप जाया करता था या अपने आवारा दोस्तो के साथ दिन भर मटरगस्ती करता रहता था। चूंकि उन दिनों में मैं बीड़ी पीना और तंबाकू खाना, दोनों गंदी आदतें सीख चुका था, इसलिए इस आवारगी के कारण मुझे अपने अध्यापकों से सिर्फ एक बार नहीं, बल्कि अनेक बार मार खानी पड़ी और मुर्गा भी बनना पड़ा।

इसका नतीजा ये हुआ कि मैंने अपने आवारगी भरे जीवन की रक्षा और सुरक्षा के लिए कक्षा चार में पढ़ाई छोड़ दी थी ।

फिर जैसा कि मैं आपको पहले बता चुका हूं कि कक्षा चार की पढ़ाई मैंने अपनी बुआजी के पास जयपुर रहकर की थी ।

कक्षा चार जयपुर से पास करने के बाद मैं वापस अपने गांव रूपगढ़ लौट आया था और एक बार फिर किसी अड़ियल टट्टू की तरह मैं स्कूल न जाने के लिए अड़ गया था ।

फिर घरवालों के बाद अध्यापकों द्वारा बहुत समझाने पर मैंने दुबारा स्कूल में एडमिशन उनके सामने ये शर्त रखकर लिया कि आइंदा न तो कोई अध्यापक मुझे मारेगा और न ही कोई स्कूल का गृहकार्य करने के लिए देगा । 

कहने का मतलब ये है साहेबान कि मेरी इस आवारगी ने भी मेरे साथ ही इस धरती पर जन्म ले लिया था, जो किसी पक्के दोस्त या जुड़वां भाई की तरह आज भी मेरा साथ बड़ी वफा से निभा रही है।

कभी-कभी मुझे यूं लगता है कि जैसें मैं इस दुनिया का प्राणी न होकर किसी दूसरे ग्रह से आया हुआ एक एलियन हूं, जिसका कि अंतरिक्ष यान इस धरती पर उतरते ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और इस वजह से मैं पुनः अपने ग्रह पर नहीं जा सका।

और मेरी ये धारणा बनी शायद इस वजह से, क्यों कि मुझे इस दुनिया के बहुत से तौर तरीके आज भी पसंद नहीं है ।

मेरी कल्पना की दुनिया वो है, जिसमें युद्ध, हिंसा, ईर्ष्या, नफरत, और अहंकार का कहीं नामो निशान तक न हो, बल्कि उनकी जगह, सत्य, इंसाफ, प्रेम, सहयोग और भाईचारे का बोलबाला हो। मेरी कल्पना की दुनिया वो है, जिसमें न केवल रस्मो - रिवाजों में, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अंहकार भरा धन - दौलत का झूंठा दिखावा न हो, बल्कि उसकी जगह वास्तविक प्रेम, अपनापन और सादगी हो, ताकि गरीब लोग भी सामाजिक और धार्मिक रस्मो - रिवाजों को बिना किसी का कर्जदार बने आसानी से निभा सके और यूं वे अपना जीवन बिना किसी हीन भावना के सम्मान पूर्वक बीता सके।

मेरी कल्पना की दुनिया वो है, जिसमें केवल इंसान ही नहीं, बल्कि इंसानों के साथ - साथ हर पशु - पक्षी और हर पेड़ - पौधा भी बिना किसी डर - भय के स्वतंत्रता के साथ रह सके और अपना सम्पूर्ण जीवन हंसी - खुशी के साथ बीता सके।  

मैं अपने द्वारा बसाई हुई ऐसी ही काल्पनिक दुनिया में आज भी बड़े मजे से रहता हूं और दुनिया में अज्ञानी, अहंकारी और अत्याचारी लोगों की वजह से घटनेवाली सभी घटनाओं और दुर्घटनाओं को किसी तटस्थ दर्शक की तरह निर्लिप्त भाव से देखता रहता हूं।

खैर !

ये दार्शनिक बाते फिर कभी सही। अब मैं अपने जीवन के उन क्षेत्रों को आपके सामने उजागर करना चाहता हूँ, जिन क्षेत्रों में मैं अपनी आवारगी के बावजूद भी बहुत ज्यादा रूचि लेता था और जिनमें चाहे अल्प मात्रा में ही क्यों न सही, पर मुझे कामयाबी जरूर मिली थी।

उनमें से पहला क्षेत्र है पेंटिंग का, जिसका मुझे बचपन से ही बहुत ज्यादा शौक था।

और मुझे ये शौक लगा था सुभाष भाईसाहब की वजह से, जो उन दिनों अपनी पेंटिग की अभ्यास पुस्तिका में बहुत ही सुंदर - सुंदर चित्र बनाया करते थे।

