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शुक्रवार, 14 जून 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-35,36

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 35
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राज भारती जी और यशपाल वालिया ने मेरा और बिमल का सहज स्वागत किया !
फोल्डिंग कुर्सी बिछाकर हम दोनों जम गये तो राज भारती जी ने बिमल से पूछा -"स्क्रिप्ट तैयार है तेरी ?"
"हाँ, लेकर आया हूँ !" बिमल ने कहा ! किन्तु सवाल मुझसे तो किया ही नहीं गया था ! मैं खुद टपक पड़ा जवाब देने को, बोला - "मैं भी लाया हूँ !"
"अच्छा...!" जवाबी आवाज यशपाल वालिया की थी, जो नाटकीय अन्दाज़ में कुर्सी से उठकर खड़े हुए और ऊपर से नीचे मुझे देख, भारती साहब से पंजाबी में बोले -"आपने इधर तो देखा ही नहीं ! इधर भी देख लो ! योगेश जी भी आये हैं ! स्क्रिप्ट भी लाये हैं !"
फिर वालिया साहब बिमल से बोले -"ये क्या मोटे ? तूने अपनी कुर्सी तो भारती साहब के पास रख ली, योगेश जी को पीछे छिपा दिया !"

बिमल थोड़े भारी शरीर के स्वामी थे, लेकिन उन्हें लेखकीय व प्रकाशकीय जगत में पहली बार "मोटे" यशपाल वालिया ने ही कहा था ! बाद में यह सम्बोधन बहुतों से मिला ! बिमल की कुर्सी भारती साहब की कुर्सी के साथ ही थी, मेरी उनके पीछे वालिया साहब के निकट ! उसी पर वालिया साहब ने 'जोक' मारा था !

"लो योगेश जी, आप इधर आओ !" बिमल हँसते हुए झट कुर्सी से उठ गये और मेरे 'नहीं-नहीं' मना करते-करते भी मुझे मेरी कुर्सी से उठा, अपनी कुर्सी पर बैठा दिया !
"तू भी स्क्रिप्ट लाया है ?" राज भारती जी ने अपनी गोल्डन जुबली मुस्कान बिखेरते हुए मेरे चेहरे पर नज़र गड़ा दी !
"हाँ !" मैंने झट से कन्धे पर टँगे अपने थैले से 'जगत के दुश्मन' की पाण्डुलिपि निकाल राज भारती जी के सामने टेबल पर रख दी !

वालिया साहब और बिमल के चेहरों पर उस वक्त बहुत तेज मुस्कान लरज़ उठी थी, पर मेरी निगाह राज भारती जी पर थी !
"मैं क्या करूँ इसका ?" भारती साहब बोले तो मैं एकदम सिटपिटा गया !
"जी  वो.... जी वो..!" मैं हकलाता नहीं हूँ, पर उस समय हकलाने लगा था !

तभी यशपाल वालिया पंजाबी मिश्रित हिंदी में बोले- "पढ़ो तुस्सी ! इतनी बढ़िया स्क्रिप्ट है ! पढ़कर त्वानुँ भी कुछ आइडिया आयेगा !"
राज भारती जी हँसे और वह भी पंजाबी में वालिया साहब से बोले -"तूने पढ़ भी ली ! बिना देखे !”
"आहो !" वालिया साहब ने कुर्सी से आगे होकर मेरे चेहरे तक हाथ बढ़ाया और मेरा चेहरा भारती साहब की तरफ टेढ़ा कर दिया तथा पंजाबी में कहा -"आपको योगेश जी के चेहरे पर सच्चाई नजर नहीं आ रही ! इतने सच्चे बच्चे ने स्क्रिप्ट लिखी है तो अच्छी तो होगी !"
"बच्चा किसे कह रहा है ?" राज भारती जी ने पंजाबी में ही वालिया साहब से सवाल किया, फिर मेरी ओर घूम सवाल किया -"जगत के दुश्मन' है ना ?"
"हाँ !" मैंने कहा ! सामने रखी स्क्रिप्ट के सबसे ऊपरी पेज पर यह नाम लिखा भी हुआ था !
"इसमें रोमांस भी डाला है या नहीं ?"
"डाला है !"
"ले...!" राज भारती यशपाल वालिया से पंजाबी में बोले -"रोमांस लिखते-लिखते कई बार नाइटफाल हो जाता है और तू योगेश जी को बच्चा कह रहा है !"
"हैं योगेश जी ! ऐसा ?" वालिया साहब चेहरा टेबल के ऊपर से मेरी तरफ करीब लाये, तभी बिमल चटर्जी का हाथ मैंने अपनी पीठ पर महसूस किया ! मुँह बिमल की ओर घुमाया तो बिमल मुस्कुराते हुए बोले -"आपकी खिंचाई कर रहे हैं ! अभी ये आपको अच्छी तरह जानते नहीं है ना ?"

