यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की -20
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में योगेश मित्तल जी एक चर्चित नाम है। उनका लेखकों और प्रकाशकों से घनिष्ठ संबंध रहा है, वे लेखक-प्रकाशक दिल्ली के हो या मेरठ के योगेश जी का सभी के साथ अपनत्व रहा है। योगेश जी ने स्वयं के नाम के साथ-साथ अनेक नामों से Ghost writing भी की है। सद्य प्रकाशित इनकी रचना 'प्रेत लेखन का नंगा सच' में इन्होंने प्रेत लेखन कॆ विषय में बहुत कुछ लिखा है।
उसके बाद मैं अगले दो दिन ईश्वरपुरी के किसी भी प्रकाशक के यहाँ नहीं गया।
देवीनगर गया था, वहाँ सतीश जैन उर्फ मामा ने कुछ पुराने आठ नौ फार्म के सामाजिक उपन्यास दिये, जो घोस्ट नामों से छपे हुए थे। उनमें तीन चार फार्म का मैटर बढ़ाना था। तरीका सतीश जैन ने यह बताया कि लगभग आठ पेज का मैटर उपन्यास के स्टार्टिंग में बढ़ाना है और इतने ही पेज आखिर में। उपन्यास का अन्त बेशक बदल जाये, उसकी कोई चिन्ता नहीं। बाकी बीच में जितने भी चैप्टर हैं, सबकी स्टार्टिंग दो तीन लाइन बदल देनी है या नयी एडजस्ट करनी है।
उपन्यास के मुख्य पात्रों के नाम सतीश जैन ने स्वयं ही पहले से काट-पीट करके बदल रखे थे। उपन्यास का नाम भी कोई नया ही रखना था।
मतलब समझ गये आप...! एक पुराना उपन्यास, जो अच्छा रहा हो या बकवास... योगेश मित्तल का हाथ लगने के बाद एक नये नाम से बिल्कुल नये उपन्यास के रूप में पाठकों के हाथ में जाना था और लेखक को यानि मुझे नया उपन्यास लिखने के पारिश्रमिक से आधा ही पारिश्रमिक मिलना था और प्रकाशक के पास एक नया उपन्यास तैयार हो जाना था। ऐसे कामों में मुझसे ज्यादा सिद्धहस्त उस दौर में दूसरा कोई भी लेखक नहीं था। यह मैं या मेरा अहंकार नहीं कह रहा है - यह शब्द उन दिनों लक्ष्मी पाकेट बुक्स के सर्वेसर्वा सतीश जैन के थे। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों ज्यादातर लेखक अपनी दाल-रोटी के लिये लिखते थे और उनके लिखने का रूटीन रोज नियम से कुछ घण्टे लिखने का था, जबकि मेरे लिखने का न तो कोई टाइम होता था, ना ही मूड। जब पैन उठाया - काम शुरू।
चौबीस घण्टों में किसी भी घण्टे मैं बिना किसी प्लानिंग के, बिना कुछ सोचे हुए भी कलम उठा लेता था तो दिमाग की बत्ती तुरन्त जल जाती थी और पैन फुल स्पीड से दौड़ने लगता था और यह खूबी अब भी मुझ में बरकरार है, यह और बात है कि इस खूबी का मैं अपने जीवन में माकूल फायदा नहीं उठा सका। मुझे कुछ भी लिखने में पहले से सोचने की भी कभी कोई दरकार नहीं होती थी, पर मैं लिखते हुए एक बात हमेशा ध्यान में रखता था कि उपन्यास इतना बढ़िया बन जाये कि पढ़ते हुए पाठक कहीं पर भी बोर न हो और उपन्यास की रोचकता बनाये रखने में मैं माता सरस्वती की कृपा से कामयाब भी रहता था, घटनाक्रम रोचक बनाने में दिमाग हर समय कम्प्यूटर की तरह काम करता था। अब भी काफी हद तक वही बात है।
सतीश जैन का काम जितने दिन किया, मेरा सुबह शाम का खाना, रात का सोना विजयकान्त मामाजी के यहाँ ही रहा। हाँ, रोज थोड़ी देर के लिये देवीनगर स्थित बड़ी बहन के यहाँ भी एक चक्कर लगा लेता था, लेकिन सुबह-सुबह पौधों को पानी देने के लिये मैं विजयकान्त मामाजी के यहाँ से उनके ठीक नीचे रहने वाले रामाकान्त मामाजी के यहाँ पहुँच जाता था।
रामाकान्त मामाजी ने अपने आंगन में सामने की दीवार के साथ बहुत सारे गमलों की कतार लगा रखी थी, जिनमें एलोवेरा, कैक्टस, गेंदे, गुलाब और सदाबहार आदि के पौधे लगा रखे थे! उन पौधों को वैसे तो रोज़ रामाकान्त मामाजी ही पानी देते थे, लेकिन जब मैं मेरठ में होता तो वह पानी देने की ड्यूटी मुझे यह कहकर सौंप देते कि 'ले, थोड़ा सा पुण्य तू भी कमा ले।' पेड़ों को पानी देना मामाजी के अनुसार बहुत पुण्य का काम होता था।
