उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- भाग-01
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भारती पाॅकेट बुक्स नाम पढ़ते-सुनते आप सबके मन-मस्तिष्क में एक ही बात आती होगी कि इस संस्था के मालिक तो राज भारती ही रहे होंगे।
बात सही है, पर पूरी तरह ऐसा भी नहीं था, लेकिन भारती पाॅकेट बुक्स में अपने प्रवेश और पहचान के बारे में बताने से पहले आपकी किताबी दुनिया से कुछ और भी पहचान करा दूँ।
तब दरीबाँ कला दो बातों के लिए मशहूर था।
1. एक तो वहाँ ज्वैलरी की बहुत दुकानें थीं।
2. दूसरे पुस्तकों के थोक विक्रेताओं का यही एक गढ़ था।
इसके अलावा दो और खाशियत थीं दरीबे की।
एक तो हीरा टी स्टाल, जिसकी चाय का स्वाद घर की चाय से भी बेहतर होता था। चाय की सतह पर दूध की मलाई का स्वाद भी हीरा टी स्टाल की चाय में उठाया जा सकता था।
दूसरी खासियत थी दरीबे में प्रवेश के नुक्कड़ पर स्थित हलवाई की दुकान, जिसका नाम अब याद नहीं।
देशी घी की जलेबी और समोसे के लिए वह दुकान काफी मशहूर थी। मुझे नहीं पता कि अब भी ये हैं या नहीं।
तो हमारी दिलचस्पी तो पुस्तकों में है तो आगे की बात पुस्तकों की ही हो जाये।
दरीबे में राज पुस्तक भंडार, नारंग पुस्तक भंडार, गर्ग एंड कम्पनी, रतन एंड कम्पनी, पंजाबी पुस्तक भंडार आदि पुस्तकों के थोक विक्रेताओं की दुकानें थीं, जहाँ से पुस्तकें खरीदने दिल्ली के नहीं दिल्ली के नजदीकी क्षेत्रों के पुस्तक बिक्रेता आया करते थे।
मनोज पाॅकेट बुक्स, राजा पाॅकेट बुक्स और मनोज पेपरबैक्स आज बेहद प्रतिष्ठित प्रकाशकों में से हैं, पर बहुत कम लोग जानते हैं कि इनके उत्थान में परिवार के सबसे बड़े भाई राजकुमार गुप्ता और स्वर्गीय गौरीशंकर गुप्ता की जी तोड़ मेहनत और बुद्धि का विशेष योगदान रहा है। इस बारे में विस्तार से फिर कभी, फिलहाल मुख्य बातें ही ठीक हैं।
अब मैं पहले अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत के बारे में बताना चाहूँगा।
मेरा बचपन कलकत्ते में बीता था। वहीं अपर चितपुर रोड स्थित श्री डीडू माहेश्वरी पंचायत विद्यालय में पढ़ते हुए पहली बार लिखने का कीड़ा जन्मा।
जब मैं पाँचवीं कक्षा में था, तब कलकत्ते के अखबार सन्मार्ग में मेरी कुछ कविताएँ व कहानियाँ छपीं। फिर जब छठी- सातवीं में था तो स्कूल की वार्षिक पत्रिका 'सरोज' में भी कहानी व कविता छपीं।
पर जब दिल्ली आना और गांधीनगर में रहना हुआ, मेरी पहचान बिमल चटर्जी से हुई। बिमल चटर्जी की उन दिनों गांधीनगर की अशोक गली में
'विशाल लाइब्रेरी' नाम की किताबों की दुकान थी और वह लेखक बिल्कुल नहीं थे। ना कभी उन्हें बचपन में लिखने-लिखाने का शौक रहा था। हाँ, गाना गाने के वह शौक़ीन थे। किशोर कुमार और मन्ना डे के गाने बहुत ही सुन्दर ढंग से, बेहद मधुर आवाज़ में गाते थेे। उनके छोटे भाई अशीत चटर्जी भी कम नहीं थे, गाने के अलावा मेज थपथपाकर तबला भी खूब बजाते थेे।
लाइब्रेरी चलाते हुए बिमल चटर्जी दस पैसे रोज के किराये पर किताबें पढ़ने के लिए देते थे और मैं शुरु से ही किताबों का कीड़ा रहा था, किताब कैसी भी हो, कहानी की हो या किसी भी अन्य विषय की, हाथ लग जाये तो पूरी पढ़े बिना नहीं छोड़ता था।
अत: पहले बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी का ग्राहक बना, फिर दोस्ती हुई, जो आगे चलकर प्रगाढ़ रिश्तों में बदल गई ! और बिमल चटर्जी के लिए मैं छोटा भाई बन, उनके परिवार का हिस्सा बन गया।
बिमल किताबें लेने दरीबे जाया करते थे। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि मनोज पाॅकेट बुक्स के संस्थापकों में से एक सबसे बड़े भाई श्री राजकुमार गुप्ता जी की पहले पहल दरीबे में रद्दी की दुकान हुआ करती थी। पुराने अखबारों, काॅपी, किताबों की रद्दी खरीदने, फिर उसे रद्दी के बड़े खरीददारों को बेचने की।
