लेबल

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

जीने का हक- प्रकाश पाराशर, उपन्यास अंश

साहित्य देश के स्तम्भ 'उपन्यास अंश' में इस बार पढें  उपन्यास 'जीने का हक' का रोचक अंश।
रवि माथुर - जीने का हक
प्रकाशक- दुर्गा पॉकेट बुक्स, मेरठ

'हैलो यंगमैन।' मैंने उसे उठाते हुये कहा- 'तुम यहां छिपे हुये क्या कर रहे हो ?'
'मैं तुमसे नहीं बोलता।' वह कुछ अकड़ कर बोला ।
'क्यों ? अब तो साबित हो चुका है कि मैं तुम्हारी आंटी का पर्स चुराने वाला चोर नहीं हूँ। मैंने उन्हें मारा भी नहीं है।'
'अब तुम यहां क्यों आये हो ?' उसने फिर अकड़ कर पूछा और साथ ही मुझे कुछ शक भरी नजरों से देखा ।
'तुमसे मिलने । तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो।' मैं मुस्करा कर बोला ।
मेरी बात सुनकर उसका तना हुआ चेहरा कुछ ढीला पड़ गया ।
'ठीक है।' रास्ता छोड़कर वह एक तरफ हटा हुआ बोला- 'भीतर आओ ।'
मैं भीतर घुसा ।
    उस ड्राईंग रूम के बांये कौने में एक बड़ी सी डाईनिंग टेबिल रखी हुई थी जिसके इर्द-गिर्द पांच-छः कुर्सियां भी मौजूद थीं। उस डाईनिग टेबिल पर ढेर सी कापियां किताबें फैली पड़ी थीं। उसी पर एक पोटेंबिल रंगीन टेलीविजन रखा हुआ था। टेलीविजन के ऊपर एक छोटा विदेशी वी० सी० पी० रखा था। मेज पर ही लकड़ी की एक छोटी रैंक रखी हुई थी जिसमें ढेर सारे कामिक्स और वीडियो कैसिट्स रखे हुये थे ।
'तो ये है तुम्हारा स्टडी रूम, लायब्रेरी और सिनेमा घर।' मैं एक कुसी पर जमता हुआ बोला - 'तुम्हारे डैडी क्या कर रहे हैं?'
'वे तो रोज सुबह आठ बजे चले जाते हैं ।' सनी मेरे बांयी ओर वाली सीट पर बैठता हुआ बोला ।
'और मम्मी ?'
'वे भी लगभग नौ-दस बजे घर से निकल जाती हैं।' सनी कुछ कड़वाहट से बोला।
मैंने देखा कि उसका मामूम चेहरा अचानक ही कुछ सख्त सा हो गया था।
'कहीं सर्विस करती हैं?" मैंने उसके चेहरे के रंग को तेजी से बदलते हुये देखा ।
'नहीं। मगर वे अपने दोस्तों और पार्टियों में बहुत बिजी रहती हैं।'
'कौन दोस्त ? आदमी या औरतें ?”
'दोनों ।'
'वे तुम्हें अपने साथ नहीं ले जाती?'
'नहीं। मुझे उनके साथ जाना अच्छा भी नहीं लगता ।'
'घर में इस तरह अकेले रहते हुये तुम्हारा मन लग जाता है ?'
'मैं पढ़ता रहता हूँ, फिल्में देखता रहता हूं।'
'और अपने दरवाजे के पीछे खड़े होकर आते-जाते लोगों को छिपकर भी देखते रहते होंगे। क्यों ?'
'मुझे इसमें बड़ा मजा आता है।' सनी एकाएक उत्साहित होकर बाला- 'मुझे लगता है कि मैं मिस्टर इण्डिया बन गया हूँ ।'
'मिस्टर इण्डिया?' मैं कुछ अनकचा कर बोला- 'तुम्हारा मतलब है अनिल कपूर ?'