सतीश जैन का काम निपटाने के बाद मैं बिना किसी अन्य प्रकाशक से मिले दिल्ली चला गया। दरअसल मैं वेद प्रकाश शर्मा और सुरेश चन्द्र जैन का सामना करने से बचना चाहता था। उन दिनों मेरे लिये बहुत मुश्किल था कि मैं किसी भी प्रकाशक या मित्र की, किसी एक पब्लिशर के यहाँ टिककर और जमकर काम करने की सलाह मान लूँ।
सतीश जैन का काम निपटाने के बाद मैं मेरठ नहीं रुका। अपने सभी रिश्तेदारों के यहाँ थोड़ा थोड़ा समय बिता, इज़ाज़त ले, दिल्ली के लिये रवाना हो गया।
उसके बाद समय बड़ी तेजी से बीतता गया और एक के बाद एक घटनायें घटती रहीं।
दिल्ली में सुनील कुमार शर्मा उर्फ सुनील पंडित ने मेरे उपनाम 'रजत राजवंशी' के उपन्यास 'रिवाल्वर का मिज़ाज़' का विज्ञापन दे दिया, मगर उपन्यास छपने की नौबत आई, माया पाकेट बुक्स से, जिसके बारे में आपलोग 'रिवाल्वर का मिज़ाज़- कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं', में पढ़ चुके हैं।
लिंक- रिवाल्वर का मिज़ाज़- कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं
उन्हीं दिनों राजभारती जी ने एक नयी पत्रिका 'अपराध कथाएँ' आरम्भ कर दी थी। राधाकृष्ण दुआ उर्फ उपन्यासकार कमल अरोड़ा ने मानसी कहानियाँ आरम्भ कर दी। सरदार मनोहर सिंह ने 'खेल खिलाड़ी' के साथ साथ क्रिकेट जगत, विश्व क्रिकेट और 'नन्हा नटखट' आरम्भ कर दी, जिन सभी का सम्पादन और मैटर सेलेक्शन मुझे ही करना होता था।! कुछ में मेरा नाम योगेश मित्तल सम्पादक के रूप में डाला गया, कुछ में रजत राजवंशी!
उन दिनों खेल खिलाड़ी मानसरोवर गार्डन की जिस प्रिंटिंग प्रेस में छप रही थी, उन सरदार जी ने भी एक के बाद एक दो मैगज़ीन निकाल दीं, जिनका सारा मैटर भी मुझे ही ओके करना होता था और प्रूफरीडिंग, एडीटिंग सब कुछ मुझे ही करना होता था। उनमें से एक मैगज़ीन का नाम 'ब्यूटी मैडम' था।
बहुत अस्त-व्यस्त और भागमभाग वाली जिन्दगी थी। गनीमत यह थी कि सुबह से शाम रात का वक्त रोज़ लगभग ठीक ठीक गुज़र रहा था। हाँ, रात को दमे की दवाएँ लेकर सोने के बावजूद कभी कभी दो से तीन बजे के करीब सांस उखड़ने लगती थी।
उन दिनों 'खेल खिलाड़ी' की स्थिति भी डांवाडोल हो रही थी। आर्थिक कठिनाइयों की वजह से हर महीने खेल खिलाड़ी नहीं निकल रही थी। अन्य पत्रिकाओं में भी ऐसी ही समस्या आ रही थी, क्योंकि बड़े-बड़े शहरों में माल उधार जाता था और उधार गये माल की पेमेन्ट नहीं आ रही थी! (इस समस्या पर विस्तृत विवरण आप मेरी आने वाली पुस्तक 'गुफ्तगू' में पढ़ेंगे)
समय गुजरता रहा। बदलते समय में यह भी बदलाव आया कि मैं लेखक के साथ साथ एक दुकानदार भी बन गया था। छोटे भाई राकेश ने जिस डीडीए मार्केट में अपने लिये दुकान ली, वहीं मुझे भी दुकान करवा दी।
कम्प्यूटर का जमाना आरम्भ हो गया था और राजभारती जी ने कम्प्यूटर टाइपिंग द्वारा एक नयी पत्रिका अपराध कथाएँ आरम्भ कर दी थी। मेरे लिये काफी काम बढ़ गये थे। बीच में ऐसे भी गर्दिश के दिन आये कि मुझे सड़क सड़क घूम घूम कर लाटरी के टिकट तक बेचने के लिये मजबूर होना पड़ा।
उन दिनों हम उत्तमनगर में रहने लगे थे और घर में ही एक 486 कम्प्यूटर लगा लिया था, जिसमें सिर्फ टाइपिंग ही हो सकती थी, लेकिन तब हमने घर में एक लैण्डलाइन फोन भी लगवा लिया था। और फोन नम्बर अपने खास खास मित्रों और प्रकाशकों को दे दिया था! वेद भाई को भी मैंने अपना नम्बर दे रखा था।
और नम्बर देने का यह लाभ हुआ कि एक दिन मेरठ से वेद भाई का फोन आया।
"योगेश, फुरसत हो तो यार शास्त्रीनगर घर आकर मिल...!"
