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मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-43,44

 
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 43
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रोडवेज पहुँचने पर हमें दिल्ली की एक बस तैयार दिखी।
बस के फ्रन्ट शीशे पर तथा ऊपर गन्तव्य के छोटे स्थान पर भी दिल्ली लिखा था, तो भी बस कंडक्टर बस से नीचे,बस में सवारियों के प्रवेश द्वार के निकट खड़ा जोर-जोर से "दिल्ली-दिल्ली" की आवाज लगा रहा था।
उन दिनों यूपी रोडवेज़ के अधिकांश बस अड्डों पर ऐसे दृश्य आम हुआ करते थे।
अब काफी सालों से यूपी में कहीं भी जाने के लिए बस का सफर करने की नौबत नहीं आई, इसलिए यूपी के बस अड्डों की शक्ल देखे, जमाना हो गया।
हम लोग बस में चढ़ गये!
बस में एक ओर दो लोगों के बैठने की सीटें थीं तो दूसरी तरफ तीन लोगों के बैठने की सीट थी!
बिमल ने दो लोगों वाली सीट चुनी! वह स्वयं खिड़की के पास वाली सीट पर बैठे!

खैर, खरामा-खरामा कर बस चली!
"योगेश जी, डील सही रही?" बिमल ने पूछा!
"हाँ!" मैंने कहा!
"खुश तो हो..?"
"यह तो आदत है मेरी! डील न भी होती तो भी खुश रहता! आप जानते हो!"
बिमल हंसे! बहुत जोर से हंसे! 

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-41,42

 आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 41

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मेरठ में हम बस अड्डे पर ही उतरे। उसके बाद जब हम ठठेरवाड़ा के लिए रिक्शा ढूँढने लगे तो जल्दी ही कोई रिक्शा नहीं मिला।
पांचवें या छठे रिक्शेवाले ने ठठेरवाड़ा चलने के लिए हामी भरी तो हमारी जान में जान आई।
"बैठो योगेश जी !" बिमल ने मुझसे कहा।
बिमल की यह खास आदत थी, जब कोई साथ होता था तो अधिकांशतः खुद बाद में ही बैठते थे, दूसरे शख्स को पहले बैठाते थे।
दोनों के बैठने के बाद रिक्शेवाले ने रिक्शा दौड़ाया तो बिमल ने मुझसे कहा-"चलो, रिक्शा तो मिला।"
" बाबूजी, पहले आप जिन लोगों से बातें किये थे, सब पुलबेगम की तरफ रिक्शा चलाते हैं। उनमें शहर का कोई नहीं था।" बिमल की बात सुन रिक्शेवाला अचानक बोल उठा।
"ओह...अच्छा...!" बिमल ने कहा।
तभी रिक्शेवाले ने सवाल किया-"बाबूजी आप दिल्ली से आ रहे हैं...?"
"हाँ...!" बिमल ने कहा।
"फिर आपको दिल्ली चुंगी पर उतरना चाहिए था। दिल्ली से आने वाली बस दिल्ली चुंगी और डी.एन. कालेज पर भी रुकती है। उधर से ठठेरवाड़ा पास पड़ता।"
"अच्छा... !" बिमल मुस्कुराये और रिक्शेवाले से बोले-"पर अगर हम वहाँ उतर जाते तो आपके रिक्शे में कैसे बैठते बाबा। "
"हाँ, यह तो है।" रिक्शेवाला भी हंसा-"आज सुबह से मेरी भी बोहनी नहीं हुई थी । ऊपरवाला बड़ा कारसाज है। सबका ख्याल रखता है।"
रिक्शेवाला बड़ा बातूनी था। रास्ते भर कोई न कोई बात करता रहा।
          बहुत से रिक्शेवाले बातूनी होते हैं, किन्तु बैठने वाली सवारी को उनसे सड़क, रास्तों, फिल्मों से ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए।
      यह बात मुझे बिमल चटर्जी ने बाद में कभी समझाई थी।
और व्यक्तिगत तथा पारिवारिक बातों के अलावा राजनैतिक बातें भी हर किसी नये राह चलते मिलने वाले से नहीं करनी चाहिए।
आज के राजनैतिक उथल-पुथल वाले वातावरण में अक्सर मैं सीमा से बाहर निकल जाता हूँ, तब हमेशा बिमल की बातें याद आ जाती हैं।

