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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-23,24

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 23
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आबिद रिजवी मेरे और बिमल चटर्जी के लिए उस दिन से पहले महज़ एक नाम था, जिसकी हमने बहुत बार विभिन्न सन्दर्भों में चर्चा सुनी थी ! न केवल लालाराम गुप्ता और राज भारती जी से, बल्कि प्रकाशन जगत के कई अन्य दिग्गजों से ! एक बार जनाब फारुक अर्गली ने भी आबिद रिजवी का नाम लिया था, तब वह बिमल चटर्जी से एक विशेष चर्चा कर रहे थे !

मजे की बात यह कि तब तक फारुक अर्गली कभी भी आबिद रिजवी से मिले नहीं थे !

फारुक साहब ने बिमल से कहा था -"बिमल, मेरे विचार से जासूसी साहित्य और पाॅकेट बुक्स में हिन्दी में लिखनेवाले बंगाली लेखक अभी तक तो अकेले तुम्हीं हो !"
बिमल की मुस्कान बड़ी ही दिलफरेब थी ! वह मुस्कान बिखेरते हुए बोले -"हाँ, वरना जासूसी में तो आपके मुसलमान लेखकों ने हिन्दी पर पूरा कब्जा कर रखा था !"

"नहीं !" फारुक साहब बोले -"मुसलमान लेखकों में इब्ने सफी, अकरम इलाहाबादी, आरिफ़ मारहर्वीं, अंजुम अर्शी, एच. इकबाल सबके सब उर्दू में लिखनेवाले हैं ! मैं भी अभी तक तो उर्दू में लिख रहा हूँ ! पर जल्दी ही हिन्दी में लिखने लगूँगा ! हाँ, कोई आबिद रिजवी है - सुना है, वह हिन्दी में भी लिख रहा है ! हिन्दी में तो ओमप्रकाश शर्मा और वेदप्रकाश काम्बोज का बहुत बोलबाला है !"

उस समय तक सुरेन्द्र मोहन पाठक की ख्याति बहुत ज्यादा नहीं थी ! हाँ, पाठक साहब के उपन्यास "हत्यारे" और "बन्दर की करामात"उन दिनों बहुत चर्चित हो रहे थे  अर्थात पाठक साहब लोकप्रियता की शुरुआत के पहले पायदान पर थे !

बन्दर की करामात की चर्चा तो उपन्यास पढ़ने से पहले और पढ़ने के बाद अलग-अलग किस्म की थी ! जासूसी उपन्यासों की शृंखला में यह नाम अजीबोगरीब था, सुरेन्द्र मोहन पाठक को पहली बार पढ़ रहे पाठकों के लिए "बन्दर" - एक जानवर बन्दर था !
उपन्यास पढ़ने के बाद ही पता चलता था कि उपन्यास बेहद शानदार है और बन्दर तो वास्तव में "जुगलकिशोर" है !

फारुक अर्गली की बातों से मैंने और बिमल ने तब यही अनुमान लगाया था कि आबिद रिजवी हिन्दी और उर्दू दोनों में लिखते होंगे !
एक तारीफ की बात फारुक अर्गली के लिए भी - वो उर्दू में लिखते थे ! अन्य उर्दू लेखकों की तरह उनके उपन्यासों का भी उर्दू से हिन्दी अनुवाद (ट्रांसलेशन) किया जाता था, लेकिन यह समझकर कि उनका पाठक वर्ग हिन्दी में अधिक है, उन्होंने हिन्दी में लिखने के लिए अथाह मेहनत की ! प्रयास किया और अन्ततः बहुत सफल हुए !

एक बात और... उस समय फारुक अर्गली जैसे दिग्गज लेखक भी अंजुम अर्शी को मुसलमान लेखक ही समझते थे !

वास्तव में अंजुम अर्शी क्रिश्चियन हैं !

अंजुम अर्शी का पूरा नाम सैमुअल अंजुम अर्शी है !
बाद में भारती पाॅकेट बुक्स में सैमुअल अंजुम अर्शी के "सैमी" नाम से बहुत से सामाजिक उपन्यास छपे और उन्होंने भी शुरुआत में उर्दू में ही बहुत कुछ जासूसी साहित्य लिखा, किन्तु सामाजिक लिखने की शुरुआत करते हुए हिन्दी को अपना लिया !

हाँ, शुरु में मात्राई अशुद्धियाँ काफी होती थीं और उनकी सख्त ताकीद थी कि उनके उपन्यास के प्रूफ योगेश मित्तल से भी पढ़ाये जायें और अक्सर वह अपनी अशुद्धियों के बारे में मुझसे पूछते और शुद्ध शब्द नोट कर लेते, ताकि अगली बार लिखते हुए वह गलती न हो !

परन्तु फारुक अर्गली के हिन्दी लेखन में अशुद्धियाँ नाममात्र होती थीं ! उन्होंने शुद्ध हिन्दी लिखने के लिए बहुत मेहनत व अध्ययन किया था !
जहाँ तक आबिद रिजवी की बात है, उन्हें तो आरम्भ से ही हिन्दी के विद्वानों की श्रेणी में रख सकते हैं ! जहाँ तक मेरी जानकारी है - उन्होंने कालांतर में बेहतरीन हिन्दी शब्दकोश भी तैयार किये !

खैर, हम उस समय भारती पाॅकेट बुक्स के आॅफिस में थे !

भारती पॉकेट बुक्स के ऑफिस में हम पांच थे !
मैं, बिमल चटर्जी, राज भारती, यशपाल वालिया और लालाराम गुप्ता !

हमें आये देर हो चुकी थी और अभी तक लालाराम गुप्ता जी की ओर से इस बात का कोई संकेत नहीं था कि हमें क्यों बुलाया गया है !

बिमल मेरी तरफ देख रहे थे और मैं बिमल की तरफ ! ऐसे में - मैंने अपने दायें हाथ की तर्जनी से बायें हाथ की हथेली पर लिखा - 'चलें !'
बिना स्याही, बिना पैन के अँगुली से लिखा सन्देश बिमल समझ गये ! वह मुँह लालाराम गुप्ता की ओर करके, अपनी दिलफरेब मुस्कान बिखेरते हुए बोले -"गुप्ता जी, आज हमें दरीबे भी जाना है ! जरूरी काम है ! अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं और योगेश जी चलें !"
"आज कोई जरूरी काम नहीं !" लालाराम गुप्ता सिर को पहले बायें, फिर दायें घुमाकर बोले !
"आज तो सण्डे है !" तभी राजभारती बोले -"सण्डे को दरीबे में क्या काम ?"
बिमल चटर्जी को अपनी गलती का आभास हुआ, लेकिन तुरन्त ही उन्होंने अपनी गलती सुधार ली, बोले -"हमें वकीलपुरे जाना है ! मनोज वालों के घर ! आज उन्होंने घर पर बुलाया है !"
"लेकिन आज आप कहीं भी कैसे जा सकते हो ! हम तो आपकी ही वजह से आये हैं !"तभी यशपाल वालिया बोले !
"आज हम सब योगेश के मेहमान है !" मुस्कुराते हुए राजभारती सिर को ऊपर से नीचे खम देते हुए बोले !