मैंने पता नोट किया और एक दिन पहुँच गया शास्त्री नगर।
तब सुरेश चन्द्र जैन और वेद प्रकाश शर्मा अलग अलग हो चुके थे।
वेद ने एक नई पाकेट बुक्स फर्म तुलसी पेपर बुक्स खोल ली थी और सुरेश चन्द्र जैन तुलसी पाकेट बुक्स सम्भाल रहे थे।
जिस समय मैं शास्त्रीनगर वेद प्रकाश शर्मा के आफिस में पहुँचा, आफिस में कई लोग थे! एक भी कुर्सी खाली नहीं थी।
मेरे लिये एक सज्जन कुर्सी खाली करने लगे तो मैंने उन्हें रोक दिया।
तभी वेद ने मुझसे पूछा -"योगेश, वापस जाने की जल्दी तो नहीं है?"
"नहीं यार...! आज तो मैं तुम्हारे यहाँ ही आया हूँ और यहीं से वापस लौट जाऊँगा...। वक़्त मिला तो बड़ी बहन के यहाँ जरूर जाऊँगा, पर ईश्वरपुरी या हरीनगर नहीं जाना।" - मैंने कहा।
"ठीक है, तू बाहर से थोड़ा आगे जाकर मेरा राइटिंग केबिन है, वहीं चलकर बैठ... मैं थोड़ी देर में आता हूँ!" - वेद ने कहा।
मैं ऑफिस से बाहर निकला ही था कि तभी वेद के यहाँ काम करनेवाले लोगों में से एक आगे आया और बोला -"आइये, मैं बताता हूँ।"
वेद की कोठी के लान में काफी सुन्दर सुन्दर पौधे लगे थे और लान और कोठी की बिल्डिंग के बीच पक्के फर्श की लम्बी ओपन गैलरी थी, उसमें कुछ ही आगे जाकर वेद के उस कर्मचारी ने एक द्वार खोला और मुझसे बोला -"आप यहाँ अन्दर बैठिये।"
अन्दर एक छोटी टेबल थी, जिसके साथ ही एक-एक कुर्सी मेज के दोनों ओर थी। उस छोटे से कमरे में एक एक द्वार दोनों ओर था। बाहरी तरफ भी - अन्दरूनी ओर भी...।
मैं मेहमानों के लिये बिछी एकमात्र कुर्सी पर बैठकर वेद का इन्तजार करने लगा।
वेद के आने से पहले ही अन्दरूनी दरवाजे से चाय आ गी।
चाय का आखिरी सिप लेकर मैंने कप नीचे रखा ही था कि अन्दरूनी द्वार से वेद प्रकट हुए।
"तो यह अपना राइटिंग रूम बना रखा है...?" - अपनी कुर्सी पर बिराजते वेद से मैंने पूछा।
"हाँ यार...! कुछ समय आफिस में बैठ कर भी लिखा है, पर वहाँ डिस्टरबेन्स बहुत रहता है, इसलिये कन्सट्रेशन और कान्टीन्यूटी नहीं बन पाती थी, इसलिये यह राइटिंग रूम बना लिया और लिखने के समय पब्लिकेशन के काम बिल्कुल नहीं।" - वेद ने कहा -"तू बता, तेरा रजत राजवंशी कैसा चल रहा है?"
"कैसा चल रहा है - यह तो पंकज जैन (माया पाकेट बुक्स के स्वामी) ही बता सकते हैं। यहाँ तो स्क्रिप्ट देने के बाद कोई मतलब नहीं।" - मैंने कहा।
"पैसे-वैसे दे रहा है नाॅवल के या फोटो छपवाने के लिये फ्री में दे रहा है?"- वेद भाई ने सवाल किया और यह सवाल अजीब नहीं था। अक्सर प्रकाशक किसी नये नाम को छापने के लिये लेखक के सामने अनेक शर्तें रखते थे, जिन में से एक यह भी होती थी कि लेखक को शुरू के तीन-चार-पांच या छ: उपन्यास फ्री में देने होंगे। ऐसी शर्तों में अगर कम से कम की बात होती थी तो तीन उपन्यासों की होती थी। पर मेरे साथ ऐसा नहीं था, माया पाकेट बुक्स से मुझे पारिश्रमिक मिले रहा था। हमारे बीच आरम्भिक तीन उपन्यासों के लिये एक हजार प्रति उपन्यास की बात तय थी। इसलिये मैंने वेद भाई के सवाल के जवाब में मैंने धीरे से कहा -"नहीं यार, पैसे तो मिल रहे हैं।"
"कितने?" - वेद ने सवाल किया।
वेद भाई के इस सवाल का जवाब देना मेरे लिये मुश्किल हो गया, क्योंकि दूसरे नामों से लिखने के लिये मुझे चार से छ: हजार मिल जाते थे और मैं रजत राजवंशी नाम के लिये लिखने के सिर्फ एक हज़ार ले रहा हूँ, यह कैसे कहता वेद से। इसलिये बात टालते हुए बोला -"बस, ठीक ठाक मिल रहे हैं। तुम बताओ किसलिये याद किया?"
