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सोमवार, 28 जनवरी 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- 03, 04

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार -भाग-03
लेखक- योगेश मित्तल (रजत राजवंशी)
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कलकत्ते से आने के बाद दिल्ली के गाँधीनगर में बसने पर मेरे सबसे पहले जो दो दोस्त बने, उनमें से एक था नरेश गोयल, दूसरा था अरुण कुमार शर्मा।
नरेश गोयल तो ठीक-ठाक फैमिली से था, पर अरुण कुमार शर्मा के दिन मुफ़लिसी के थे।
        रघुवर पुरा नम्बर दो या शायद शान्ति मोहल्ले में घर जरूर अपना था, पर अधबना, जिसका फर्श भी कच्चा था ! लम्बा-गोरा भूरी आँखों वाला अरुण कुमार शर्मा रोज ही सुबह शाम मुझसे मिलता था।  जब मेरी सिटिंग 'विशाल लाइब्रेरी' में होने लगी तो वह मुझसे मिलने विशाल लाइब्रेरी भी आने लगा, किन्तु एक-दो बार में ही उसे भी और मुझे भी यह एहसास हो गया कि बिमल चटर्जी ने उसे पसन्द नहीं किया है, बल्कि विशाल लाइब्रेरी में उसका आना भी बिमल को नापसन्द था।
        अरुण को अक्सर पैसों की जरूरत रहती थी ! कभी वह मुझसे माँगता तो मैं मना नहीं करता था।
           जब उसने यह जाना कि मैं बिमल चटर्जी के लिए कहानियाँ लिख रहा हूँ और बिमल मुझे हर कहानी के पाँच रुपये देते हैं तो उसके दिल में भी कहानियाँ लिखने की धुन सवार हो गी।
         उसने भी कहानियाँ लिखनी शुरु कर दीं, पर अपनी लिखी कहानियों से उसे सन्तोष नहीं मिला। वह सभी कहानियाँ मेरे पास ले आया। मुझे पढ़ने को दीं।  कहानियों की शुरुआत व अच्छे विषय के बावजूद सारी कहानियाँ बकवास थीं।  अन्त तो किसी भी कहानी का ठीक नहीं था। पर अरुण मेरा दोस्त था। उसका दिल रखने के लिए मैंने यही कहा कि अच्छी कोशिश है, पर तुझे अभी बहुत मेहनत करनी होगी।
         अरुण ने दो टूक शब्दों में पूछा - "छपने लायक है या नहीं। किसी प्रकाशक को पसन्द आयेगी या नहीं ?"

        फिर मेरे चुप रहने पर वह खुद ही बोला कि-"यार पैसे की बड़ी तंगी है, तू इन्हें छपने लायक बना दे !"
और यहीं से मेरे सम्पादन- लेखन का एक नया अध्याय शुरु हुआ।   मैंने अरुण की सारी कहानियों में करेक्शन, एडिटिंग करके, अपनी तरफ से उनमें बीच-बीच के तथा अन्त के रोचक दृश्य लिखकर उन्हें काफी बेहतर बना दिया ! फिर वह अरुण को वापस दे दीं।

फिर उसने उन कहानियों का क्या किया, मुझे मालूम नहीं पड़ा। काफी दिनों तक वह मुझसे मिलने भी नही आया।

         मैं बिमल चटर्जी के साथ कहानियाँ लिखने में व्यस्त रहने लगा। उन्हीं दिनों मेरी जिन्दगी में  एक और लेखक ने प्रवेश किया, जिसका नाम कुमारप्रिय था। कुमारप्रिय ने खुद ही मुझसे पहचान बढ़ाई। वह अच्छा फोटोग्राफर भी था और उसके पास एक कैमरा भी था। पर यह चैप्टर बाद में।

            शुरु-शुरु में बिमल चटर्जी में एक कमजोरी थी कि वह कोई भी बड़ी कहानी या उपन्यास लिखते तो बीच में कहीं भी अटक जाते। ऐसे में जब भी वह मुझसे चर्चा करते, मैं उन्हें सलाह देता कि जहाँ भी आपकी लेखनी में ब्रेक लगे, आगे क्या लिखना है, न सूझे, वहीं कहानी में एक-दो नये कैरेक्टर ले आओ। कभी काॅमेडी करनेवाले तो कभी विलेन टाइप के बदमाश। उदाहरण समझाने के लिए मैंने उनकी कई कहानियों में बीच के दृश्य भी लिखे।