राजकुमार गुप्ता और उनके मँझले भाई गौरीशंकर गुप्ता किताबें पढ़ने के विशेष शौकीन थे। सबसे छोटे भाई विनय कुमार उन दिनों बहुत छोटे थे।
दरीबा थोक पुस्तक बिक्रेताओं का गढ़ था। अत: रद्दी का काम छोड़ने का विचार करते हुए पहले राजकुमार गुप्ता ने राज पुस्तक भंडार द्वारा थोक में पुस्तकें बेचनेवालों की कतार में स्वयं को भी खड़ा किया।
बिमल चटर्जी जब अपनी विशाल लाइब्रेरी के लिए पुस्तकें खरीदने दरीबे आते तो अधिकांशतः 'नारंग पुस्तक भंडार' तथा 'राज पुस्तक भंडार' से पुस्तकें खरीदते। तब नारंग पुस्तक भण्डार के मालिक चन्दर प्रकाश नारंग हुआ करते थे, जो किसी से भी दोस्ती कर लेने के हुनर में बाकमाल काबिलियत रखते थे, बाद में यह खूबी मैंने चन्दर भाई के छोटे भाई में भी नोट की।
किताबी दुनिया में राज कुमार गुप्ता के प्रवेश के बाद, ग्रेजुएशन करने के बाद मँझले भाई गौरीशंकर गुप्ता ने भी कारोबार में बड़े भाई का हाथ बँटाना शुरु कर दिया था।
दोनों भाई जबरदस्त महत्वाकांक्षी थे। एक दिन दोनों ने ठाना कि क्यों न वह किताबें छापनी शुरु कर दें। उन दिनों बच्चों की पत्रिकाओं व पुस्तकों का मार्केट बहुत अच्छा था।
गर्ग एंड कम्पनी से प्रकाशित होनेवाली गोलगप्पा पत्रिका में मेरी कई कहानियाँ छप चुकी थीं।
बाल पाॅकेट बुक्स प्रकाशित होने की शुरुआत भी हो चुकी थी।
राज भारती पटेलनगर से रंगा-गंगा सीरीज़ की कुछ मिनी पाॅकेट बुक्स छाप चुके थे, जिनमे कुछ उन्होंने भी लिखी थीं। पर उनमें अपना नाम सम्भवतः नहीं दिया था।
पर बाल जासूसी पाॅकेट बुक्स में सबसे धमाकेदार नाम उन्हीं दिनों उभरा था - 'एस. सी. बेदी', जिनकी राजन-इकबाल सीरीज़ ने बाद में लम्बे अर्से तक बच्चों में धूम मचाये रखी।
उन दिनों उपन्यास पत्रिकाओं का भी जमाना था, जैसे इलाहाबाद से छपनेवाली जासूसी दुनिया मासिक पत्रिका थी और उसमें पाकिस्तान में रहनेवाले इब्ने सफी के उपन्यास हिन्दी व उर्दू में छापे जाते थे। ये सभी पत्रिकाएँ सस्ते अखबारी कागज पर छपती थीं।
उन दिनों एक नाम 'एच. इकबाल' भी पाठकों के सामने आया और 'एन. सफी' और 'नज़मा सफी' नाम से भी भिन्न- भिन्न प्रकाशक विनोद-हमीद अथवा इमरान सीरीज़ के उपन्यास छापने लगे थे। मतलब एक तरह से GHOST और FAKE लेखकों का ज़माना आरम्भ हो गया था। लिखता कोई था, लेकिन पुस्तकें लिखने वाले के नाम से ना छपकर, किसी भी बिकाऊ नाम से छपती थीं।
राज कुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता का प्रकाशक बनने का सफर भी कुछ ऐसे ही शुरु हुआ। राज कुमार गुप्ता ने फरेबी दुनिया तथा डबल जासूस नाम से जासूसी पत्रिकाएं रजिस्टर्ड करवाईं।
तभी इलाहाबाद की दुनिया से दिल्ली आये एक रोमांटिक-सामाजिक लेखक 'प्रेम बाजपेयी' राज कुमार गुप्ता जी के संपर्क में आये या उन्होंने स्वयं दिल्ली आकर रहने वाले 'प्रेम बाजपेयी' से संपर्क किया, क्योंकि वह प्रेम बाजपेयी की लेखनी के बहुत बड़े प्रंशसक थे।
'प्रेम बाजपेयी' के उपन्यास 'अमला और कैंची' अथवा 'कैंची और नारी' उन दिनों बेहद चर्चित उपन्यासों में से एक थे।
राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता ने निर्णय लिया था कि प्रकाशन क्षेत्र में उतरना है तो पूरी क्षमता के साथ उच्च स्तर की कहानियां एवं अच्छे कवर डिज़ाइन, प्रोडक्शन के साथ मैदान में कूदना होगा, लेकिन तब उनके पास फाइनेंस की कमी थी। अपना मकान भी नहीं था। वकीलपुरे में एक किराए की जगह में रहते थे।
मैं उन गिनती के लेखकों व लोगों में से एक हूँ, जिसे वकीलपुरे में उनके घर में भी जाने का अवसर मिला था !