"पहले यह बता, कहाँ-कहाँ काम कर रहा है?"
"अरे बस, वही पुरानी जगह हैं सब...।"- मैंने गोल-मोल जवाब दिया।
"मेरे लिये फुरसत निकाल सकता है?"
"तेरे लिये जान हाज़िर है यार...।"
"ये फिल्मी डायलॉग नहीं, मुझे मालूम है तू नम्बरी ड्रामेबाज़ है। सीधा और साफ जवाब दे और मना करना है तो भी बेहिचक कह।" - वेद ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।
"करना क्या है यार, तुम काम तो बताओ।"- मैंने गम्भीर होते हुए कहा।
"एक उपन्यास लिखना है - बिल्कुल मेरी स्टाइल में...विकास को मेन लीड में लेकर, इसके लिये तुझे मेरे उपन्यासों की अच्छी तरह स्टडी भी करनी होगी।"
"अपने नाम से छपवाना है?" - मैंने पूछा!
"वो भी हो सकता है, अगर बहुत अच्छा लिखा गया, पर मैं एक नया नाम भी स्टार्ट करना चाहता हूँ। दरअसल एक नाम मैं शगुन के लिये खड़ा करना चाहता हूँ!" - वेद ने कहा।स। सूची
मैंने वेद की बात ध्यान से सुनी और सोच में पड़ गया। इसका खास कारण यह था कि मैंने उस समय तक वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास तो कई पढ़े थे, लेकिन विजय -विकास सीरीज़ के मुश्किल से दो-तीन ही पढ़े थे। विकास का कैरेक्टर शामिल करके उपन्यास लिखने के लिये मुझे उस सीरीज़ के आखिरी प्रकाशित उपन्यास पढ़ने आवश्यक थे।
मुझे चुप देख वेद ने फिर कहा -"यार, पब्लिकेशन के काम का बर्डन काफी है। आजकल थकान बहुत जल्दी हो जाती है। पहले की तरह लम्बी सीटिंग लगाकर लिखा भी नहीं जाता, इसलिये मैं चाहता हूँ कि दो तीन उपन्यासों की स्क्रिप्ट स्टॉक में रहनी चाहिये। तुझसे लिखवाने का मतलब यह है कि मुझे पता है - तू मेरी स्टाइल की डिटो काॅपी कर सकता है। तू जो भी उपन्यास लिखे, यह सोच कर ही लिख कि वो मेरे नाम से ही छपनी है।"
"पर यार, मैंने विकास सीरीज़ के ज्यादा उपन्यास नहीं पढ़े।"
"उपन्यास मैं तुझे दे दूंगा, आठ दस...।"
"और स्क्रिप्ट कब तक चाहिये?"
"तुझे जितना टाइम लेना है, ले, उसकी कोई बन्दिश नहीं है और स्क्रिप्ट चाहें जैसी भी हो, तुझे कम से कम दस हज़ार जरूर दूंगा, ज्यादा बढ़िया लगी तो तुझे कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी और भी ज्यादा दे सकता हूँ, लेकिन यार, हमारी यह डील हम दोनों के बीच ही रहनी चाहिये! किसी तीसरे को इसकी भनक भी नहीं लगनी चाहिये ।"
"प्राॅमिस...।"- मैंने वेद से हाथ मिलाकर प्राॅमिस किया, लेकिन आज भी यह बात जाहिर इसलिये कर रहा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ - वेद ने अपने नाम के लिये कभी किसी और की स्क्रिप्ट इस्तेमाल नहीं की।
शेष आगामी भाग 21 में
फिर वेद और मेरी उस डील का परिणाम क्या हुआ!
अगली बार...