        फिर भी लम्बी कहानियों या उपन्यास का अन्त करना उन्हें सबसे मुश्किल काम लगता ! ऐसे में वह अन्त लिखने का काम मुझे सौंप देते।  उनके साथ रहते हुए, उनके शुरु-शुरु के बहुत से उपन्यासों और लम्बी कहानियों का अन्त लिखने का सौभाग्य मुझे हासिल हुआ।
              उनके द्वारा दी जानेवाली इस जिम्मेदारी ने मुझे कहानियों और उपन्यासों का अन्त लिखने का स्पेशलिस्ट भी बना दिया, जिसका फायदा बाद में मुझे मनोज पाॅकेट बुक्स, राज पाॅकेट बुक्स और विमल पाॅकेट बुक्स के बहुत से उपन्यासों का अंत लिखने में मिला।

           आप शायद यकीन न करें, लेकिन विमल पाॅकेट बुक्स में प्रकाशित एक उपन्यास कलंकिनी का अन्त मैंने बिना पूरा उपन्यास पढ़े लिखा था। दरअसल उपन्यास का आखिरी फार्म यानि अन्तिम सोलह पेज प्रकाशक महोदय की टेबल पर थे और उसी को पढ़कर मुझे 'एण्ड'  बदलना था।

         सामने प्रकाशक महोदय की सुपुत्री रमा जी थीं, जिन्होंने उपन्यास के प्रूफ पढ़े थे।  मैंने रमा जी से कहा - "आपने प्रूफ पढ़े हैं तो आपको उपन्यास की कहानी कुछ तो याद होगी, मुझे संक्षेप में सुना दीजिये।'
रमा जी ने संक्षेप में उपन्यास की कहानी सुनाई और मैंने उपन्यास का अन्त लिखा, जो रमा जी को बहुत पसन्द आया।

            एक ऐसा ही घटना तब घटी, जब राजन-इकबाल सीरीज़ के बाल उपन्यासों के लेखक एस.सी.बेदी झाँसी में रह रहे थे और राज पाॅकेट बुक्स के स्वामी राजकुमार गुप्ता राजन-इकबाल सीरीज़ के उपन्यासों का सैट छाप रहे थे ! सैट की एक को छोड़ सारी किताबें तैयार थीं कि पंगा हो गया।

          कम्प्यूटर का जमाना नहीं था, पुस्तकें टाइप करने के लिए लोहे की डाइयों से बने एक-एक फोन्ट को जोड़कर शब्द और लाइनें तैयार की जाती थीं और लाइनों को जोड़कर पेज तैयार होता था और एक-एक पेज कई किलो का होता था।

        अधिकांश प्रेसवालों की अपनी कम्पोजिंग एजेन्सियाँ होती थीं, जिनमें काम करनेवाले अधिकांश लोग सातवीं-आठवीं से अधिक पढ़े-लिखे नहीं होते थे और ये कम्पोजिंग एजेन्सियाँ अमूमन उस बिल्डिंग की छत पर होती थीं ! (ग्राउंड फ्लोर या बेसमेंट में प्रिंटिंग मशीनें लगी होती थीं) और ऐसी कम्पोजिंग एजेन्सियों की छत भी पक्की नहीं होती थी। टीन की चादरें पड़ी होती थीं, जिनमें अक्सर कई-कई जगह सुराख भी होते थे और तेज बारिशों के समय दो चादरों के जोड़ के बीच से भी पानी की धार कम्पोजिंग एजेन्सी में काम करनेवालों को अक्सर नहला देेती थी।

बाॅलपेन का जमाना भी नहीं था, तब निब वाले फाउन्टेन पेन से कहानियाँ लिखी जाती थीं।  तो ऐसी ही एक कम्पोजिंग एजेन्सी में टाइप हो रहे एस. सी. बेदी के राजन-इकबाल सीरीज़ के एक उपन्यास का अंत बारिश में धुल गया।