- योगेश मित्तल जी के स्मृति कोष से
भारती पॉकेट बुक्स में छपी एक पॉकेट बुक्स का बैक कवर
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- भाग-02
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- (भाग-02)
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उपन्यास साहित्य का रोचक संसार (भाग-01)
पिछली बार भारती पॉकेट बुक्स से शुरुआत करके, असली बात मैंने बीच में ही गोल कर दी थी, क्योंकि भारती पॉकेट बुक्स के किस्से से पहले मैं अपने वहां तक पहुँचने की दास्तान भी सुना दूँ।
अब भी आपको थोड़ा धीरज रखना होगा।
खैर पिछली किश्त में हमने बिमल चटर्जी, अशीत चटर्जी, प्रेम बाजपेयी, राज कुमार गुप्ता, गौरी शंकर गुप्ता और मनोज पॉकेट बुक्स पर आकर ठहर गए थे।
अब आगे का किस्सा भी सुन लीजिये।
राज पुस्तक भण्डार के स्वामी और मनोज पॉकेट बुक्स के संस्थापकों में दिग्गज राज कुमार गुप्ता जी संभवतः उन्हीं दिनों दूसरे बेटे के पिता बने थेे। उस लड़के का नामकरण मनोज हुआ और यह कहिये कि उसी के नाम पर मनोज पॉकेट बुक्स की नींव रखी गयी।
पर पिछली किश्त में मैंने एक बात कही थी, जिसका स्पष्ट अर्थ था कि उन दिनों मनोज पॉकेट बुक्स का जन्म नहीं हुआ था, प्लांनिंग चल रही थी, लेकिन आर्थिक समस्या राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता के सामने भयंकर थी।
अच्छी प्रोडक्शन और वितरण व्यवस्था आदि सुचारु रूप से चलाने के लिए एक साथ अगले दो-तीन सेट की पुस्तकों की प्लांनिंग करना जरूरी था और नगद रुपया सभी उपलब्ध मार्गों से एकत्रित करने पर भी कम पड़ रहा था।
लेखकों, आर्टिस्टों, प्रेस वालों, बाइंडर्स आदि से उधार नहीं किया जा सकता था, प्रकाशन नया था और साख पहले से बनी हुई नहीं थी, बनानी थी।
गौरी शंकर गुप्ता के दोस्तों की संख्या अच्छी-खासी थी और उनमे कई बहुत रईस-धनी परिवार के लोग थे।
ऐसे ही एक दोस्त से गौरी शंकर गुप्ता ने एक मोटी रकम, लम्बे समय के लिये उधार ली। शायद ब्याज पर। हालांकि उनके दोस्त ने ब्याज के लिए मना किया था।
यह बातें मुझे स्वयं गौरी शंकर गुप्ता ने तब बताईं थीं, जब मैं मनोज पॉकेट बुक्स से 'भारत' नाम से प्रकाशित होने वाले उपन्यास :चांदी की दीवार' का अंत लिख रहा था। सिर्फ अंत लिख रहा था, उपन्यास मेरा लिखा नहीं था।
विवरण बताने के लिए आपको एक विशेष बात यह भी बतानी होगी कि मनोज पॉकेट बुक्स के संस्थापक भाइयों राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता लेखक बेशक नहीं थे, पर कहानियों के बारे में उनकी समझ और आइडियाज लाजवाब थे। बाद में जब तीनों भाइयों के अलग-अलग प्रकाशन हो गए तो सबसे छोटे भाई विनय कुमार में भी इन खूबियों को मैंने बखूबी देखा।
'चांदी की दीवार' दरअसल आरिफ मारहरवीं साहब का लिखा था। लेकिन उसका अंत राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता दोनों को ही पसंद नहीं था और आरिफ साहब एक बार लिखने के बाद, दोबारा अपनी स्क्रिप्ट में भी हाथ नहीं लगाते थे। वैसे भी वह उर्दू में लिखते थे और उनके उपन्यास हिंदी में ट्रांसलेट करवाकर प्रकाशित किये जाते थे
आरिफ साहब का नाम जिन्हें अजनबी लग रहा हो, उन्हें बताना चाहूंगा कि वह बहुत ही ग्रेट हरफनमौला लेखक थे। कभी :भयानक दुनिया' और 'बुद्धिमान जासूस: जैसी पत्रिकाओं में उनके 'कैसर हयात निखट्टू' उर्फ़ 'मार्शल क्यू' के उपन्यास छपते थे। उनमे कभी-कभी 'अंजुम अर्शी' और 'अकरम इलाहाबादी' के उपन्यास भी छपते थे।
पर जिक्र है आरिफ साहब का, पॉकेट बुक्स की दुनिया में ट्रेडमार्क लेखकों उर्फ़ GHOST अथवा FAKE लेखकों की शुरूआत आरिफ साहब से ही हुई थी।
दरअसल पंजाबी पुस्तक भण्डार के अमरनाथ जी ने जब 'स्टार पॉकेट बुक्स' की नींव रखी, तब एक बिलकुल नया लेखक इंट्रोड्यूस किया। नाम था - राजवंश, जिसका पहला उपन्यास संभवतः :पुतली' था।
कुछ प्रकाशक द्वारा किये प्रचार तथा बहुत फ़िल्मी अंदाज़ में तेज भागते कथानक, तेज घटनाक्रम, भावुकता भरे और रोमांटिक दृश्यों का करिश्मा था कि दूसरे-तीसरे उपन्यास में ही 'राजवंश' नाम पाठकों और पुस्तक विक्रेताओं की जुबान पर छा गया।
'राजवंश' नाम के लिए 'स्टार पॉकेट बुक्स' और 'आरिफ साहब' में यह समझौता हुआ कि आरिफ साहब 'राजवंश' के लिए सिर्फ और सिर्फ 'स्टार पॉकेट बुक्स' में ही लिखेंगे। और 'स्टार पॉकेट बुक्स' 'राजवंश' नाम में आरिफ साहब के अलावा किसी और का उपन्यास नहीं छापेगी।
बाद में पंजाबी पुस्तक भण्डार और स्टार पॉकेट बुक्स में भी नई पीढ़ियां बड़ी हुईं और बँटवारा हुआ तो संभवतः स्टार पॉकेट बुक्स में छपने वाले कई नाम व उपन्यास डायमंड पॉकेट बुक्स में भी छपे।
अगर आप में से कोई अभी भी आरिफ साहब के बारे में अनजान है तो यह भी जान लीजिये कि मिथुन चक्रवर्ती द्वारा अभिनीत फिल्मे 'रफ़्तार', 'सुरक्षा', 'गनमास्टर G- 9' आदि काफी फिल्मों की कहानियां आरिफ मारहरवीं साहब की ही लिखी हुईं थी और स्क्रीन पर स्टोरी राइटर के रूप में उनके दोनों नाम 'आरिफ मारहरवीं और राजवंश' आते थे। हाँ, एक नाम कोष्ठक में होता था।
तो बात भारत नाम से छपे उपन्यास :चांदी की दीवार' की यह थी कि यह उपन्यास लिखा तो आरिफ साहब का था, किन्तु प्रकाशित हुए उपन्यास के आखिरी साथ-सत्तर पेज मेरे द्वारा लिखे गए थे।
मनोज पॉकेट बुक्स और फरेबी दुनिया तथा डबल जासूस के लिए जब राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता लेखकों की तलाश कर रहे थे तो बिमल चटर्जी जब लाइब्रेरी के लिए किताबें लेने पहुंचे तो गौरीशंकर गुप्ता जी ने बिमल से कहा - "यार बिमल, बच्चों की कहानियां लिखने वाला कोई हो नज़र में तो बता।"
हंसमुख स्वभाव के बिमल ने तुरंत कहा - "क्या भाई साहब, बच्चों की कहानियां लिखना कौन सा मुश्किल काम है ! हमारे लोगों में तो नानियाँ-दादियां भी बच्चों को रोज नई कहानियां सुनाती हैं !"