देवीनगर गया था, वहाँ सतीश जैन उर्फ मामा ने कुछ पुराने आठ नौ फार्म के सामाजिक उपन्यास दिये, जो घोस्ट नामों से छपे हुए थे। उनमें तीन चार फार्म का मैटर बढ़ाना था। तरीका सतीश जैन ने यह बताया कि लगभग आठ पेज का मैटर उपन्यास के स्टार्टिंग में बढ़ाना है और इतने ही पेज आखिर में। उपन्यास का अन्त बेशक बदल जाये, उसकी कोई चिन्ता नहीं। बाकी बीच में जितने भी चैप्टर हैं, सबकी स्टार्टिंग दो तीन लाइन बदल देनी है या नयी एडजस्ट करनी है।
उपन्यास के मुख्य पात्रों के नाम सतीश जैन ने स्वयं ही पहले से काट-पीट करके बदल रखे थे। उपन्यास का नाम भी कोई नया ही रखना था।
मतलब समझ गये आप...! एक पुराना उपन्यास, जो अच्छा रहा हो या बकवास... योगेश मित्तल का हाथ लगने के बाद एक नये नाम से बिल्कुल नये उपन्यास के रूप में पाठकों के हाथ में जाना था और लेखक को यानि मुझे नया उपन्यास लिखने के पारिश्रमिक से आधा ही पारिश्रमिक मिलना था और प्रकाशक के पास एक नया उपन्यास तैयार हो जाना था। ऐसे कामों में मुझसे ज्यादा सिद्धहस्त उस दौर में दूसरा कोई भी लेखक नहीं था। यह मैं या मेरा अहंकार नहीं कह रहा है - यह शब्द उन दिनों लक्ष्मी पाकेट बुक्स के सर्वेसर्वा सतीश जैन के थे। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों ज्यादातर लेखक अपनी दाल-रोटी के लिये लिखते थे और उनके लिखने का रूटीन रोज नियम से कुछ घण्टे लिखने का था, जबकि मेरे लिखने का न तो कोई टाइम होता था, ना ही मूड। जब पैन उठाया - काम शुरू।
चौबीस घण्टों में किसी भी घण्टे मैं बिना किसी प्लानिंग के, बिना कुछ सोचे हुए भी कलम उठा लेता था तो दिमाग की बत्ती तुरन्त जल जाती थी और पैन फुल स्पीड से दौड़ने लगता था और यह खूबी अब भी मुझ में बरकरार है, यह और बात है कि इस खूबी का मैं अपने जीवन में माकूल फायदा नहीं उठा सका। मुझे कुछ भी लिखने में पहले से सोचने की भी कभी कोई दरकार नहीं होती थी, पर मैं लिखते हुए एक बात हमेशा ध्यान में रखता था कि उपन्यास इतना बढ़िया बन जाये कि पढ़ते हुए पाठक कहीं पर भी बोर न हो और उपन्यास की रोचकता बनाये रखने में मैं माता सरस्वती की कृपा से कामयाब भी रहता था, घटनाक्रम रोचक बनाने में दिमाग हर समय कम्प्यूटर की तरह काम करता था। अब भी काफी हद तक वही बात है।
सतीश जैन का काम जितने दिन किया, मेरा सुबह शाम का खाना, रात का सोना विजयकान्त मामाजी के यहाँ ही रहा। हाँ, रोज थोड़ी देर के लिये देवीनगर स्थित बड़ी बहन के यहाँ भी एक चक्कर लगा लेता था, लेकिन सुबह-सुबह पौधों को पानी देने के लिये मैं विजयकान्त मामाजी के यहाँ से उनके ठीक नीचे रहने वाले रामाकान्त मामाजी के यहाँ पहुँच जाता था।
रामाकान्त मामाजी ने अपने आंगन में सामने की दीवार के साथ बहुत सारे गमलों की कतार लगा रखी थी, जिनमें एलोवेरा, कैक्टस, गेंदे, गुलाब और सदाबहार आदि के पौधे लगा रखे थे! उन पौधों को वैसे तो रोज़ रामाकान्त मामाजी ही पानी देते थे, लेकिन जब मैं मेरठ में होता तो वह पानी देने की ड्यूटी मुझे यह कहकर सौंप देते कि 'ले, थोड़ा सा पुण्य तू भी कमा ले।' पेड़ों को पानी देना मामाजी के अनुसार बहुत पुण्य का काम होता था।
सतीश जैन का काम निपटाने के बाद मैं बिना किसी अन्य प्रकाशक से मिले दिल्ली चला गया। दरअसल मैं वेद प्रकाश शर्मा और सुरेश चन्द्र जैन का सामना करने से बचना चाहता था। उन दिनों मेरे लिये बहुत मुश्किल था कि मैं किसी भी प्रकाशक या मित्र की, किसी एक पब्लिशर के यहाँ टिककर और जमकर काम करने की सलाह मान लूँ।
सतीश जैन का काम निपटाने के बाद मैं मेरठ नहीं रुका। अपने सभी रिश्तेदारों के यहाँ थोड़ा थोड़ा समय बिता, इज़ाज़त ले, दिल्ली के लिये रवाना हो गया।
उसके बाद समय बड़ी तेजी से बीतता गया और एक के बाद एक घटनायें घटती रहीं।
दिल्ली में सुनील कुमार शर्मा उर्फ सुनील पंडित ने मेरे उपनाम 'रजत राजवंशी' के उपन्यास 'रिवाल्वर का मिज़ाज़' का विज्ञापन दे दिया, मगर उपन्यास छपने की नौबत आई, माया पाकेट बुक्स से, जिसके बारे में आपलोग 'रिवाल्वर का मिज़ाज़- कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं', में पढ़ चुके हैं।
लिंक- रिवाल्वर का मिज़ाज़- कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं
उन्हीं दिनों राजभारती जी ने एक नयी पत्रिका 'अपराध कथाएँ' आरम्भ कर दी थी। राधाकृष्ण दुआ उर्फ उपन्यासकार कमल अरोड़ा ने मानसी कहानियाँ आरम्भ कर दी। सरदार मनोहर सिंह ने 'खेल खिलाड़ी' के साथ साथ क्रिकेट जगत, विश्व क्रिकेट और 'नन्हा नटखट' आरम्भ कर दी, जिन सभी का सम्पादन और मैटर सेलेक्शन मुझे ही करना होता था।! कुछ में मेरा नाम योगेश मित्तल सम्पादक के रूप में डाला गया, कुछ में रजत राजवंशी!