उनके देखा - देखी मैं भी कक्षा एक से ही चित्र बनाने की कोशिश करने लगा।

सबसे पहले मैंने एक आम का चित्र बनाया था और उसके बाद मैंने फूल - पत्तियों के, अनेक प्रकार के पशु - पक्षियों के, प्राकृतिक सिनरियों के और कार्टून जैसे लगने वाले अनैक स्त्री - पुरुषों के भी चित्र बनाए थे।

मेरे द्वारा बनाए हुए ये चित्र ज्यादा सुंदर तो नहीं हुआ करते थे, पर स्कूल का गृहकार्य करने की बजाय मुझे ऐसे चित्र बनाने में बहुत ही ज्यादा मजा आता था।

उन चित्रों में मैं रंग भी भरा करता था, जो मैं भाईसाहब की रंग वाली डिबिया से चुपके से ले लिया करता था।

फिर कक्षा पांच में आने के बाद स्कूल खेल प्रतियोगिता में मैंने महाराणा प्रताप का एक रंगीन चित्र बनाया था, जो निर्णायकों द्वारा बहुत ही सराहा गया और जो सभी स्कूलों के प्रतिभागियों के चित्रों से सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया।

कक्षा 6 में मैंने वैसी ही प्रतियोगिता में एक बार फिर से अपना हाथ आजमाया था।

इस बार मैंने अकबर का चित्र बनाया था, जो पहले की तरह इस बार भी सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया था।

मेरी ये रूचि बाद में टीचर्स ट्रेनिग के दौरान भी खूब काम में आईं, जहां हमे ढेर सारे चित्र बनाने पड़ते थे।

पर ये कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं है कि मैं व्यवसायिक चित्रकारों की तरह इस क्षेत्र में कभी भी एक्स्पर्ट न बन सका। बस मैं काम चलाऊ चित्रकारी किया करता था, जो कभी - कभी मूड होने पर मैं आज भी कर लेता हूँ।

दूसरी रूचि मेरी संगीत में थी ।

बचपन में मैंने अपने पिताजी के रेडियो से और कुकनवाली के राजा बन्ने सिंह जी के भोपूनुमा चूड़ी बाजे से बहुत सारे फिल्मी गाने सुने थे, जिनको मैं अपने सुभाष भाईसाहब की देखा - देखी कभी - कभार गुनगुना भी लिया करता था।

फिर बाद में मैंने कक्षा 5 से लेकर कक्षा 8 तक स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर खूब सारे देशभक्ती गीत गाए और भाषण भी दिए।

उन कक्षाओं में मैने हिंदी की पाठयपुस्तकों में बहुत सारी कविताएं पढ़ी और उनके अलावा आदरणीय हरिवंश राय बच्चन की काव्य पुस्तक "मधुशाला" भी पढ़ी, जो हमारे घर में पहले से ही मौजूद थी और जिसके कारण मेरी भी रूचि कविताएं और गीत लिखने में हो गई।

मैं आदरणीय बच्चन साहेब की तर्ज पर उनकी तरह ही रूबाईयां भी लिखने लगा था, पर न जाने मेरी वे रूबाईयां अब कहां खो गई है।

फिर मैंने ईसवी सन् 2000 के आसपास उपन्यास लेखन बंद करने के बाद गीत और ग़ज़ल लेखन में फिर से रूचि ली और बहुत सारे गीत और ग़ज़लें लिख डाली।

फिर मैंने उन ग़ज़लों को खुद ही गाकर कैसेट रिकॉर्ड कराने का इरादा किया, इसलिए साहेबान इस इरादे को अंजाम देने के लिए आपका ये आवारा बंजारा जा पहुंचा जयपुर।

वहां जयपुर में मैंने किंग स्टूडियो में जाकर इस कार्य की शुरुआत की।

किंग स्टूडियो के मालिक ने मेरी गायकी सुनी और सुनने के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि तुमने गजलें तो बहुत ही उम्दा किस्म की लिखी है, पर संगीत का नॉलेज और रियाज न होने की वजह से तुम्हारी गायकी में ज्यादा दम नहीं है, इसलिए मेरी तो यही सलाह है कि इन ग़ज़लों को तुम किसी म्यूजिक कंपनी को बेच दो, ताकि वो किसी स्थापित गायक से ये गजलें सिंगिंग करवाकर कैसेट रिकॉर्ड करवा सके।

पर इसके लिए मैं तैयार न हुआ। मैंने जिद्द पकड़ली कि इन ग़ज़लों को गाऊंगा तो सिर्फ मैं ही, वरना और कोई भी नहीं गाएगा।

मेरी ये जिद्द देखकर स्टूडियो मालिक ने कैसेट रिकॉर्डिंग से पहले चार - पांच दिनों के लिए मेरी रियाज का प्रबंध कर दिया था, ताकि रिकॉर्डिंग अच्छी हो।

उसी दौरान स्टूडियो में मेरी ग़ज़लें सुनने विश्व प्रसिद्द और फिल्म "नाम" में एक शानदार कव्वाली गाने वाले अहमद हुसैन और मुहमद्द हुसैन भी आए थे।

