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रविवार, 27 मार्च 2022

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 15

यादें वेद पकाश शर्मा जी की - 15
प्रस्तुति- योगेश मित्तल

क्या काम कराना होगा?” - पूछते हुए मेरे चेहरे पर वही मुहब्बत भरी मुस्कान उभर आई, जिसे आपने मेरे रजत राजवंशी नाम से छपे कुछ उपन्यासों की तस्वीरों तथा फेसबुक की तस्वीरों में देखा है। 
वेद भाई ने बड़े रहस्यमय अन्दाज़ में चेहरा आगे किया और धीरे से पूछा –“बता दूँ...?”
हाँ...हाँ...बताओ।” - मैं भी कुछ मज़े लेने वाले मूड में आ गया था। 
तो सुन...मामा... एस. पी. साहब से नूतन पॉकेट बुक्स में छपे कुछ पुराने-सुराने उपन्यास विक्रांत और विजय सीरीज़ के फ्री में लाया होगा, उन्हीं को कवर-सवर फाड़ के योगेश मित्तल के सामने फेंकेगा, ताकि योगेश मित्तल को पता न चले, यह उपन्यास पहले कहाँ छपे हैं, फिर योगेश मित्तल से कहेगा कि यार, इसमें आधा-आधा फार्म शुरू और आखिर में बढ़ा दो और हर चैप्टर की शुरू और आखिर के तीन-तीन चार-चार लाइन चेन्ज कर दो।”
वेदप्रकाश शर्मा
हो सकता है, तुम्हारी बात सही हो, पर सतीश जैन एस. पी. साहब से ही पुराने उपन्यास क्यों लेगा?”-  मैंने पूछा। 

हो सकता है, तुम्हारी बात सही हो, पर सतीश जैन एस. पी. साहब से ही पुराने उपन्यास क्यों लेगा?”-  मैंने पूछा। 
किसी और से भी ले सकै है, प्रभात पॉकेट बुक्स से भी ले सकै है। तिलक चन्द जी के भी पांव पकड़ सकै है, पर एस. पी. साहब का नाम मैंने इसलिए लिया है, क्योंकि मेरा ख्याल है - एस. पी. साहब से 'मामा' की कुछ ज्यादा ही पटती है।”
पटती है?”- मैं हँसा। 
वेद प्रकाश शर्मा के चेहरे पर भी हँसी आ गई, एकदम ही वह बोले - “तू कहीं गलत तो नहीं समझ रहा  मैंने कहा - पटती है। 'फटती है' नहीं कहा है।”
नहीं, मैं गलत नहीं समझा।” मैंने 'पटती है' ही समझा है। तुम तो जानते ही हो, मैं आमिष  शब्दों का प्रयोग नहीं करता। उपन्यासों में बेशक किसी लफंट-लम्पट-मवाली के मुंह से नानवेजिटेरियन शब्द बुलवा दूं, व्यक्तिगत जीवन में खुद कभी इस्तेमाल नहीं करता।” अच्छी बात है।” वेद भाई ने कहा, फिर संजीदगी से बोले –“योगेश इन बेकार के कामों में क्या रखा है? क्यों करता है यह सब काम? पब्लिशर पीठ पर हाथ फेर कर कहते हैं – “योगेश, यह काम तुझसे बढ़िया कोई नहीं कर सकता और तू पिन्नक में आ जाता है और फटाफट कहता है - अच्छा भाईसाहब, देता हूँ मैं करके। तू क्या समझता है। मेरठ में राइटरों की कमी है या मेरठ के राइटर ये सब काम नहीं कर सकते। सब कर सकते हैं। तुझसे अच्छा भी कर सकते हैं, पर मेरठ का कोई राइटर इतना फालतू नहीं बैठा कि इन सब टटपुँजिये कामों में हाथ डाले।”
मेरा मुंह छोटा सा हो गया। वेद प्रकाश शर्मा का कथन शत-प्रतिशत सही था। उपन्यास बढ़ाने-घटाने और एडीटिंग के मामले में बड़े-छोटे सभी प्रकाशक कभी न कभी मुझसे यही बात कह चुके थे कि इन कामों में योगेश का मुकाबला नहीं। योगेश मास्टरमाइन्ड है। और मुझे भी अपने प्रबल आत्मविश्वास के कारण हमेशा यह बात सच ही लगती थी, क्योंकि कई बार ऐसा भी हुआ था कि कई प्रकाशकों ने कुछ उपन्यासों में पहले किसी और से काम करवाया, किन्तु मज़ा नहीं आया तो दोबारा मुझसे करवाया। मनोज पॉकेट बुक्स में तो एक बार राज कुमार गुप्ता जी ने छ: सात उपन्यासों में किसी और लेखक से एडीटिंग और मैटर बनवाने का काम करवाया। उस लेखक को भी पारिश्रमिक दिया, मगर फिर उसका सारा काम रद्द कर, फिर दोबारा से मुझसे सारा काम करवाया और मुझे भी मेरा पारिश्रमिक दिया, किन्तु वेद प्रकाश शर्मा ने उस समय मुझसे जो बात कही, थप्पड़ की तरह मेरे दिल पर लगी थी। 