उन दिनों मोबाइल नहीं होते थे। लैण्डलाइन फोन भी किसी-किसी घर में होते थे।  एस.सी.बेदी की श्रीमती जी झाँसी के किसी स्कूल में शिक्षिका थीं और संयोग से उनके यहाँ फोन भी था।

         राज कुमार गुप्ता यानि राज बाबू ने बेदी साहब को फोन किया।  बहुत कोशिशों के बाद फोन मिला तो बेदी साहब ने स्वास्थ्य सम्बन्धी व पारिवारिक कारणों से तत्काल दिल्ली आने में असमर्थता जताई।
तो राज बाबू ने पूछा कि-  "किसी और से उपन्यास का अन्त लिखवा लें।"
"नहीं, किसी और से नहीं, अगर हो सके तो योगेश से लिखवा लें" बेदी साहब ने कहा।

बेदी साहब से अपनी पहचान और यारी की कहानी फिर सुनाऊँगा, पर बेदी साहब के कहने पर राज बाबू ने अपने एक कर्मचारी मुलखराज को मेरे घर का पता बताया और जैसे भी हो, थ्रीव्हीलर करके मुझे पकड़कर लाने को कहा।

दरअसल उस समय मेरे याराने इतने ज्यादा हो गये थे कि मैं ऐसी उड़ती चिड़िया हो गया था, जो मुश्किल से ही हाथ आती है। पर मुलखराज ने मुझे पकड़ लिया ! इसके लिए उसे मेरे घर के बाहर दो घंटे तक इन्तजार करना पड़ा था।

तब राज पाॅकेट बुक्स का आॅफिस शक्तिनगर के एक बेसमेंट में था।  उसी बेसमेंट से राज बाबू ने राज पाॅकेट बुक्स के बहुत सैट और जगदीश पाॅकेट बुक्स के कुछ सैट निकाले।

        तब राज पाॅकेट बुक्स में प्रूफरीडिंग का काम बख्शी साहब करते थे, जिन्हें बहुत से प्रतिष्ठित संस्थानों में काम करने का तजुर्बा था।

         बेदी साहब के राजन-इकबाल सीरीज़ के उपन्यास का अन्त करने की समस्या मुझे बताई गी। मुश्किल यह थी कि उपन्यास के सिर्फ आखिरी चार पन्ने मेरे सामने थे, जो बारिश में पूरी तरह भीगने से बच गये थे ! सारे फार्मों के प्रूफ व ओरिजिनल प्रेस में थे और उन्हें मँगवाने में एक दिन बरबाद होना निश्चित था और पुस्तक का अंत अति शीघ्र चाहिए था ! सैट डिस्पैच करने की तारीख़ पोस्ट आॅफिस से ली जा चुकी थी और किताब बाइन्ड भी होनी थी ! एक-एक पल कीमती था।

          बख्शी साहब ने प्रूफ पढ़े थे।  मैंने बख्शी साहब से संक्षेप में कहानी पूछी। चरित्रों के बारे में जानकारी हासिल की और पेन उठा लिया।

          दो महीने बाद एस.सी. बेदी साहब झाँसी से दिल्ली आये तो यशपाल वालिया जी के यहाँ उनसे मुलाकात हुई ।

पतले-दुबले लम्बे बेदी साहब ने मुझे देखते ही गोद में उठा लिया और हकलाते हुए कहा -"कमाल कर दिया योगेशजी। इतना बढ़िया एण्ड तो मैंने भी नहीं लिखा था, जितना बढिया एण्ड आपने किया है,  इसीलिए मैंने राज बाबू से कहा था कि एण्ड योगेश के अलावा किसी और से मत करवाना !"