उन दिनों खेल खिलाड़ी मानसरोवर गार्डन की जिस प्रिंटिंग प्रेस में छप रही थी, उन सरदार जी ने भी एक के बाद एक दो मैगज़ीन निकाल दीं, जिनका सारा मैटर भी मुझे ही ओके करना होता था और प्रूफरीडिंग, एडीटिंग सब कुछ मुझे ही करना होता था। उनमें से एक मैगज़ीन का नाम 'ब्यूटी मैडम' था।
बहुत अस्त-व्यस्त और भागमभाग वाली जिन्दगी थी। गनीमत यह थी कि सुबह से शाम रात का वक्त रोज़ लगभग ठीक ठीक गुज़र रहा था। हाँ, रात को दमे की दवाएँ लेकर सोने के बावजूद कभी कभी दो से तीन बजे के करीब सांस उखड़ने लगती थी।
उन दिनों 'खेल खिलाड़ी' की स्थिति भी डांवाडोल हो रही थी। आर्थिक कठिनाइयों की वजह से हर महीने खेल खिलाड़ी नहीं निकल रही थी। अन्य पत्रिकाओं में भी ऐसी ही समस्या आ रही थी, क्योंकि बड़े-बड़े शहरों में माल उधार जाता था और उधार गये माल की पेमेन्ट नहीं आ रही थी! (इस समस्या पर विस्तृत विवरण आप मेरी आने वाली पुस्तक 'गुफ्तगू' में पढ़ेंगे)
समय गुजरता रहा। बदलते समय में यह भी बदलाव आया कि मैं लेखक के साथ साथ एक दुकानदार भी बन गया था। छोटे भाई राकेश ने जिस डीडीए मार्केट में अपने लिये दुकान ली, वहीं मुझे भी दुकान करवा दी।
कम्प्यूटर का जमाना आरम्भ हो गया था और राजभारती जी ने कम्प्यूटर टाइपिंग द्वारा एक नयी पत्रिका अपराध कथाएँ आरम्भ कर दी थी। मेरे लिये काफी काम बढ़ गये थे। बीच में ऐसे भी गर्दिश के दिन आये कि मुझे सड़क सड़क घूम घूम कर लाटरी के टिकट तक बेचने के लिये मजबूर होना पड़ा।
उन दिनों हम उत्तमनगर में रहने लगे थे और घर में ही एक 486 कम्प्यूटर लगा लिया था, जिसमें सिर्फ टाइपिंग ही हो सकती थी, लेकिन तब हमने घर में एक लैण्डलाइन फोन भी लगवा लिया था। और फोन नम्बर अपने खास खास मित्रों और प्रकाशकों को दे दिया था! वेद भाई को भी मैंने अपना नम्बर दे रखा था।
और नम्बर देने का यह लाभ हुआ कि एक दिन मेरठ से वेद भाई का फोन आया।
"योगेश, फुरसत हो तो यार शास्त्रीनगर घर आकर मिल...!"
मैंने पता नोट किया और एक दिन पहुँच गया शास्त्री नगर।
तब सुरेश चन्द्र जैन और वेद प्रकाश शर्मा अलग अलग हो चुके थे।
वेद ने एक नई पाकेट बुक्स फर्म तुलसी पेपर बुक्स खोल ली थी और सुरेश चन्द्र जैन तुलसी पाकेट बुक्स सम्भाल रहे थे।
जिस समय मैं शास्त्रीनगर वेद प्रकाश शर्मा के आफिस में पहुँचा, आफिस में कई लोग थे! एक भी कुर्सी खाली नहीं थी।
मेरे लिये एक सज्जन कुर्सी खाली करने लगे तो मैंने उन्हें रोक दिया।
तभी वेद ने मुझसे पूछा -"योगेश, वापस जाने की जल्दी तो नहीं है?"