उस समय मैं कुछ-कुछ बौखलाया हुआ था, लेकिन पीठ पर बिमल का हाथ जो आया तो चेहरे पर बहुत तेज हँसी उभरी ! तुरन्त भारती साहब और वालिया साहब से सम्बोधित हुआ -"आपलोग मेरा नाॅवल दिन में ही पढ़ियेगा !"

उसके बाद जो ठहाका उभरा, उसमें बिमल, यशपाल वालिया और राज भारती जी, तीनों की हँसी शामिल थी !
खैर हँसी-मजाक के दौर के बाद वार्तालाप का दौर जब शुरु हुआ तो पता चला कि गुप्ताजी तो हाथरस गये हुए हैं !

उन दिनों मैं अक्सर बहुत कुछ बिना सोचे-समझे बोल देता था ! जब भारती साहब ने बताया कि गुप्ताजी हाथरस गये हैं तो बिना सोचे-समझे बोल उठा -"हाथरस में तो काका हाथरसी भी रहते हैं ना ?"
"बिल्कुल ! उन्हीं को लाने के लिए तो हाथरस गये हैं गुप्ताजी !" वालिया साहब एकदम बोल पड़े ! बिमल चटर्जी और राज भारती जी ठठाकर हँस पड़े और मैं एकदम चुप सा हो सोचने लगा कि मैंने हँसी वाली कौन सी बात कह दी है !