          बेदी साहब को जन्मजात हकलाने की बीमारी थी ! पर वह बहुत ही बढ़िया दोस्त रहे हैं।
खैर, हम बात अरुण कुमार शर्मा की कर रहे थे,  काफी दिनों बाद जब वह मिला तो उसके हाथ में एक अखबार था, जिसमें नये लेखकों की आवश्यकता का विज्ञापन छपा था !
अरुण ने मुझसे कहा कि योगेश यह तेरे लिए गोल्डन चांस है, एक बार मिलकर देख शायद बात बन जाये।

उस समय तक मैं अपनी जिन्दगी में कभी किसी प्रकाशक से नहीं मिला था।
(शेष फिर )
प्रथम भाग यहाँ उपलब्ध है।
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- भाग-01 , 02



आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 4
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उन दिनों हिन्दी फिल्मी पत्रिकाओं की बहुत धूम थी।मोबाइल, टीवी, इन्टरनेट कुछ भी नहीं था। लोगों के मनोरंजन का साधन किताबें, फिल्में, सर्कस तथा भालू व बन्दर के तमाशे, नौटंकी, नाटक आदि थे। इनमें सबसे सस्ता मनोरंजन पुस्तकें ही थीं और देर तक आनन्द देने में पुस्तकों का सानी कोई नहीं था।
और युवा वर्ग तथा महिलाओं में फिल्मी पत्रिकाओं की लोकप्रियता सर्वोच्च थी।
ऐसी ही एक पत्रिका थी - रंगभूमि।
         रंगभूमि प्रकाशन से और भी कई पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। दिल्ली में आनेवाले कैलाश श्रीवास्तव को रंगभूमि कार्यालय में कब और क्या काम मिला, इस बारे में बहुत कुछ बता पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है। बहुत सी चीजें यादों व जानकारी से बाहर हैं, पर रंगभूमि प्रकाशन ने कैलाश श्रीवास्तव को कुमारप्रिय नाम और पहचान दी। हालांकि यह नाम कैलाश श्रीवास्तव ने स्वयं ही अपने लिए चुना था।

लेखकीय कीटाणु शायद कैलाश श्रीवास्तव के खून में भी थे।
            कैलाश के सबसे बड़े भाई सुशील कुमार साहित्यिक लेखकों में जाने जाते थे। मँझले भाई कुणाल श्रीवास्तव भी बड़े भाई सुशील कुमार के नक्शेकदम पर चल रहे थे, पर उन्हें बहुत ज्यादा ख्याति मिली इलाहाबाद से छपनेवाली नूतन कहानियाँ के सम्पादक के रूप में।

             नूतन कहानियाँ, उन दिनों मित्र प्रकाशन से प्रकाशित होनेवाली मनोहर कहानियाँ से टक्कर लेने की कोशिश कर रही थी।
      कैलाश श्रीवास्तव तीनों भाइयों में सबसे छोटे थे और वह साहित्य से अलग एक बेस्टसेलर लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे।  देखने में कुमारप्रिय उतने आकर्षक नहीं थे, जितनी शानदार उनकी तस्वीरें कैमरे में आया करती थीं।

         रंगभूमि प्रकाशन ने कुमारप्रिय का उपन्यास "गुड़िया" प्रकाशित किया, जिसका रंगभूमि प्रकाशन की सभी पत्रिकाओं में जबरदस्त प्रचार किया गया।
           विशेष बात यह थी कि "गुड़िया" का कवर डिजाइन, इनर सैटिंग, प्रूफरीडिंग, सब कुछ कुमारप्रिय उर्फ कैलाश श्रीवास्तव ने बहुत ही खूबसूरती से स्वयं किया था। विज्ञापन के पेज भी खुद ही तैयार किये थे।

          कुमारप्रिय बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में कई बार आ जा चुके थे, पर मुझसे पहचान नहीं हुई थी।  पर एक रोज जब मैं घर के रास्ते पर था कुमारप्रिय मुझे अचानक ही मिल गये ! मुझे नहीं पता कि वह सचमुच अनायास ही मिले थे या मुझसे मिलने के लिए विशाल लाइब्रेरी से आगे खड़े मेरा इन्तजार कर रहे थे।

         उनके चेहरे पर काला चश्मा था तथा एक हाथ में एक ब्रीफकेस थामे हुए थे। होठों में सिगरेट दबी थी। होठों से सिगरेट निकाल वह मुझसे बोले - "योगेश जी, कैसे हैं आप ? हम कई दिनों से आपसे मिलने की सोच रहे थे ?"