'मेरा मतलब है कि मैं इन विजिबिल मैन बन गया हूं। मैं सबको देख सकता हूँ मगर मुझे कोई नहीं देख सकता ।'
'सचमुच । ये तो बड़े कमाल का खेल है।'- बनावटी हैरत और खुशी जाहिर करते हुये बोला- 'इस तरह तो तुम सामने वाली आंटी के घर आने-जाने वालों को बड़े मजे के साथ देखते होगे ।'
'क्यों नहीं।' सनी के चेहरे की चमक और बढ़ -'भई मैं रोज रात को उनके वापिस लौटने तक उनका इन्तजार करता या । वे रोज मेरे लिये चॉकलेट और टाॅफियां लाती थीं ।'
'कल रात भी तुम उनका इन्तजार कर रहे थे ?' मैंने धड़कते दिल से पूछा ।
'हां।' उसने फौरन अपनी गरदन हिलाई ।
सुनकर मेरे दिल की धड़कन और बढ़ गई।
'तुमने मुझे उनके साथ जाते हुये देखा था ?' मैंने फिर पूछा ।
'हां । तुम उन्हें सहारा देकर दरवाजे तक लाये थे ।'
'कुछ देर बाद मुझे नीचे जाते हुये भी देखा था ?'
'हां।'
'हां । मगर मैंने तुम्हारे हाथ में पर्स नहीं देखा ।'
'मैं थोड़ी देर बाद ही पर्स लेकर लौटा था ?'
'हो सकता है।' मैंने बात को टालते हुये कहा - 'मगर मेरे नीचे जाने और ऊपर आने के बीच में तुम्हारी आंटी के पास कोई आया था ?'
'हां।'
'कौन...?' मेरे दिल की धड़कनें फिर तेज हो गयीं । मेरी आंखें सनी की नीली आंखों पर जम गयीं ।
'अंकल पुरुषोत्तम'
'पुरुषोत्तम...?' मैंने चौंककर कहा- 'तुम सच बोल
रहे हो ?'
'मैं झूठ नहीं बोलता ।' सनी अकड़ कर बोला ।
'पुरुषोत्तम कितनी देर के लिये भीतर गये थे ?'
'कुछ देर के लिये ।'
'मगर मुझे तो वे रास्ते में नहीं टकराये ।'
'टकराते कैसे..।'- सनी कुछ मुस्करा कर बोला- 'वे पीछे वाली लिफ्ट से ऊपर गये थे और उसी से नीचे चले भी आ गये थे।'
मैं सोच में डब गया ।
       सनी के कहने के मुताबिक पुरुषोत्तम लाल जैन मेरी गैर मौजूदगी में मृतका राजेश्वरी देवी के ड्राईंग रूम में वहां कुछ देर के लिये घुसा था। वह राजेश्वरी देवी का हत्यारा हो सकता था।
'पुरुषोत्तम लाल के अलावा भी कोई और आया था ?' मैंने उम्मीद भरी नजर से उसके खुबसूरत से चेहरे को देखा ।
'हां। गोरे अकल भी आये थे ।'
'गोरे अंकल' मैं फिर चौंका- 'ये कौन हैं ?'
'मैं उनका नाम नहीं जानता । वे काफी गोरे हैं इसलिये मैं उन्हें गोरे अंकल कहता हूँ।'
'उनकी कोई पहचान तो होगी ?'
'उनके माथे पर बड़ा सा गुल्ला है ।'
'ओह ।' मेरे होंठ अचानक ही गोल हो गये ।
मुझे भीड़ में खड़े उस नौजवान की अचानक याद आ गई जिसने मुझे अपनी ओर देखता हुआ पाकर फौरन  अपने आपको भीड़ के पीछे छिपा लिया था । उसकी आंखों मैं छुपी ईर्ष्या भी मुझे याद आ गई ।
'गोरे अंकल आंटी के कमरे में कितनी देर रुके थे ?"
'वे तो कमरे में गये ही नहीं ।'
'तो...?' मैंने झुंझला कर सनी को घूरा ।
'वें दरवाजे मैं खड़े भीतर देखते रहे और फिर वापिस लौट गये ।'
'कहां लौट गये ?'