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

क्या लोकप्रिय साहित्य का दौर लौट रहा है?- गुरप्रीत सिंह

क्या लोकप्रिय उपन्यास साहित्य का दौर लौट रहा है?- गुरप्रीत सिंह
    एम. इकराम फरीदी के उपन्यास 'चैलेंज होटल' में प्रकाशित आलेख।
         समय गतिशील और परिवर्तनशील है। इसी परिवर्तन में बहुत कुछ नया आता है तो बहुत कुछ पुराना पीछे छूट जाता है। समय के साथ मनोरंजन के साधन बदल गये। कभी मनोरंजन का माध्यम खेल..आदि थे, कभी मनोरंजन का माध्यम किताबें थी और अब इलैक्ट्रॉनिक साधन मनोरंजन के माध्यम हैं।
उपन्यास पृष्ठ
        कभी मनोरंजन का माध्यम रहा था लोकप्रिय उपन्यास साहित्य। जिसमें जासूसी, सामाजिक, तिलिस्मी और हाॅरर श्रेणी के उपन्यास लिखे जाते थे। कहते हैं लोगों ने देवकीनंदन खत्री के उपन्यास पढने के लिए हिन्दी सीखी थी।
देवकीनन्दन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों से चला यह दौर सामाजिक और जासूसी उपन्यासों से होता हुआ एक लंबे समय तक चला।
          सामाजिक उपन्यासों में प्यारे लाल आवारा, गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत, रितुराज, राजहंस, राजवंश जैसे असंख्य सामाजिक लेखक घर -घर में पढे जाते थे। तब गृहणियां भी अवकाश के समय सामाजिक उपन्यासों को पढती थी।
‌लेकिन बदलते समय के साथ सामाजिक उपन्यासों का प्रभाव कम हुआ और जासूसी उपन्यासों का दौर आ गया। जिसमें इब्ने सफी, निरंजन चौधरी, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश कांबोज, कुमार कश्यप, वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक और अनिल‌ मोहन आदि बहुसंख्यक लेखकों ने जनता का भरपूर मनोरंजन किया।
             लेकिन बदलते मनोरंजन के साधनों ने उपन्यास जगत को गहरी क्षति पहुंचायी। सन् 2000 के बाद उपन्यास जगत से प्रकाशक मुँह मोड़ने लगे और एक ऐसा समय आया की कभी स्वर्णिम समय देखने वाला लोकप्रिय उपन्यास साहित्य किसी गहरे अंधेरे में खो गया। हालांकि इसके पीछे बहुत से कारण रहे जैसे घोस्ट राइटिंग, लेखकों को रायल्टी न देना, अश्लीलता, कहानियों का निम्नस्तर लेकिन मूल में बदलते मनोरंजन के साधन ही हैं।
            इस दौर में मात्र तीन लेखक वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक और अनिल मोहन ही सक्रिय रहे और प्रकाशकों में दिल्ली से राजा पॉकेट बुक्स और मेरठ से रवि पॉकेट बुक्स। रवि पॉकेट बुक्स एकमात्र वह संस्था रही जिसने अपनी लाभ-हानि की बजाय उपन्यास जगत को जीवित रखने में यथासंभव कोशिश की।
           वेदप्रकाश शर्मा जी के निधन और अनिल‌ मोहन जी के परिस्थितिवश लेखन से दूरी बना लेने के कारण इस क्षेत्र में एक सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ही वह लेखक रहे जिन्होंने इस परम्परा को जीवित रखा। मात्र जीवित ही नहीं बल्कि उन्होंने इस विधा को नये स्तर तक भी पहुंचाया।
           उपन्यास जगत में एक लंबे समय पश्चात इस क्षेत्र में हलचल महसूस हुयी। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने जहाँ एक बार उपन्यास जगत को खत्म कर दिया वहीं सोशल मीडिया ने इसे पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एम. इकराम फरीदी जी आदरणीय वेदप्रकाश शर्मा जी की बात को माध्यम बना कर कहते है की "समयानुसार मनोरंजन के साधन बदलते रहते हैं। एक समय उपन्यास मनोरंजन का माध्यम था फिर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और अब पुनः लोग किताबों की तरफ लौट रहे हैं।"
           सोशल मीडिया के समय में रवि पॉकेट बुक्स के माध्यम से दो लेखक सामने आये। एक कंवल शर्मा और दूसरे एम. इकराम फरीदी। हालांकि कंवल शर्मा रवि पॉकेट बुक्स के लिए पहले अनुवाद का काम कर रहे थे, वहीं एम. इकराम फरीदी जी के दो उपन्यास अन्य संस्थानों से प्रकाशित हो चुके थे। लेकिन जो प्रसिद्ध इन्हें रवि पॉकेट के बैनर तले मिली वह अन्यत्र दुर्लभ थी।
             सन् 2011 में मुंबई से एक और प्रकाशन संस्था 'सूरज पॉकेट बुक्स' ने बाजार में दस्तक दी। सूरज पॉकेट बुक्स के संस्थापक शुभानंद जी ने 'राजन-इकबाल रिबोर्न सीरिज' से लेखन आरम्भ किया। पाठकों ने इसे हाथो-हाथ लिया। कुछ समय बाद इन्होंने 'राजन-इकबाल' के जन्मदाता एस.सी.बेदी के नये उपन्यास प्रकाशित किये। एस. सी. बेदी एक लंबे समय से उपन्यास क्षेत्र से बाहर थे।