खैर, मैंने और बिमल ने भी अपनी-अपनी स्क्रिप्ट राज भारती जी के हवाले कर दी, जिसे उन्होंने सम्भाल कर यथोचित जगह रख दिया !
तभी पण्डित जी ने आॅफिस में आकर पूछा -"चाय-वाय मँगवानी है क्या ?"
भारती साहब ने हामी भर दी और फिर चाय का दौर चला ! चाय का दौर ख़त्म हुआ तो  बिमल और मैंने सोचा कि अब हमें चलना चाहिए ! यह हम दोनों ही समझ गये थे कि स्क्रिप्ट की पेमेन्ट गुप्ता जी के आने पर ही मिलेगी !
"हम लोग चलते हैं भारती साहब !" बिमल उठते हुए बोले तो मैं भी उठ खड़ा हुआ !
"अभी से....!" राज भारती जी बोले, फिर उन्होंने एक शायराना अन्दाज में एक लाइन बोली –
"अभी आये, अभी बैठे, अभी दामन सम्भाला है !"
"तुम्हारी 'जाऊँ-जाऊँ ने हमारा दम निकाला है !"
दूसरी लाइन यशपाल वालिया ने पूरी की !
उन दिनों राज भारती और यशपाल वालिया दोनों की जुबाँ पर चुनिन्दा शेर रहते थे ! बात-बात पर वह शेर सुना देते थे, लेकिन वक्त के साथ धीरे-धीरे उनकी यह आदत न जाने क्यों फना हो गई !
जहाँ तक मैं समझता हूँ और बाद में…क्रमशः यशपाल वालिया और राज भारती के बेहद करीबी होने पर जाना और समझा, पारिवारिक जिम्मेदारियों और आर्थिक स्थिति के डाँवाडोल होने के कारण ही ऐसा हुआ होगा, लेकिन दोनों की ही खुशमिजाज़ी बाद के दिनों में भी कायम रही और अन्तिम दिनों तक रही !
बहरहाल वालिया साहब द्वारा शेर पूरा करने के बाद राज भारती जी ने मुझे और बिमल दोनों को झिड़की दी और हाथ से बैठने का इशारा किया -"बैठो !"
हम दोनों बैठ गये ! फिर भारती साहब ने पण्डित जी की ओर दस का नोट बढ़ाकर कुछ भुजिया और आलू चिप्स लाने को कहा !
पण्डित जी गये तो मैं सोचने लगा कि चाय तो हम पी चुके, अब नमकीन मँगाने का क्या फायदा !
नमकीन आ गई तो भारती साहब और वालिया साहब उठकर अन्दर वाले कमरे में चले गये, जिसके पीछे का आधा हिस्सा किताबों के बण्डलों से भरा था ! आगे के हिस्से में उस समय एक मोटी दरी बिछी थी !
मैं और बिमल भी भारती साहब और वालिया साहब के पीछे-पीछे चल, दरी पर बैठ गये ! तब वालिया साहब ने वहीं कहीं छिपाई हुई एक बोतल निकाली !
मैं समझ गया कि अब शराब का दौर चलेगा, इसलिए एकदम बोल उठा - मैं नहीं पियूँगा !"
"तुझे दे कौन रहा है !" राज भारती मुस्कुराते हुए बोले -"हम बच्चों की आदत नहीं खराब करते !"
"वैसे भी एक बोतल में हमारा कुछ नहीं होना, आपको भी शेयर दिया तो हम तो प्यासे रह जायेंगे !" वालिया साहब मेरे सिर के बालों पर हाथ फेरते हुए बोले !
वालिया साहब का बालों पर हाथ फेरना मुझे बहुत बुरा लगा, क्योंकि उन दिनों मैं देवआनन्द जैसे आगे से ऊपर उठाकर फुलाये हुए बाल काढ़ता था और उन्हें अच्छी तरह सैट करने में मुझे काफी वक्त लगता था !
खैर, महफिल सज गई !
सजाने में पण्डित जी ने अपना पूरा योगदान दिया ! पाँच गिलास भी आ गये ! पानी से भरा जग भी आ गया और तब जब अचानक यशपाल वालिया ने बोतल का ढक्कन घुमाकर सील तोड़ दी और बोतल खोल दी, राज भारती एकदम पंजाबी टोन में बोले - "रुक जा ! रुक जा !"
भारती साहब और वालिया साहब हमेशा पंजाबी अथवा पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बात करते थे !
वालिया साहब ने बोतल का ढक्कन फिर से टाइट कर दिया और पूछा -"हुण की होया ?"
"ऐसे अच्छा नहीं लगेगा ! हमलोग पैग उड़ायें और योगेश जी सूखे रह जायें !" राज भारती जी ने कहा !
उस समय तक प्रकाशन जगत से जुड़े लेखक प्रकाशक सभी लोग मुझे 'योगेश जी' कहते थे ! केवल भारती साहब ही ऐसे थे - जिन्होंने मुझे शुरु से ही योगेश कहकर सम्बोधित किया, लेकिन खास मौकों पर व्यंग अथवा मजाक के मूड में होने पर वह भी 'जी' लगा देते थे !
"योगेश जी !" यशपाल वालिया ने मेरी ओर देखते हुए जोर की हाँक लगाई -"एक छोटा-सा पैग ले लो ! देखो, भारती साहब कितने उदास हो रहे हैं !"
"नहीं, बिल्कुल नहीं ! मैं छुऊँगा भी नहीं !" मैं एकदम तेजी से बोला !
"अच्छा, मत छुइयो !" भारती साहब कोमल स्वर में बोले -"कोकाकोला या ओरेन्ज जूस तो पी लेगा ना ?"
मैं कुछ नहीं बोला ! पर सच कहूँ - उस समय मेरा मन चाह रहा था कि हाँ, मँगा लें ! मेरे लिए भी कुछ मँगा लें ! खाने-पीने की चीजों के लिए उन दिनों कभी-कभी मन में बहुत लालच आता था !
भारती साहब ने पण्डित जी को भेजकर कोल्ड ड्रिंक्स की कुछ बोतलें भी मँगा लीं !
मेरे गिलास में कोल्ड ड्रिंक और बाकी गिलासों में व्हिस्की के पैग बनाये गये ! उस दिन मुझे पता चला कि पण्डित जी गुप्ता जी की गैरमौजूदगी में कभी-कभी हल्का-सा पैग मार लेते हैं ! वह एक ही पैग में महफिल का अन्त तक साथ देते थे ! अधिकांशतः वह शराब को हाथ भी नहीं लगाते थे, किन्तु उनके कभी-कभी पीने के सीक्रेट को भारती साहब ने कभी आम नहीं होने दिया !
दूसरा पैग तैयार करने के बाद यशपाल वालिया मुझ से बोले -"योगेश जी, कुछ हो जाये ! कोई कविता कोई शेर सुना दो !"
"मैं...!" मैंने इन्कार में सिर हिलाया तो यशपाल वालिया तुनक गये -"यार, हम तो आपसे प्यार से रिक्वेस्ट कर रहे हैं और आप नखरे कर रहे हो ! पार्टी मैनर्स भी होते हैं ! मना भी करना हो तो बड़ी नज़ाकत से, मोहब्बत से किया जाता है !" और फिर वालिया साहब बिमल की ओर घूम गये - "यार, आप ही कुछ सुना दो !"
दूसरे पैग से चुस्की भर रहे बिमल मूड में आ चुके थे ! अधिकांशतः बिमल किशोर कुमार के गाने बहुत बेहतरीन अन्दाज़ में गाते थे, लेकिन उस दिन बिमल जाने किस मूड में आ गये, पहला गाना उन्होंने गाया - 'प्यार की आग में तन-बदन जल गया' और गाने की पँक्तियों में जगह-जगह बिल्कुल मन्ना डे की स्टाइल में आवाज इस तरह खींची कि सब मन्त्रमुग्ध हो गये ! एक सन्नाटा सा छा गया !