'वहीं, पीछे वाली बालकनी की तरफ ।'
'क्या वे भी पीछे वाली लिफ्ट से ही ऊपर असे थे ?'
'हां । इधर की लिफ्ट खराब पड़ी है ना ।'
'पुरुषोत्तम अंकल के बाद आये थे ?'
'हां।'
'कितनी देर बाद ?'
'लगभग तभी ।'
'ओह।' मेरे होंठ सोचपूर्ण मुद्रा में फिर गोल हो गये।
       सनी की बातों से अब तक मुझे इतना ही पता चल सका था कि मेरे नीचे जाते ही पुरुषोत्तम लाल जैन राजेश्वरी देवी के ड्राईंग रूम में गया था। कुछ देर कमरे में रहकर वह वापिस लौट गया था। उसके जाते ही वह गोरा नौजवान भी वहां आ गया। उसने राजेश्वरी देवी के ड्राईंग रूम के दरवाजे पर खड़े होकर ही भीतर का नजारा देखा । जल्दी ही उसे मालूम चल गया कि राजेश्वरी देवी मर चुकी थी। यह सच्चाई जानते ही वह पलटा और उसी रास्ते से वापिस लौट गया ।
'तुम्हें यकीन है कि इन दोनों के अलावा और कोई नहीं आया था ?' मैंने उम्मीद का आखरी दामन पकड़ना चाहा।
'मैं कह नहीं सकता ।'
'क्यों ?'
'उस वक्त मैंने अपने बी० सी० पी० पर एक कैसिट लगा रखी थी। तुम्हारे नीचे जाते ही अचानक मेरे कैसिट की रील अटक गई थी और मैं उसे ठीक करने के लिये दरवाजे से हट गया था।'
'सत्यानाश।' मैं मन ही मन बड़बड़ाया मगर जल्दी ही होठों पर मुस्कान लाता हुआ बोला- 'तुमने किसी ऐसे नौजवान लड़के को अपनी आंटी के पास आते हुए. देखा था जिसके बाल घुघराले हों, कन्धे चौड़े, बाहें और टांगें लम्बी तथा कमर पतली हो?' मैंने कमरे में छिपे नौजवान मवाली का हुलिया बताते हुए पूष्ठा ।
       मेरा बताया हुलिया सुनकर सनी सोच में पड़ गया । उसकी नीली आंखों में झील सी गहराई उभर आई।
'नहीं।'- कुछ देर बाद वह दृढ़ स्वर में बोला- 'मैंने ऐसे किसी नौजवान लड़के को उनके पास आते हुए नहीं देखा ।'
अचानक मुझे पीलू दादा का ख्याल आ गया ।
मैंने उसे पीलू का पूरा हुलिया बताया । मगर सनी फौरन अपनी गरदन इन्कार में हिलाते हुए बोला- 'नहीं । मैंने इसे भी पहले कभी नहीं देखा ।'
'अंकल पुरुषोत्तम रोज आते थे?' मैंने यू ही पूछ लिया ।
'नहीं। मगर अक्सर आते थे ।'
'और गोरे अंकल ?'
'वे कभी-कभी आते थे ।'
'तुम्हारी आंटी के पास कोई और भी आता था ?'
'उनके पास तो शनिवार को छोड़कर रोज ही कोई ना कोई आता ही रहता था ।'
शनिवार की बात सुनकर मैं चौंका ।
'क्यों ? शनिवार को कोई क्यों नहीं आता था ?'- मैंने उत्सुकता से पूछा ।
'पता नहीं।' सनी ने मासूमियत से गरदन हिला दी।
'तुम ऐसे कितने आदमियों को जानते हो जो तुम्हारी आंटी के पास सबसे ज्यादा आया करते थे?' मैंने फिर पूछा।
'सिर्फ एक ।'
'कौन ?'
'अंकल पुरुषोत्तम ।'
'पुरुषोत्तम अंकल इससे पहले कब आये थे ?'