"नहीं यार...! आज तो मैं तुम्हारे यहाँ ही आया हूँ और यहीं से वापस लौट जाऊँगा...। वक़्त मिला तो बड़ी बहन के यहाँ जरूर जाऊँगा, पर ईश्वरपुरी या हरीनगर नहीं जाना।" - मैंने कहा।
"ठीक है, तू बाहर से थोड़ा आगे जाकर मेरा राइटिंग केबिन है, वहीं चलकर बैठ... मैं थोड़ी देर में आता हूँ!" - वेद ने कहा।
मैं ऑफिस से बाहर निकला ही था कि तभी वेद के यहाँ काम करनेवाले लोगों में से एक आगे आया और बोला -"आइये, मैं बताता हूँ।"
वेद की कोठी के लान में काफी सुन्दर सुन्दर पौधे लगे थे और लान और कोठी की बिल्डिंग के बीच पक्के फर्श की लम्बी ओपन गैलरी थी, उसमें कुछ ही आगे जाकर वेद के उस कर्मचारी ने एक द्वार खोला और मुझसे बोला -"आप यहाँ अन्दर बैठिये।"
अन्दर एक छोटी टेबल थी, जिसके साथ ही एक-एक कुर्सी मेज के दोनों ओर थी। उस छोटे से कमरे में एक एक द्वार दोनों ओर था। बाहरी तरफ भी - अन्दरूनी ओर भी...।
मैं मेहमानों के लिये बिछी एकमात्र कुर्सी पर बैठकर वेद का इन्तजार करने लगा।
वेद के आने से पहले ही अन्दरूनी दरवाजे से चाय आ गी।
चाय का आखिरी सिप लेकर मैंने कप नीचे रखा ही था कि अन्दरूनी द्वार से वेद प्रकट हुए।
"तो यह अपना राइटिंग रूम बना रखा है...?" - अपनी कुर्सी पर बिराजते वेद से मैंने पूछा।
"हाँ यार...! कुछ समय आफिस में बैठ कर भी लिखा है, पर वहाँ डिस्टरबेन्स बहुत रहता है, इसलिये कन्सट्रेशन और कान्टीन्यूटी नहीं बन पाती थी, इसलिये यह राइटिंग रूम बना लिया और लिखने के समय पब्लिकेशन के काम बिल्कुल नहीं।" - वेद ने कहा -"तू बता, तेरा रजत राजवंशी कैसा चल रहा है?"
"कैसा चल रहा है - यह तो पंकज जैन (माया पाकेट बुक्स के स्वामी) ही बता सकते हैं। यहाँ तो स्क्रिप्ट देने के बाद कोई मतलब नहीं।" - मैंने कहा।
"पैसे-वैसे दे रहा है नाॅवल के या फोटो छपवाने के लिये फ्री में दे रहा है?"- वेद भाई ने सवाल किया और यह सवाल अजीब नहीं था। अक्सर प्रकाशक किसी नये नाम को छापने के लिये लेखक के सामने अनेक शर्तें रखते थे, जिन में से एक यह भी होती थी कि लेखक को शुरू के तीन-चार-पांच या छ: उपन्यास फ्री में देने होंगे। ऐसी शर्तों में अगर कम से कम की बात होती थी तो तीन उपन्यासों की होती थी। पर मेरे साथ ऐसा नहीं था, माया पाकेट बुक्स से मुझे पारिश्रमिक मिले रहा था। हमारे बीच आरम्भिक तीन उपन्यासों के लिये एक हजार प्रति उपन्यास की बात तय थी। इसलिये मैंने वेद भाई के सवाल के जवाब में मैंने धीरे से कहा -"नहीं यार, पैसे तो मिल रहे हैं।"
"कितने?" - वेद ने सवाल किया।
वेद भाई के इस सवाल का जवाब देना मेरे लिये मुश्किल हो गया, क्योंकि दूसरे नामों से लिखने के लिये मुझे चार से छ: हजार मिल जाते थे और मैं रजत राजवंशी नाम के लिये लिखने के सिर्फ एक हज़ार ले रहा हूँ, यह कैसे कहता वेद से। इसलिये बात टालते हुए बोला -"बस, ठीक ठाक मिल रहे हैं। तुम बताओ किसलिये याद किया?"
"पहले यह बता, कहाँ-कहाँ काम कर रहा है?"
"अरे बस, वही पुरानी जगह हैं सब...।"- मैंने गोल-मोल जवाब दिया।
"मेरे लिये फुरसत निकाल सकता है?"
"तेरे लिये जान हाज़िर है यार...।"
"ये फिल्मी डायलॉग नहीं, मुझे मालूम है तू नम्बरी ड्रामेबाज़ है। सीधा और साफ जवाब दे और मना करना है तो भी बेहिचक कह।" - वेद ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।
"करना क्या है यार, तुम काम तो बताओ।"- मैंने गम्भीर होते हुए कहा।
"एक उपन्यास लिखना है - बिल्कुल मेरी स्टाइल में...विकास को मेन लीड में लेकर, इसके लिये तुझे मेरे उपन्यासों की अच्छी तरह स्टडी भी करनी होगी।"
"अपने नाम से छपवाना है?" - मैंने पूछा!