मेरे लिए यह अचम्भे भरी बात थी !
तभी लालाराम गुप्ता ने सारा सस्पेंस खोल दिया -"आज योगेशजी की तरफ से पार्टी है और जब तक पार्टी ख़त्म नहीं होगी, कोई कहीं नहीं जा सकता !"
"और अभी तो पार्टी शुरु भी नहीं हुई !" भारती साहब बोले !

मेरा गला सूखने लगा !
'मेरी तरफ से पार्टी है' का क्या मतलब ?
मेरी जेब तो रूमाल या दो -चार रुपयों की ही मालकिन थी ! पार्टी का खर्चा कैसे करेगी !

तभी लालाराम गुप्ता ने मेरी रुकी हुई साँसों को आक्सीजन दिया !
मेरी तरफ देखते हुए वह बोले -"आप घबराइये मत योगेश जी ! आपकी इस पार्टी का सारा खर्चा भारती पाॅकेट बुक्स करेगी !"

मैं बता नहीं सकता कि गुप्ताजी की इस बात से मैंने कितनी राहत महसूस की ! और तब उभरने वाली मुस्कान, मेरे साथ-साथ सभी के चेहरों पर खिल रही थी !
फिर थोड़ी देर हँसी मजाक चलता रहा !
एक-दूसरे से लिखने के बारे में सवाल होते रहे !
यूँ ही समय बीतता रहा !
इस बीच चाय का एक दौर भी हो गया !

फिर आया वह क्षण जब राजभारती जी ने लालाराम गुप्ता जी से पूछा -"वीरेन्द्र नहीं आया अभी तक ?"
"उसकी तबियत ठीक नहीं है !" गुप्ता जी ने जवाब दिया !
"और किसी ने आना है ?"
"नहीं !" लालाराम गुप्ता बोले -"यहाँ जगह भी तो कम है, इसलिए मैंने किसी को बुलाया ही नहीं !"
"बुलाना चाहिए था ! प्रेसवाले, बाइन्डर, आर्टिस्ट सभी को बुलाना चाहिए था ! जगह का क्या है ! कुर्सियाँ हटाकर हम सब दरी बिछा जमीन पर बैठ जाते !" भारती साहब ने कहा !
"अब...अगली बार से...बुला लेंगे !" लालाराम गुप्ता बोले !
"चल फिर, शुरु कर...!" भारती साहब बोले !

लालाराम गुप्ता उठे ! बगल के गोदाम वाले कमरे में गये ! वहाँ दीवार से सटे दो बण्डलों की ऊँची लाइन के पीछे ऊपर से नीचे वाली लाइन में दीवार के साथ का एक बण्डल कम था, पर ऊपर कई बण्डल रखे थे ! गुप्ता जी ने एक बण्डल हटाकर पीछे से एक बड़ी बोतल निकाली ! फिर वहीं आले में रखे काँच के कई उठाये ! बाहर आये ! गिलास और बोतल टेबल पर रखे ! फिर मेज के पीछे से कागज़ का एक लिफाफा निकाला ! वहीं कहीं रखी स्टील की एक प्लेट निकाली और लिफाफे का मुँह प्लेट पर उलट दिया !
प्लेट बीकानेरी भुजिया से भर गई !

वह पोलिपैक नमकीन का जमाना नहीं था, बल्कि पोलिथिन जैसी कोई चीज लोगों की जानकारी में भी नहीं थी !

"पानी...या सोडा ?" भारती साहब ने पूछा !
"वह भी मँगाता हूँ !" गुप्ता जी ने पण्डित जी को आवाज दी ! उन्हें एक जग में पानी लाने को बोला !
पण्डित जी सामने वाले मकान में गये और गुप्ता जी के यहाँ से एक जग में पानी ले आये !

"थोड़ी बर्फ और सोडा भी मँगा ले !" राज भारती जी ने कहा !
उन दिनों रेफ्रिजरेटर जैसी चीज भी आम नहीं थी ! ठण्डे पानी के लिए बाज़ार से बर्फ मँगानी पड़ती थी !

लालाराम गुप्ता ने कपड़े का एक थैला पण्डित जी को दिया ! फिर पैसे देते हुए "बर्फ, एक सोडा और एक कैम्पाकोला लाने को कहा !

तब पेप्सी या कोकाकोला भारत में नहीं बिकती थीं ! सरदार चरणजीत सिंह चानना की कम्पनी द्वारा पेश की गई कोकाकोला जैसी रंगत वाली कैम्पा कोला का दिल्ली की कोल्ड ड्रिंक मार्केट पर पूरा कब्जा था !

पण्डितजी कुछ ही देर में सारा सामान ले आये ! फिर सामान का थैला गुप्ता जी को थमा, स्वयं बाहर चले गये ! जाते-जाते वह भारती पाॅकेट बुक्स के आॅफिस के मुख्य द्वार लगभग बन्द करने की स्थिति तक खींच गये ! द्वार के पट उलटे भिड़ाये गये थे, जिससे हवा के लिए एक झिरी रह गई थी, बस !

अब लालाराम गुप्ता ने सबसे पहले थैले से बर्फ निकालकर, एक हाथ में बर्फ की बड़ी ब्रिक्स थाम, दूसरे हाथ में पानी का जग ले, द्वार के निकट पहुँच जग के पानी से बर्फ धोई और फिर पूरी ब्रिक्स जग में डाल दी !

उसके बाद पानी का जग मेज पर रख, अपनी कुर्सी सम्भाली और कुर्सी पर बैठने के बाद काँच के गिलास साथ-साथ रखे, फिर बोतल राज भारती जी की ओर बढ़ा दी ! भारती साहब ने बोतल यशपाल वालिया की ओर बढ़ा दी ! यशपाल वालिया ने बेहद अभ्यस्त अन्दाज़ में बायें हाथ से बोतल थाम दायें हाथ से ढक्कन घुमाया तो हल्की सी कड़क के साथ बोतल की सील टूट गई !
यशपाल वालिया ने बोतल लालाराम गुप्ता की ओर बढ़ा दी !
बोतल व्हिस्की की थी ! एरिस्टोक्रेट व्हिस्की की !

