‘मख़मूर’ जालंधरी
वास्तविक नाम: गुरबक्श सिंह
जन्म: 1915
मृत्यु: 1 जनवरी 1979
प्रसिद्ध उपन्यासकार कर्नल रंजीत साहब का वास्तविक नाम मख़मूर जालंधरी था। उन्होंने कर्नल रंजीत के नाम से हिंद पॉकेट बुक्स के लिए उपन्यास लेखन किया और 'मेजर बलवंत' नामक जासूस को स्थापित किया।
‘मखमूर’ जालंधरी साहब का जन्म सन 1915 में पंजाब राज्य के जालंधर शहर के लालकुर्ती इलाके में हुआ था. उनके पिता का नाम केसर सिंह था. बचपन से ही उनको साहित्य से लगाव रहा. उन्होंने पढ़ाई के साथ साथ शायरी करना भी शुरू कर दिया था. 1938 में उनकी शादी दमयंती देवी से हुई. पढ़ाई समाप्त करने के बाद रोजगार की तलाश करने के दौरान उन्होंने आल इंडिया रेडियो जालंधर के लिये ड्रामे लिखने शुरू कर दिये. यह सिलसिला कई बरस तक चलता रहा. उनके लिखे ड्रामे श्रोताओं में खासे मकबूल होते थे. उन्होंने रेडियो के लिये लगभग 250 ड्रामा लिखे. उन्हीं दिनों वह प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़ गये.
उस समय के राजनैतिक माहौल तथा परिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों व आर्थिक दुश्वारियों के मद्देनज़र वह अपने स्वजन-मित्रों की सलाह पर सन 1958 में सदा के लिये जालंधर छोड़ कर दिल्ली आ गये और वहीँ बस गये. यहाँ पर फ़िक्र तौंसवी, प्रकाश पंडित और बलराज कोमल जैसे उर्दू – हिंदी साहित्यकारों से प्रोत्साहन पाकर उर्दू अदब के क्षेत्र में अपनी खिदमात फिर से देने लगे. कुछ वक़्त तक उन्होंने उस वक़्त के लोकप्रिय रोज़ाना उर्दू अखबार ‘मिलाप’ में काम किया (फ़िक्र तौंसवी साहब उन दिनों अखबार में एक कॉलम लिखा करते थे ‘प्याज़ के छिलके’ जो बेहद मक़बूल था). बाद में कुछ समय तक मखमूर साहब ने रूसी साहित्य के अनुवाद का कार्य भी हाथ में लिया. दिल्ली में ही वह ‘मीराजी’ और क़य्यूम ‘नज़र’ आदि साथियों के साथ ‘हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक’ नामक साहित्यिक संस्था से भी जुड़े रहे.
जो काम वह करते थे, उससे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि घर का खर्च और बढ़ती उम्र के बच्चों की शिक्षा का खर्च वहन कर पाते. कई अन्य समकालीनों की तरह उन्हें भी सिगरेट तथा शराब का शुगल रहा. इन परिस्थितियों में उन्होंने लोक रूचि को ध्यान में रखते हुये जासूसी और सामाजिक-रोमांटिक उपन्यास लिखने शुरू कर दिये. यह रचनायें हिंदी में छपती थीं तथा बहुत पसंद की जाती थीं. पाठकों में इनकी मांग बनी रहती थी. लेकिन यह भी सच है कि यह सभी पुस्तकें उनके वास्तविक नाम या तखल्लुस (उपनाम) से नहीं छपती थीं बल्कि छ्द्म नामों से छपती थीं. यह व्यस्तता लगभग 15-16 वर्ष तक चलती रही. इस बीच वह लिवर की खराबी का शिकार हुये और अन्ततः 1979 में उनकी मृत्यु के साथ ही यह सिलसिला समाप्त हुआ. इस प्रकार के लेखन से उन्हें नाम तो न मिल सका मगर दाम (यानी पारिश्रमिक) ज़रूर मिलता रहा.
सन 2004 में फ़िरोज़ बख्त अहमद को दिये एक इंटरव्यू में प्रख्यात पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ ने बताया था कि आज के भारतीय शायरों में कोई उन्हें प्रभावित नहीं करता. हाँ, “पुराने शायरों में साहिर लुधियानवी अपनी साफ़गोई और दिल को छू लेने वाली शायरी के कारण मेरे हीरो हैं. इसके अलावा फ़िराक़, कुँवर महेंदर सिंह बेदी, अली सरदार जाफ़री, नून मीम राशिद व मख़मूर जालंधरी को भी पसंद करता हूँ.” इस बात से उस शायरे अज़ीम अर्थात ‘मख़मूर’ साहब के कलाम की श्रेष्ठता व ऊंचाई का पता चलता है.
मख़मूर साहब की प्रकाशित पुस्तकों में ‘मुख़्तसर नज्में’ ‘जल्वागाह’ ‘तलातुम’ और ‘फुलझड़ियां’ प्रमुख हैं. उर्दू अकादमी, दिल्ली से भी एक पुस्तक ‘मख़मूर जालंधरी की मुंतखब नज्में’ नाम से प्रकाशित हुई. जनाब बलराज ‘कोमल’ इसके एडिटर थे।
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प्रस्तुत आलेख रजनीश मंगा जी के सौजन्य से।
रजनीश मंगा जी |
रोचक आलेख। कर्नल रंजीत के विषय में जरूरी जानकारी देता है। रजनीश मंगा जी का आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद। आपने कर्नल रंजीत के बारे में इतनी अच्छी जानकारी दी। मैं लंबे समय से इसे तलाश रहा था।
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