उन्होंने रियाज ख़तम होने के बाद मुझसे पूछा था कि क्या तुम ये ग़ज़लें बेचने के इच्छुक हो? यदि हो, तो तुम्हे अच्छे - खासे पैसे मिल सकते हैं।

मैंने कहा - नहीं, बिल्कुल भी नहीं। चाहे जो कुछ भी हो जाए, पर ये गजलें सिर्फ और सिर्फ मैं ही गाऊंगा।

मेरा साफ - साफ इंकार सुनकर उन्होंने ज्यादा जिद्द नहीं की । फिर उन्होंने मुझे सलाह देते हुए कहा कि ठीक है, जब तुम्हारी  इतनी ही ज्यादा इच्छा है, तो तुम्हीं गाओ, पर कैसेट रिकॉर्डिंग से पहले किसी योग्य गुरु के पास जाकर मौसिकी की तालीम जरूर लो और कम से कम पांच - छ: महीने उनकी देखरेख में रियाज जरूर करो, वरना तुम्हारे कैसेट रिकॉर्डिंग के पैसे बर्बाद चले जाएंगे।

ये कीमती सलाह देने के बाद वे स्टूडियो से वापस चले गए।

फिर तो वहां पर म्यूजिक कम्पनियों के एजेंटों की जैसे बाढ़ ही आ गई थी।

मेरी उन गजलों की लाखों की कीमत लगाई गई, पर मैं तो इस दुनिया का एक ऐसा अलबेला बंदा हूं, जो सिर्फ अपनी ही शर्त पर और अपनी ही इच्छा के मुताबिक चलने और जीने में यकीन करता है, इसलिए वे लाखों रुपए मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते थे, पर बाद में मैंने महसूस किया कि मुझे रियाज कराने वाले साजिंदे अब उतना इंट्रेस्ट नहीं ले रहें है, जितना कि उन्होंने शुरू - शुरू में लिया था, इसलिए मैंने निराश होकर स्टूडियो ही बदल लिया और फिर बी. एस. बी. नाम वाले स्टूडियो मैं जाकर रियाज करने लगा।

वहां मुझे विश्वप्रसिद्ध संगीतकार और ग्रैमी अवार्ड प्राप्त आदरणीय विश्व मोहन भट्ट जी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिन्होंने  "मोहन वीणा" नाम के एक नए साज का आविष्कार कर दुनिया में अपना नाम रोशन किया था।

उसी स्टूडियो में मेरी मुलाकात प्रसिद्द फिल्म निर्माता के. सी . बोकाड़िया जी के छोटे भाई से हुई थी, जिनका अब मुझे नाम याद नहीं है, और जो उन दिनों एक म्यूजिक कंपनी खोलने का इरादा रखते थे।

मैंने सिर्फ चार - पांच दिन तक उस स्टूडियो में रियाज किया और फिर मैंने फिल्म `नाम` के विश्वप्रसिद्ध कव्वाली गायक अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन जी के सगे भाई नाजिम हुसैन जी के संगीत निर्देशन में अपनी आठ ग़ज़लें रिकॉर्ड करवा ली।

पर उस रिकॉर्डिंग में नाजिम हुसैन जी का संगीत और मेरी आवाज तो अच्छी थी, पर गाने के दौरान कहीं - कहीं पर मैं ताल में चूक गया था, इसलिए उस कैसेट में वो क्वालिटी नहीं आ पाई, जो म्यूजिक कंपनियों के लिए दरकार होती है।

और इसका कारण ये था कि मैंने किसी भी गुरु के पास जाकर संगीत की औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, इसलिए मैं उसकी ए. बी. सी. डी. भी नहीं जानता था।

दूसरा कारण ये था कि ये एक लाइव रिकॉर्डिंग थी, जो लगातार एक ही बैठक में पूरी की गई थी और जिसमे कम से कम सात - आठ घंटे लगे थे, इसलिए मैं बुरी तरह थक गया था और इस वजह से मैं अपनी एकाग्रता और धैर्य कायम नहीं रख सका था।

और तीसरा कारण ये था कि रिकॉर्डिंग के दौरान मुझमें आत्मविश्वास की बहुत ज्यादा कमी थी और मैं मन ही मन इस बात से डर रहा था कि कहीं मैं सुर - ताल से चूक न जाऊं।

हालांकि मुझे अपनी गलतियां सुधारने के लिए दुबारा गाने का चांस भी दिया गया था, पर दुबारा मिले उस चांस में मैंने अपनी पहली बार की गई गलतियां तो सुधार ली थी, पर कई नई जगहों पर हल्की सी गलतियां फिर से कर दी थी ।

चूंकि स्टूडियो वाले टाइम के हिसाब से चार्ज कर रहे थे और साजिंदे भी अब घर जाने की जल्दी मचाने लगे थे, इसलिए मैं उन ग़ज़लों को तीसरी बार सुधारकर नहीं गा सका।