एकटक मेरा चेहरा देख रहे वेद भाई को पता नहीं कैसे मेरे दिल का हाल मालूम हो गया और वह एकदम कह उठे- “लगै, मेरी बात तूने दिल पर नहीं ले ली है।”
नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।” मैं फीकेपन से बोला तो वेद भाई मुस्कुराये -”कुछ कैसे नहीं है, बस, रोने की कसर है तेरे चेहरे पर। पर भाई मेरे, मैंने यह नहीं कहा कि तू खराब काम करता है, तेरे काम का तो कोई मुकाबला ही नहीं है, पर यह डेढ़ टके की तारीफ के चक्कर में तू सौ की मजदूरी वाला काम छोड़ रहा है, यह कोई अक्लमंदी नहीं है। अब यह सोचकर मत रोने लग जाइयो कि वेद ने तुझे बेवकूफ कहा।”
मुझे हंसी आ गई। 
हाँ, अब ठीक है। तू सीरियस मत हुआ कर, हँसता हुआ ही अच्छा लगै है। सीरियस में तो लगै - अभी रोने वाला है।”
मैं फिर से हंसा, इस बार कुछ जोर से। मुझे हँसता देख वेद भाई भी खुश हो गये। 
वैसे वेद भाई ने मेरे बारे में जो कुछ कहा था, कुछ भी गलत नहीं है। मै बचपन से ही जरूरत से ज्यादा इमोशनल हूँ और अपनी यह कमी दूर तो करना चाहता हूँ, पर बहुत प्रयास करके भी मैं आज तक यह कमी दूर नहीं कर पाया हूँ। पिछले दिनों रात को टीवी पर एक सीरियल चल रहा था - 'गुम है किसी के प्यार में' , उस दिन मेरी बेटी ससुराल से घर आई हुई थी। मैं सीरियल में कुछ ऐसा मग्न था कि मुझे पता ही नहीं चला कि मेरी आँखों से आँसू बह रहे हैं। पता तब चला, जब मेरी बेटी अचानक मोबाइल से मेरी तस्वीर खींचने लगी, बड़ी मुश्किल से मुंह दायें-बायें छिपा, रिक्वेस्ट करके उसे फोटो खींचने से तो रोक दिया, मगर को बेटी ने व्हाट्सएप के हमारे पारिवारिक फैमिली ग्रुप में लिखकर डाल ही दिया - 'पापा इज़ क्राइंग।'
बहरहाल, अब उम्र का जो पड़ाव है, लगता नहीं कि किसी प्रकार खुद को बदल पाऊँगा। हाँ, बदलने की कोशिश, फिर भी मैं करता रहूँगा।
उस दिन वेद प्रकाश शर्मा से और भी बहुत सी बातें हुईं। कुछ याद हैं, कुछ याद नहीं, पर उन सब व्यक्तिगत बातों का जिक्र यहाँ गैरजरूरी और बोर करने वाला हो सकता है, इसलिए आगे चलते हैं। 
वेद से विदा लेकर मैंने देवीनगर के लिए रिक्शा किया। लक्ष्मी पॉकेट बुक्स का ऑफिस वहीं फ्रन्ट रोड पर था और वहीं साथ की गली के एक मकान के फर्स्ट फ्लोर पर मेरी बहन किरायेदार थीं। 
जब देवीनगर पहुँचा तो लक्ष्मी पॉकेट बुक्स काऑफिस तो खुला था, पर ऑफिस में मालिक साहब सतीश जैन नदारद थे। एक कोने पर छोटी सी टेबल पर उस ऑफिस के एकमात्र क्लर्क पतले-दुबले छोटे कद के, किन्तु मुझसे कुछ उठते हुए कद के, रामअवतार जी  मौजूद थे।
मुझे देखते ही वह अपनी कुर्सी से खड़े हो गये और आगे बढ़कर तपाक से मेरा स्वागत किया और हाथ बढ़ाया। मैंने भी तपाक से हाथ मिलाया तो वह बड़े ही खुश होकर गदगद अन्दाज़ में बोले -”सर, हम आपको बहुत याद करते हैं।”
हैं...।”-  मैं एकदम चौंका और गम्भीरता से बोला -”पर मैंने तो आपसे कभी कोई उधार नहीं लिया।”
अब वह चकराये। बोले -”हम उधारी की बात कहाँ बोले हैं। हम तो बोले हैं - हम आपको बहुत याद करते हैं।”