"तू लिख सकता है ?"- गौरी शंकर गुप्ता ने गंभीरता से पूछा।
अब बिमल चटर्जी हड़बड़ाए। बोले -"कोशिश कर सकता हूँ ।"
"ठीक है, कुछ कहानी लिख कर ला।" गौरी शंकर गुप्ता ने कहा।
बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में पुरानी बाल मासिक पत्रिकाओं और लोक कथाओं की पुस्तकों की भरमार थी। चंदामामा, मनमोहन और राजा भैया जैसी पत्रिकाएं बहुत थीं।
बिमल चटर्जी खूब अध्ययन करके अगले हफ्ते दो कहानी लिखकर ले गे। कहानी गौरीशंकर गुप्ता को पसंद आ गयीं। पर उन्होंने कहा - "बिमल, स्पीड कुछ तेज़ कर। ऐसे दो-दो कहानी लाएगा तो कैसे चलेगा। हमें तो बहुत सारी कहानियां चाहिए। बच्चों की पॉकेट बुक्स निकालनी हैं। एक-एक पॉकेट बुक्स में छह-सात कहानी होनी चाहिए। इस तरह छह या आठ-आठ किताबों के दो तीन सेट तैयार करने हैं। हमारे दो तो टाइटल भी तैयार हैं। इन पर भी कहानी लिख ला, पर कहानी घिसी-पिटी अकबर-बीरबल टाइप की न हो !"
और गौरीशंकर गुप्ता ने बिमल को दो टाइटल बताये –
1. अण्डों की खेती
2. बोतल में हाथी
मेरा बिमल से रोज ही मिलना-जुलना होता था। खूब बातें भी होती थीं ! उस दिन जब मैं विशाल लाइब्रेरी आया तो बिमल ने मुझसे कहा -"योगेश जी, तुम तो बहुत किताबें पढ़ते हो। कभी कोई कहानी लिखनी पड़े तो लिख भी सकते हो।"
"हाँ " मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा और बताया कि कलकत्ते के सन्मार्ग अखबार में मेरी कहानी-कवितायें छपी भी हैं।"
और तब बिमल ने मुझे वो दोनों नाम दिए, जो गौरी शंकर गुप्ता ने उन्हें दिए थे। 'अण्डों की खेती' और 'बोतल में हाथी'।
सुबह मुझे नाम दिए और शाम को मैंने बिमल को दोनों कहानी दे दी। बिमल हक्के-बक्के रह गये। उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि मैंने बिना कहीं से नक़ल मारे इतनी जल्दी कहानी लिख दी है, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं। उन्होंने कहानी पढ़ीं, एक बार- फिर दोबारा, फिर मुझसे पूछा -"योगेश जी, आप मेरे साथ बैठकर भी लिख सकते हो ?"
"हाँ !" मैंने कहा।
"तो ठीक है, कल सुबह यहां आ जाओ। दोनों साथ बैठकर लिखेंगे। कोई परेशानी आयी तो हम आपस में डिस्कस भी कर सकते हैं।" बिमल ने मुझसे कहा।
और अगले दिन से विशाल लाइब्रेरी की छोटी सी जगह में हम दोनों का साथ बैठकर लिखना आरम्भ हुआ और फिर यह सफर काफी लंबा रहा।
बिमल के लिए मैं कस्टमर नहीं रहा। मुझे कहानियों के लिए बिमल पैसे देने लगे। विशाल लाइब्रेरी की हर किताब मेरे पढ़ने के लिए फ्री थी।
अक्सर मेरा खाना भी बिमल के साथ होता। मैं बिमल चटर्जी के घर का सदस्य बन गया था। बिमल ने फिल्म देखने जाना होता तो भी मैं साथ होता। दुर्गा पूजा के फंक्शन में बिमल और उनके दोस्तों के साथ खूब मनोरंजन होता।
गौरी शंकर गुप्ता ने बिमल को इमरान और विनोद-हमीद सीरीज के उपन्यास लिखने का काम भी दे दिया।
उनके यहां बिमल चटर्जी का लिखा पहला इमरान सीरीज का उपन्यास 'बदमाशों का दुश्मन' और मेरे द्वारा लिखा 'हत्यारों का बादशाह छपा'।
दोनों ही उपन्यासों में लेखक का नाम 'एच. इक़बाल' दिया गया था।
फिर एक दिन बिमल को भारती पॉकेट बुक्स में भी उपन्यास लिखने का काम मिल गया।
पर इस बारे में संयोगवश बिमल से मेरी कोई बात नहीं हुई ! उन्ही दिनों मेरे एक दोस्त अरुण कुमार शर्मा ने एक अखबार में एक विज्ञापन देखा।
विज्ञापन था - जरूरत है नए लेखकों की !
