लेबल

शुक्रवार, 14 जून 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-33,34

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 33
===========================================
अचानक अपना ही घर मेरे लिए कारागार बन गया !

लेखकों-प्रकाशकों तथा बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में आनेवाले लोगों से जो रिश्ता बना था, उसकी वजह से घर में मेरा समय कम ही बीतता था !
बहुत बार तो केवल रात का खाना ही घर पर होता था, दिन का भोजन कहीं न कहीं यारों के साथ होता था !

लेकिन...
सब दिन होत न एक समाना !

वह दिन भी अन्य दिनों से अलग था !

सुबह-सुबह की पहली चाय कुमारप्रिय के साथ एक टी स्टाॅल में पीने के बाद अलग हुआ तो बिमल चटर्जी के यहाँ पहुँच गया ! वहाँ से हम साथ-साथ विशाल लाइब्रेरी पहुँचे !

"योगेश जी, भारती पाॅकेट बुक्स का मेरा नाॅवल तो कम्प्लीट होनेवाला है ! आपका 'जगत के दुश्मन' कहाँ तक पहुँचा ?" बिमल ने पूछा तो मैंने बताया - "आखिरी ढलान पर है, जरा-सा धक्का लगाना है, पूरा हो जायेगा !"
बिमल हँस पड़े -"मुझे तो आज और कल, दो दिन लगेंगे ! आप भी पूरा कर लो ! फिर साथ में ही चलेंगे ! ठीक !"
"ठीक !" मैंने कहा !



फिर दोपहर का खाना मैंने बिमल के यहाँ ही खाया ! मैं तो मना करता रहा, क्योंकि घर पर उस दिन खिचड़ी बननी थी और खिचड़ी मेरे पसन्दीदा व्यंजनों में से एक है, पर भाभी जी ने मेरे लिए भी थाली लगा दी और बिमल ने भी कह दिया -"योगेश जी, तुम्हारी भाभी ने इतने प्यार से थाली लगाई है ! अब इसका अपमान करोगे तो सोच लो.....................!"

'सोच लो' के बाद 'डाॅट-डाॅट-डाॅट' ने कुछ सोचने ही नहीं दिया !

बिमल चटर्जी और उनके समूचे परिवार का मेरे प्रति निस्वार्थ, निश्छल प्रेम अद्वितीय एवं अविस्मरणीय था !

खाना खाकर बिमल के घर से निकला तो आसमान की रंगत कुछ उड़ी-उड़ी-सी थी ! सिर पर दहकने वाले सूरज को कुछ काले-सफेद बादलों ने छिपा लिया था !

घर पहुँच अपने कमरे के एक कोने में जम गया ! फिर 'जगत के दुश्मन' के आखिरी चैप्टर लिखने में तल्लीन हो गया !
फिर तब एकाग्रता भंग हुई, जब अचानक ही बिजली कड़कने की बहुत तेज आवाज़ सुनाई दी !
पेपर पर से नज़र हटने पर एहसास हुआ कि कुछ-कुछ अँधेरा हो गया है और मैं रोशनी की कमी से बेपरवाह लिखे जा रहा था !

कमरे की लाइट जला दूँ, सोचकर उठा तो पाया कि पंखा, जो पहले चल रहा था, बन्द था !
बल्व का स्विच आॅन किया तो पक्का हो गया कि बिजली नदारद है !
लिखने में मैं इस कदर तल्लीन था कि पंखा कब बन्द हो गया, बिजली कब गायब हो गई, पता ही नहीं चला ! अब अन्धेरे में कुछ भी लिखना सम्भव न था !
"बहुत देर से बारिश हो रही है !" सहसा बड़ी बहन मधु का स्वर कान में पड़ा !
मैंने स्विचबोर्ड से दूर हट अपने परिवार की ओर देखा !

दरवाजे के ठीक सामने की दीवार से पीठ लगाये बड़ी बहन मधु, छोटी बहन सरिता, छोटा भाई राकेश और मम्मी बैठे थे ! वहीं एक ओर हमारे घर की इकलौती चारपाई खड़ी थी, जो अधिकांशतः कमरे से बाहर बरामदे में पड़ी रहती थी !
पिताजी उन दिनों कलकत्ता में थे ! डाॅक्टर थे ! वहाँ शीतला गली में क्लिनिक था !
कलकत्ते में मुझे दमे की समस्या बहुत ज्यादा थी, इसलिए कलकत्ता छोड़ने का मन बनाकर ही पूरा परिवार दिल्ली आ गया था, पर पिताजी की प्रैक्टिस वहाँ बहुत अच्छी चल रही थी ! एकदम दिल्ली आकर नये सिरे से प्रैक्टिस जमानी आसान नहीं थी, इसलिए पिताजी ने दिल्ली में अपने परिचितों को क्लिनिक के लिए एक अच्छी-सी जगह देखने के लिए कह रखा था ! सोचा हुआ था कि जब कोई अच्छी जगह मिल जायेगी, कलकत्ता हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ देंगे !