"वो भी हो सकता है, अगर बहुत अच्छा लिखा गया, पर मैं एक नया नाम भी स्टार्ट करना चाहता हूँ। दरअसल एक नाम मैं शगुन के लिये खड़ा करना चाहता हूँ!" - वेद ने कहा।स। सूची
मैंने वेद की बात ध्यान से सुनी और सोच में पड़ गया। इसका खास कारण यह था कि मैंने उस समय तक वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास तो कई पढ़े थे, लेकिन विजय -विकास सीरीज़ के मुश्किल से दो-तीन ही पढ़े थे। विकास का कैरेक्टर शामिल करके उपन्यास लिखने के लिये मुझे उस सीरीज़ के आखिरी प्रकाशित उपन्यास पढ़ने आवश्यक थे।
मुझे चुप देख वेद ने फिर कहा -"यार, पब्लिकेशन के काम का बर्डन काफी है। आजकल थकान बहुत जल्दी हो जाती है। पहले की तरह लम्बी सीटिंग लगाकर लिखा भी नहीं जाता, इसलिये मैं चाहता हूँ कि दो तीन उपन्यासों की स्क्रिप्ट स्टॉक में रहनी चाहिये। तुझसे लिखवाने का मतलब यह है कि मुझे पता है - तू मेरी स्टाइल की डिटो काॅपी कर सकता है। तू जो भी उपन्यास लिखे, यह सोच कर ही लिख कि वो मेरे नाम से ही छपनी है।"
"पर यार, मैंने विकास सीरीज़ के ज्यादा उपन्यास नहीं पढ़े।"
"उपन्यास मैं तुझे दे दूंगा, आठ दस...।"
"और स्क्रिप्ट कब तक चाहिये?"
"तुझे जितना टाइम लेना है, ले, उसकी कोई बन्दिश नहीं है और स्क्रिप्ट चाहें जैसी भी हो, तुझे कम से कम दस हज़ार जरूर दूंगा, ज्यादा बढ़िया लगी तो तुझे कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी और भी ज्यादा दे सकता हूँ, लेकिन यार, हमारी यह डील हम दोनों के बीच ही रहनी चाहिये! किसी तीसरे को इसकी भनक भी नहीं लगनी चाहिये ।"
"प्राॅमिस...।"- मैंने वेद से हाथ मिलाकर प्राॅमिस किया, लेकिन आज भी यह बात जाहिर इसलिये कर रहा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ - वेद ने अपने नाम के लिये कभी किसी और की स्क्रिप्ट इस्तेमाल नहीं की।
शेष आगामी भाग 21 में
फिर वेद और मेरी उस डील का परिणाम क्या हुआ!
अगली बार...
अगर साहबान आप आगे के एपिसोड में यह लिखना चाहते हो कि वेद प्रकाश शर्मा ने शगुन शर्मा को लिखने के लिए आपको इंगेज किया और आपने ही शगुन शर्मा के सभी उपन्यास लिखे हैं, तो आगाह करने की गुस्ताखी के रहा हूँ और दावा के साथ ही वादा भी कर रहा हूँ कि आप यह लफ्फाजी साबित नहीं कर पाएंगे। जबकि स्वयं शगुन शर्मा के उपन्यास पलक झपकते सच साबित कर देंगे।
जवाब देंहटाएंश्रीमान आप जरा सोचिए, यदि शगुन शर्मा वाकई एक लेखक है तो अब क्यों नही लिख पाते है। खासतौर से वेद प्रकाश शर्मा जी के देहान्त के बाद ।
हटाएंफिर भी अगर आप यह साबित कर सकते हैं तो करके दिखायेगा। आपको इक्कीस तोपों की सलामी देकर दिखाऊंगा। यह मेरा आपसे वादा भी है और दावा भी।
जवाब देंहटाएंमैंने यह कभी नहीं कहा कि शगुन शर्मा खुद उपन्यास लिखते थे। गौर फरमाएं मैं क्या कह रहा हूँ। मैं ये कह रहा हूँ कि यह लेख लिखने वाले साहब ने शगुन शर्मा के किसी भी सीरीज़ के कोई उपन्यास नहीं लिखे। जो कि दावा करने की यह भूमिका बना रहे हैं। एक प्रमाण तो आप खुद ही दे रहे हैं कि शर्मा जी के बाद शगुन के नॉवल क्यों नहीं आये? अगर यह साहब शगुन शर्मा के लेखक होते तो जरुर -जरूर नॉवल आते। क्योंकि खत्म शर्मा जी हुए थे, यह दावा करने जा रहे लेखक तो आज भी सलामत हैं और तुलसी पेपर बुक्स भी शर्मा जी के जाने के बाद कई सालों तक सलामत रही थी।
जवाब देंहटाएं