खैर, जैसे - तैसे कर वो रिकॉर्डिंग पूरी हुई और फिर मैंने नोयेडा जाकर " टी सीरीज" वालो को वो कैसेट सुनाया।

उन्होंने कैसेट सुनने के बाद कहा कि तुम्हारी आवाज तो अच्छी है, पर तुम्हे किसी योग्य गुरु की देखरेख में कम से कम छ महीने तक मौसिकी की तालीम लेने और उनकी देखरेख में रियाज करने की सख्त जरूरत है, ताकि तुम्हारे सुर - ताल में और भी ज्यादा निखार आ सके और तुम और भी ज्यादा अच्छे तरीके से गा सको। ये सब पूरा करने बाद तुम दुबारा हमारे पास आना। हम ये कैसेट फिर से रिकॉर्ड करवाकर तुम्हे चांस जरूर देंगे।

मैंने रियाज के लिए सीकर में मौजूद खान घराने से संपर्क किया। उस घराने का एक सदस्य मुझे रियाज कराने के लिए तैयार भी हो गया।

फिर मैंने लगभग पंद्रह - बीस दिन तक उनकी देखरेख में रियाज किया भी, परन्तु अपनी नौकरी के चलते मैं अपनी ये रियाज आगे जारी न रख सका।

इस प्रकार मेरा ग़ज़ल गायक बनने का ये सपना धरा का धरा ही रह गया।

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि जिस खान घराने में मैं रियाज करने के लिए जाया करता था, उसी खान घराने में पैदा हुए थे प्रसिद्द मांड गायक मोइनुद्दीन खान साहेब और प्रसिद्द सारंगी वादक और गायक सुल्तान खान साहेब, जिन्होंने -"पिया बसंती  रे, काहे को नैन लड़ाए" गाना गाकर देश - विदेश में खूब धूम मचाई थी और भरपूर शौहरत हांसिल की थी और जिनको बाद में लता मंगेशकर पुरस्कार से भी नवाजा गया था।

तो दोस्तों, ये था मेरा छोटा सा संगीत की दुनिया का सफर।

इस सफर के बाद मैं आपको अपने खेलों के सफर की ओर लिए चलता हूँ।

बचपन में मेरी खेलों में भी बहुत ज्यादा रुचि थी। मैं अपने दोस्तों के साथ दिनभर स्थानीय खेल लुका - छिपी, सात ताली, मालदड़ी, झूरी - डंका और गुल्ली - डंडा खेला करता था । फिर स्कूली पढ़ाई के दौरान मैं रिंगबॉल, बॉलीबॉल और खो - खो का भी एक अच्छा प्लेयर बन गया।

उन्हीं दिनों हमारे पास के गांव जीणमाता में आयोजित एक स्कूली खेल प्रतियोगिता में हमारी टीम रिंगबाल में दूसरे स्थान पर रही और बॉलीबॉल में प्रथम स्थान प्राप्त कर ट्रॉफी जीती थी और मैं उन दोनों ही टीमों का सदस्य था।

चूंकि हमारे स्कूल ने लगभग पंद्रह - बीस साल बाद किसी खेल प्रतियोगिता में ट्रॉफी जीती थी, इसलिए खूब खुशियां मनाई गई और सबसे ज्यादा मुझे ही सिर आंखों पर बिठाया गया, क्यों कि दोनों ही टीमों में कदकाठी और उम्र के हिसाब से मैं सबसे छोटा खिलाड़ी था।

बाद में हम डिस्टिक टूर्नामेंट खेलने के लिए पालड़ी नाम के गांव में भी गए थे, पर दुर्भाग्यवश हमें वहां पर कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी थी।

आपकी जानकारी के लिए मैं बतादूं कि मैं क्रिकेट का भी काफी अच्छा खिलाड़ी रह चुका हूँ।

सीकर कॉलेज की क्रिकेट टीम का मैं भी एक सदस्य रहा था और उस टीम में रहकर मैंने दूसरी टीमों के साथ खूब मैच खेले और खूब मैच जीते भी, परन्तु उस टीम का मैं एक साल से ज्यादा सदस्य नहीं रह सका।

और वो इसलिए, क्यों कि मेरे साथ जन्मी मेरी आवारगी ने एक बार फिर मुझे याद दिला दिया था कि तेरा जन्म सिर्फ रट्टू तोता बनकर पढ़ने के लिए नहीं हुआ है, बल्कि मौज - मस्ती के साथ कुछ बड़ा कार्य करने के लिए हुआ है।

अब इस लेख की रेखा को मैं एक अदना सा जीव भला कैसे मिटा सकता था?