हाँ, पर इन्सान उसी को बहुत याद करता है, जिससे पैसा-वैसा लेना हो, जिसे उधार दिया हो।”
नहीं-नहीं, हम उस लिए आपको याद नहीं करते हैं। हमारी घरवाली बोलती है किसी दिन भाईसाहब को खाने पर बुलाइये न, इसीलिए....कल रविवार है, कल हमारे घर....।”
यह मेरे लिए जबरदस्त झटका था। मैंने रामअवतार जी की बात काटते हुए उनसे कहा -”भाईसाहब, मैं तो आपकी घरवाली को जानता भी नहीं। वो मुझे खाने पर क्यों बुला रही हैं? अगर राखी-वाखी बांधकर भाई बनाना हो तो उन्हें बता दीजियेगा कि मेरी बहुत सारी बहनें हैं और किसी भी बहन को कभी मुझसे कुछ मिलता नहीं है, सब जानती हैं कि यह बहुत कड़का भाई है और समय-समय पर मेरी मदद ही करती रहती हैं।”
हैं - हैं - हैं...।” - रामअवतार जी अजीब से ढंग से हंसे। फिर बोले - “नहीं, वो ऐसा है कि हम उनको आपके बारे में बताये थे कि आप बहुत बड़े राइटर हैं तो वो बोलीं - उनको खाने पर बुलाइये न...। हम कभी किसी राइटर को नहीं देखें हैं।”
क्या...?”-  रामअवतार जी की सीधी सादी सादगी भरी बात पर मेरा दिल ठहाका लगाने का हुआ, पर मूड मजाक का बन गया -”आपकी घरवाली ने जंगल देखा है कभी?”
नहीं..। वो तो हम भी नहीं देखे। यहीं कंकरखेड़ा में पैदा हुए, वहीं रहते आये हैं। मेरठ से बाहर नहीं गये कभी।”- वह बोले। 
मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ कि आज हमारे भारत में ऐसे भी लोग हैं, जिन्होंने अपने शहर गली, मोहल्ले से अधिक कुछ भी नहीं देखा। इस लिहाज़ से तो आजकल के बहुत से स्कूलों का मैनेजमेन्ट बच्चों को महीने में एक बार कहीं बाहर घुमाने ले जाते हैं, बहुत अच्छा है, पर उस समय बात आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा -”चिड़ियाघर तो देखा होगा?”
         “नहीं...यहाँ कहाँ पर है?” - रामअवतार जी  ने मुझ पर ही सवाल उछाल दिया तो मैंने गहरी सांस ली और बोला -”किसी रोज घरवाली को दिल्ली ले जाओ, वहाँ चिड़ियाघर में शेर और हिरण दिखाओ। बस, वैसे ही होते हैं राइटर। कोई कोई शेर जैसे और कोई-कोई हिरण जैसे।”
नहीं न सर। कल सण्डे है। कल सुबह का खाना हमारे साथ खाइये न। आपकी बड़ी कृपा होगी।”-  और रामअवतार जी मेरे पैरों पर झुकने लगे। मैंने एकदम बीच में ही उन्हें रोक दिया तो वह रुंआसे से होकर बोले –“हम शिड्युल कास्ट हैं, इसलिए मना कर रहे हैं ना?”
यह मेरे लिए नया रहस्योद्घाटन था। मुझे नहीं पता था - रामअवतार जी शिड्युल कास्ट हैं, पर अब मुझे मेरी गैरत धिक्कारने लगी कि एक शख्स इतने प्रेम से मुझे भोजन का निमंत्रण दे रहा है और मैं उससे मज़ाक कर रहा हूँ, बल्कि मज़ाक उड़ा रहा हूँ। कितना नीच हूँ मैं। 
और मैं इमोशनल हो गया तथा मैंने रामअवतार जी की पीठ थपथपाकर उनसे कहा - “कंकरखेड़ा तो मैं रहा हुआ हूँ, आप एक कागज पर अपना पता लिखकर दे दीजिये, मैं कल लंच आपके यहाँ ही करूँगा, पर एक रिक्वेस्ट है। चावल-दही मैं खाता नहीं। सिम्पल रोटी-दाल के अलावा कुछ भी नहीं खाऊँगा। यह ध्यान रखियेगा।”
जी, अच्छा।”-  रामअवतार जी फटाफट अपनी कुर्सी की ओर बढ़ गये और फिर किसी पुराने बेकार प्रूफ का एक कागज़ निकाला और उसकी अनप्रिन्टेड बैक साइड में अपना पता लिखने लगे। तभी मुझे याद आया - सतीश जैन वहाँ नहीं हैं और मैंने अभी तक रामअवतार जी से जैन साहब के बारे में कुछ भी नहीं पूछा है तो तभी मैंने यह प्रश्न भी उगल दिया –“आज जैन साहब नहीं आये अभी तक...?”