अचानक बिजली चली जाने से मेरा मन लिखने से उचट चुका था ! मैं कमरे के दरवाजे पर आ गया !
दरवाजे पर खड़ा हो, मैंने क्रमशः बरामदे और आकाश की ओर देखा !
मौसम अचानक करवट बदल चुका था !
शाम के धुंधलके में बारिश सामान्य गति से हो रही थी !
न बहुत तेज - न बहुत धीमी !

मैं भी परिवार के साथ ही दीवार से चिपककर बैठ गया ! कुछ देर बैठा रहा, फिर उठ खड़ा हुआ ! देर तक लगातार एक ही जगह, एक ही मुद्रा में बैठे रहने की आदत  मुझे न तब थी, न अब है !
बारिश चलती रही ! मैं बीच-बीच में उठ-उठकर, आठ बाई दस के कमरे में कभी इधर, कभी उधर चहलकदमी करता रहा !
वही कमरा हमारा ड्राइंग, डाइनिंग, बैडरूम सब कुछ था ! 
और वह कमरा - हमारा घर – तब हमारा कारागार बन गया था !

उन दिनों कुकिंग गैस आम नहीं थी !

घर का खाना - मिट्टी के तेल से जलनेवाले स्टोव अथवा कच्चे-पक्के कोयलों या लकड़ियों से जलनेवाली अँगीठी पर निर्भर था !
मैगी अथवा किसी भी तरह के फास्टफूड का कोई नाम न था कि पेट भरने के लिए फटाफट बना लें ! ना ही आॅनलाइन आर्डर कर सकने की कोई सुविधा थी !

मम्मी ने कहा -"बारिश में अँगीठी जलाना तो बहुत मुश्किल है और स्टोव में मिट्टी का तेल बहुत कम है !"
सुबह की खिचड़ी थोड़ी बची हुई थी, किन्तु उससे पूरे परिवार का पेट नहीं भर सकता था !
फैसला यह हुआ कि नमक-मिर्च के चार-छ: मोटे-मोटे परांठे बना लिये जायें ! फिर फटाफट दूध-पत्ती-चीनी मिलाकर चाय चढ़ा दी जाये ! चाय के साथ खाना-पीना हो जायेगा !

ऐसा ही किया गया, किन्तु चाय में पहला उबाल लगने से पहले ही स्टोव टें बोल गया !
खैर, जैसी भी बनी, उसी चाय के साथ हमने स्वाद के चटखारे ले-लेकर नमक-मिर्च के परांठे खाये !

उन दिनों मैं कृष्ण भगवान का बहुत पक्का भक्त था ! मन ही मन मैं निरन्तर कृष्ण भगवान से प्रार्थना करता रहा कि हे भगवान, बारिश चाहें रोको, न रोको ! बस, लाइट भेज दो ! बिजली आ जाये !"

लेकिन भगवान् ने मेरी न सुनी,  सारी रात बिजली गायब रही और बारिश भी सारी रात जारी रही !
जैसे-तैसे कभी सोते, कभी जागते रात कटी !

सुबह हुई तो भी बूँदा-बाँदी जारी थी !
मेरी बेचैनी की आपलोग स्वयं कल्पना कीजिये ! एक मिनट घर में न रुकनेवाला शख़्स ‘कैदी’ बन गया था !

आज तो घर में कई छाते हैं, पर तब एक भी छाता तक घर में नहीं था, जो सिर ढँक कर आस-पास घूम आयें !

घर में मिट्टी का तेल न होने के कारण सुबह चाय नाश्ता भी नहीं बन सका ! दूध लेने के लिए पास की डेयरी तक भी जाना नहीं हो पाया !
आज जिन्दगी बहुत सुविधाजनक है, तब ऐसी नहीं थी ! अमूल अथवा मदर डेयरी आदि के पोलिपैक नहीं मिलते थे ! पाऊडर मिल्क भी आम नहीं था ! मिल्कमेड का क्रीमी शूगर मिक्स दूध आता था, किन्तु वह किसी-किसी बड़ी दुकान पर ही मिलता था !

बारिश के बावजूद मैंने अपने नित्यक्रम को नहीं बदला ! सुबह सात बजे से पहले ही मैं नहा-धोकर तैयार हो गया था !
लगभग नौ बजे का समय था, जब अचानक जोर की आवाज कानों में पड़ी -"योगेश जी !"
आवाज बिमल चटर्जी की थी !
आवाज देने के साथ ही बिमल मकान की गैलरी क्राॅस कर आगे बरामदे तक बढ़ आये थे ! बरामदे के आखिर में हमारा कमरा - हमारा घर था !
बिमल चटर्जी को देख मैं कितना प्रसन्न हुआ होऊँगा, आप कल्पना नहीं कर सकते !
मैंने तत्काल 'जगत के दुश्मन' के आखिरी दो पेज, बहुत से कोरे कागज, पैन और क्लिप बोर्ड कन्धे पर लटकानेवाले थैले में डाल, कन्धे पर लटका लिये !