इस वजह से मैंने एक बार फिर अपनी पढ़ाई को टा- टा, बाय- बाय बोल दिया था और इस तरह मैं अपने कॉलेज की टीम का एक साल से ज्यादा सदस्य नहीं रह सका।

हमारे गांव में क्रिकेट की शुरुआत कैसे हुई, इसकी भी एक रोचक दास्तान है।

तो चलिए दोस्तों लगे हाथ मैं आपको वो रोचक दास्तान भी सुना ही देता हूँ।

हुआ यूं कि मेरे सुभाष भाईसाहब ईस्वी सन् 1979 में जयपुर शहर की दरबार स्कूल में कक्षा 10 में पढ़ते थे।

वहीं पर उनका क्रिकेट से फर्स्ट इंट्रोडक्शन हुआ।

बाद में गांव आने पर उन्होंने  अपनी अंगूली की सहायता से जमीन पर क्रिकेट मैदान का नक्शा बनाकर हम सबको क्रिकेट खेलने के तरीके और उस खेल के नियमों की जानकारी दी।

हमें क्रिकेट नाम का वो खेल बहुत ही रोमांचक लगा था और हम इस खेल को खेलने के लिए लालायित हो उठे।

शीघ्र ही प्लास्टिक की एक हल्की - फुल्की बॉल का और एक छोटे से डंडे का इंतजाम किया गया और हम उनसे क्रिकेट खेलने लगे।

कुछ दिनों तक यूं ही खेलते रहने के पश्चात हमने असली बैट की तरह का एक बैट बनाने का प्लान बनाया, पर वैसा बैट बनाने के लिए हमारे पास लकड़ी नहीं थी।

हम जानते थे कि एक सूनी हवेली में पड़ौस के बनियों ने बबूल की खूब सारी सूखी लकड़ियां जमा कर रखी है।

फिर क्या था जनाब। एक रोज हमारी क्रिकेट टीम के कुछ हौंसलामंद खिलाड़ी दिन - दहाड़े उस सूनी हवेली में जा घुसे और बैट बनाने के लिए वहां से एक मजबूत सी लकड़ी चुरा ली।

      उन दिनों वर्तमान में हम जिस हवेली में रह रहे हैं, वो भी सूनी ही रहा करती थी और हम अपने गांव वाले पुश्तैनी मकान में रहा करते थे, इसलिए हमारे वाली सूनी हवेली में वो चुराई हुईं लकड़ी लाई गई और कुल्हाड़ी से काट - पीटकर उस लकड़ी का असली बैट जैसा एक बैट बनाया गया।

वो बैट बनाने के बाद बॉल की समस्या सामने आ खड़ी हुई, क्यों कि अब वो हल्की - फुल्की प्लास्टिक की बॉल इस भारी - भरकम बैट का साथ नहीं निभा सकती थी ।

इस समस्या का हल निकाला मेरी माताजी ने।

उन्होंने अपने बक्से में से निकालकर लकड़ी से बनी हुई एक बहुत ही पुरानी रंगीन बॉल, जो उनको उनके मायकेवालों ने बहुत साल पहले दहेज में दी थी, हमारे हाथ में थमा दी।

उस बॉल को प्राप्त कर हम यूं खुश हो गए थे, जैसे कि उन्होंने लकड़ी की नहीं, बल्कि सोने - चांदी की बॉल हमारे हाथ में थमा दी हो ।

इस प्रकार उस चुराए हुए बैट से और मेरी माताजी द्वारा दी गई उस लकड़ी की रंगीन बॉल से हमारे गांव में विधिवत क्रिकेट खेलने की शुरुआत हो गई थी।

पर उस लकड़ी की बॉल को कैच करना बहुत ही मुश्किल कार्य थाक्यों कि वो हमारी हथेलियों से आकर यूं टकराती थी, जैसे कि कोई पत्थर आकर टकराया हो । बैटिंग करते वक्त भी यही परेशानी होती थी।

इस कारण कई खिलाड़ी चोटिल भी हो गए थे । फिर बाद में मेरे पवन भाईसाहब दांता नाम के  कस्बे से काले रंग की एक ऐसी बॉल लेकर आए, जो किसी टैक्टर के खारिज हुए पिछले टायर को काट - पीटकर तैयार की गई थी।

इस गेंद से हम बहुत दिनों तक खेले और बहुत सारे चौके भी लगाए, पर छक्के हम ज्यादा नहीं लगा सके, क्यों कि वो बबूल की लकड़ी का बैट बहुत ही भारी था।

फिर कुछ दिनों बाद सुभाष भाईसाहब जयपुर से मात्र 45 रूपयों में एस. एल. बी . नाम की कंपनी का एक सफेद रंग का बैट और दो कॉर्क की बॉल खरीद कर लाए। उनको देखते ही हम यूं खुश हो गए थे, जैसें की हमारे हाथ कोई कुबेर का खजाना लग गया हो।