           उनकी अंगुलियों में दबी सिगरेट बस खत्म ही होनेवाली थी। उन्होंने सिगरेट का टोटा मुँह से लगाये अपनी पाॅकेट से विल्स नेवी कट का पैकेट निकाला और नई सिगरेट निकाल कर सिगरेट का जलता हुआ टोटा मुँह से निकाला और नई सिगरेट होठों में दबा, कश खींच टोटे से उसे सुलगाने लगे। आगे की ओर के उठे हुए, पीछे की ओर काढ़े जवान देवानन्द जैसे फूले हुए बाल और काले चश्मे में छिपी हुई आँखें, किसी पुरानी फिल्म के जासूस जैसी पर्सनालिटी थी कुमारप्रिय की।

       मेरे लिए कुमारप्रिय अजनबी थे। मैंने उनके चेहरे की ओर देख, याद करने की कोशिश की तो याद आया कि इस शख़्स को कई बार विशाल लाइब्रेरी में देखा है। पर एक कोने में बैठा मैं अपनी कहानियाँ लिखने में मस्त रहता था, अतः बिमल से कुमारप्रिय की बातों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था।
            दरअसल लिखने के मामले में मुझे भगवान की अद्भुत देन यह थी कि मुझे सोचने के लिए एक भी क्षण बरबाद नहीं करना पड़ता था। पेन हाथ में लेते ही शुरु हो जाता था। यह खूबी मुझ में अब भी बरकरार है ! बस, पेन का स्थान कम्प्यूटर के कीबोर्ड ने ले लिया है।

           "लगता है आप हमें पहचाने नहीं।" और कुमारप्रिय ने सिगरेट मुँह में दबा ब्रीफकेस को एक हाथ पर टिका, दूसरे हाथ से खोला और उसमें से एक किताब निकाल, मुझे पकड़ाई और ब्रीफकेस बन्द किया। फिर किताब मेरे हाथ से ले, उसे घुमाकर, उसके बैक कवर पर छपी लेखक की  बेहद खूबसूरत तस्वीर दिखाकर मुस्कुरा कर बोले - "यह हम हैं भी।"

        गजब का निराला अन्दाज़ था कुमारप्रिय का। मैंने उनके हाथ से पुस्तक ली और कभी उनका चेहरा और कभी तस्वीर देखने लगा।     तस्वीर कुमारप्रिय से अधिक खूबसूरत थी, पर दो-तीन बार देखने पर यकीन हो गया कि मेरी आँखों के सामने तस्वीर वाला शख्स ही है।

फिर जो कुमारप्रिय से आगे बातें हुईं वह संक्षेप में इस प्रकार थीं।   कुमारप्रिय ने मुझसे कहा - "दरअसल हमें एक कमरे की जरूरत है ! जिस जगह हम रह रहे हैं, मकानमालिक कमरा खाली करने को कह रहा है, और हम तो यहाँ किसी को जानते नहीं। ये कमरा भी रंगभूमि में काम करनेवाले एक शख़्स ने दिलवाया था। पर अब वो रंगभूमि छोड़ गया है।हमने बिमल चटर्जी तथा और भी कई लोगों को बोला है। सोचा आपसे भी कह दें, शायद आपके पास ही कहीं एक कमरा मिल जाये।"

बातों-बातों में कुमारप्रिय मुझे अपने साथ, अपने कमरे तक ले आये।      कुमारप्रिय का कमरे का मुख्य दरवाजा बाहर गली में था।  दरवाजा खोलकर कमरे में प्रवेश किया तो सामने भी एक दरवाजा दिखा, जो मकान के अन्दर खुलता था, पर उस समय वह बन्द था। छोटा-सा कमरा था, जिसमें एक दीवार से सटी एक चारपाई और उसके सामने एक सेन्टर टेबल थी ! टेबल पर एक ऐश-ट्रे थी, जो पूरी तरह सिगरेट के टोटों से भरी थी ! इतनी ज्यादा भरी थी कि बहुत सारे टोटे सेन्टर टेबल और नीचे फर्श पर भी चारों ओर पड़े दिखाई दे रहे थे ! विल्स नेवीकट और प्लेन चारमीनार के कई पैकेट भी सेन्टर टेबल पर थे।