उस रोज लालाराम गुप्ता साकी बने !
तीन गिलासों में उन्होंने बराबर-बराबर व्हिस्की डाली !
चौथे में बाकी तीनों गिलास के मुकाबले आधी से भी कम ! फिर जैसे ही लालाराम गुप्ता ने बोतल का खुला हुआ मुँह पाँचवें गिलास की ओर बढ़ाया, मैं बोल पड़ा -"गुप्ता जी, मैं शराब नहीं पियूँगा !"
"अरे !" गुप्ता जी चौंके -"योगेश जी, यह पार्टी तो आपकी ओर से ही है ! बल्कि आपके 'वेलकम' के लिए है और आप ही नहीं पियेंगे ! यह तो कोई बात नहीं हुई !"
"मैं शराब नहीं पीता !" मैंने कहा !
"शराब तो मैं भी नहीं पीता, पर महफिल में साथ निभाने के लिए जरा-जरा मुँह झूठा कर लेता हूँ !" गुप्ता जी चौथे गिलास की ओर संकेत करते हुए बोले !
"और योगेश जी, आपसे किसने कह दिया - यह शराब है !" यशपाल वालिया बोले - "यह तो व्हिस्की है !"
"मैं व्हिस्की भी नहीं पीता !" मैं बेहद मजबूती से बोला ! तब मुझे भी कहाँ मालूम था कि आगे चलकर एक ऐसी घटना घटेगी कि मैं खुद-ब-खुद पियक्कड़ बन जाऊँगा !

"योगेश जी, बहुत थोड़ी-सी ! दो चम्मच जितनी - उसमें कैम्पा कोला मिला देंगे ! आपको व्हिस्की की कड़वाहट भी पता नहीं चलेंगी और शगुन भी हो जायेगा !" गुप्ता जी ने मुझे समझाने वाले अन्दाज़ में कहा !
"नहीं !" मैं दोटूक स्वर में कठोरता से बोला !
"गुप्ता जी, योगेश जी को रहने दीजिये !" बिमल चटर्जी मेरी हिमायत में अनुरोध करते हुए बोले तो राजभारती मेरी ओर देखकर बोले -"कैम्पा तो पी लेगा ?"
जवाब मेरी जगह बिमल ने दिया -"हाँ, योगेश जी को एक गिलास में कैम्पा दे दीजिये !"
गुप्ता जी ने व्हिस्की की बोतल का ढक्कन बन्द कर दिया !
फिर दराज से एक ओपनर निकाला और उससे कैम्पा कोला की बोतल का कार्क उड़ाया ! उसके बाद  सबसे पहले पाँचवें और खाली गिलास को कैम्पा कोला से भर दिया ! बोतल में बची कैम्पा अपने गिलास में उड़ेली और बाकी तीनों गिलासों में क्या डाला जाये, जानने के लिए सबकी ओर देखा !

"मेरे में तो पानी डाल दे !" राजभारती बोले !
"गुप्ता जी, मैं भी पानी ही लूँगा !" बिमल चटर्जी ने कहा !
"पानी...!" यशपाल वालिया ने भी हरी झण्डी दी !

लालाराम गुप्ता ने बाकी तीनों गिलासों को पानी डाल, तीन चौथाई भर दिया !
फिर सबसे पहले कैम्पा से भरा गिलास मेरी ओर बढ़ाया !
मैंने गिलास थाम लिया !
बाकी सबने भी अपने-अपने गिलास उठा लिये ! उसके बाद बिमल और लालाराम गुप्ता ने गिलास में एक अँगुली डाल व्हिस्की में सराबोर कर बाहर छींटे दिये और उसके बाद सबने अपने गिलास बीच में एक-दूसरे के करीब किये ! मैंने ऐसा कुछ नहीं किया तो बिमल बोले -"योगेश जी, चीयर्स करो !"

मैंने भी अपना गिलास सभी के गिलासों के निकट किया ! फिर सबने एक-दूसरे के गिलास से, गिलास टकराये और 'चीयर्स' कहा तथा गिलास होठों से लगाये !
एक-एक घूँट भर सबने गिलास मेज पर टिका दिये !
मैंने भी ऐसा ही किया, मगर मेरा घूँट कुछ लम्बा हो गया था !
नमकीन बीच में रखी थी !
सबने थोड़ी-थोड़ी नमकीन चुटकियों में उठाकर मुँह में डाली !

उसके बाद लालाराम गुप्ता ने मौन भंग किया, बोले -"योगेश जी, कुछ हो जाये !"
"कुछ...!" मैं बुदबुदाया !
गुप्ता जी का 'कुछ' मेरी समझ में नहीं आया, लेकिन लालाराम गुप्ता ने तुरन्त ही मुझे समझाया -"कोई कविता, कोई शेर, कोई चुटकुला कुछ भी सुनाओ !"
"गुप्ता जी, मुझे नहीं आता कुछ !" मैं बोला !
रअसल मैं उस समय अधिक बोलने का अभ्यस्त नहीं था !
कुछ हद तक शर्मीला भी था !

"योगेश जी, क्यों झूठ बोल रहे हो ?" बिमल चटर्जी बोले -"आपकी कविताएँ तो कलकत्ते के सन्मार्ग अखबार में भी छप चुकी हैं ! आपने खुद ही मुझे  बताया था "
"हाँ, पर मुझे सुनाना नहीं आता !" मैंने झिझकते हुए कहा !
"वो हम सिखा देते हैं आपको !" यशपाल वालिया बोले ! फिर वह एक चुटकुला सुनाने लगे ! चुटकुला सुनाने के बाद यशपाल वालिया राजभारती जी के कन्धे पर हाथ रख, पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बोले -"तुसी कोई झकझकी सुना दो !"

राज भारती जी ने भी कोई तुकबन्दी सुनाई ! इसके बाद वह लालाराम गुप्ता से बोले -"अब तू सुना !"

लालाराम गुप्ता ने काका हाथरसी की एक कविता सुनाई ! फिर बिमल चटर्जी से बोले -"बिमल जी, अब आप शुरु हो जाइये !"

बिमल ने मन्ना डे का एक गाना सुनाया और बिमल इतना अच्छा गाते थे कि सब मन्त्रमुग्ध हो गये !
गाना समाप्त होते ही यशपाल वालिया मुझसे बोले -"अब तो सुनाना आ गया होगा आपको ? चलिये - सुनाइये कुछ !"
'क्या सुनाऊँ ?' मैं खुद सोच में पड़ गया ! जिन्दगी में ऐसा मौका पहली बार आया था ! अपनी ही कविताओं में से कुछ भी याद नहीं आ रही थीं !