कई दिनों तक हमने इस बैट और कॉर्क वाली गैंद से खेलकर खूब अभ्यास किया।

फिर एक रोज हम मैच खेलने के लिए जा पहुंचे पास के गांव - बानूड़ा।

बानूड़ा का क्रिकेट ग्राउंड लार्डस के ग्राउंड की तरह बहुत ही सुन्दर और शानदार था।

पूरे ग्राउंड में हरी - हरी दूब उगी हुई थी।

हमारी टीम के कप्तान सुभाष भाईसाहब थे, जो सुनील गावस्कर की तरह बहुत ही अच्छे ऑपनर थे और जो चौके लगाने में बहुत ही ज्यादा माहिर थे।

उनसे छोटे पवन भाईसाहब लिली और थॉमसन की तरह फास्ट बॉलर थे।

और आपका ये ख़ाकसार अपनी उस छोटी सी उम्र में अपनी योग्यता के दम पर नहीं, बल्कि रो - धोकर और जिद्द पकड़कर उस टीम में शामिल हुआ था।

कुछ भी हो, पर आस्ट्रेलिया के चैपल बंधुओ की तरह हम तीनो भाई रूपगढ़ की उस क्रिकेट टीम में शामिल थे।

उन दिनों सीमित ऑवर्स के मैच नहीं, बल्कि पांच दिवसीय मैचों  की तर्ज़ पर दो - दो पारियों के मैच खेले जाते थे।

सुभाष भाईसाहब ने बैटिंग में दम दिखाया तो पवन भाईसाहब ने बॉलिंग में।

उस मैच के दौरान पवन भाईसाहब ने अपनी गोली की रफ्तार जैसी सनसनाती हुई बॉलिंग से कुल तीन स्टंब तौड़े थे और कई विपक्षी खिलाड़ियों को चोटिल किया था।

सांवरमल स्वामी नाम के विपक्षी खिलाड़ी को तो इतनी गहरी चोट लगी थी कि वो दस - पंद्रह मिनट तक के लिए बेहोश ही हो गया था।

हमारी टीम के कुछ अन्य खिलाड़ियों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया था।

और आपके इस ख़ाकसार को सिर्फ एक ही पारी में बैटिंग करने का मौका मिला था और वो भी सबके अंत में।

उस पारी मैं मैंने सिर्फ एक रन बनाया था और नॉट आउट रहा था।

पर कुछ भी हो, हमने वो मैच छ रनों से जीत लिया था।

फिर बाद के दिनों में हमने कई गांवों की क्रिकेट टीमों से मैच खेले, जिनमें अधिकतर हमारी ही टीम की जीत हुई थी।

पर समस्या ये थी कि उस टीम में मेरे जैसी छोटी उम्र वाले खिलाड़ियों को कभी शामिल कर लिया जाता था, तो कभी नहीं भी, जो हमारे लिए बड़े ही दुख - तकलीफ वाली बात हुआ करती थी।

इसीलिए हमने उस टीम से अलग होकर एक नई टीम बनाली और उस टीम की कप्तानी की जिम्मेदारी मेरे साथियों द्वारा मुझे सौंप दी गई।

वक्त बीतने के साथ - साथ हम भी खेलने में काफी एक्स्पर्ट हो गए थे और अपने सीनियर खिलाड़ियों के कान कतरने लगे थे।

उस वक्त हमारे हीरो सुनील गावस्कर, चैतन चौहान, गुंडप्पा विश्वनाथ, महेंद्र अमरनाथ, मदनलाल, विशन सिंह बेदी, सैयद किरमानी, कृस्न घावरी और चंद्रशेखर हुआ करते थे और हम रेडियो पर खूब कमेन्ट्री सुना करते थे।

रेडियो पर इसलिए, क्यों कि उन दिनों हमारे गांव में टेलीविजन किसी के भी घर में नहीं आया था, इसलिए हम इन खिलाड़ियों को सिर्फ नाम से जानते थे और किसी भी खिलाड़ी की फोटो नहीं देखी थी।

कुछ दिनों बाद इन खिलाड़ियों का सर्वप्रथम फोटो देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था हमे धर्मयुग नाम की एक पत्रिका में, जो हमारे स्कूल की लाइब्रेरी में आया करती थी।

उस पत्रिका मैं इन खिलाड़ियों की फोटो देखकर हम लोग काफी खुश हो गए थे और हमारी आंखो में भी उन जैसे महान खिलाड़ी बनने के सपने तैरने लगे थे।

फिर कुछ सालो बाद भारतीय क्रिकेट टीम में कपिल देव जैसे महान ऑल राउंडर का आगमन हुआ, जिन्होंने पाकिस्तान के विरूद्ध अपनी प्रथम पारी में तेजी से 48  रन बनाए थे, जिनमें आठ चौके शामिल थे।

फिर ईसवी सन् 1983 में उनकी अगुवाई में भारतीय क्रिकेट टीम ने फाइनल में वेस्टइंडीज जैसी मजबूत टीम को हराकर प्रथम बार विश्वकप जीता था इस कारण हम लोग काफी प्रसन्न हो गए थे और हमने उछल - कूदकर खूब खुशियां मनाई थी।