और पते में - भारती पॉकेट बुक्स का नाम व पता था।
@योगेश मित्तल जी के स्मृति कोष से
तृतीय और चतुर्थ भाग पढने के लिए निम्न लिंक पर जायें।
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-03,04
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भारती पाॅकेट बुक्स नाम पढ़ते-सुनते आप सबके मन-मस्तिष्क में एक ही बात आती होगी कि इस संस्था के मालिक तो राज भारती ही रहे होंगे।
बात सही है, पर पूरी तरह ऐसा भी नहीं था, लेकिन भारती पाॅकेट बुक्स में अपने प्रवेश और पहचान के बारे में बताने से पहले आपकी किताबी दुनिया से कुछ और भी पहचान करा दूँ।
तब दरीबाँ कला दो बातों के लिए मशहूर था।
1. एक तो वहाँ ज्वैलरी की बहुत दुकानें थीं।
2. दूसरे पुस्तकों के थोक विक्रेताओं का यही एक गढ़ था।
इसके अलावा दो और खाशियत थीं दरीबे की।
एक तो हीरा टी स्टाल, जिसकी चाय का स्वाद घर की चाय से भी बेहतर होता था। चाय की सतह पर दूध की मलाई का स्वाद भी हीरा टी स्टाल की चाय में उठाया जा सकता था।
दूसरी खासियत थी दरीबे में प्रवेश के नुक्कड़ पर स्थित हलवाई की दुकान, जिसका नाम अब याद नहीं।
देशी घी की जलेबी और समोसे के लिए वह दुकान काफी मशहूर थी। मुझे नहीं पता कि अब भी ये हैं या नहीं।
तो हमारी दिलचस्पी तो पुस्तकों में है तो आगे की बात पुस्तकों की ही हो जाये।
दरीबे में राज पुस्तक भंडार, नारंग पुस्तक भंडार, गर्ग एंड कम्पनी, रतन एंड कम्पनी, पंजाबी पुस्तक भंडार आदि पुस्तकों के थोक विक्रेताओं की दुकानें थीं, जहाँ से पुस्तकें खरीदने दिल्ली के नहीं दिल्ली के नजदीकी क्षेत्रों के पुस्तक बिक्रेता आया करते थे।
मनोज पाॅकेट बुक्स, राजा पाॅकेट बुक्स और मनोज पेपरबैक्स आज बेहद प्रतिष्ठित प्रकाशकों में से हैं, पर बहुत कम लोग जानते हैं कि इनके उत्थान में परिवार के सबसे बड़े भाई राजकुमार गुप्ता और स्वर्गीय गौरीशंकर गुप्ता की जी तोड़ मेहनत और बुद्धि का विशेष योगदान रहा है। इस बारे में विस्तार से फिर कभी, फिलहाल मुख्य बातें ही ठीक हैं।
अब मैं पहले अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत के बारे में बताना चाहूँगा।
मेरा बचपन कलकत्ते में बीता था। वहीं अपर चितपुर रोड स्थित श्री डीडू माहेश्वरी पंचायत विद्यालय में पढ़ते हुए पहली बार लिखने का कीड़ा जन्मा।
जब मैं पाँचवीं कक्षा में था, तब कलकत्ते के अखबार सन्मार्ग में मेरी कुछ कविताएँ व कहानियाँ छपीं। फिर जब छठी- सातवीं में था तो स्कूल की वार्षिक पत्रिका 'सरोज' में भी कहानी व कविता छपीं।
पर जब दिल्ली आना और गांधीनगर में रहना हुआ, मेरी पहचान बिमल चटर्जी से हुई। बिमल चटर्जी की उन दिनों गांधीनगर की अशोक गली में
'विशाल लाइब्रेरी' नाम की किताबों की दुकान थी और वह लेखक बिल्कुल नहीं थे। ना कभी उन्हें बचपन में लिखने-लिखाने का शौक रहा था। हाँ, गाना गाने के वह शौक़ीन थे। किशोर कुमार और मन्ना डे के गाने बहुत ही सुन्दर ढंग से, बेहद मधुर आवाज़ में गाते थेे। उनके छोटे भाई अशीत चटर्जी भी कम नहीं थे, गाने के अलावा मेज थपथपाकर तबला भी खूब बजाते थेे।
लाइब्रेरी चलाते हुए बिमल चटर्जी दस पैसे रोज के किराये पर किताबें पढ़ने के लिए देते थे और मैं शुरु से ही किताबों का कीड़ा रहा था, किताब कैसी भी हो, कहानी की हो या किसी भी अन्य विषय की, हाथ लग जाये तो पूरी पढ़े बिना नहीं छोड़ता था।
अत: पहले बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी का ग्राहक बना, फिर दोस्ती हुई, जो आगे चलकर प्रगाढ़ रिश्तों में बदल गई ! और बिमल चटर्जी के लिए मैं छोटा भाई बन, उनके परिवार का हिस्सा बन गया।
बिमल किताबें लेने दरीबे जाया करते थे। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि मनोज पाॅकेट बुक्स के संस्थापकों में से एक सबसे बड़े भाई श्री राजकुमार गुप्ता जी की पहले पहल दरीबे में रद्दी की दुकान हुआ करती थी। पुराने अखबारों, काॅपी, किताबों की रद्दी खरीदने, फिर उसे रद्दी के बड़े खरीददारों को बेचने की।
राजकुमार गुप्ता और उनके मँझले भाई गौरीशंकर गुप्ता किताबें पढ़ने के विशेष शौकीन थे। सबसे छोटे भाई विनय कुमार उन दिनों बहुत छोटे थे।
दरीबा थोक पुस्तक बिक्रेताओं का गढ़ था। अत: रद्दी का काम छोड़ने का विचार करते हुए पहले राजकुमार गुप्ता ने राज पुस्तक भंडार द्वारा थोक में पुस्तकें बेचनेवालों की कतार में स्वयं को भी खड़ा किया।