पर बिमल चटर्जी मुझे जोश दिला रहे थे -"शाबास योगेश जी, यह आपकी मेरी इज्जत का सवाल है ! कुछ भी सुनाइये ! चार लाइनें ही सुना दीजिये ! अभी बनाकर सुना दीजिये !"

और तब मैंने चार लाइनें उसी समय तैयार करके सुनाईं -
"कत्ल हम दूर से ही हो लेते,
क्या जरूरत थी हमें बुलाने की !
जान लेनी है साफ कह देते,
क्या जरूरत थी मुस्कुराने की !
मेरी उन चार लाइनों पर सबने तालियाँ बजा दीं !
सब मेरा उत्साह बढ़ा रहे थे ! नतीजा - बाद में मैंने दो-तीन बालकविताएँ सुनाईं !
मैं कैम्पा धीरे-धीरे घूँट भरता रहा !
लालाराम गुप्ता ने भी अपने गिलास से कुछ ही घूँट भरे, लेकिन बाकी सबके गिलास खाली हो गये !
मेरा और गुप्ता जी का पहला ही पैग चलता रहा !
बिमल चटर्जी, राजभारती और यशपाल वालिया ने बोतल आधी से ज्यादा खाली कर दी, तब फैसला किया गया कि अब 'बस' किया जाये और खाना मँगाया जाये !

लालाराम गुप्ता के आॅफिस में एक स्थान पर देवी-देवताओं की तस्वीरें थीं ! उन्होंने कहा -"आॅफिस में नानवेज नहीं आयेगा !"
अतः मक्खनी दाल और तंदूरी रोटियां मंगाई गयीं !
अंततः पार्टी बड़े ही खुशनुमा माहौल में ख़त्म हुई !

मैं और बिमल जब गांधीनगर पहुंचे रात के नौ बज चुके थे ! बिमल राजेंद्र को विशाल लाइब्रेरी में बैठा कर मेरे साथ भारती पॉकेट बुक्स गए ! लौटते वक्त देखा लाइब्रेरी बंद थी तो बोले -"हमें देर ज्यादा हो गयी ! अब घर ही चलते हैं ! दूकान की चाबी राजेंद्र से सुबह ही ले लूंगा !"

उस रात मुझे बहुत अच्छी नींद आयी, लेकिन सुबह जल्दी उठकर मैं गर्ग एंड कंपनी के लिए लिखी जा रही बाल पॉकेट बुक्स का अंत लिखने लगा !
साढ़े छह बजे के आस-पास नॉवल पूरा हो गया तो याद आया कि पंकज पॉकेट बुक्स का सेट अधर में लटका है ! वीपी स्लिप तैयार नहीं हैं ! वीपी फार्म नहीं हैं ! टिकट नहीं हैं !

वीपी स्लिप की स्थिति के बारे में कुमारप्रिय ही कुछ बता सकते थे !
स्नान-ध्यान के बाद मैं घर से निकल पड़ा !
रूख - कुमारप्रिय के घर का ही था !
दरवाजा कई बार खटखटाने के बाद कुमारप्रिय ने आँखें मलते-मलते दरवाजा खोला !
बोले-"क्या बात है योगेश जी ? आज बहुत सुबह आ गए ?"
"सुबह-सुबह...!" मैंने आश्चर्य जताया -"आठ बज रहे हैं श्रीमान !"
"अरे बाप रे...! आठ बज गए..?" कुमारप्रिय भी अचंभित हो उठे ! फिर बोले -"रात देर तक लिखते रहे ! देर से सोये ! इसलिए उठने में भी देर हो गयी ! ज्यादा ही देर हो गयी !"
"वीपी स्लिप छप गयीं ?" मैंने कुमारप्रिय की बातों पर विशेष ध्यान न दे प्रश्न किया !
"कहाँ ? कल कई जगह गए ! कहीं बात नहीं बनी ! आप बैठिये, हम तैयार होकर आते हैं ! फिर पहले तिवारी जी के चलते हैं ! वहां बात नहीं बनी तो  कहीं और देखेंगे !" कुमारप्रिय ने कहा !

जिस समय हम प्रेस पर पहुँचे, नौ बज चुके थे !
प्रेस का दरवाजा खुला था !
तिवारी जी अन्दर ही थे ! कुमारप्रिय ने उन्हें बताया कि पंकज पाॅकेट बुक्स का सैट तैयार है, मगर वीपी स्लिप नहीं हैं ! वीपी स्लिप जल्दी से जल्दी चाहिए !
तिवारी जी ने यकीन दिलाया कि वह बारह बजे तक सारी वीपी स्लिप छाप देंगे !

दोस्तों ! प्रेस में मशीन चलाने वाले यह तिवारी जी भी किसी छुपे रुस्तम से कम नहीं थे ! भविष्य में उपन्यासकार "श्याम तिवारी" के रूप में इन्होंने ही बेहद ख्याति अर्जित की !

तिवारी जी के आश्वासन से निश्चिंत होने के बाद मैं और कुमारप्रिय रघुबरपुरा के पोस्ट आॅफिस पहुँचे !
छोटी सी जगह में छोटा-सा पोस्ट आॅफिस था ! उसमें उन दिनों दो ही शख़्स काम करते थे ! एक थे पोस्टमास्टर गुप्ता जी, जो पोस्टमास्टर भी थे और टिकट विन्डो, बुकिंग विन्डो भी सम्भालते थे !
एक और व्यक्ति था, जो अक्सर डाक बाँटने निकल जाता, वही करीबी लैटर बाॅक्स से चिट्ठियां निकालकर लाता ! फिर पोस्ट आॅफिस में आई रजिस्ट्री, पार्सल, पैकेट आदि तथा लैटर बाॅक्स से निकालकर लाई चिट्ठियों के डाक टिकटों पर काले रंग की मोहर का ठप्पा लगाता ! उसके बाद उन चिट्ठियों, पैकेटों की छँटाई कर उन्हें अलग-अलग बोरों में भरता !

आज लोग बेशक यकीन न करें कि महज़ दो लोगों से कोई पोस्ट आॅफिस कैसे चल सकता है, पर यह बिलकुल सही है कि रघुबरपुरा का वह पोस्ट आॅफिस काफी दिनों तक सिर्फ दो लोग ही चलाते रहे थे !

कुमारप्रिय ने पोस्ट मास्टर गुप्ता जी से वीपी फार्म के बारे में पूछा तो वह बोले -"इस बार तो आपने घणी देर कर दी ! मैंने तो आपके लिए वीपी फार्म काफी पहले से मँगा रखे हैं !"