आपकी जानकारी के लिए बतादूं की इस विश्वकप में कपिल देव ने जिम्बाब्वे के खिलाफ एक सौ 75 रन बनाकर इंडिया को हारा हुआ मैच जितवाया था।

हालांकि कपिल देव बहुत ही महान खिलाड़ी थे, पर मेरे सबसे फेवरेट खिलाड़ी का नाम सुनील गावस्कर है, जिन्होंने उन दिनों बैटिंग में बड़े - बड़े रिकॉर्ड बनाए थे और पूरी भारतीय टीम उनकी बेटिंग पर ही निर्भर थी।

अब जनाब सपने देखने के तो कोई पैसे लगते नहीं, इसलिए मैं भी नकलची बंदर की तरह भारतीय क्रिकेट टीम में खेलने के बड़े - बड़े सपने देखने लगा और अपना पूरा वक्त क्रिकेट मैदान में बिताने लगा।

फिर तो हमारी जूनियर क्रिकेट टीम की जीत का जैसे सिलसिला ही शुरू हो गया था ।

सबसे पहले हमने सुभाष भाईसाहब वाली सीनियर टीम को ही हराया और उसके बाद तो आस - पास के गांवों वाली सभी टीमों को धूल चटा दी ।

इनमें से कई ऐसे मैचों को, जिनमें हमारी टीम बिल्कुल ही हार के कगार पर थी, मैंने खुद के दम पर अच्छी बॉलिंग और अच्छी बैटिंग करके जिताया था।

उदाहरण के लिए बानूड़ा गांव की क्रिकेट टीम को हमारी टीम से जीतने के लिए मात्र छ रनों की दरकार थी और उसके चार विकेट अभी गिरने शेष थे और सभी ने मान लिया था कि बानूड़ा की टीम अब निश्चित ही जीत जाएगी, पर मैंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया ।

मैंने बॉलिंग की कमान संभाली और एक ही ओवर में लगातार चार गेंदों में चार विकेट लेकर अपनी टीम को जीत का सेहरा पहना दिया ।

इस बात के गवाह मेरे सभी साथी क्रिकेटर है।

इसी प्रकार दांता कस्बे की क्रिकेट टीम के खिलाफ हमारी टीम मात्र इक्कीस रन बनाकर ऑलआउट हो गई थी और सभी दर्शकों ने दांता की जीत सुनिश्चित मान ली थी, पर मैंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया और अपनी टीम के सभी खिलाड़ियों में जोश जगाते हुए कहा कि दांता की टीम को किसी भी कीमत पर दस से ज्यादा रन नहीं बनाने देना है और इसके लिए आप सबको अपनी पूरी जी - जान लगा देनी है।

मेरी ये बात सुनकर सभी खिलाड़ियों में जोश आ गया और वे अपने दुगुने उत्साह के साथ मैच खेलने लगे।

मैंने अपने बॉलरों को समझा दिया था कि वो या तो यॉर्कर गेंद फैंके या गुड लेंथ पर सिर्फ इनस्विंग गेंद डाले और बैट्समैन को कोई भी बड़ा शॉट लगाने के लिए रूम न दे ।

इस करो या मरो वाले मैच में मैंने बहुत ही आक्रामक फिल्डिंग लगाई थी और बैट्समैनों की  कमजोरियों का मन ही मन  आकलन करने के बाद प्रत्येक बॉल के बाद मैं अपने बॉलर के पास जाकर उसे बताने लगा कि अगली गेंद उसे कैसी डालनी है। मेरी इस रणनीति का परिणाम ये निकला की दांता के बैट्समैन चौके - छक्के लगाना तो दूर, एक - एक रन बनाने के लिए तरसने लगे और फिर झुंझलाकर बहुत सी गलतियां करने लगे और यूं एक के बाद एक अपने विकेट्स गंवाने लगे।

शीघ्र ही दांता की टीम मात्र सत्रह रन बनाकर ऑल आउट हो गई और इस तरह हमने हारा हुआ वो मैच चार रनों से जीत लिया था।

मैंने इस मैच में चार विकेट लिए थे और मैन ऑफ़ द मैच रहा था।

उसके बाद हम हर वर्ष दीपावली की छुट्टियों में हमारे गांव में एक ट्रॉफी का आयोजन करने लगे।

मैंने ऐसी ही लगातार तीन ट्रॉफियां खेली और उनमें से दो ट्राफियों में हमारी टीम विजेता और एक में उपविजेता रही।

उन शानदार जीतों में न केवल मैं मेन ऑफ द मैच, बल्कि मैन ऑफ़ द सीरीज भी रहा और उसके लिए मैंने पुरस्कार और ट्रॉफियां भी प्राप्त की थी।