बिमल चटर्जी ने एक काला छाता ओढ़ रखा था और एक अपेक्षाकृत छोटा रंग-बिरंगा छाता उनके दूसरे हाथ में था !
रंग-बिरंगा छाता मेरी ओर बढ़ाते हुए बिमल ने कहा -"चलो फटाफट, तुम्हारी भाभी ने आलू-प्याज के पकौड़े बनाये हैं !"
"अच्छा ! पकौड़े सिर्फ योगेश के लिए हैं ! यहाँ और भी भाई-बहन हैं,  उनका कोई ख्याल नहीं !" मेरी बड़ी बहन मधु ने टोक दिया तो बिमल अपनी खूबसूरत मुस्कान बिखेरते हुए बोले -"चलिये, सब लोग चलिये !"
"नहीं, हम फिर कभी आयेंगे ! जब भाभी हमें बुलायेगी ! अभी तो सिर्फ 'योगेश जी' को बुलाया है, उन्हें ही ले जाइये !" मधु मजाक में टोन्ट करते हुए बोली !

बिमल हँसकर रह गये !
और मैं रंग-बिरंगा छाता सम्भाल झट से ‘कारागार’ से निकला !

उन दिनों मैं हरी मिर्च बहुत खाता था ! भाभी जी यह जानती थीं, इसलिए मेरे लिए कई मिर्च के पकौड़े भी तैयार कर रखे थे !
बारिश बाद में भी कभी तेज और कभी धीमी चलती रही ! नाश्ते के बाद वही छाते लिए हम विशाल लाइब्रेरी पहुँचे ! बारिश में ग्राहक तो क्या आने थे, मैं और बिमल दोनों अपनी-अपनी सीट सम्भाल अपने-अपने उपन्यासों का अन्त लिखने में व्यस्त हो गये !

कभी मन्द - कभी तेज बारिश के उस दौर में - बाद में इक्का-दुक्का ग्राहक भी आते रहे !
ग्राहकों को अटेन्ड करने के लिए हम में से जिसकी कलम पल-दो पल के लिए रुकी हुई होती, वही उठ जाता !

दो बजे से पहले ही मैं अपने उपन्यास की अन्तिम पँक्ति लिख चुका था, लेकिन बिमल का लिखना अनवरत जारी था !
मैं लाइब्रेरी में रखी नई पत्रिकाओं के पन्ने पलटने लगा !
बिमल ने मुझे खाली देखकर पूछा -"आपका हो गया ?"
"हो गया !" मैंने कहा !
"बड़ी जल्दी कम्प्लीट कर लिया !"
"हाँ, क्योंकि मेरे कुछ ही पेज बाकी थे !"
"फिर आप मेरा एक सीन लिख दो !" बिमल ने कहा !
"क्या लिखना है ?" मैंने पूछा !
बिमल मुझे सीन समझाने लगे !
बिमल के साथ लिखने का तब तक मैं इतना अभ्यस्त और तजुर्बेकार हो गया था कि चन्द पँक्तियों में ही उनका आशय समझ जाता था !
मैंने लिखने के लिए पैन सम्भाला ही था कि अचानक बिमल फिर से  बोले -"रुको योगेशजी !"
मैं रुक गया !
बिमल बोले -"बारिश हो रही है ! रास्तों में कीचड़ भी बहुत हो गया है ! अब खाना खाने के लिए घर जाकर क्या करेंगे ? ऐसा करो - सरदार जी से समोसे ले आओ और चिरंजीलाल को चाय के लिए भी बोल दो !"

सरदार जी की दुकान विशाल लाइब्रेरी से कुछ ही आगे सड़क पार करके थी ! वह समोसे तो छोटे-छोटे बनाते थे, लेकिन साथ में चटनी नही, स्वादिष्ट छोलों की सब्जी होती थी !

"कितने समोसे लाऊँ ?" मैंने बिमल से पूछा तो बिमल ने मुझसे ही पूछ लिया -"आप कितने खाओगे ?"
"दो !"
"तो ऐसा करो - छ: समोसे ले आओ ! पैसे गल्ले से निकाल लो !" बिमल ने कहा !
मैं समोसे ले आया !
चिरंजीलाल चाय भी जल्दी ही दे गया !
हमने पेट पूजा की, उसके बाद फिर से कलम सम्भाल ली !

साढ़े पाँच के करीब मैंने बिमल का बताया सीन कम्प्लीट लिख मारा था, किन्तु बिमल का पैन अभी भी पूरी तरह सक्रिय था !
मेरा सीन कम्पलीट हो गया, जानकर बिमल ने लिखना बन्द कर दिया और मेरे लिखे पेज, मुझसे लेकर पढ़ने लगे ! पढ़ते-पढ़ते दो-तीन जगह बिमल ने कुछ चेन्जेज भी किये, मगर अन्ततः पूरा पढ़ने के बाद बोले -"बहुत बढ़िया लिखा है योगेश जी ! सच, मैं लिखता तो शायद इतना बढ़िया नहीं बनता !" फिर उसके बाद बोले -"मुझे अभी तीन-चार पेज लिखने होंगे ! घर पर रात को लिखूँगा !"