गाना खत्म होने पर तालियों की शुरुआत भारती साहब और वालिया साहब ने की, मुझे तो उन्हें देखकर ही यह समझ में आया कि मुझे भी तालियाँ बजानी चाहिये !

"बहुत कमाल का गाता है तू !" तालियाँ बजाने के बाद राज भारती जी बोले -"ख्वामखाह राइटर बन गया ! बम्बई चला जाता तो अब तक दस-बीस फिल्मों में प्लेबैक दे लेता !"

बिमल हँस पड़े !

उन्हें हँसता देख यशपाल वालिया ने तुरन्त कहा -"हँसो मत बिमल ! वाकई बहुत ही खूबसूरत आवाज है तुम्हारी और ये जो तुमने मन्ना डे का गाना गाया है ना ! बिल्कुल भी आसान गाना नहीं है, लेकिन तुमने वाकई बहुत खूबसूरत गाया है !"
"अच्छा ! अब पैग खत्म कर !"  राज भारती जी ने बिमल से कहा ! बिमल ने पैग खत्म किया तो तीसरा पैग तैयार किया गया !
तब पण्डित जी का पहला ही पैग भरा हुआ था और मेरा कोल्ड ड्रिंक भी गिलास में आधे से ज्यादा था ! भुजिया और आलू चिप्स सामने थे ! हम सब बीच-बीच में उनका स्वाद भी ले रहे थे ! तीसरा पैग खत्म होते-होते राज भारती जी ने बिमल से कहा - "यार, एक गाना और हो जाये !"

राज भारती साहब की फरमाइश और बिमल इन्कार कर दें, ऐसा न तो तब हुआ, ना ही बाद में कभी, मगर उस समय बिमल ने जो गाना गाया ! कमाल का गाया और एक साथ दो-दो आवाजें मुँह से निकालते हुए स्त्री-पुरुष की आवाज में गाया !

गाना था - "कज़रा मोहब्बत वाला, अँखियों में ऐसा डाला, कजरे ने ले ली मेरी जान !
और गाने की तीसरी-चौथी लाइन आते-आते यशपाल वालिया ने राज भारती जी का हाथ थामा और खुद तो खड़े हुए, भारती साहब को भी खड़ा कर दिया और पैग सम्भाले-सम्भाले जो डाँस किया ! कमाल कर दिया ! वालिया साहब ने एक बार आधा पैग भरा गिलास नाचते-नाचते सिर पर भी रख लिया !

क्या गाना गाया था बिमल ने और क्या डाँस किया था वालिया साहब और भारती साहब ने ! काश, उन दिनों मोबाइल होते और उनकी वीडियो मैं आप सबको दिखा पाता, लेकिन मेरी आँखों के सामने वो सारे दृश्य आज भी जिन्दा हैं !

(अभी और है)

डाँस के बाद भी पार्टी पूरी तरह खत्म नहीं हुई ! बाद में हम सब ने खाना भी एक साथ ही खाया, जहाँ खाया - वहाँ के जलवे अगली किश्त में !

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दोस्तों,
सुबह पांच से छह बजे के बीच उठने और रात आईपीएल के बाद सोने के बीच का - यानी दिन का वक्त पूरी तरह कुछ न कुछ करते ही बीतता है ! कभी-कभी लिखने के लिए टाइम एडजस्ट नहीं हो पाता, पर यह सफर जारी रहेगा ! मेरे सारे काम थकाने वाले होते हैं, जैसे फोटोकॉपी, लेमिनेशन, स्पाइरल बाइंडिंग आदि ! एक लिखना ही ऐसा काम है, जो मुझे कभी नहीं थकाता, लेकिन इसके लिए कभी-कभी समय ही नहीं निकाल पाता ! आशा है आप अपना स्नेह बनाये रखेंगे !

योगेश मित्तल

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-36

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 36
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जब तक बिमल का गाना चलता रहा, सामने बैठे पण्डितजी का सिर भी दायें-बायें हिलता रहा !

आखिर बिमल चटर्जी का सुर शान्त हुआ तो राज भारती और यशपाल वालिया के कदम भी स्थिर हो गये ! दोनों अपने-अपने स्थान पर बैठ गये !

"वाह भई वाह ! मजा आ गया !" राज भारती जी बोले !
"बि.....मल....! यार तेरी आवाज में तो जादू है जादू !" यशपाल वालिया ने भी कहा !