एक ऐसी ही ट्रॉफी के फाइनल मैच की बात है । दांता कस्बे की टीम ने हर हाल में ट्रॉफी जीतने के लिए मस्तान शर्मा नाम के एक बहुत ही अच्छे और आसपास में मशहूर बैट्समैन और खरनाक बॉलर को किसी बाहरी टीम से बुलाकर अपनी टीम में शामिल किया था।

मस्तान शर्मा लगभग तीस - पैंतीस रन बनाकर क्रीज पर मौजूद था और दांता टीम को जीतने के लिए तीन ऑवर्स में मात्र चार - पांच रन और बनाने थे और उनके नौ विकेट गिर चुके थे।

मेरे गांव के सभी दर्शक मान चुके थे कि अब तो रूपगढ़ की हार निश्चित है, क्यों कि मस्तान शर्मा जैसा चौके और छक्के लगाने वाला दमदार खिलाड़ी अभी भी क्रीज पर मौजूद था और वो मात्र एक या दो बड़े शॉट्स लगाकर कभी भी अपनी टीम को ये मैच जीता सकता था।

तभी रिश्ते में मेरे चाचा लगने वाले श्री परमेश्वर जी शर्मा ने कमेंट्री बॉक्स में जाकर घोषणा करवादी कि जो कोई भी बॉलर मस्तान शर्मा को आउट करेगा, उसको पुरस्कार स्वरूप एक चांदी का सिक्का इनाम में दिया जाएगा।

फिर क्या था। उनकी ये घोषणा सुनकर हमारी टीम के प्रत्येक खिलाड़ी में एक नया ही जोश आ गया था ।

मैंने अब मैच में अपनी रणनीति बदलकर वो ही रणनीति अपनाई, जो मैं एक बार पहले भी दांता को मात्र सतरह रन पर ढेर कर देने के लिए अपना चुका था।

यानी कि या तो यॉर्कर गेंदे फेंकना या गुडलेंथ पर इनस्विंग गेंद डालकर बैट्समैन को बड़े शॉट खेलने के लिए रूम न देना। इसके अलावा मैंने उस मैच की तरह ही बहुत ही आक्रामक फिल्डिंग सजा दी थी, ताकि बैट्समैन एक भी रन नहीं चुरा सके।

ये सब करने के बाद बॉलिंग की कमान संभाली खुद मैंने।

सभी दर्शकों की सांसे अटकी हुई थी और धड़कने बढ़ी हुई थी।

उन के लिए और हमारी टीम के लिए एक - एक पल बहुत ही भारी पड़ रहा था ।

मैंने एक यार्कर और तीन इनस्विंग गेंद फैंककर और इस तरह बैट्समैन को बड़ा शॉट खेलने के लिए रूम न देकर लगातार चार  बॉल डॉट निकाल दी थी।

इन चार डॉट बॉल्स की वजह से मस्तान शर्मा अपना धैर्य खो बैठा।

पांचवीं बॉल पर बड़ा शॉट खेलने के लिए वो जैसे ही क्रीज पर आगे बढ़ा, मैंने तुरंत निर्णय लिया और अपनी बॉल की लेंथ कम कर यार्कर और इनस्विंग का मिश्रण करते हुए उसके पैरो की ओर गेंद डाल दी।

हालांकि उसने उस बॉल पर अंधाधुंध बड़ा शॉट खेलने की भरपूर कोशिश की थी, पर यॉर्कर लेंथ की वो बॉल उसके बेट और पैरो के बीच से गुजरकर सीधे विकेट्स में जा घुसी ।

ये देखकर पूरे मैदान में उत्साह की एक लहर सी दौड़ गई थी।

हमने अप्रत्याशित रूप से मस्तान शर्मा को आउट करने के साथ - साथ वो ट्रॉफी भी जीत ली थी, जो हमारी टीम के लिए और सभी दर्शकों के लिए एक असंभव सपने को साकार करने जैसा काम था।

इसलिए दर्शक अति उत्साहित हो जाने की वजह से दौड़कर मैदान में आ घुसे और मुझे अपने कंधो पर बैठाकर जोश से नाचने लगे  और जीत के नारे लगा - लगाकर खुशियां मनाने लगे।

कुछ उत्साहित युवकों ने उन खुशी के पलों में नाच - नाचकर खूब हो - हल्ला मचाया और खूब पटाखे भी छोड़े।

फिर पुरस्कार वितरण समारोह में मुझे मेन ऑफ द मैच और मेन ऑफ द सीरीज घोषित कर उसके पुरस्कार देने के बाद श्री परमेश्वर जी शर्मा द्वारा घोषित एक चांदी का सिक्का भी ईनाम में दिया गया, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित मौजूद है और गाहे - ब - गाहे मुझे उस सनसनीखेज और रोमांचक मैच की याद दिला देता है।

धन्यवाद

इस शृंखला के समस्त अंक यहाँ से पढ सकते हैं।

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 10

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 09

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 08

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 07

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 06

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 05

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 04

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 03

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 02

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 01

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