बिमल की एक ख़ास आदत थी, मेरे लिखे की कभी बुराई नहीं की, हमेशा तारीफ़ करते और जोश बढ़ाते ! बाद में राज भारती जी के साथ कुछ अलग ही अनुभव हुआ ! तारीफ़ वह भी करते थे, किन्तु मुझसे मेरा Best निकलवाने की, जो क्षमता राज भारती जी में थी, वह अद्भुत थी ! उसका जिक्र बाद में करूंगा !

फिर उस दिन मेरे और बिमल चटर्जी के बीच तय यह हुआ कि कल शाम को हम दोनों साथ-साथ भारती पाॅकेट बुक्स चलेंगे, लेकिन अगले दिन ऐसा हो न सका था !

रात आठ बजे बिमल चटर्जी ने विशाल लाइब्रेरी को ताला लगाया और हम दोनों अपने-अपने छाते सम्भाले घर की ओर चल दिये !

बारिश की आँख-मिचौली तब भी जारी थी !

बिमल से अलग होने के बाद जब मैं अपने घर की तरफ बढ़ा तो ध्यान आया कि घर में मिट्टी का तेल बिल्कुल नहीं था ! दूध भी नहीं था !
मेरा तो पूरा दिन खाते-पीते मौज में बीता था, पर मम्मी तथा राकेश, मधु व सरिता ने पता नहीं कुछ खाया-पिया भी होगा या नहीं ? सोचकर ही मेरा दिल डूबने लगा था !

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-34

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 34
===============================================

उन दिनों बारिश के दिनों में दिल्ली की सड़कों का बहुत बुरा हाल हो जाता था ! बुरा हाल तो अब भी कम नहीं होता, पर तब से कम ही होता है !

रास्तों में जगह-जगह पानी भरा रहता था ! नालियों का पानी बारिश के पानी के साथ घुल-मिलकर गन्दगी और बढ़ा देता था ! तब गलियों के दोनों ओर अधिकांशतः कम गहराई वाली नालियाँ ही होती थीं !

सीवर कहीं पड़े थे, कहीं नहीं ! छोटी-बड़ी गलियों की सड़कें ज्यादातर जगह-जगह से टूटी-फूटी रहती थीं, जिसकी वजह से जगह-जगह गड्ढे होते थे, जो बारिश में पानी से भरकर दिखाई देने बन्द हो जाते थे, जिसकी वजह से आते-जाते किसी का पाँव गड्ढे में पड़ा तो सम्भलना असम्भव ही होता था !

अक्सर पूरे दिन में कई-कई लोग ऐसे गड्ढों का शिकार हो, सिर से पाँव तक कीचड़ के पानी में नहा जाते थे ! रोज आने-जानेवाले ऐसी स्थिति में अपनी याद्दाश्त के अनुसार गड्ढों वाली जगहों से बचते हुए फूँक-फूँककर कदम आगे रखते थे ! फिर भी जो ठीक-ठाक घर या अपने काम वाली जगह पहुँच गया, समझ लीजिये - गंगा नहा लिया !

रात के समय स्थिति और भी भयंकर होती थी !

एक तो दिन भर दांये-बांये दुबके गली के आवारा कुत्ते शोर मचाते पीछे लग जाते, दूसरे अधिकांश गलियों में स्ट्रीट लाइट न होने से अन्धेरा राक्षसी आतंक उत्पन्न करता था ! तब बड़े अपराध आज की तरह नहीं होते थे, तो भी अन्धेरे में झपटमारों की आशंका तो बनी ही रहती थी !

जेब में पैसे न होने पर भी सबसे ज्यादा डर तो हाथ की घड़ी छिन जाने का रहता था !
आज मोबाइल ने बहुत से लोगों के हाथों से घड़ी उतरवा दी है, लेकिन तब अधिकांशतः हर निम्न व मध्यम वर्गीय की कलाई में भी सस्ती या महँगी घड़ी सुशोभित रहती थी !

बिमल चटर्जी के घर से अपने घर का छोटा-सा रास्ता मैंने भगवान का नाम जपते-जपते पूरा किया ! अन्धेरे में एक-एक पैर बढ़ाकर सड़क की हालत टटोल-टटोलकर आगे बढ़ना आसान नहीं होता ! हर मिनट यही डर कि कहीं किसी गड्ढे में पाँव पड़ने से 'गंगास्नान' न हो जाये !
फिर कुत्तों का डर ! गनीमत है - बारिश तब भी हो रही थी, इसलिए कुत्तों के भौंकने की आवाजें जरूर कई बार पास या दूर से सुनाई दीं, लेकिन कोई पीछे नहीं लगा !