'विछले संडे को।' सनी ने फौरन सही दिन बताया, मानों राजेश्वरी देवी के पास आने-जाने वालों का उसके पास पूरा लेखा-जोखा हो ।
'संडे को तो सात दिन हो गये ।'
'हाँ । पिछले संडे को आंटी और अंकल की लड़ाई हो गई थी।'
'लड़ाई हो गई थी?' मैंने चौंककर सनी की ओर देखा ।
'हां । अंकज पुरुषोत्तम को शिकायत थी कि अब आंटी उन्हें पहले जैसा प्यार नहीं करती ।'
'राजेश्वरी देवी पुरुषोत्तम लाल जैन को प्यार करती थीं ?'
'नहीं।' सनी फौरन तेजी से बोला- 'आंटी उन्हें प्यार नहीं करती थी। वे किसी को प्यार नहीं करती थीं, उल्टे सब उन्हें प्यार करने के लिये उनके पास आते थे।'
मैं सनी के भोलेपन पर हंस दिया । मैं राजेश्वरी देवी से बहुत कम समय के लिये मिला था । उस थोड़े से समय में मैंने उसे जितना देखा परखा था, उसके मुताबिक वह मुझे ढलती जवानी की एक खूबसूरत ऐयाश औरत लगी थी। अगर वह मुझ जैसे पांच फुटे मरियल इन्सान को अपनी बाहों में भरने के लिये अपने कमरे में ले जा सकती थी तो मुझसे बेहतर मर्द को पाने के लिये तो वह और भी बहुत कुछ कर सकती थी। जाहिर है कि वह पुरुषोत्तम लाल जैन या उस जैसे दूसरे आदमियों को अपने साथ अपनी हवश पूरी करने के लिये लाती थी ।
        कमाल की बात यह थी कि राजेश्वरी देवी ने अपनी ऐयाशी भरी हरकतों को अपने पड़ोसियों से छिपाने की कोई खास कोशिश भी नहीं की लगती थी। उसके साथ सीढ़ियां चढ़ते वक्त मैं लोगों की अर्थपूर्ण मुस्कराहट देख ही चुका था, अब दस ग्यारह साल का सनी भी मुझे लगभग वैसी ही सब बातें बता रहा था ।
'चलो माना कि तुम्हारी आंटी किसी को प्यार नहीं करती थी..।' मैंने सनी का मन रखते हुए कहा - 'पर क्या तुमने अपनी आंखों से पुरुषोत्तम अंकल को उन्हें प्यार करते हुए देखा था ?' मैंने शक की कोई गुंजाइश ना छोड़ते हुए पूछा।
मेरा सवाल सुनते ही सनी को नीली आंखों में एक
तेज चमक सी कौंधी और फौरन ही गायब भी हो गई। उसके गोरे गालों पर अजीब सी सख्ती छा गई। उसके नथुने गुस्से से फूल से उठे।
अपनी मुट्ठियां कसते हुए वह बोला- 'हाँ। मैंने उन्हें प्यार करते हुए देखा था ।'
मैं चुप हो गया ।
मैंने गरदन घुमाकर एक बार फिर ड्राईंग रूम मैं चारों ओर नजर डाली। अचानक मेरी नजर सामने दीवार पर टंगे एक फोटो फ्रेम पर चली गई ।
मिस्टर एण्ड मिसेज रोहतगी की तस्वीर देखते ही मुझे एक सवाल फिर याद आ गया ।
'तुम्हारे मम्मी-डैडी शाम को किस समय घर लौटते हैं ?'
'पता नहीं।' सनी कुछ लापरवाही से बोला ।
'क्यों?' मैंने उसका सुन्दर मुखड़ा ध्यान से देखा ।
'वे दोनों शाम को आठ बजे से पहले कभी नहीं लौटते । कभी-कभी बारह भी बज जाते हैं। कभी-कभी तो पापा ही नहीं आते ।'
सनी की शिकायत से मुझे गहरा दुख और बड़ी उदासीनता सी महसूस हुई ।
'कल रात जब तुम दरवाजे के पीछे खड़े अपनी ऑटो को आते हुए देख रहे थे, तब तुम्हारे मम्मी-डैडी घर आ चुके थे ?'
