मौत का तांडव- संतोष पाठक
नये उपन्यास 'मौत का तांडव' का कुछ अंश...
अश्विन पण्डित सीरीज
कोहिमा में चांग और उसकी फौज से टकराने के बाद - या फिर यूं कह लें कि अपनी जान गंवाने से बाल बाल बचा - अश्विन पंडित आखिरकार सकुशल बेगूसराय पहुंचने में कामयाब हो गया। ये अलग बात थी कि लीना रेंगमा उसके साथ जोंक की तरह चिपकी हुई थी, आत्महत्या करने पर उतारू लीना ने उसकी हालत सांप छछूंदर वाली बना कर छोड़ी थी, लिहाजा न उगलते बनता था ना निगलते बनता था। लीना को मरता वह देख नहीं सकता था और उसकी जान बचाने की खातिर उसे साथ लिये लिये फिरना उसे मंजूर नहीं था। आखिरकार इस समझौते के तहत वह लीना को अपने साथ ले आया कि कुछ रोज वहां रहने के बाद लीना गुवाहाटी वापिस लौट जायेगी।
वैसा सोचते वक्त अश्विन को सपने में भी ख्याल नहीं आया था कि बेगूसराय में एक नया चांग - उसकी लाश गिराने को दृढ़ प्रतिज्ञ बैठा - उसका इंतजार कर रहा था। ऐसे में ना चाहते हुए भी लीना की भूमिका ‘मौत का तांडव‘ में अहम हो उठी। फिर शुरू हुआ घात-प्रतिघात का कभी ना खत्म होने वाला ऐसा खेल जिसने बेगूसराय की धरती को रक्तरंजित कर के रख दिया।
इस बार उसका मुकाबला था बड़का बिहारी के नाम से जाना जाने वाले भू-माफिया से, बिल्डर से, स्मग्लर से, जो ना सिर्फ ऊंची पहुंच रखता था बल्कि दूर दूर तक उसके नाम की तूती बोलती थी। वह शहर से अलग-थलग बने अपने किलेनुमा बंगले में रहता था, जिसमें चौबिसों घंटे बीसियों की तादात में हथियारबंद गार्ड्स पहरा देते थे। साथ ही बिहारी के पचासों की तादाद में आदमी वहां मौजूद रहते थे, जो उसके एक इशारे पर किसी की भी जान ले सकते थे, अपनी जान दे सकते थे।
ऐसा आदमी अगर अश्विन पंडित के खून का प्यासा बन बैठा था, तो आगे जो न हो जाता वही कम था।
एमएलए गजानन सिंह कितना भी रसूख वाला शख्स क्यों नहीं था, हकीकत यही थी कि बड़का बिहारी की ताकत के सामने वह बौना था। ऐसे में खुला खेल खेलना ना तो वह अफोर्ड कर सकता था, ना ही उन हालात में वह अपनी और अश्विन की जान की रक्षा कर सकता था। ये जुदा बात थी कि वह पंडित की हर तरह से मदद करने को तत्पर था, अलबत्ता उसकी वाहिद राय यही थी कि कोहिमा से बेगूसराय लौटा पंडित एक बार फिर शहरबदर हो जाये और हालात बदलने का इंतजार करे।
इस बार अश्विन को ऐसा करना हरगिज भी कबूल नहीं था।
ऐसे में एक के बाद एक खूनी घटनायें जन्म लेती चली गईं। कौन हारेगा कौन जीतेगा, कहना मुहाल था। बड़का बिहारी के पास ताकत थी, रूतबा था, गोली चलाने वाले सैकड़ों हाथ थे, तो वहीं दूसरी तरफ पंडित के पास आत्मविश्वास था, पुलिसिया दिमाग था और लीना रेंगमा थी, जिसके जलवे वह पीछे कोहिमा में बखूबी देख चुका था। उसे ये तक कबूल करने में हिचक नहीं होती थी, कि अगर कोहिमा कांस्पीरेसी में लीना ने कदम कदम पर उसका साथ नहीं दिया होता तो अश्विन का मारा जाना तय था।
बहरहाल उक्त घटनाक्रम में जन्म लिया कभी ना भुलाई जा सकने वाली एक महागाथा ‘मौत का तांडव‘ ने।
लेखक- संतोष पाठक
प्रकाशक - थ्रिल वर्ल्ड
पृष्ठ संख्या - 278
पुस्तक साईज 5’8
प्रकाशन तिथि- 10.09.2020 से पेपरबैक में उपलब्ध
नये उपन्यास 'मौत का तांडव' का कुछ अंश...