बिमल का रंग-बिरंगा छाता तब भी मेरे पास था ! वही बारिश से मेरी रक्षा कर रहा था और हौसला भी बढ़ा रहा था !

टाइम्स आॅफ इण्डिया के प्रकाशन इन्द्रजाल काॅमिक्स की उन दिनों बच्चों और बड़ों सभी में कुछ ऐसी लोकप्रियता थी कि मेरे मन में उस समय फैन्टम (हिन्दी में वेताल) समाया हुआ था और पूरी तरह चौकन्ना रहते हुए बढ़ते हुए मैं सोचता जा रहा था कि अगर कोई कुत्ता या बदमाश-झपटमार अचानक आ गया तो कैसे सामना करूँगा ! पर यह भी तय था कि यदि सचमुच ऐसी स्थिति आ जाती तो मेरी चीखें निकल जातीं और 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाते मैं भागना ही शुरु कर देता, भविष्य में एक बार जब चार लोगों ने मुझे घेर लिया था, तब मैंने ऐसा ही किया था, पर वो किस्सा बाद में !

खैर 'राम-राम' जपते आखिरकार पाँच-छ: मिनट का रास्ता आधे घण्टे में तय करके घर पहुँचा तो खाना तैयार था !

मेरे लिए यह आठवाँ अजूबा था, लेकिन किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई !
लाइट तब भी नदारद थी, लेकिन मिट्टी के तेल की एक नई लालटेन, जिसे पहले कभी मैंने अपने घर में नहीं देखा था; बहुत धीमी सी रोशनी फेंकती, जल रही थी !

मैं घर पहुँचा तो मम्मी ने खाना लगा दिया ! चुपचाप खाना खाया और एक कोने में कमरे के फर्श पर ही बिछे बिस्तर पर ढेर हो गया !

गाँधीनगर के जिस घर में हम किरायेदार थे, उसमें हमारे अलावा पाँच किरायेदार और थे ! उन्हीं में एक थे - देशराज जैन ! उनकी परचून की दुकान थी ! उनकी पत्नी का नाम वसन्ती था ! हम उन्हें 'वसन्ती भाभी' बोलते थे ! उनके दो लड़कियाँ, दो लड़के - छोटे-छोटे चार बच्चे थे !

दूसरे थे - हरीशचन्द्र श्रीवास्तव, वह कनाट प्लेस में 'हिन्दुस्तान स्टील' के आॅफिस में क्लर्क थे ! उनकी पत्नी ब्रजेश भाभी लखनऊ की थीं और अक्सर मुझे लखनऊ के बड़े ही दिलचस्प किस्से सुनाया करती थीं ! उनके विवाह को बहुत साल हो गए थे, लेकिन उनके कोई सन्तान नहीं थीं ! मेरे साथ उनका व्यवहार एक बड़ी बहन जैसा था !  मुझे उनके व्यवहार में बड़ी बहन या भाभी का प्यार नज़र आता था, लेकिन बहुत बाद में पता चला कि वो तो मुझ ही में अपना बच्चा ढूंढती थीं !
बहुत बाद में हरीश भाई और ब्रजेश भाभी ने अपने पारिवारिक मित्र की नवजन्मी कन्या को गोद लिया और पाला ! उसकी शादी की ! किन्तु मेरे साथ उनका व्यवहार सदैव पितृवत-मातृवत रहा !
 
ब्रजेश भाभी से आखिरी बार तीन-चार साल पहले हरीश भाई की तेरहवीं के अवसर पर मिला था ! तब सारा काम उनकी बिटिया चारू ने ही संभाल रखा था !
ब्रजेश भाभी की गोद ली उस बिटिया ने उनका मातृत्व अधूरा नहीं रहने दिया था, लेकिन तब मुझसे लिपटकर ब्रजेश भाभी जिस तरह रोईं थीं, मुझे लगा वो शिकायत कर रही हों कि बेटा, तुम हमें कैसे भूल गए ?
   
मकान के तीसरे किरायेदार थे - हरिओम कश्यप, जो तब कुँवारे थे और पोस्टमैन थे ! उनसे आखिरी बार बहुत साल पहले जब मिला था, वह  मलकागंज पोस्ट आॅफिस में कार्यरत थे !