'नहीं।' सनी ने गरदन हिलाते हुए कहा- 'वे दोनों तो उस वक्त आये थे जब मैं चोर-चोर चिल्ला रहा था।'
मेरे मुंह से निराशा की एक गहरी सांस निकली । सनी के बयान ने मिस्टर सुरेश कुमार रोहतगी को मेरे शक के दायरे से साफ बाहर कर दिया था ।
मुझे लगा कि अब मेरे पास जानने के लिये वहां कुछ नहीं रह गया था ।
मैं उठ खड़ा हुआ ।
'शुक्रिया दोस्त चलता हूं। मैंने मनी के हल्के काले रेशमी बालों को प्यार से सहलाने के लिये अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया ।
'खबरदार।' अचानक सनी मुझसे दूर छिटकता हुआ चीखा- 'मुझे हाथ मत लगाना ।'
'क्यों...?' मैंने चोंककर अपने हाथ की ओर देखा । हाथ एकदम साफ-सुथरा था ।
'तुम गंदे हो।' सनी मुझे घूरता हुआ चीखा - 'अंकल पुरुषोत्तम भी गंदे, तुम सब गंदे हो। तुमने मेरी आंटी को मार दिया। अब में किससे बात करूंगा ? कौन मुझे प्यार करेगा ? कौन चॉकलेट लाकर देगा ?'
मैं सन्न रह गया ।
मुझे इस वक्त उसकी आंखों में अपने लिये ठीक वैसे ही अजीब से भाव दिखाई दिये जैसे कल रात दिखाई दिये थे।
मुझे उस मासूम किशोर पर तरस आ गया। वह अपने मां-बाप के प्यार को दूसरे पराये लोगों में खोज रहा था ।
उसे तसल्ली देने के लिये एक बार फिर मेरा हाथ उसकी ओर बढ़ा, मगर मैंने फौरन उसे वापिस खींच लिया ।
'गुड बाई..।' मैं धीरे से बोला और बाहर निकल आया।
इस बार नीचे जाने के लिये मैंने पीछे बॉलकनी वाला रास्ता चुना। मैं राजेश्वरी देवी के उस ताले वाले दूसरे दरवाजे को भी अपनी आंखों से देख लेना चाहता था । कुछ चक्कर काटकर मैं उस दरवाजे पर पहुंचा । दरवाजे पर पीतल का एक बड़ा सा ताला लटक रहा था । वह सील बन्द नहीं था। शायद दंडवते ने उसे सील बन्द करने की जरूरत नहीं समझी थी ।
उसे ध्यान से देखता हुआ मैं सामने नजर आने वाली लिफ्ट की ओर बढ़ गया ।
अशोक विला के दरवाजे से बाहर निकलते हुये मैंने घड़ी देखी ।
दोपहर के साढ़े बारह बज रहे थे ।
सड़क पर जाते ही मुझे पहला अहसास चिलचिलाती धूप का हुआ और दूसरा भूख का ।
      मैंने वहां से सीधे घर चलने का विचार किया मगर अगले ही पल मैंने उसे टाल भी दिया। मुझे यकीन था कि बाबू अभी तक घर वापिस नहीं लौटा होगा । बाबू के लौटने तक मैं एक और जरूरी काम निपटा लेना चाहता
था ।
       यह जरूरी काम पुरुषोत्तम लाल जैन से मिलना था । सनी की बातों से इतना तो मैं जान ही चुका था कि पुरुषोत्तम ने इंस्पेक्टर दंडवते से झूठ बोला था। उस वक्त वह राजेश्वरी देवी के फ्लैट में पहली नहीं, दूसरी बार घुसा था । उसका यह कहना भी झूठ था कि वह राजेश्वरी देवी का हालचाल पूछने और उसके स्वर्गीय पति के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज निभाने वहां आया करता था । सच्चाई यह थी कि पुरुषोत्तम के राजेश्वरी देवी के साथ गहरे नाजायज ताल्लुक थे। जरूर वह अपने घर वालों से छिपकर अपने तन की भूख मिटाने के लिये अशोक विला आया करता था। जब राजेश्वरी देवी ने उसे घास डालनी बन्द कर दी तो शायद झुंझला कर उसने उसका गला घोंट दिया ।