बिमल मुस्कुराने लगे ! 

"सच ! लालाराम होता तो और भी मजा आता ! किस्मत खराब है उसकी !" भारती साहब बोले !
"किस्मत क्यों खराब है !" वालिया साहब ने कहा -"गुप्ता जी आयेंगे तो फिर एक पार्टी हो जायेगी ! क्यों बिमल ?"
आखिरी दो शब्द बिमल चटर्जी से सम्बोधित थे !
जवाब में बिमल ने फिर से मुँह बन्द किये मुस्कान बिखेर दी ! 

खैर बोतल में बची शराब को वालिया साहब ने आखिरी पैग के रूप में तीन गिलासों में डाल खत्म कर दिया !
"अब तुसी सुनाओ कुछ !" यशपाल वालिया ने भारती साहब से कहा !
"नहीं, पहले तू सुना...!" राज भारती बोले !
खैर, कुछ देर पहले तू-पहले तू के बाद वालिया साहब ने ही मुँह खोला और एक फिल्मी गाना सुनाना शुरु किया, लेकिन दो लाइन सुनाकर वह बोले -"बस, मेरे बस का नहीं है ! मैं कोई मुहम्मद रफी हूँ !"
"तो क्या आपने मुझे किशोर कुमार समझ लिया था ? भई वालिया साहब, यह बात गलत है ! इतना अच्छा तो गा रहे थे आप ?" बिमल चटर्जी ने यशपाल वालिया की पीठ थपथपाई तो यशपाल वालिया ने नशे में होने की एक्टिंग की और आखें चढ़ाकर बोले -"नहीं बिमल, ये गाना-वाना मेरे बस का नहीं है ! पर असी पंजाबी हैं ! भांगड़ा जरूर पा सकदे हैं !"
"ठीक है ! आप भांगड़ा ही दिखा दो !" बिमल बोले !
"पागल हुआ है ! न ढोल - न नगाड़ा ! भांगड़ा क्या ऐसे ही होता है !" यशपाल वालिया जोर से बोले ! फिर राज भारती जी की ओर घूमकर पंजाबी में बोले -"आप ही सुना दो कुछ !"
"मैं क्या सुनाऊँ ? तू मुहम्मद रफी नहीं है ! मैं मन्ना डे नहीं हूँ ! बस, अपना बिमल जरूर मुहम्मद रफी-मन्ना डे-किशोर कुमार है ! यही सुनाएगा !" राज भारती बोले !

सुनाओ-सुनाओ की गुफ्तगू में मुझे भी पता नहीं कैसे जोश आ गया और बोल पड़ा -"मैं सुनाऊँ ?"
मेरा इरादा अपनी ही कोई तुकबन्दी सुनाने का था, लेकिन मेरे मुँह से 'सुनाऊँ' सुनते ही यशपाल वालिया उखड़ गये, बोले -"नही, बिल्कुल नहीं ! आप जैसे नखरैले से कुछ नहीं सुनना ! जब हम रिक्वेस्ट कर रहे थे ! आप नखरे दिखा रहे थे !"
"सुनाने दे !" भारती साहब मेरे समर्थन में, साथ देते हुए बोले-"नया-नया जवान - शुरु-शुरु में लड़कियों की तरह शरमाता ही है ! बाद में जोश में आता है !"
"तो जोश में आ गये हो योगेशजी ?" यशपाल वालिया ने अपनी निगाहें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं !

मैंने नज़रें झुका लीं ! कोई जवाब नहीं दिया !

यशपाल वालिया दरियादिली दिखाते हुए फिर भारती साहब से पंजाबी में बोले -"ठीक है, हम योगेशजी को भी सुन लेंगे, पर पहले विजय द ग्रेट की झकझकी हो जाये !"
"ठीक है !" भारती साहब ने कोई तुकबन्दी सी झकझकी सुनाई ! कुछ लाइनें सुनाकर वह चुप हो गये ! पर कोई ताली न बजी, किसी ने वाह-वाह नहीं कहा तो वह खुद ही तालियाँ बजाते हुए 'वाह-वाह' करने लगे !