चौथी एक बिहारी विधवा अम्माँ थी, जिनके साथ उनके दो बेटे थे ! बड़े बेटे की शादी हो चुकी थी, वह किसी दुकान पर नौकरी करता था और हमेशा घूँघट में रहनेवाली उसकी पत्नी भी साथ ही रहती थी !
लेकिन बिहारी विधवा अम्माँ का छोटा बेटा रामजीलाल, जिसकी उम्र लगभग बारह साल थी,  वह जन्मान्ध था और उनके कमरे से हमें दिन भर कुछ इस तरह की, उसी की आवाजें सुनाई देती थी -
'ऐ माँ रोटी दे दे ! हमरे को पानी पीना है ! हगने जाना है ! मूतने जाना है !' आदि-आदि !
कभी-कभी वह कमरे के बाहर बरामदे में आता तो मकान में रहनेवाले अन्य किरायेदारों में से किसी को भी पकड़ लेता और पकड़ में आनेवाली स्त्री होती तो पूछता - "ऐ माँ, हमरी आँखें ठीक हो जायेंगी का ?"
पकड़ में आनेवाला पुरुष होता तो कहता -"ऐ बाबू ! हमरी आँखें ठीक हो जायेंगी का ?"
जब भी रामजीलाल की पकड़ में मैं आता तो वह मुझसे चिपटकर पूछता -"ऐ भाई, हमरी आँखें ठीक हो जायेंगी का ? हमरी भाभी बोलती हैं कि भैया बहुत सारा पइसा कमाकर इकट्ठा कर लेंगे, तब आँखें ठीक करा देंगे !"
मैं उसे आश्वासन देता -"हाँ, बहुत जल्दी तुम्हारी आँखें ठीक हो जायेंगी !"
वो लोग बहुत ज्यादा समय तक वहाँ नहीं रहे ! रामजीलाल का बड़ा भाई गाँधीनगर पुश्ते के पास किसी दुकान में काम करता था ! रोज साइकिल से काम पर जाता था ! उसके मालिक ने उसे दुकान के पास ही कमरा दिला दिया तो उसने घर बदल लिया, लेकिन रामजीलाल को मैं आजतक नहीं भूला ! जब भी वह किसी से लिपटता, उसकी पकड़ इतनी मजबूत होती कि छुड़ाना मुश्किल ही होता था, इसलिए मकान में रहनेवाले सभी उसकी पकड़ से बचने की कोशिश करते थे !

मकान के पाँचवे किरायेदार थे भूरेलाल, जो आढ़ती का काम करते थे ! उनकी शादी हुए कुछ ही महीने हुए थे ! उनकी पत्नी सुनीता, मुश्किल से सोलह साल की ही थी और उसमें अभी भी बचपना था ! अक्सर वो हमारे कमरे में ऐसे आ धमकती, जैसे वह भी उसी का घर हो और मुझसे, मेरे भाई-बहनों से ही नहीं, मम्मी से भी लूडो या साँप-सीढ़ी खेलने की जिद करने लगती थी ! भूरेलाल का कमरा और हमारा कमरा साथ-साथ थे !

छठा परिवार हमारा था !

मुझे बहुत बाद में पता चला था कि उस दिन हमारे यहाँ स्टोव न जलने पर, सुनीता चाय बनाकर हमारे यहाँ ले आई थी ! उसी ने वसन्ती भाभी और ब्रजेश भाभी के कानों में शोर मचा दिया था कि हमारे घर में मिट्टी का तेल, दूध कुछ भी नहीं है !
फिर... वसन्ती भाभी भागती हुई, भीगती हुई अपनी परचून की दुकान पर गईं थीं और एक बोतल में मिट्टी का तेल और डबलरोटी ( उन दिनों दिल्ली में ब्रेड को डबलरोटी ही कहा जाता था !) ले आईं थीं ! लालटेन भी देशराज जैन की  दुकान से आई थी ! दोपहर को खाना खाने घर आते समय देशराज लालटेन ले आये थे !
जरूरत योग्य दूध ब्रजेश भाभी ने दे दिया था, पर उस दिन हमारे घर का सुबह का नाश्ता उन्हीं की रसोई में बना था !
बहरहाल उस दिन ने - जो सबक दिया, भविष्य में वैसा दिन फिर कभी नहीं आया !

अगले दिन शनिवार था ! वह दिन भी पूरी तरह बारिश में नहा गया !
उस दिन सुबह से ही बहुत तेज बारिश होती रही ! बादलों की गर्जना और बिजली की कड़क के साथ-साथ तेज हवाएँ भी निरन्तर अपना रौद्र रूप दिखा रहीं थीं !
बिमल चटर्जी के घर का रंगीन छाता मेरे पास ही था, लेकिन मूसलाधार बारिश में छाता लेकर बाहर निकलना भी सम्भव नहीं था ! हवाओं की तेजी में, मेरे जैसे छटंकी और पतले-दुबले शख़्स का छाता सम्भाले रहना भी आसान नहीं था !
मतलब साफ था - छाता सिर पर तानकर बाहर निकलने पर भी मैं पूरी तरह भीगे बिना नहीं रह सकता था !
बाहर जगह-जगह पानी भरा होने की पूरी सम्भावना थी, अत: बाहर निकलने का विचार रखते हुए मैंने अपनी पैण्ट के पाहुँचे घुटनों तक मोड़कर ऊपर उठा लिए थे ! फिर छाता सिर पर टाँग  जब मैं घर से निकला, तब समय दस बजे से ऊपर का हो चुका था, मगर बारिश की गति उस समय बहुत धीमी हो चुकी थी !
उन दिनों मेरे पास चमड़े के जूते नहीं थे ! स्कूल के समय के पुराने कपड़े के जूते फट चुके थे !
पाँव में पहनने के लिए रबड़ की हवाई स्लीपर थी, जो उन दिनों डेढ़-दो रुपये की मिलती थी, लेकिन आजकल उसे अधिकांशतः बाथरूम तक के लिए प्रयोग किया जाता है !