आये हैं ना....? यहीं पास में शेव बनाने गये हैं।”- रामअवतार जी कागज़ पर अपना पता लिखते-लिखते बोले । 
मैं वहीं बिछी कुर्सी पर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद सतीश जैन आये तो मैंने उन्हें ऊपर से नीचे देखा। पर मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोले – “कितनी देर हुई आये...?”
दो-तीन घण्टे तो.....।”-  मैंने 'तो' को खींचते हुए कहा – “नहीं हुए।”
मुझे मालूम है। मुझे आधे घण्टे से ज्यादा नहीं लगा, शेव बनवाने में...।”
शेव घर पर नहीं बनाते?”- मैंने पूछा। 
ऐसा ही है।” - सतीश जैन हंसे। फिर बोले -”कभी कभी घर पर भी बना लेता हूँ।”
या कभी-कभी बाहर भी बनवा लेता हूँ - जब ज्यादा चिकना होने का मन करता है।” - मैंने कहा। 
जो चाहे, समझ लो।”- सतीश जैन अपनी सीट पर बिराजने से पहले मेरी ओर हाथ बढ़ाते हुए बोले। 
मैंने हाथ मिलाया तो मेरा हाथ हिलाते- हिलाते वह सीट पर पसर गये। फिर हाथ छोड़ा, जेब से एक चकाचक सफेद रुमाल निकाला और रुमाल मुंह पर फेर कर टेबल पर ही रख दिया। 
यार, इतनी गर्मी तो नहीं है कि पसीना पोंछने की जरूरत आ पड़े।”-  मैंने कहा। 
नहीं, वो क्या है... उसने क्रीम कुछ ज्यादा लगा दी।” - सतीश जैन ने रुमाल मुँह पर फेरने का कारण हज्जाम पर डाल दिया। 
मैं कहना तो चाहता था कि तुम्हीं ने कहा होगा, ज्यादा चिकना करने के लिए। किन्तु शब्द रोक लिये और यह अच्छा ही किया। सतीश जैन तुरन्त मतलब की बात पर आ गये। दराज़ से उन्होंने दो खाकी से लिफाफे निकाले। उनमें कुछ था। 
पहले एक लिफाफे में हाथ डाला। उसमें से एक प्रिन्टेड उपन्यास निकाला और बोले - “यार, यह एक थ्रिलर उपन्यास है। इसमें स्टार्टिंग और एण्ड में चार-चार, छ:-छ: पेज बढ़ा देना और बीच में भी हर चैप्टर की स्टार्टिंग में पांच- छ: लाईन बढ़ा देना।” 
चैप्टर के एण्ड की भी लाइनें बढ़ानी या चेन्ज करनी हैं?”-  मैंने पूछा। 
नहीं, फिर काम बहुत ज्यादा बढ़ जायेगा। यही काफी है।”-  सतीश जैन ने कहा। फिर दूसरे लिफाफे से एक और उपन्यास निकाला। बिल्कुल उसी हालत में - जैसी में पहला उपन्यास था और जैसा कि वेद प्रकाश शर्मा ने वर्णन किया था। किताबों के कवर फटे हुए थे। शुरुआती चार पेज भी नहीं थे। आखिर में भी विज्ञापन वाले पेज नहीं थे। 
एक बात और कई बार प्रकाशक किताब के हर फार्म के आखिरी पेज अर्थात सोलहवें, बत्तीसवें, अड़तालीसवें पर नीचे किताब और लेखक का नाम शार्ट में देते थे। सतीश जैन कभी ऐसी किताब एडिट करवाते या उसमें काम करवाते तो अच्छी तरह प्रिन्ट मैटर पर कलम इस तरह चला देते थे कि कुछ भी पढ़ना असम्भव होता था। 
और...
शेष भाग 16 में -

वेदप्रकाश शर्मा

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