"क्या हुआ ? झकझकी खत्म हो गई ?" वालिया साहब ने भी तालियों में भारती साहब का साथ देते हुए पूछा !
"और...!" राज भारती जी पंजाबी टोन में बोले !
"पर मतलब तो कुछ निकला नहीं !" यशपाल वालिया एक हाथ से सिर खुजाते हुए बोले !
तब भारती साहब पंजाबी में बोले -"साडी झकझकी वेद प्रकाश काम्बोज जैसी नहीं होती, जिसका कोई मतलब भी हो ! साडी झकझकी बेमतलब होन्दी है ! लोगों के सिर के ऊपर से गुजर जान्दी है !"
"मजा नहीं आया ?" यशपाल वालिया ने कहा ! फिर बिमल से समर्थन माँगते हुए पूछा -"बिमल, तू बता, भारती साहब की झकझकी कोई झकझकी थी ?"
"झकझकी तो थी !" बिमल ने मुस्कुराते हुए कहा -"बहुत ऊँचे दर्जे की थी ! इसलिए हमें और आपको समझ में नहीं आई !"
"आगे से मैं अपने उपन्यासों में झकझकी रखूँगा ही नहीं !" भारती साहब कृत्रिम नाराजगी दिखाते हुए बोले !
"फिर क्या रखोगे ?" यशपाल वालिया ने पंजाबी में पूछा -"विजय द ग्रेट - बिना झकझकी के ! बात जमेगी नहीं !"
"कोई गल्ल नहीं ! बात जमाने के लिए तुम काम्बोज का नाॅवल पढ़ लेना !" राज भारती जी ने कहा ! फिर मेरी तरफ देखते हुए बोले -"झकझकी बनाने के लिए पहले सोचना पड़ता है ! मूड बनाना पड़ता है ! दारू के नशे में झकझकी सुनोगे तो ऐसी ही सुननी पड़ेगी ! तू सुना योगेश ! क्या सुना रहा है ?"

राज भारती और यशपाल वालिया में अक्सर मीठी नोंक-झोंक, चुहुलबाज़ी चलती रहती थी ! यह मुझे बहुत बाद में समझ आया, जब मैं उनके बेहद करीब हुआ ! 
वालिया साहब भारती साहब की और भारती साहब वालिया साहब की अक्सर खिंचाई करते रहते थे, लेकिन दोनों ही एक दूसरे की बेहद इज्जत करते थे ! 

खैर, उस दिन जब भारती साहब ने मुझसे कुछ सुनाने को कहा, अपनी लिखी पँक्तियाँ सुनाने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई ! मैं यह सोचकर ही घबरा गया था कि जब वालिया साहब ने भारती साहब को नहीं बख्शा तो मेरा तो पता नहीं क्या हाल करेंगे !
इसलिए उस दिन मैंने गालिब, जौक, मीर तकी मीर आदि जाने-माने शायरों के कुछ शेर सुनाए और विविध भारती के किसी प्रोग्राम में सुना मधुकर राजस्थानी का मुहम्मद रफ़ी द्वारा गाया यह गीत सुनाया -
"प्याले से अधर मिले, मधुशाला झूम गई ! 
दीवाने के होठों को एक बाला चूम गई !"

उन दिनों यह गीत मुझे बहुत पसन्द था और पूरा याद था !

आखिरी पैग का दौर देर तक चला ! सबने एक-एक सिप लेकर बड़े आराम-आराम से अपना-अपना पैग खत्म किया !
उसके बाद हम लोगों के बीच अपने-अपने उपन्यासों की चर्चा होती रही !
तब तक अन्धेरा घिरने लगा था ! समय शाम के सात बजे से अधिक हो चुका था !
बिमल चटर्जी मेरे कान में धीरे से फुसफुसाये -"योगेश जी, अब हमें चलना चाहिये !"
"हाँ ! बहुत देर हो गई है !" मैंने भी कहा !
"यह खुसर-फुसर क्यों हो रही है ?" तभी यशपाल वालिया ने मेरी गुद्दी सहलाते हुए पूछा !
"हम लोग चलेंगे वालिया साहब !" जवाब बिमल चटर्जी ने दिया !
"अभी से... अभी तो मोतीमहल में खाना भी खाना है ! आज की पार्टी भारती साहब दे रहे हैं !" यशपाल वालिया ने कहा !
भारती साहब हँस दिये ! 
फिर हम सब साथ ही साथ उठे ! वालिया साहब ने पण्डितजी से कहा -"पण्डितजी, आप भी चलो !"
"नहीं ! मुझे तो नशा हो रहा है ! और मेरी रोटी तो कब की घर पर बन भी गई होगी !" पण्डित जी ने कहा !

हम सब लोग भारती पाॅकेट बुक्स के आॅफिस से बाहर निकले तो पण्डितजी सारी लाइट्स बन्द कर, मुख्य द्वार को ताला लगा, अपने घर की ओर बढ़ गये ! 

हम सब हिम्मतगढ़ की ओर से बाहर आसफ अली रोड पर आ गये !

तुर्कमान गेट तक हम चारों शाम की ठण्डी हवा खाते, पैदल चलते रहे, फिर जाकर दो रिक्शे मिले ! 