घर से बाहर कदम रखते ही पता चल गया कि हमारे घर के सामने भी घुटनों तक पानी भरा है ! नालियों की गन्दगी सड़क के पानी में जहाँ-तहाँ तैर रही थी !
एक बार दिल ने चाहा कि घर वापस लौट जाऊँ, लेकिन बिमल चटर्जी और विशाल लाइब्रेरी का ख्याल आया और सोचा - घर में पड़ा-पड़ा क्या करूँगा ! बिमल के साथ होऊँगा तो कुछ न कुछ करूँगा ही, पर इतनी बारिश में बिमल भी अपनी दुकान पर न जा पाये होंगे, घर पर ही होंगे, सोचते हुए बिमल के घर की ओर बढ़ा, किन्तु पानी के बीच से चप्पल पहने एक पाँव उठाना, आगे रखना, फिर दूसरा पाँव उठाना बड़ा भारी लग रहा था !
ऐसे में बीच रास्ते में कयामत यह टूटी कि एक चप्पल का फीता टूट गया !
अब वापस घर लौटूँ या बिमल के यहाँ जाऊँ, रास्ता 'बराबर' का था !

एक चप्पल हाथ में ले, एक चप्पल घसीटते हुए मैं जैसे तैसे बिमल के यहां पहुंचा ! बिमल घर से बाहर ही मिल गए ! वह पास की किसी दुकान से मक्खन-डबल रोटी लेकर आ रहे थे ! मुझे देखते ही मुस्कुराये और करीब पहुँचने पर मेरे हाथ की चप्पल को देखते हुए बोले -"चप्पल का कल्याण हो गया ?"
"हाँ !" मैं सिर झुकाए धीरे से बोला -"घर से तो सही-सलामत पहनकर चला था ! आधे रास्ते में दगा दे गई !"
"इधर चलो, ठीक करा देता हूँ !" बिमल मुझे गली के ही एक मकान में ले गये, जिसके एक कमरे में एक युवा मोची सपरिवार रहता था ! बारिश की वजह से आज वह काम पर नहीं निकला था ! बिमल ने उससे मेरी चप्पल सही करवा दी और उसे पच्चीस पैसे अपने पास से ही दे दिये ! हम घर पहुँचे तो पहले तो भाभी जी की कड़कती आवाज सुनाई दी -"डबलरोटी-मक्खन लाने कहीं लन्दन चले गये थे ?"
"नहीं योगेश जी की चप्पल टूट गई थी ! वही ठीक करवाने में देर लग गई !" बिमल ने कहा !
मैंने भाभी जी से नमस्ते की तो मुझे देखते ही भाभी जी का गुस्सा गायब हो गया ! बोलीं -भाई साहब जी, इन्हें समझाइये, घर में एक बीवी भी होती है, जो इन्हें खाना खिलाने के लिए दिन भर भूखी बैठी रहती है !"

"आज तुम्हारी भाभी का पारा सातवें आसमान पर है !" बिमल ने मेरे कान में फूँका ! फिर बताया कि कल भाभी जी रात तक भूखी थीं ! सुबह बिमल के इंतज़ार में खाना ही नहीं खाया था ! फिर वक्त निकल गया तो शाम को भी गुस्से में कुछ नहीं खाया !
दरअसल बिमल का रोज का रूटीन था, दोपहर लाइब्रेरी बन्द कर, घर जाकर ही खाना खाते थे, किसी दिन दोपहर घर न आना हो तो पहले से ही बता देते थे, पर उस दिन बिमल छाता साथ लेकर भी गये थे, फिर भी खाने के लिए घर नहीं आये तो भाभी जी को बहुत चिन्ता होने लगी थी ! वह मोबाइल का जमाना नहीं था कि फोन पर बात कर ली और चिन्ता खत्म !

खैर, उस दिन नाश्ता करते-करते बिमल ने मेरे सामने ही भाभीजी से प्राॅमिस किया कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं होयेगी ! यदि किसी रोज दोपहर को खाना खाने नहीं आना होगा तो टिफिन साथ ले जायेंगे !
साथ ही बिमल ने भाभी जी को यह भी समझाया कि मुझे देर हो तो तू खा लिया कर ! सतयुग का जमाना नहीं है कि  पति घर खाना खाने न आये तो पत्नी भूख से जान दे दे !

नाश्ता करने के बाद मैं और बिमल लाइब्रेरी निकल गये ! बूँदा-बाँदी का आलम पहले जैसा था ! रास्तों में कीचड़ व गन्दगी भी बेहिसाब थी !
बहुत सी जगह तो घरों का शौच बहकर सड़क पर आ गया था ! तब टायलेट फ्लॅश सिस्टम वाले नहीं होते थे, इसलिए बारिशों में ऐसी गन्दगी अक्सर देखने में आ ही जाती थी !