बिमल चटर्जी जब अपनी विशाल लाइब्रेरी के लिए पुस्तकें खरीदने दरीबे आते तो अधिकांशतः 'नारंग पुस्तक भंडार' तथा 'राज पुस्तक भंडार' से पुस्तकें खरीदते। तब नारंग पुस्तक भण्डार के मालिक चन्दर प्रकाश नारंग हुआ करते थे, जो किसी से भी दोस्ती कर लेने के हुनर में बाकमाल काबिलियत रखते थे, बाद में यह खूबी मैंने चन्दर भाई के छोटे भाई में भी नोट की।
किताबी दुनिया में राज कुमार गुप्ता के प्रवेश के बाद, ग्रेजुएशन करने के बाद मँझले भाई गौरीशंकर गुप्ता ने भी कारोबार में बड़े भाई का हाथ बँटाना शुरु कर दिया था।
दोनों भाई जबरदस्त महत्वाकांक्षी थे। एक दिन दोनों ने ठाना कि क्यों न वह किताबें छापनी शुरु कर दें। उन दिनों बच्चों की पत्रिकाओं व पुस्तकों का मार्केट बहुत अच्छा था।
गर्ग एंड कम्पनी से प्रकाशित होनेवाली गोलगप्पा पत्रिका में मेरी कई कहानियाँ छप चुकी थीं।
बाल पाॅकेट बुक्स प्रकाशित होने की शुरुआत भी हो चुकी थी।
राज भारती पटेलनगर से रंगा-गंगा सीरीज़ की कुछ मिनी पाॅकेट बुक्स छाप चुके थे, जिनमे कुछ उन्होंने भी लिखी थीं। पर उनमें अपना नाम सम्भवतः नहीं दिया था।
पर बाल जासूसी पाॅकेट बुक्स में सबसे धमाकेदार नाम उन्हीं दिनों उभरा था - 'एस. सी. बेदी', जिनकी राजन-इकबाल सीरीज़ ने बाद में लम्बे अर्से तक बच्चों में धूम मचाये रखी।
उन दिनों उपन्यास पत्रिकाओं का भी जमाना था, जैसे इलाहाबाद से छपनेवाली जासूसी दुनिया मासिक पत्रिका थी और उसमें पाकिस्तान में रहनेवाले इब्ने सफी के उपन्यास हिन्दी व उर्दू में छापे जाते थे। ये सभी पत्रिकाएँ सस्ते अखबारी कागज पर छपती थीं।
उन दिनों एक नाम 'एच. इकबाल' भी पाठकों के सामने आया और 'एन. सफी' और 'नज़मा सफी' नाम से भी भिन्न- भिन्न प्रकाशक विनोद-हमीद अथवा इमरान सीरीज़ के उपन्यास छापने लगे थे। मतलब एक तरह से GHOST और FAKE लेखकों का ज़माना आरम्भ हो गया था। लिखता कोई था, लेकिन पुस्तकें लिखने वाले के नाम से ना छपकर, किसी भी बिकाऊ नाम से छपती थीं।
राज कुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता का प्रकाशक बनने का सफर भी कुछ ऐसे ही शुरु हुआ। राज कुमार गुप्ता ने फरेबी दुनिया तथा डबल जासूस नाम से जासूसी पत्रिकाएं रजिस्टर्ड करवाईं।
तभी इलाहाबाद की दुनिया से दिल्ली आये एक रोमांटिक-सामाजिक लेखक 'प्रेम बाजपेयी' राज कुमार गुप्ता जी के संपर्क में आये या उन्होंने स्वयं दिल्ली आकर रहने वाले 'प्रेम बाजपेयी' से संपर्क किया, क्योंकि वह प्रेम बाजपेयी की लेखनी के बहुत बड़े प्रंशसक थे।
'प्रेम बाजपेयी' के उपन्यास 'अमला और कैंची' अथवा 'कैंची और नारी' उन दिनों बेहद चर्चित उपन्यासों में से एक थे।
राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता ने निर्णय लिया था कि प्रकाशन क्षेत्र में उतरना है तो पूरी क्षमता के साथ उच्च स्तर की कहानियां एवं अच्छे कवर डिज़ाइन, प्रोडक्शन के साथ मैदान में कूदना होगा, लेकिन तब उनके पास फाइनेंस की कमी थी। अपना मकान भी नहीं था। वकीलपुरे में एक किराए की जगह में रहते थे।
मैं उन गिनती के लेखकों व लोगों में से एक हूँ, जिसे वकीलपुरे में उनके घर में भी जाने का अवसर मिला था !
- योगेश मित्तल जी के स्मृति कोष से
भारती पॉकेट बुक्स में छपी एक पॉकेट बुक्स का बैक कवर
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- भाग-02
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- (भाग-02)
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उपन्यास साहित्य का रोचक संसार (भाग-01)
पिछली बार भारती पॉकेट बुक्स से शुरुआत करके, असली बात मैंने बीच में ही गोल कर दी थी, क्योंकि भारती पॉकेट बुक्स के किस्से से पहले मैं अपने वहां तक पहुँचने की दास्तान भी सुना दूँ।
अब भी आपको थोड़ा धीरज रखना होगा।
खैर पिछली किश्त में हमने बिमल चटर्जी, अशीत चटर्जी, प्रेम बाजपेयी, राज कुमार गुप्ता, गौरी शंकर गुप्ता और मनोज पॉकेट बुक्स पर आकर ठहर गए थे।
अब आगे का किस्सा भी सुन लीजिये।
राज पुस्तक भण्डार के स्वामी और मनोज पॉकेट बुक्स के संस्थापकों में दिग्गज राज कुमार गुप्ता जी संभवतः उन्हीं दिनों दूसरे बेटे के पिता बने थेे। उस लड़के का नामकरण मनोज हुआ और यह कहिये कि उसी के नाम पर मनोज पॉकेट बुक्स की नींव रखी गयी।
पर पिछली किश्त में मैंने एक बात कही थी, जिसका स्पष्ट अर्थ था कि उन दिनों मनोज पॉकेट बुक्स का जन्म नहीं हुआ था, प्लांनिंग चल रही थी, लेकिन आर्थिक समस्या राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता के सामने भयंकर थी।