मैं बिमल चटर्जी के साथ बैठना चाहता था, लेकिन यशपाल वालिया ने एक रिक्शे पर बैठते हुए मेरा हाथ पकड़ मुझे ऊपर खींच लिया -"आप कहाँ जा रहे हो ? आपसे तो बहुत सारी बातें करनी हैं ! बिमल को बैठने दो  भारती साहब के साथ ?"
मैं मन मसोस कर रह गया !
"क्या हुआ योगेश जी ?" यशपाल वालिया ने अपना एक हाथ मेरे कन्धे पर ले जाते हुए कहा !
"नहीं, कुछ नहीं !" मैं एकदम बोला तो वालिया साहब का हाथ फिर मेरी गुद्दी पर पहुँच बालों को सहलाने लगा और वह बोले -"आप घबरा तो नहीं रहे ?"
"नहीं-नहीं !" मैंने कहा ! पर सच तो यह है कि उस समय यशपाल वालिया के साथ रिक्शे पर बैठना मुझे बेहद अखर रहा था !

"गोलचा !" दोनों रिक्शेवालों को 'कहाँ चलना है' भारती साहब ने ही बताया और दोनों रिक्शे आगे-पीछे दौड़ने लगे थे !

रास्ते में वालिया साहब ने मुझसे विशेष बातचीत नहीं की !
गोलचा पहुँच हम रिक्शे से उतरे ! दोनों रिक्शों का किराया राज भारती जी ने ही अदा किया ! फिर उन्हीं के नेतृत्व में हम दरियागंज के गोलचा सिनेमा के निकट ही स्थित मोतीमहल रेस्टोरेन्ट की ओर बढ़ गये, किन्तु वहाँ गेट पर खड़े दरबान ने रोक दिया और बताया कि अन्दर जगह नहीं है !
उन दिनों मोतीमहल के आस-पास एक और रेस्टोरेन्ट था !
भारती साहब हमें वहाँ ले गये !

उस रेस्टोरेन्ट में प्रवेश करते ही मुझे लगा, जैसे स्वर्ग में आ गया हूँ ! 
हर टेबल के इर्द-गिर्द चार कुर्सियाँ थीं ! हमने एक खाली टेबल पर अधिकार किया !
लेकिन रेस्टोरेन्ट की सबसे खूबसूरत बात यह थी कि सामने एक स्टेज बनी हुई थी और उसके बीचोंबीच एक बेहद खूबसूरत औरत अत्यन्त शानदार साड़ी-ब्लाऊज में सजी-धजी बैठी थी ! हमें सिर्फ उसका खूबसूरत चेहरा ही नज़र आ रहा था ! वह सुरैया की गाई फिल्म मिर्ज़ा गालिब की गजल - 'ये न थी हमारी किस्मत के विसाले यार होता' गा रही थी !
उसके इर्द-गिर्द हारमोनियम, तबला. ढोलक आदि बजाने वाले साजिंदे भी बैठे हुए थे !   
मेरे लिए ऐसे किसी रेस्टोरेन्ट में आने का वह पहला अवसर था ! मैं मन्त्रमुग्ध हो उस बेहद खूबसूरत गायिका को देखता रहा, मुझे पता भी नहीं चला कि कब वेटर आया, कब आर्डर ले गया और कब टेबल पर खाना आ गया !
मैं चौंका तब, जब वालिया साहब की तेज आवाज कानों में पड़ी -"क्यों योगेश जी ! पसन्द आ गई क्या ?"
"हैं...!" मेरे मुँह से 'हैैं' निकलते ही एक जोरदार ठहाका बिमल, वालिया साहब और भारती साहब तीनों के मुँह से उभरा !
"बात चलायें क्या ?" यशपाल वालिया ने पूछा !
"क्या ?" मैं कुछ न समझ सिटपिटाया !
"क्यों ? शादी नहीं करनी है क्या ?" वालिया साहब बोले ! फिर दाँये हाथ की तर्जनी अपनी, बिमल और भारती साहब की ओर उठाते हुए बोले -"भई, हम तीनों की तो हो चुकी है ! बचे आप, गानेवाली भी खूबसूरत है ! आपको पसन्द भी आ गई है ! बात करते हैं ! मान गई तो ठीक, वरना कोई दूसरी ढूँढेंगे !"
"धत्त !" मेरे मुँह से उस समय यही एक शब्द निकला ! मैं सचमुच शरमा भी गया था ! चेहरे पर शर्मीली मुस्कान लरज़ उठी थी ! आँखें झुक गईं थीं !
वालिया साहब ने मजाक उड़ाया -"आप तो लड़कियों की तरह शरमा रहे हो ! मुझसे या बिमल से पूछकर देखो ! एक बीवी के होते हुए भी 'हाँ' कर देंगे !"
"तो ठीक है ! आप अपनी बात कर लो !" मैं साहस दिखाते हुए बोला !
"अपनी बात कोई खुद की जाती है ! हमारी बात तो आप करोगे ! हमारी ओर से तो 'हाँ' है !" यशपाल वालिया ने बेहद गम्भीर लहजे में कहा ! तभी राज भारती जी ने बीच में टोककर मेरी जान बचाई ! वह वालिया साहब को डपटते हुए बोले -"क्या फालतू की बातें करके बच्चे को परेशान कर रहा है ! भूख नहीं लग रही तुझे ?"
"भूख तो बड़े जोर की लग रही है !" वालिया साहब ने कहा !
"तो फिर देर किस बात की है ? शुरु करो और टूट पड़ो !" भारती साहब ने कहा !
हम सबने खाना शुरु किया ! उस दौरान वह गायिका, पहला समाप्त कर एक दूसरा गाना आरम्भ कर चुकी थी ! दूसरा गाना था - 'ना मिलता गम तो बरबादी के अफसाने कहाँ जाते ! अगर दुनिया..'