वीपी फार्म मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई ! फिर गुप्ता जी ने पूछा -"कब करनी है डिस्पैच ?"
तो कुमारप्रिय बोले -"बस, दो-तीन दिन रुक जाइये !"
"ऐसा करना कुमार साहब ! इस बार पोस्ट आॅफिस के लिए तीन सैट लाइयेगा और एक सैट पिछला वाला भी ले आइयेगा !" पोस्ट मास्टर बोले !
"ऐसा क्यों ?" कुमारप्रिय ने कहा -"पोस्ट आॅफिस में आप दो ही तो आदमी हैं ! फिर पिछला सैट तो आपलोगों को डिस्पैच के साथ ही हम दिये थे !"

उन दिनों एक सिस्टम सा था कि किसी भी प्रकाशक का कोई सैट जिस पोस्ट आॅफिस से डिस्पैच होता, पोस्ट आॅफिस के खास-खास लोगों को तो एक-एक सैट मुफ्त में देना ही पड़ता था ! साथ ही "दस या पन्द्रह पैसे प्रति पैकेट" के हिसाब से धनराशि भी देनी पड़ती थी ! सब जगह ऐसा ही था ! और डाक बाँटनेवाला पोस्टमैन आपके लिए कोई खुशी की चिट्ठी या मनीआर्डर लाता तो भी बख्शीश की भीख लिए बिना नहीं टलता !

प्रकाशकों के लिए तो स्थिति और दुखद थी ! डिस्पैच के समय पोस्ट आॅफिस में पैसे देने पड़ते थे और पैकेट छूटने पर पोस्टमैन हर वीपी मनीआर्डर पर बख्शीश लेना नहीं भूलता और यह धनराशि 'माँग कर' दबंगई से ली जाती थी ! कोई प्रकाशक हील-हुज्जत करता तो उसके वीपी मनीआर्डर हफ्तों रोक दिये जाते थे और पेमेन्ट न आने से परेशान प्रकाशक को पोस्टमैन की माँग स्वीकार करनी ही पड़ती थी !

दीवाली पर भी पोस्टमैन अलग से बख्शीश माँगने आ जाते और दीवाली की बख्शीश माँगने तो हर उस घर में भी पहुँच जाते थे, जिसकी साल में दो ही चिट्ठी आई हों !

रघुबरपुरा के पोस्टमास्टर भी दबंगई से ही इस बार का एक सैट फालतू लाने को कह रहे थे ! साथ ही पिछला एक सैट लाने को बोल रहे थे !
कुमारप्रिय के आपत्ति जताने पर पोस्ट मास्टर बोले -"भई, आपका पिछला सैट मेरी साली ले गई थी ! उसे आपकी किताबें बहुत-बहुत पसन्द आईं तो उसने पहले ही मुझे बोल दिया कि अगले सैट की सारी किताबें उसे भी चाहिए ! अब आपसे अच्छे से बोल रहा हूँ ! दे दोगे तो ठीक ! वरना बीस-पच्चीस किताबों के किसी भी पैकेट से हम चार किताबें निकाल लेंगे ! फिर आपको ही परेशानी होगी !"

यह सरासर ब्लैकमेलिंग थी ! धमकी थी ! पर उन दिनों ऐसा होता था !

छोटे प्रकाशकों को ज्यादा मुसीबतें झेलनी पड़ती थीं ! पुस्तक बिक्रेताओं द्वारा वीपी न छुड़ाने पर वापसी आनेवाले बहुत से पैकेट फटे हुए होते ! उनमें भेजी गई किताबों से कम किताबें होती थीं !

अक्सर रेलवे द्वारा भेजा गया - पूरा का पूरा बण्डल गायब हो जाता और बिल्टी पास होने पर प्रकाशक द्वारा क्लेम करने पर भी नुक्सान का उचित मुआवजा नहीं मिलता था !
अत: पोस्ट मास्टर गुप्ता जी की माँग स्वीकार कर उन्हें एक अतिरिक्त सैट मुफ्त देना भी मजबूरी थी !

वीपी फार्म लेकर कुमारप्रिय मुझसे बोले -"हम घर चलते हैं योगेश जी ! जब तक तिवारी जी वीपी स्लिप तैयार करें - हम वीपी फार्म में एड्रेस-एमाउन्ट भर लेते हैं ! आपका आज का क्या प्रोग्राम है ?"
"मुझे गर्ग एण्ड कम्पनी जाना है !" मैंने कहा -"उनके लिए लिखा बाल पाॅकेट बुक्स तैयार है - दे आऊँ !"
"ठीक है ! आप जाइये ! यहाँ का काम हम देख लेंगे !" कुमारप्रिय ने कहा !

सुभाष मोहल्ले से गाँधीनगर मुख्य रोड पर जाने के लिए मैंने नेहरू  गली का रास्ता पकड़ा ! संयोगवश साजन पेशावरी उस समय सामने से आते दिख गये !
"कैसे हो छोटे भाई ?" साजन पेशावरी ने हाथ मिलाते हुए पूछा !
"ठीक ! आप सुनाइये !" मैंने कहा तो साजन पेशावरी बोले -"एक-एक चाय हो जाए !"

सुभाष मोहल्ले से नेहरू गली में प्रवेश करने के बाद थोड़ा ही आगे दायीं ओर एक 'टी स्टाल' था, जिसमें बैठने के लिए दो मेजें और आठ फोल्डिंग कुर्सियां भी थीं !

हम टी स्टाल में बैठ गये !
साजन पेशावरी की आवाज भी अच्छी थी ! वह तरन्नुम में अपने कुछ नये शेर सुनाने लगे !
मैं 'इरशाद' और 'वाह-वाह' करता रहा ! फिर चाय आ गई तो हम चाय सुड़कने लगे ! चाय का घूँट भरते-भरते साजन पेशावरी ने पूछा -"और बताओ, तुम क्या लिख रहे हो आजकल ?"
"लिख तो बाल पाॅकेट रहा हूँ ! पर मैं भी आपको कुछ सुनाना चाहता हूँ !" मैंने कहा !
"सुनाओ !" साजन पेशावरी बोले !
पहले मैंने साजन पेशावरी को पिछले दिन भारती पाॅकेट बुक्स में हुई पार्टी के बारे में बताया ! फिर वही चार लाइनें साजन पेशावरी को सुनाईं -
कत्ल हम दूर से ही हो लेते,
क्या जरूरत थी हमें बुलाने की !
जान लेनी है - साफ कह देते,
क्या जरूरत थी मुस्कुराने की !"

मेरी चार लाइनें सुन साजन पेशावरी गम्भीर हो गये, बोले -"छोटे भाई - इसमें 'हमें बुलाने' की जगह 'पास आने' कर दो ! फिर तुम्हारी लाइन इस तरह बनेंगी -
कत्ल हम दूर से ही हो लेते,
क्या जरूरत थी पास आने की !
जान लेनी है - साफ कह देते,
क्या जरूरत थी मुस्कुराने की !"