           फिर मैंने जब कुमारप्रिय से इजाजत चाही तो कुमारप्रिय बोले - "अरे आप पहली बार हमारे यहाँ आये हैं और हम कुछ पूछ भी नहीं सकते। हमारा तो खाना-पीना सब बाहर ढाबों पर चलता है। पर आइये, आपको घर तक छोड़ देते हैं।"
          हम जिस रास्ते से आये थे, मैं वापसी के लिए उसी रास्ते पर मुड़ने लगा तो कुमारप्रिय ने कहा - "अरे, इधर-किधर जा रहे हैं। यहाँ से सीधे जायेंगे तो पहले मोड़ पर बिमल चटर्जी के घर की गली आयेगी।  उसमें बिना मुड़े सीधे चलते रहेंगे तो यह गली आपके घर के ठीक सामने खत्म होगी।"

कमाल की बात थी।  एक शख्स, जिसे गाँधीनगर आये ज्यादा समय नहीं हुआ था, मुझे मेरे घर का रास्ता बता रहा था।    पर कुमारप्रिय की विशेषताओं और उनके नजदीक से नजदीक आने की बातें फिर कभी। मुख्य बात यह कि उस दिन मेरी जिन्दगी में शामिल हुआ कुमारप्रिय बहुत जल्दी मेरे परिवार का हिस्सा बन गया।

मेरा छोटा भाई राकेश उन दिनों मालीवाड़े के एक कारखानेदार बिमल जैन के यहाँ एम्ब्रायडरी कढ़ाई का काम करने लगा था।  एक दिन बिमल जैन से कुमारप्रिय की मुलाकात भी हो गई थी और बिमल जैन को प्रकाशक बनने की धुन सवार हो गी।

कुमारप्रिय नाम तो मशहूर था ही, तय हुआ दो उपन्यास छापे जायेंगे। दूसरा उपन्यास मैं लिखूँगा और वह इमरान सीरीज़ का होगा और एच. इकबाल के नाम से छापा जायेगाा।
और तब दिल्ली से पंकज पाॅकेट बुक्स आरम्भ हुई, जिसके पहले सैट में कुमारप्रिय का सामाजिक रोमांटिक उपन्यास था - "मेरे अरमान तेरे सपने" तथा मेरा लिखा जासूसी उपन्यास था - "ओलम्पिक में हंगामा"
ओलम्पिक में इजरायली खिलाड़ियों की हत्या की पृष्ठभूमि पर मार्केट में वह पहला ही उपन्यास था।

दोनों किताबें कामयाब रहीं। विक्रेताओं और पाठकों में पंकज पाॅकेट बुक्स की साख पहले ही सैट में बन गई ! तब दूसरे सैट में तीन किताबें छापने का प्रोग्राम बना। तीसरी किताब एक बाल पाकेट बुक्स थी।  जिसमें दो उपन्यास जोड़कर इस तरह छापे गये कि दोनों तरफ से एक-एक उपन्यास पढ़ा जाये।  एक उपन्यास था - काला घोड़ा नीली झील। दूसरे का नाम फिलहाल भूल रहा हूँ।  दोनों उपन्यासों में लेखकों नाम क्रमशः "रानो जीजी" व "इन्दर भैया" था, पर लिखे मैंने ही थे।  सैट में एच. इकबाल नाम के लिए मेरा उपन्यास था - "धाँय-धाँय-धाँय" और कुमारप्रिय का उपन्यास था - "राख की दुल्हन"

तब मैं कहानियाँ रूल्ड फुलस्केप पेपर पर लिखता था, पर उपन्यास मोटे रजिस्टर पर लिखा करता था।

'धाँय-धाँय-धाँय' का लेखन चल ही रहा था, जब मेरे दोस्त अरुण कुमार शर्मा ने मेरे हाथों में भारती पाॅकेट बुक्स का विज्ञापन मेरे हाथ में दिया।

उन दिनों मैं लिखने की एक मशीन बना हुआ था।  बिमल चटर्जी को जितनी कहानियाँ चाहिए होती थीं। उपन्यास या बाल उपन्यास चाहिए होते थे, वह भी लिखता था।
कुमारप्रिय के साथ पंकज पाॅकेट बुक्स के लिए भी लिख रहा था और अब मैंने भारती पाॅकेट बुक्स में जाने का हौसला भी बना लिया था।
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इस रोचक श्रृंखला का पांचवा और छठा भाग पढने के लिए उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-05,06 लिंक पर जायें।

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