अच्छी प्रोडक्शन और वितरण व्यवस्था आदि सुचारु रूप से चलाने के लिए एक साथ अगले दो-तीन सेट की पुस्तकों की प्लांनिंग करना जरूरी था और नगद रुपया सभी उपलब्ध मार्गों से एकत्रित करने पर भी कम पड़ रहा था।
लेखकों, आर्टिस्टों, प्रेस वालों, बाइंडर्स आदि से उधार नहीं किया जा सकता था, प्रकाशन नया था और साख पहले से बनी हुई नहीं थी, बनानी थी।
गौरी शंकर गुप्ता के दोस्तों की संख्या अच्छी-खासी थी और उनमे कई बहुत रईस-धनी परिवार के लोग थे।
ऐसे ही एक दोस्त से गौरी शंकर गुप्ता ने एक मोटी रकम, लम्बे समय के लिये उधार ली। शायद ब्याज पर। हालांकि उनके दोस्त ने ब्याज के लिए मना किया था।
यह बातें मुझे स्वयं गौरी शंकर गुप्ता ने तब बताईं थीं, जब मैं मनोज पॉकेट बुक्स से 'भारत' नाम से प्रकाशित होने वाले उपन्यास :चांदी की दीवार' का अंत लिख रहा था। सिर्फ अंत लिख रहा था, उपन्यास मेरा लिखा नहीं था।
विवरण बताने के लिए आपको एक विशेष बात यह भी बतानी होगी कि मनोज पॉकेट बुक्स के संस्थापक भाइयों राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता लेखक बेशक नहीं थे, पर कहानियों के बारे में उनकी समझ और आइडियाज लाजवाब थे। बाद में जब तीनों भाइयों के अलग-अलग प्रकाशन हो गए तो सबसे छोटे भाई विनय कुमार में भी इन खूबियों को मैंने बखूबी देखा।
'चांदी की दीवार' दरअसल आरिफ मारहरवीं साहब का लिखा था। लेकिन उसका अंत राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता दोनों को ही पसंद नहीं था और आरिफ साहब एक बार लिखने के बाद, दोबारा अपनी स्क्रिप्ट में भी हाथ नहीं लगाते थे। वैसे भी वह उर्दू में लिखते थे और उनके उपन्यास हिंदी में ट्रांसलेट करवाकर प्रकाशित किये जाते थे
आरिफ साहब का नाम जिन्हें अजनबी लग रहा हो, उन्हें बताना चाहूंगा कि वह बहुत ही ग्रेट हरफनमौला लेखक थे। कभी :भयानक दुनिया' और 'बुद्धिमान जासूस: जैसी पत्रिकाओं में उनके 'कैसर हयात निखट्टू' उर्फ़ 'मार्शल क्यू' के उपन्यास छपते थे। उनमे कभी-कभी 'अंजुम अर्शी' और 'अकरम इलाहाबादी' के उपन्यास भी छपते थे।
पर जिक्र है आरिफ साहब का, पॉकेट बुक्स की दुनिया में ट्रेडमार्क लेखकों उर्फ़ GHOST अथवा FAKE लेखकों की शुरूआत आरिफ साहब से ही हुई थी।
दरअसल पंजाबी पुस्तक भण्डार के अमरनाथ जी ने जब 'स्टार पॉकेट बुक्स' की नींव रखी, तब एक बिलकुल नया लेखक इंट्रोड्यूस किया। नाम था - राजवंश, जिसका पहला उपन्यास संभवतः :पुतली' था।
कुछ प्रकाशक द्वारा किये प्रचार तथा बहुत फ़िल्मी अंदाज़ में तेज भागते कथानक, तेज घटनाक्रम, भावुकता भरे और रोमांटिक दृश्यों का करिश्मा था कि दूसरे-तीसरे उपन्यास में ही 'राजवंश' नाम पाठकों और पुस्तक विक्रेताओं की जुबान पर छा गया।
'राजवंश' नाम के लिए 'स्टार पॉकेट बुक्स' और 'आरिफ साहब' में यह समझौता हुआ कि आरिफ साहब 'राजवंश' के लिए सिर्फ और सिर्फ 'स्टार पॉकेट बुक्स' में ही लिखेंगे। और 'स्टार पॉकेट बुक्स' 'राजवंश' नाम में आरिफ साहब के अलावा किसी और का उपन्यास नहीं छापेगी।
बाद में पंजाबी पुस्तक भण्डार और स्टार पॉकेट बुक्स में भी नई पीढ़ियां बड़ी हुईं और बँटवारा हुआ तो संभवतः स्टार पॉकेट बुक्स में छपने वाले कई नाम व उपन्यास डायमंड पॉकेट बुक्स में भी छपे।
अगर आप में से कोई अभी भी आरिफ साहब के बारे में अनजान है तो यह भी जान लीजिये कि मिथुन चक्रवर्ती द्वारा अभिनीत फिल्मे 'रफ़्तार', 'सुरक्षा', 'गनमास्टर G- 9' आदि काफी फिल्मों की कहानियां आरिफ मारहरवीं साहब की ही लिखी हुईं थी और स्क्रीन पर स्टोरी राइटर के रूप में उनके दोनों नाम 'आरिफ मारहरवीं और राजवंश' आते थे। हाँ, एक नाम कोष्ठक में होता था।
तो बात भारत नाम से छपे उपन्यास :चांदी की दीवार' की यह थी कि यह उपन्यास लिखा तो आरिफ साहब का था, किन्तु प्रकाशित हुए उपन्यास के आखिरी साथ-सत्तर पेज मेरे द्वारा लिखे गए थे।
मनोज पॉकेट बुक्स और फरेबी दुनिया तथा डबल जासूस के लिए जब राज कुमार गुप्ता और गौरी शंकर गुप्ता लेखकों की तलाश कर रहे थे तो बिमल चटर्जी जब लाइब्रेरी के लिए किताबें लेने पहुंचे तो गौरीशंकर गुप्ता जी ने बिमल से कहा - "यार बिमल, बच्चों की कहानियां लिखने वाला कोई हो नज़र में तो बता।"
हंसमुख स्वभाव के बिमल ने तुरंत कहा - "क्या भाई साहब, बच्चों की कहानियां लिखना कौन सा मुश्किल काम है ! हमारे लोगों में तो नानियाँ-दादियां भी बच्चों को रोज नई कहानियां सुनाती हैं !"