उन दिनों मैं एक डायरी सदैव साथ रखने लगा था ! कोई भी आइडिया दिमाग में आता, उसे तत्काल डायरी में नोट कर लेता !
डायरी की आदत स्मार्ट मोबाइल फोन हाथ में आने तक बनी रही ! फिर यह छूट गई !

साजन पेशावरी की सलाह मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने उसी समय बदली हुई पँक्तियाँ डायरी में नोट कर लीं !
चाय की पेमेन्ट साजन पेशावरी ने ही की और मुझसे अलग होते हुए एक बार मेरे सिर पर हाथ फेरा ! फिर दो बार पीठ थपथपाई और बोले -"एक दिन जमाना तुम्हारी तारीफ करेगा !"

वह आशीर्वाद था या भविष्यवाणी - यह तो नहीं मालूम, पर पाठकों में अपनी पहचान शून्य होने पर भी, लेखकों व प्रकाशकों से समय-समय पर मैंने बहुत अधिक प्रशंसा बटोरी !

बाद में मैं और साजन पेशावरी दोनों विपरीत दिशाओं में हो लिए !
गाँधीनगर मेन रोड पर पहुँच ताँगा पकड़ मैं चाँदनी चौक पहुँचा ! वहाँ से दरीबे गर्ग एण्ड कम्पनी !

जिस समय मैं गर्ग एण्ड कम्पनी पहुँचा, वहाँ एक शख्स पहले से ही मौजूद था !
औसत कद का वह व्यक्ति मुझसे लम्बा था !
कद साढ़े पाँच फुट के आस-पास कद रहा होगा उसका ! बाल दायें-बायें बिखरे हुए से ! चेहरे पर गम्भीरता मिश्रित हल्की सी मुस्कान !
मुझे देखते ही ज्ञान ने जोर से कहा -"आ भई छोटू ...आज तुझे हिन्दुस्तान के सबसे बड़े लेखक से मिलवाता हूँ !"
और सामने खड़े मेरे लिए अजनबी शख़्स की ओर इशारा करते हुए पूछा -"इन्हें पहचानता है ?"

मैंने कुछ झिझकते हुए इन्कार में सिर हिलाया तो ज्ञान आश्चर्य प्रकट करते हुए बोला -"अरे इन्हें नहीं पहचानता ! पिछली बार तू इनकी कई किताब मुझसे ले गया था ! अबे वही हैं यह - सोमनाथ अकेला !"

यह था ज्ञान का स्टाइल ! मैंने ज्ञान से कभी भी सोमनाथ अकेला की कोई किताब नहीं ली थी, पर सोमनाथ अकेला के कई उपन्यास पढ़े थे, पर यह तो किसी से परिचय कराने का ज्ञान का अपना ही ढंग था !
मुझे सोमनाथ अकेला से परिचित कराने के बाद ज्ञान ने मेरे बारे में सोमनाथ अकेला को बताया -"सोमनाथ जी, यह योगेश मित्तल है ! जितना जमीन के अन्दर है - उतना ही बाहर है ! बस, कद में ही छोटा है ! काम बहुत बड़े-बड़े कर रहा है ! मेरे लिए सामाजिक, जासूसी, बाल पाॅकेट सभी लिख रहा है !"

सोमनाथ अकेला ने मुस्कुराकर मुझसे हाथ मिलाया ! फिर कहा -"पढूँगा आपका लिखा भी !"
"मैंने आपके काफी उपन्यास पढ़े हैं !" मैंने कहा !
"कौन-कौन से...?" सोमनाथ अकेला ने पूछा !
मैंने तत्काल कई नाम बता दिये थे, जो आज तो मुझे याद नहीं हैं, पर उस समय याद थे ! फिर भी सोमनाथ अकेला का एक उपन्यास मेरे लिए आज भी अविस्मरणीय है !

तब गरीब माँ-बाप अपनी बेटियों को कुछ ऐसी शिक्षा देते थे कि बेटी, मायके से तेरी डोली उठ रही है ! अब ससुराल से कदम तभी बाहर निकले, जब तेरी अर्थी उठनी हो !

और बेचारी लड़की ससुरालियों के जुल्म-अत्याचार सहकर भी अपने माँ-बाप को अपनी पीड़ा की खबर नहीं करती थी ! चाहें ससुराल में उसे जिन्दा जला दिया जाये !

ऐसी ही एक दुखियारी लड़की की कहानी लिखी थी सोमनाथ अकेला ने - उपन्यास -'एक लड़की चौराहे की' में !
वह उपन्यास 'एक लड़की चौराहे की' पहले मैले न्यूजप्रिण्ट में उपन्यास पत्रिका में छपा, फिर पाॅकेट बुक्स में भी प्रकाशित हुआ !

उपन्यास में एक ऐसा मोड़ था, जब कथा की नायिका को उसके ससुराल वाले धक्के मारकर घर से निकाल देते हैं और तब दुखियारी नायिका एक ऐसे चौराहे पर पहुँच जाती है, जिसका एक रास्ता उसके ससुराल की ओर था दूसरा मायके की तरफ ! तीसरा रास्ता वेश्याओं के कोठों की बस्ती की तरफ जाता था और चौथा रास्ता उसे आत्महत्या के मार्ग पर ले जाता था ! शायद रेल की पटरियों या किसी नदी की ओर... ! सही-सही घटना आज पूरी तरह याद नहीं ! पर अगर आपने फिल्मों में यदि कोई ऐसी सिचुएशन देखते हैं तो समझ जाएँ कथानक में ऐसी स्थिति का विवरण प्रस्तुत करनेवाले पहले कथाकार सोमनाथ अकेला ही थे !

सोमनाथ अकेला उन दिनों बेहद लोकप्रिय कथाकारों में से एक थे, किन्तु कालांतर में वह अपने समकालीन बहुत से लेखकों से पिछड़ गये ! कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी या पारिवारिक रहा होगा - मेरा तो यही मानना है !
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आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 24
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सोमनाथ अकेला ने कुछ देर मुझसे बातें की ! ज्ञान भी बीच-बीच में बातों में शामिल होता रहा ! फिर ज्ञान की दुकान पर गेरुआ वस्त्रधारी दो साधू आ गये !

उन्हें सूरदास और कबीर के भजनों और दोहों की पुस्तकें और कुछ धार्मिक पुस्तकें चाहिए थीं !

सोमनाथ अकेला शायद कुछ वक्त बिताने के लिए वहाँ आये हुए थे ! थोड़ी देर बाद घड़ी पर नजर डाल उन्होंने विदा ली !