अश्विन पण्डित सीरीज
कोहिमा में चांग और उसकी फौज से टकराने के बाद - या फिर यूं कह लें कि अपनी जान गंवाने से बाल बाल बचा - अश्विन पंडित आखिरकार सकुशल बेगूसराय पहुंचने में कामयाब हो गया। ये अलग बात थी कि लीना रेंगमा उसके साथ जोंक की तरह चिपकी हुई थी, आत्महत्या करने पर उतारू लीना ने उसकी हालत सांप छछूंदर वाली बना कर छोड़ी थी, लिहाजा न उगलते बनता था ना निगलते बनता था। लीना को मरता वह देख नहीं सकता था और उसकी जान बचाने की खातिर उसे साथ लिये लिये फिरना उसे मंजूर नहीं था। आखिरकार इस समझौते के तहत वह लीना को अपने साथ ले आया कि कुछ रोज वहां रहने के बाद लीना गुवाहाटी वापिस लौट जायेगी।
वैसा सोचते वक्त अश्विन को सपने में भी ख्याल नहीं आया था कि बेगूसराय में एक नया चांग - उसकी लाश गिराने को दृढ़ प्रतिज्ञ बैठा - उसका इंतजार कर रहा था। ऐसे में ना चाहते हुए भी लीना की भूमिका ‘मौत का तांडव‘ में अहम हो उठी। फिर शुरू हुआ घात-प्रतिघात का कभी ना खत्म होने वाला ऐसा खेल जिसने बेगूसराय की धरती को रक्तरंजित कर के रख दिया।
इस बार उसका मुकाबला था बड़का बिहारी के नाम से जाना जाने वाले भू-माफिया से, बिल्डर से, स्मग्लर से, जो ना सिर्फ ऊंची पहुंच रखता था बल्कि दूर दूर तक उसके नाम की तूती बोलती थी। वह शहर से अलग-थलग बने अपने किलेनुमा बंगले में रहता था, जिसमें चौबिसों घंटे बीसियों की तादात में हथियारबंद गार्ड्स पहरा देते थे। साथ ही बिहारी के पचासों की तादाद में आदमी वहां मौजूद रहते थे, जो उसके एक इशारे पर किसी की भी जान ले सकते थे, अपनी जान दे सकते थे।
ऐसा आदमी अगर अश्विन पंडित के खून का प्यासा बन बैठा था, तो आगे जो न हो जाता वही कम था।
एमएलए गजानन सिंह कितना भी रसूख वाला शख्स क्यों नहीं था, हकीकत यही थी कि बड़का बिहारी की ताकत के सामने वह बौना था। ऐसे में खुला खेल खेलना ना तो वह अफोर्ड कर सकता था, ना ही उन हालात में वह अपनी और अश्विन की जान की रक्षा कर सकता था। ये जुदा बात थी कि वह पंडित की हर तरह से मदद करने को तत्पर था, अलबत्ता उसकी वाहिद राय यही थी कि कोहिमा से बेगूसराय लौटा पंडित एक बार फिर शहरबदर हो जाये और हालात बदलने का इंतजार करे।
इस बार अश्विन को ऐसा करना हरगिज भी कबूल नहीं था।
ऐसे में एक के बाद एक खूनी घटनायें जन्म लेती चली गईं। कौन हारेगा कौन जीतेगा, कहना मुहाल था। बड़का बिहारी के पास ताकत थी, रूतबा था, गोली चलाने वाले सैकड़ों हाथ थे, तो वहीं दूसरी तरफ पंडित के पास आत्मविश्वास था, पुलिसिया दिमाग था और लीना रेंगमा थी, जिसके जलवे वह पीछे कोहिमा में बखूबी देख चुका था। उसे ये तक कबूल करने में हिचक नहीं होती थी, कि अगर कोहिमा कांस्पीरेसी में लीना ने कदम कदम पर उसका साथ नहीं दिया होता तो अश्विन का मारा जाना तय था।
बहरहाल उक्त घटनाक्रम में जन्म लिया कभी ना भुलाई जा सकने वाली एक महागाथा ‘मौत का तांडव‘ ने।
लेखक- संतोष पाठक
प्रकाशक - थ्रिल वर्ल्ड
पृष्ठ संख्या - 278
पुस्तक साईज 5’8
प्रकाशन तिथि- 10.09.2020 से पेपरबैक में उपलब्ध
बहुत बढ़िया सर
जवाब देंहटाएंMai to Odinga.patna me kub aayega
जवाब देंहटाएंकथानक रोचक लग रहा है... मौका मिलते ही पढ़ता हूँ.....
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