"तू लिख सकता है ?"- गौरी शंकर गुप्ता ने गंभीरता से पूछा।
अब बिमल चटर्जी हड़बड़ाए। बोले -"कोशिश कर सकता हूँ ।"
"ठीक है, कुछ कहानी लिख कर ला।" गौरी शंकर गुप्ता ने कहा।
बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में पुरानी बाल मासिक पत्रिकाओं और लोक कथाओं की पुस्तकों की भरमार थी। चंदामामा, मनमोहन और राजा भैया जैसी पत्रिकाएं बहुत थीं।
बिमल चटर्जी खूब अध्ययन करके अगले हफ्ते दो कहानी लिखकर ले गे। कहानी गौरीशंकर गुप्ता को पसंद आ गयीं। पर उन्होंने कहा - "बिमल, स्पीड कुछ तेज़ कर। ऐसे दो-दो कहानी लाएगा तो कैसे चलेगा। हमें तो बहुत सारी कहानियां चाहिए। बच्चों की पॉकेट बुक्स निकालनी हैं। एक-एक पॉकेट बुक्स में छह-सात कहानी होनी चाहिए। इस तरह छह या आठ-आठ किताबों के दो तीन सेट तैयार करने हैं। हमारे दो तो टाइटल भी तैयार हैं। इन पर भी कहानी लिख ला, पर कहानी घिसी-पिटी अकबर-बीरबल टाइप की न हो !"
और गौरीशंकर गुप्ता ने बिमल को दो टाइटल बताये –
1. अण्डों की खेती
2. बोतल में हाथी
मेरा बिमल से रोज ही मिलना-जुलना होता था। खूब बातें भी होती थीं ! उस दिन जब मैं विशाल लाइब्रेरी आया तो बिमल ने मुझसे कहा -"योगेश जी, तुम तो बहुत किताबें पढ़ते हो। कभी कोई कहानी लिखनी पड़े तो लिख भी सकते हो।"
"हाँ " मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा और बताया कि कलकत्ते के सन्मार्ग अखबार में मेरी कहानी-कवितायें छपी भी हैं।"
और तब बिमल ने मुझे वो दोनों नाम दिए, जो गौरी शंकर गुप्ता ने उन्हें दिए थे। 'अण्डों की खेती' और 'बोतल में हाथी'।
सुबह मुझे नाम दिए और शाम को मैंने बिमल को दोनों कहानी दे दी। बिमल हक्के-बक्के रह गये। उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि मैंने बिना कहीं से नक़ल मारे इतनी जल्दी कहानी लिख दी है, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं। उन्होंने कहानी पढ़ीं, एक बार- फिर दोबारा, फिर मुझसे पूछा -"योगेश जी, आप मेरे साथ बैठकर भी लिख सकते हो ?"
"हाँ !" मैंने कहा।
"तो ठीक है, कल सुबह यहां आ जाओ। दोनों साथ बैठकर लिखेंगे। कोई परेशानी आयी तो हम आपस में डिस्कस भी कर सकते हैं।" बिमल ने मुझसे कहा।
और अगले दिन से विशाल लाइब्रेरी की छोटी सी जगह में हम दोनों का साथ बैठकर लिखना आरम्भ हुआ और फिर यह सफर काफी लंबा रहा।
बिमल के लिए मैं कस्टमर नहीं रहा। मुझे कहानियों के लिए बिमल पैसे देने लगे। विशाल लाइब्रेरी की हर किताब मेरे पढ़ने के लिए फ्री थी।
अक्सर मेरा खाना भी बिमल के साथ होता। मैं बिमल चटर्जी के घर का सदस्य बन गया था। बिमल ने फिल्म देखने जाना होता तो भी मैं साथ होता। दुर्गा पूजा के फंक्शन में बिमल और उनके दोस्तों के साथ खूब मनोरंजन होता।
गौरी शंकर गुप्ता ने बिमल को इमरान और विनोद-हमीद सीरीज के उपन्यास लिखने का काम भी दे दिया।
उनके यहां बिमल चटर्जी का लिखा पहला इमरान सीरीज का उपन्यास 'बदमाशों का दुश्मन' और मेरे द्वारा लिखा 'हत्यारों का बादशाह छपा'।
दोनों ही उपन्यासों में लेखक का नाम 'एच. इक़बाल' दिया गया था।
फिर एक दिन बिमल को भारती पॉकेट बुक्स में भी उपन्यास लिखने का काम मिल गया।
पर इस बारे में संयोगवश बिमल से मेरी कोई बात नहीं हुई ! उन्ही दिनों मेरे एक दोस्त अरुण कुमार शर्मा ने एक अखबार में एक विज्ञापन देखा।
विज्ञापन था - जरूरत है नए लेखकों की !
और पते में - भारती पॉकेट बुक्स का नाम व पता था।
@योगेश मित्तल जी के स्मृति कोष से
तृतीय और चतुर्थ भाग पढने के लिए निम्न लिंक पर जायें।
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-03,04
मित्तल साहब,
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार।
आपके व्दारा जो जानकारी प्राप्त हुई है, वह मेरे संज्ञान में अभी तक नहीं थी। सचमुच आपने वह जानकारी दी है जिससे अनगिनत पाठक अनजान होंगे। मैंने घोस्ट राइटर की हैसियत से राज पाकेट बुक्स में कदम तो रखा था किन्तु छपने का सौभाग्य प्राप्त न कर सका।
कृपया कुछ जानकारी दत्तभारती साहब के सम्बन्ध में भी दीजिये।
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