ज्ञान तब अपने ग्राहकों में व्यस्त था ! ग्राहकों के जाते ही मैंने कन्धे पर लटके अपने थैले से बाल पाॅकेट बुक्स की पाण्डुलिपि निकालकर ज्ञान को थमाई !

ज्ञान ने स्क्रिप्ट उलट-पलट कर देखी और उसे अपने पीछे एक ओर रखते हुए बोला -"आगे क्या लिख रहा है ?"
"अब तो भारती पाॅकेट बुक्स के लिए जगत सीरीज़ का एक उपन्यास लिख रहा हूँ - जगत के दुश्मन !" मैंने कहा !
"यानि नकली ओमप्रकाश शर्मा...!" ज्ञान बोला !
मैं मुस्कुरा दिया !
"कमा ले....कमा ले ! खूब पैसे कमा ले ! पर किसी रोज बहुत बुरी तरह फँसेगा बेटा ! अभी शर्मा जी ठण्डे पड़े हैं, मगर जिस दिन बासी कढ़ी में उबाल आया - सारे नक्कालों को जला देगी ! असली ओमप्रकाश शर्मा ने मुकदमा कर दिया तो बेटा - तेरी तो चड्ढी तक बिक जायेगी !"
"कुछ नहीं होगा !" मैं बोला -"ख्वामखाह डराओ मत ! और फिर मैंने थोड़े ही पब्लिशर से कहा है कि मेरा नॉवल ओमप्रकाश शर्मा के नाम से छापो !"
"बेटा जी, चोर का साथ देनेवाला भी चोर कहलाता है ! खोपड़ी तो तेरी भी गंजी होगी ही होगी ! चल छोड़, यह बता अब कब आयेगा ?"
"जब आप कहो !"
"मेरी छोड़ - मैं तो यह कहूँगा - तू रोज आया कर ! सुबह से शाम मेरे पास बैठाकर ! खूब गप्पे मारा करेंगे ! तो बता - आयेगा रोज तू !" ज्ञान ने हँसते हुए कहा तो मैंने नकारते हुए सिर हिलाया !
"तो फिर जब तू भारती पाॅकेट बुक्स का नाॅवल लेकर आयेगा, तभी मेरे से इस नाॅवल की पेमेन्ट ले जाइयो !" ज्ञान ने कहा !
"क्या भाईसाहब, छोटी-सी तो पेमेन्ट है ! आज ही दे दीजिये ना !" मैंने अनुरोध किया !
"छोटी-सी पेमेन्ट ! भई तू राजा आदमी है ! तेरे लिए पच्चीस रुपये छोटी सी पेमेन्ट हो सकती है ! यहाँ तो दस-दस बीस-बीस पैसे करके रुपया बनाते हैं ! मेरे लिए तो पच्चीस रुपये बहुत बड़ी रकम है ! और आज मेरे पास पैसे नहीं हैं ! फिर अभी तो मैंने तेरा पिछला नाॅवल भी नहीं पढ़ा !" ज्ञान ने कहा ! फिर तुरन्त ही पूछा -"वापसी का किराया तो है न तेरे पास...!"

मैंने कोई जवाब नहीं दिया ! बस, बुरा-सा मुँह बनाये खड़ा रहा !

ज्ञान ने गल्ले में हाथ डाला और दो रुपये का नोट निकाल मेरी शर्ट की जेब में ठूँसते हुए बोला -"ले ! यह वापसी किराये के लिए रख ले ! यह मैं तेरी पेमेन्ट में से नहीं काटूँगा !"

अन्ततः उस दिन ज्ञान ने बाल पाॅकेट बुक्स की पेमेन्ट नहीं दी !

वापस गाँधीनगर पहुँच मैं कुमारप्रिय के यहाँ पहुँचा !
वह वीपी फार्म में एड्रेस-एमाउन्ट लिखने में व्यस्त थे !
हर वीपी फार्म में एक स्थान पर वह एक नम्बर डाल, उसके इर्द-गिर्द एक गोला खींच रहे थे !
मैंने पूछा -"यह नम्बर क्यों डाल रहे हैं कुमार साहब ?"
तो कुमारप्रिय बोले -"यह जिस बुकसेलर की वीपी है, उसका हमारे लेजर (Ledger) में यही पेज नम्बर है ! वीपी छूटकर आयेगी तो बिमल जैन इसी नम्बर से फटाफट बुकसेलर का पेज खोलकर रिसीव्ड लिख सकेंगे !"

पंकज पाॅकेट बुक्स के पहले  सैट के समय कुमारप्रिय ने वीपी स्लिप और वीपी फार्म सैट तैयार होने से पहले ही रातोंरात तैयार कर लिये थे !
फिर उन्हें मिश्रा जी के हवाले कर दिया था ! अत: तब मैंने यह सब - कुछ भी नहीं देखा था !

"वीपी स्लिप तैयार हो गई ?" मैंने कुमारप्रिय से पूछा !
"पता नहीं ! अभी हम गये कहाँ हैं तिवारी जी के पास ! बस, पाँच-छ: वीपी फार्म रह गये हैं ! इन्हें कम्प्लीट करके चलते हैं ! तब तक आप बैठिये !" कुमारप्रिय ने कहा !

मैं वहीं चारपाई पर एक ओर बैठ गया ! चारपाई के सिरहाने पड़े तकिये के साथ कुमारप्रिय का नॉवल गुड़िया पड़ा था ! गुड़िया की प्रति कुमारप्रिय ने मुझे दी थी, किन्तु अभी तक मैंने खोलकर भी नहीं देखी थी ! अब समय काटने के लिए मैंने नॉवल उठा लिया और पढ़ने लगा !

मुझे याद नहीं मैंने कितने पेज पढ़े ! अचानक कुमारप्रिय की आवाज़ सुनकर मैं चौंका -"चलिए योगेश जी, तिवारी जी के चला जाए ! देखें -कितनी वीपी स्लिप छापी हैं !"

जब मैं और कुमारप्रिय प्रेस में पहुँचे तो तिवारी जी एक स्टूल पर बैठे चाय पी रहे थे ! इन तिवारी जी के बारे में मैं पहले ही बता चुका हूँ - यही बाद में उपन्यास लिखने लगे और उपन्यासकार श्याम तिवारी के नाम से मशहूर हुए !

कुमारप्रिय ने तिवारी जी को चाय पीते देख बुरा-सा मुँह बनाया -"क्या तिवारी जी, आप चाय पी रहे हैं और हमारा खाना-पीना सब हराम हो गया है ! क्या हुआ हमारे काम का ? वीपी स्लिप कब तैयार करेंगे ?"
तिवारी जी मुस्कुराये, बोले-"वो तो हो गईं !"
"हो गईं ?" कुमारप्रिय चौंके !
"हाँ, तभी तो मैं चाय पी रहा हूँ ! खाना बाद में खाऊँगा !" तिवारी जी स्टूल से उठते हुए बोले !