सूरज पॉकेट बुक्स से नये लेखक अमित श्रीवास्तव, मोहन मौर्य, मिथिलेश गुप्ता, देवेन पाण्डेय जी आदि सामने आये तो वहीं पाठकों की मांग को देखते हुए उन्होंने पुराने लेखकों भी प्रकाशित किया।
            सूरज पॉकेट बुक्स के सहयोगी मिथिलेश गुप्ता जी कहते हैं की "सोशल मीडिया ने उपन्यास संसार को नये पाठक दिये और पाठकों की मांग पर ही हमने परशुराम शर्मा, वेदप्रकाश कांबोज और अनिल मोहन आदि को पुन: प्रकाशित किया।"
        यह सब बदलते समय और बढते उपन्यास पाठकों का ही प्रभाव था की एक के बाद एक नये लेखक सामने आते गये और पुराने लेखकों के उपन्यास भी पुन: प्रकाशित होने लगे।
इसी समय उपन्यास जगत के वीकीपिड़िया कहे जाने वाले आबिद रिजवी साहब का उपन्यास 'मेरी‌ मदहोशी के दुश्मन' (रिप्रिंट) रवि पॉकेट बुक्स से आया और लगभग दस वर्ष पश्चात एक्शन लेखिका गजाला करीम ने भी अपने उपन्यास 'वन्स एगेन' उपन्यास जगत में पुन: पदार्पण किया।

        उपन्यास बाजार को पुन: पलवित होते हुए देखकर राजा पॉकेट बुक्स ने भी लगभग दस वर्ष पश्चात टाइगर का एक पूर्व घोषित उपन्यास 'मिशन आश्रम वाला बाबा' प्रकाशित किया और आगे एक उपन्यास 'मिशन सफेद कोट' की घोषणा भी की।

          पाठकों के प्रेम को देखते हुए प्रतिष्ठित लेखक वेदप्रकाश कांबोज जी ने भी अपने उपन्यासों को पुन: बाजार में उतारा। जिसे पाठकों ने हाथो-हाथ लिया। वेदप्रकाश कांबोज जी चाहे नये जासूसी उपन्यास नहीं लिखे लेकिन पुराने उपन्यासों का पुन: प्रकाशन एक नये आरम्भ का सुखद संकेत तो है। कांबोज जी का सूरज पॉकेट बुक्स और गुल्ली बाबा पब्लिकेशन से प्रकाशित होना और विश्व पुस्तक मेले में उपन्यास का विमोचन होना इस बात को प्रमाणित करता है की जासूसी उपन्यासों का सुनहरा समय लौट रहा है। लेखक अनुराग कुमार जीनियस कहते हैं -"वास्तव में पाठकवर्ग पुनः सक्रिय हुआ है। उपन्यास का दौर लौट रहा है। लेकिन इसकी रफ्तार अभी धीमी है।"

            समय के साथ पाठकवर्ग पुन: उपन्यासों की तरफ आकृष्ट हुआ, यह रूझान चाहे लेखक और प्रकाशक को लाभ देने वाला तो नहीं था लेकिन संतोषजनक अवश्य था। जहां पाठक को नये उपन्यास मिल जाते हैं वहीं लेखक को इतनी संतुष्टि है की वह अपने लेखन को जीवित रख रहा है। मात्र जीवित ही नहीं ईबुक के माध्यम से कुछ हद तक आमदनी भी करता है।

           अगर आने वाले समय में कुछ और लेखकों के जासूसी उपन्यास बाजार में आ जाये तो कोई अचरज नहीं होगा। यह एक अच्छी पहल है और उम्मीद है यह पहल एक सार्थक मुकाम तक पहुंचे।