वो गाना बहुत अच्छा और दर्द भरे स्वर में गा रही थी और मैं खाना खाते हुए सोच रहा था -'जरूर यह बहुत दुखी होगी !'
उस समय मुझे वह फिल्मी नायिका सी ही लग रही थी !
गाना खत्म हुआ तो इस बार कई लोगों की 'वन्स मोर' या  'फिर सुनाइये' की आवाजें गूँजीं !
तब खाना खाते-खाते मैंने रेस्टोरेन्ट में चारों तरफ नज़र घुमाई तो पाया कि रेस्टोरेन्ट में खाना खानेवाले मर्द ही मर्द थे ! और उन मर्दों में भी अधिकांश अधेड़ तथा बुजुर्ग लोग थे ! सबसे कम उम्र के लोग हम चार ही थे वहाँ !
खैर, उस गायिका ने लोगों की फरमाइश पर 'फिल्म अमर' का वह गीत दोबारा सुनाया !
उसके बाद उसने बेगम अख्तर का गाया मशहूर गीत - 
'ऐ मोहब्बत तेरे अन्जाम पे रोना आया - 
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया' शुरु किया !
गीत की एक-एक पँक्ति वह कई-कई बार अन्दाज बदल-बदलकर गा रही  थी आउट उसका हर अंदाज मुझे बहुत अच्छा लग रहा था !

गीत खत्म होने से पहले ही हमारा खाना खत्म हो गया ! बिल भारती साहब ने ही अदा किया और वेटर को टिप भी दी !
फिर टेबल पर ही पेमेन्ट करने के बाद जब भारती साहब ने कहा - "चलो" तो वालिया साहब अपना मुँह मेरे कान के निकट लाकर बोले -"आपने अभी रुकना है तो बता दो योगेश जी ! भारती साहब को मैं मना लूँगा !"
"नहीं-नहीं !" मैं झट से खड़ा हो, निगाहें द्वार की ओर घुमाते हुए बोला !

बाद में खिंचाई के डर से बाहर सड़क पर पहुँचने तक मैंने एक बार भी पलटकर नहीं देखा ! हालांकि उस गायिका को एक बार भरपूर नज़र से देखने की ख्वाहिश कई बार मन में उत्पन्न हुई थी !

रात को जब हम घर पहुँचे तो साढ़े नौ हो चुके थे ! हमेशा की तरह मैं पहले बिमल चटर्जी के साथ उनके घर पहुँचा तो भाभी जी ने बताया कि रात साढ़े आठ बजे मेरठ का कोई पब्लिशर ढूँढते-ढूँढते घर तक आया था ! उससे नाम पूछा तो बताया नहीं, बोला - कल दिन में मिल लूँगा !
'कौन आया होगा ?' मैंने और बिमल दोनों ने उस समय यही एक बात सोची थी !

उस रात पहली बार मुझे ठीक से नींद नहीं आई ! रेस्टोरेन्ट में गाना गानेवाली गायिका उम्र में मुझसे काफी बड़ी थी ! फिर भी वालिया साहब के हँसी-मजाक का असर था या विपरीत यौन आकर्षण, मुझे वह गायिका सपनों में भी बार-बार दिखाई देती रही !

(शेष फिर )


फिर पूरे हफ्ते कोई पब्लिशर बिमल चटर्जी से मिलने नहीं आया और हम दोनों ही सोचते रहे कि काश हम दो घण्टे पहले घर लौट आये होते !

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