लाइब्रेरी में एक बजे तक बहुत ज्यादा ग्राहकों का आवागमन न हुआ ! एक बजे जब बिमल कहने लगे -"अब घर चलते हैं योगेश जी !"
तभी एक पतले-दुबले लम्बे शख़्स ने लाइब्रेरी के काउन्टर पर झलक दिखाई ! सफेद कुर्ता-पायजामा पहने उस शख़्स ने बिमल से पूछा -"साप्ताहिक है क्या ?"
हिन्दुस्तान टाइम्स से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की वीक्ली पत्रिका साप्ताहिक हिन्दुस्तान को अधिकांशतः साप्ताहिक ही कहा जाता था !
बिमल ने इन्कार में सिर हिलाया -"नहीं है ?"
"क्यों, रखते नहीं हैं क्या ?"
"नहीं, रेगुलर कस्टमर के लिए दो काॅपी लाते हैं, पर वो पहले ही दिन बिक जाती हैं ! किराये पर देने के लिए नहीं रखते ! हाँ, धर्मयुग है ! वो दूँ क्या ?" बिमल ने कहा !
"नहीं, धर्मयुग नहीं चाहिये ! साप्तागहिक हिन्दुस्तान रखा कीजिये ! अच्छी मैगजीन है !" उस शख़्स ने कहा और पलटकर चल दिया !
"कमाल है !" बिमल मुझसे सम्बोधित होकर बोले -"धर्मयुग तो लोग खड़े-खड़े सिर्फ ढब्बूजी पढ़ने के लिए ही माँग लेते हैं ! साप्ताहिक तो इस तरफ कोई पूछता ही नहीं !"
धर्मयुग में ‘आखिरी व्ही.पी.पी. द्वारा माल मँगवाइये’ के दो पन्नों से पहले के पन्ने पर सबसे नीचे ‘आबिद सुरती’ का ‘कार्टून कोना – ढब्बूजी’ छपता था, जो बेहद लोकप्रिय था !
साप्ताहिक हिन्दुस्तान में भी बैक कवर के अन्दरूनी पेज पर ‘बाबू जी’ छपता था ! कभी-कभी विज्ञापन की बुकिंग के कारण पेज में बदलाव आ जाता था, पर ऐसा कम ही होता था, किन्तु लोकप्रियता में साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग से बहुत पीछे था !

साप्ताहिक की डिमांड करनेवाले इस शख़्स का जिक्र इसलिए, क्योंकि तब साप्ताहिक में मुख्य सम्पादक मनोहर श्याम जोशी हुआ करते थे, ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी के जमाने में दिल्ली दूरदर्शन में जिनके टीवी सीरियल "हम लोग" व "बुनियाद" इस कदर लोकप्रिय हुए थे कि लोग सीरियल शुरु होने से पहले ही टीवी के सामने जम जाते थे !

नहीं-नहीं, आप गलत समझ रहे हैं ! वह कुर्ता-पायजामाधारी मनोहर श्याम जोशी नहीं थे ! उन्हीं की सम्पादक मण्डली के एक सदस्य थे, जिनसे उस दिन के कुछ ही दिनों बाद राजभारती जी के साथ मिलना हुआ था !
खैर, वो किस्सा बाद में !

बारिश की वजह से उस दिन हमने भारती पाॅकेट बुक्स जाने का इरादा मुल्तवी कर दिया ! वैसे भी कामकाजी दिनों में लालाराम गुप्ता सिर्फ शाम को ही आॅफिस में मिलते थे ! अगला दिन रविवार था और रविवार को गुप्ताजी दिन में भी आॅफिस में ही होते थे ! इसलिए हमने तय किया कि अगले दिन दोपहर के समय ही भारती पाॅकेट बुक्स जायेंगे ! रविवार को राजेन्द्र भी घर पर ही होता था, बिमल ने उससे अगले दिन लाइब्रेरी सम्भालने की बात शनिवार शाम को ही कर ली थी !

संयोगवश रविवार को मौसम भी कुछ खुल गया था ! बादल तो थे आसमान पर, पर बारिश रुक गई थी !
और जैसा तय था - रविवार दोपहर मैं और बिमल भारती पाॅकेट बुक्स पहुँचे !
ऑफिस में उस समय गुप्ता जी नहीं थे, गुप्ता जी वाली कुर्सी पर राज भारती जी बैठे थे और सामने कोने दीवार से लगी कुर्सी पर यशपाल वालिया बैठे हुए थे !

(शेष फिर)

सॉरी, माफ़ कीजियेगा, आगे आएगा राज भारती जी और यशपाल वालिया का डांस ! थोड़ा-सा इंतज़ार और कर लीजिये !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Featured Post

मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...