           उपन्यास साहित्य का दौर वापस लौट रहा है तो इसके कई कारण रहे हैं। अब लेखक अपने नाम के साथ सैल्फ पब्लिकेशन कर सकता है। ईबुक ने तो इस साहित्य की धारा को एक नया रास्ता दिया है। जहाँ लेखक अपनी किताब का स्वयं प्रकाशक है। संतोष पाठक, चन्द्रप्रकाश पाण्डेय और राजीव कुलश्रेष्ठ और विपिन तिवारी जैसे कई लेखकों का आरम्भ ही ईबुक से हुआ है। यह ईबुक की लोकप्रियता थी, जिसे देखकर सूरज पॉकेट बुक्स ने चन्द्रप्रकाश पाण्डेय और संतोष पाठक को हार्डकाॅपी में प्रकाशित किया वहीं राजीव कुलश्रेष्ठ अपनी ईबुक से ही प्रसन्न हैं। वे कहते है की मुझे नये पाठक और आमदनी इसी से हो जाती है।

अनिल गर्ग, विकास भंटी, विजय सरकार, साग्नि पाठक, कमल कांत और के. सिंह आदि ऐसे नाम है जो ईबुक के क्षेत्र में काफी चर्चित रहे हैं।
            संतोष पाठक जी कहते हैं- "जासूसी उपन्यासों का दौर लौट रहा है इसलिए लौट रहा है क्योंकि आज सैल्फ पब्लिशिंग जैसी सुविधाएं सहज ही उपलब्ध हैं। लिहाजा किसी लेखक के लिए अपने लिखे को प्रकाशित करा पाना बेहद आसान काम साबित हो रहा है। "
               यह तो तय है की बदलते ट्रेड ने नये पाठक पैदा किये हैं। ईबुक से भी आगे एक नये ट्रेड आडियो बुक्स का भी आ रहा है। मिथिलेश गुप्ता जी कहते हैं की -"मेरे उपन्यास को पढने से ज्यादा सुना गया है।"
जासूसी उपन्यास के पाठक अवश्य लौट रहे हैं‌ लेकिन वे हाॅर्डकाॅपी के साथ-साथ अन्य माध्यमों से लौट रहे हैं।

          इसी समय एक और ट्रेड चला वह है उपन्यास संग्रहण का। उपन्यास जगत में सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जी को छोड़ कर किसी भी लेखक के पास स्वयं के उपन्यास तक न थे। लेकिन इस बदलते दौर में कुछ लेखक सक्रिय हुए और अपने उपन्यासों को एकत्र करना आरम्भ किया, वही पाठकवर्ग तो पहले से ही उपन्यास संग्रह कर्ता था लेकिन अब इनमें कुछ और वृद्धि हुयी है।

          संतोष पाठक जी का कथन सत्य ही साबित हो रहा है कि अब लेखक स्वयं प्रकाशक बन कर उपन्यास साहित्य के स्तम्भ को मजबूती प्रदान कर रहे हैं। जहां शुभानंद जी ने अपने लेखन का आरम्भ अपनी प्रकाशन संस्था का के आरम्भ से किया तो वहीं लंबे समय तक उपन्यास साहित्य पटल से गायब रहने के पश्चात अमित खान जी ने भी 'बुक कैफे' नाम से अपना प्रकाशन संस्थान आरम्भ कर दिया। विभिन्न प्रकाशन संस्था‌ओं से प्रकाशित होने के बाद संतोष पाठक जी और इकराम फरीदी जी ने भी 'थ्रिल वर्ल्ड' नाम से एक प्रकाशन संस्थान की नींव रखी।

        राजस्थान के जैसलमेर से 'फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशन' ने सन् 2018 में उपन्यास साहित्य में हाॅरर उपन्यासों की कमी को पूरा किया अपने तीसरे सेट तक इनसे अपने पाठकों पर अच्छी पकड़ बना ली।
         नये लेखकों और प्रकाशक संस्थानों का आना यह सुनिश्चित तो करता है की जासूसी उपन्यास जगत का समय पुन: लौट रहा है। अब यह समय कैसा होगा यह लेखकों पर निर्भर करता है की वे पाठकों को क्या देते हैं।
इस क्षेत्र को मजबूत करने के लिए आवश्यक है लेखक वर्ग नये प्रयोग, भाषाशैली और नयी कहानियों के साथ पाठकों को अच्छा मनोरंजन प्रदान करें।
          अभी प्रकाशकों को भी थोड़ा सक्रिय होना होगा। उपन्यास सम्पादन सही ढंग से हो और इसके अलावा यह सुनिश्चित करें कि किताबों की बिक्री ऑनलाइन ऑफलाइन दोनों जगह हो और पुराने उपन्यास भी आसानी से मिले। ईबुक एक अच्छा माध्यम है जहाँ लेखक और प्रकाशक अपने पुराने उपन्यास उपलब्ध करवा सकते हैं।