चाय का गिलास खाली हो चुका था, उसे एक ओर रखकर तिवारी जी ने कोने में रखे कागजों के रिम पर सुतली से बँधा एक पैकेट उठाया और कुमारप्रिय की ओर बढ़ा दिया !
"पूरी हैं ना ?" कुमारप्रिय ने पूछा !
"गिन लीजिये !" तिवारी जी बोले !
"गिनना क्या है ! हमें आप पर पूरा भरोसा है ! दो-चार फालतू ही डाले होंगे ! कम नहीं होगी !" कुमारप्रिय ने कहा ! फिर जेब से पैसे निकाल तिवारी जी को पेमेन्ट की !
उसके बाद हम प्रेस से बाहर निकल आये !

"योगेश जी, अब हम तो चलते हैं !" कुमारप्रिय ने कहा - "दिन-दिन में वीपी स्लिप तैयार कर, रात को मिश्रा जी को बुला लेते हैं ! फिर कल का दिन और रात भी है ना अपने पास...! परसों डिस्पैच कर देंगे !"
"पोस्ट आॅफिस से 'डेट' भी तो लेनी होगी !" मैंने कहा तो कुमारप्रिय हँसे -"अरे, उसकी चिन्ता नहीं कीजिये ! पोस्ट मास्टर साहब को हमारा एक सैट फालतू चाहिए ! हम डिस्पैच से पहले ही उन्हें नई-नई किताबें देंगे तो कुछ भी बोल नहीं पायेंगे ! फिर हर पैकेट पर दस पैसे भी तो लेना है ना ! ओवरटाइम लगाकर भी हमारा काम करेंगे !"
उसके बाद कुमारप्रिय और मैं अलग हो गये !

फिर रात आठ बजे के करीब मैं कुमारप्रिय के कमरे पर पहुँचा !
वह ताला लगाकर निकलने की तैयारी में ही थे !

"कहाँ चले कुमार साहब ?" मैंने पूछा !
बोले -"बस, खाना खाने के लिए निकल रहे थे !"

कुमारप्रिय ने अपने कमरे पर चाय-नाश्ते-खाने का कोई इन्तजाम नहीं रखा था ! सब बाहर होटल, रेस्तराँ, ढाबे में ही होता था ! कभी-कभी हमारे यहाँ भी साथ रहता था !

रात के भोजन का टाइम था ! मैंने भी भोजन नहीं किया था ! अत: कुमारप्रिय से बोला -"आओ, घर चलते हैं !"
"बेकार मम्मी जी परेशान होंगी !" कुमारप्रिय ने कहा !
"नहीं होंगी !" मैंने कहा -"आप चलिये तो...वहीं बैठकर अगला प्रोग्राम भी तय कर लेंगे !"
"अगला प्रोग्राम क्या...हम सब फिक्स कर दिये हैं !" कुमारप्रिय मेरे साथ चलते-चलते बोले !
"क्या फिक्स कर दिए हैं ?" मैंने पूछा !
"सारे वीपी फॉर्म और सारी वीपी स्लिप तैयार कर बाबाजी (बाइंडर -उत्तमचंद) को  दे आये हैं ! मिश्रा जी को भी खबर कर दिए हैं ! रात को और कल दिन में सारी पैकिंग हो जायेगी ! आज रात को पहले रेलवे के बंडल तैयार को बोल दिया है ! पोस्ट ऑफिस के वीपी पैकेट बाद में तैयार होंगे ! कल दिन में ही मिश्रा जी रेलवे की बुकिंग करवा कर बिल्टी ले आएंगे ! बिल्टी हम पोस्ट ऑफिस में पैकेट के साथ ही बुकसेलर को भेज देंगे ! परसों पोस्ट ऑफिस का काम भी दिन-दिन में निपट जाएगा ! शाम को साथ  में चलेंगे - बिमल जैन के यहां डिस्पैच रजिस्टर उन्हें पकड़ा आएंगे !" कुमारप्रिय ने कहा !

बातों-बातों में हम घर तक पहुँच गए !
हमने साथ-साथ एक ही थाली में भोजन किया ! फिर कुमारप्रिय लौट गए !
उसके बाद सब कुछ वैसे ही हुआ, जैसे कुमारप्रिय ने कहा !
पोस्ट ऑफिस में पोस्ट मास्टर साहब को गिफ्ट की किताबें और प्रत्येक पैकेट के हिसाब से धनराशि पहले ही थमा दी गयी थी, इसलिए कोई दिक्कत नहीं आई !

फिर लगभग छह बजे के करीब डिस्पैच रजिस्टर के साथ, कुमारप्रिय और मैं गांधीनगर से तांगा पकड़ बिमल जैन के घर के लिए निकले !

सात बजे तक हम मालीबाड़े बिमल जैन के घर पहुँच गए ! बिमल जैन ने पहले तो हमें आदर सहित बैठाया ! फिर पूछा - "चाय पिएंगे आप ?"

मैं मना करनेवाला था, किन्तु कुमारप्रिय पहले ही बोल पड़े -"हाँ, जैन साहब चाय तो पिएंगे !"
कुमारप्रिय का यह गुर बाद में मैंने भी सीख लिया !
चाय आई ! हमने चाय का कप उठाया !
कुमारप्रिय चाय का कप मुंह तक ले जाते हुए सहज भाव में बोले -"जैन साहब, चाय के साथ कुछ बिस्कुट-नमकीन भी हो जाए ?"
"जरूर-जरूर ! और कुछ चाहिए तो वो भी बता दीजिये !" बिमल जैन बोले, लेकिन उनकी आवाज़ बड़ी तल्ख़ थी ! कुमारप्रिय का तो पता नहीं, लेकिन मैंने साफ़ महसूस किया !

बिमल जैन ने बिस्कुट और नमकीन भी मंगवा दी !
कुमारप्रिय ने बिस्कुट और नमकीन पर भी हाथ साफ़ किया, किन्तु मैं केवल चाय ही सुड़कता रहा ! मेरी छठी इंद्री कुछ अशुभ संकेत दे रही थी !

(शेष फिर)

फिर क्या हुआ ?
बिमल जैन एकाएक बुरी तरह फट पड़े, लेकिन क्यों ?
वकीलपुरे में हुई प्रेम बाजपेयी जी और जमील अंजुम से मुलाक़ात !
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उपन्यास साहित्य का रोचक संसार भाग -21,22
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