अचानक मेरे दिमाग को एक झटका सा लगा । मुझे लगा कि कोई खास बात, मेरे पास तक आते-आते रह गई है ।
मैंने दिमाग पर जोर दिया ।
मगर बेकार ।
मैंने जितना ज्यादा सोचने की कोशिश की, मुझे लगा कि वह खास बात मुझसे उतनी ही दूर होती जा रही है।
     मैंने सिर झटका और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगा । पुरुषोत्तम से मिलने से पहले मैं राजेश्वरी हत्याकांड के सारे पहलुओं को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था और साथ ही पुरुषोत्तम के खिलाफ पाये जाने वाले सारे सबूतों का पक्का जाल बुन लेना चाहता था। उसके लिये मुझे थोड़ा वक्त चाहिये था ।
      इस वक्त को हासिल करने के लिये मैंने फिलहाल पैदल ही ट्रांसपोर्ट नगर तक जाने का फैसला कर लिया । मुझे यकीन था कि मैं जैन ट्रांसपोर्ट सर्विस के आफिस को वहां आसानी से खोज लूंगा ।
चलते-चलते मैंने अपने चेहरे का पसीना अपनी कमीज की आस्तीन से पोंछा ।
इसके साथ ही मैंने एक बार फिर हिसाब लगाया ।
मैं राजेश्वरी देवी का पर्स लेने नीचे तक गया था और फौरन ही वापिस भी लौट आया था। इस आने- जाने में में दो बार रत्ना देशमुख से भी टकराया था। कुल मिलाकर मुझे ऊपर से नीचे तक आने-जाने में लगभग छः-सात मिनट लगी थीं। इस छः-सात मिनट के छोटे से समय में ना सिर्फ राजेश्वरी देवी का कत्ल हो गया था, उसके फ्लैट में कम से कम तीन आदमी दाखिल भी हुए थे। उनमें एक नौजवान मवाली था; दूसरा पुरुषोत्तम लाल जैन और तीसरा वह गोरा आदमी जिस- का नाम व अता-पता मैं अभी तक भी नहीं जान सका था ।
       मैं दावे के साथ नहीं कह सकता था कि राजेश्वरी देवी की हत्या इन तीनों में से ही किसी ने की थी। अभी तक मेरा सबसे बड़ा शक उस नौजवान मवाली पर ही था जिसने बाद में मुझ पर जानलेवा हमला भी किया था मगर सनी से बात करने के बाद अब पुरुषोत्तम भी मे पक्के शक के दायरे में आ गया था। उसके साथ ही मैं उस गोरे नौजवान को भी अनदेखा नहीं कर सकता था ।
        मगर इसके बावजूद मैं मानता था कि हत्यारा इन तीनों के सिवा कोई चौथा आदमी भी हो सकता था। खुद सनी ने मुझे बताया था कि मेरे नीचे जाते ही वह कुछ देर के लिये अपने दरवाजे से अलग हट गया था। उसकी इस बात को ध्यान में रखने पर यह सम्भावना भी नजर आती थी कि हत्यारा इसी बीच आकर अपना काम पूरा कर गया था ।
और इस सम्भावना के साथ ही मेरी आंखों के सामने पीलू दादा का क्रूर-लम्बूतरा चेहरा भी तैर गया ।
मैंने एक बार फिर अपनी आस्तीन अपने चेहरे पर घुमाई ।
अचानक मुझे लगा कि आसिफ रोड की व्यस्त सड़क पर चलने वाला मैं एकदम अकेला नहीं था। कोई था जो मेरे साथ-साथ चल रहा था ।
ठिठक कर मैंने अपनी पैनी नजर चारों ओर डाली । मुझे कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आया जिस पर मैं शक कर सकता था ।
अपने वहम पर मैं मुस्करा दिया ।
मैंने एक बार फिर अपनी आस्तीन से अपना चेहरा साफ किया और तेज कदमों से आगे बढ़ गया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Featured Post

मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...