आदरणीय रमाकांत मिश्र जी, सबा खान, रुनझुन सक्सेना और चन्द्रप्रकाश पाण्डेय जी को पढने के बाद एक नयी उम्मीद कायम होती है की उपन्यास साहित्य में नयी भाषा शैली और प्रयोगशील लेखक भी हैं। प्रयोग आवश्यक हैं, यही प्रयोग इस साहित्य को नया रूप देंगे।

        वर्तमान समय लेखक और पाठकवर्ग के लिए एक अच्छा अवसर लेकर आया है। इस समय चाहे उपन्यास का बाजार सीमित हुआ है लेकिन यह भी तय है जो सार्थक और मौलिक लेखनकर्ता होगा वह पाठकों को प्रभावित करेगा। हार्डकाॅपी के अतिरिक्त बहुत से पाठक ईबुक और आॅडियो के माध्यम से उपन्यास को पढना- सुनना पसंद करते हैं।

अपने समय के चर्चित लेखक द्वय 'धरम-राकेश' जी के उपन्यास भी में पुनः प्रकाशित होकर आ सकते हैं। चर्चित 'हिमालय सीरिज' लिखने वाले बसंत कश्यप जी ने भी आश्वासन दिया की वे अपनी 'हिमालय सीरिज' का पुनः प्रकाशन करवा रहे हैं।
        यह तो तय है की लोकप्रिय उपन्यास साहित्य का समय वापस लौट रहा है। चाहे इसकी गति धीमी हो। वह मात्र हार्डकाॅपी के रूप में ही नहीं बल्कि ईबुक और आॅडियो के माध्यम से भी वापसी कर रहा है। अब जरूरत है तो उपन्यास साहित्य के बाजार को मजबूती प्रदान करने की ताकी यह भविष्य में नये आयाम स्थापित कर सके।

गुरप्रीत सिंह (व्याख्याता)
श्री गंगानगर, राजस्थान

ब्लॉग- www.sahityadesh.blogspot.in
ईमेल- sahityadesh@gmail.com

(यह आलेख एम. इकराम फरीदी जी के उपन्यास 'चैलेंज होटल' में प्रकाशित हुआ था)

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-39,40

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार,भाग -39,40
योगेश मित्तल जी के स्मृति कोष से

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 39
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अगले कुछ दिनों में बस एक विशेष बात हुई ! पिताजी कलकत्ते से हमेशा के लिए दिल्ली आ गये ! कलकत्ते में हमारे घर में जो-जो सामान था, अधिकांश वहीं बेच दिया या मुफ्त में किसी पड़ोसी को दे दिया ! सिर्फ कपड़े और कुछ एक हल्की-फुल्की चीजें साथ ले आये थे, जिनमें शार्प झंकार का वह रेडियो भी था, जो बचपन के दिनों में हमारी सबसे प्रिय वस्तु हुआ करता था !

घर में रेडियो आ गया था, हम सब रेडियो पर फिल्मी गाने व हवामहल जैसे प्रोग्राम सुनना चाहते थे, लेकिन यह सम्भव न हुआ !
मकानमालिक जगदीश गुप्ता ने कहा -"रेडियो चलाओगे तो दस रुपये महीना देने होंगे !"
और दस रुपये उन दिनों बहुत होते थे ! 
पास ही के एक जाट रणवीर सिंह की गाय-भैंस के दूध की डेयरी से घर की चाय के लिए दूध लाया जाता था और सबके सामने रणवीर सिंह दूध दुह कर बेचा करता था, वह दूध उन दिनों पचास पैसे किलो होता था !

पिताजी डाॅक्टर थे ! बहुत भाग-दौड़ करने पर शीला सिनेमा टाकीज, पहाड़गंज, नई दिल्ली स्टेशन के पीछे जा रही एक सड़क पर उन्हें एक छोटी-सी दुकान किराए पर मिल गयी, जहाँ उन्होंने अपना क्लिनिक खोल लिया !
वे दिन हमारी आर्थिक परेशानियों के बड़े भारी दिन थे ! 
हम जगदीश गुप्ता के जिस मकान में किराए पर रह रहे थे, उससे पहले हम वहीं आगे की एक गली में सरदार जीतसिंह के मकान में रह चुके थे ! तब सरदार जीतसिंह के बच्चों बिमला, कान्ता और काले को मैं पढ़ाया भी करता था !
सरदार जीतसिंह के मकान के बिल्कुल साथ वाला मकान एक मुल्तानी विधवा का था, जिनके चार बच्चे थे ! सबसे बड़ी इन्दिरा दीदी, उनसे छोटा राम, उससे छोटा किशोर और सबसे छोटी बेबी ! 

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 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...