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शुक्रवार, 31 मई 2019

पुतली - राजवंश

 पुतली-  राजवंश,
 उपन्यास अंश 

खन खन खन खन।
 प्याली फर्श पर गिरकर खनखनाती हुई नौकरानी के पैरों तक आई और टुकड़े-टुकड़े हो गई। नौकरानी के बदन में कंप-कंपी जारी हो गई। उसने भयभीत नजरों से प्याली के टुकड़ों को देखा ओर फिर उस धार को देखा जो चाय गिरने से उसके पैरों के पास से बिस्तर तक बनती चली गई थी। फिर उसकी भयभीत निगाहें आशा के चेहरे पर रुक गईं। आशा का चेहरा गुस्से से सुर्ख हो रहा था। आँखें उबली पड़ रही थीं। वह कुछ क्षण तक होंठ भींचे नौकरानी को घूरती रही, फिर एकदम फूट पड़ी- ‘ईडियट...किस गंवार ने बनाई है यह चाय...?’
  ‘ज...ज...जी...म...मैंने मालकिन!’ नौकरानी भय-भीत लहजे में हकलाई।
           ‘जाहिल गंवार है तू। यह चाय है या जुशांदा-पानी की तरह ठण्डी और शर्बत की तरह मीठी। इससे पहले भी तूने किसी बड़े घराने में नौकरी की है? किस गधे ने नौकर रखा है तुझे?’
  ‘ज...ज...जी...ब...बड़े मालिक ने।' नौकरानी हकलाई।




  और नौकरानी के पीछे खड़े हुए नारायणदास ने अपनी आंखें नचाकर नौकरानी को देखा। आशा ने चीखकर कहा, ‘ओ यू आर डिसमिस-गेट आउट-!’
  नौकरानी हड़बड़ाकर पीछे हटी और उसी वक्त नारायण-दास ने कहा- ‘क्या हुआ बेटी? कैसा हंगामा है यह?’

          वह थोड़ा आगे बढ़े और उनके हाथों में लगे हुए सिगार की जलती हुई नोक नौकरानी की पीठ से टकरा गई। नौकरानी बिलबिला कर किवाड़ से लग गई और अपनी पीठ सहलाने लगी। सिगार नीचे गिर पड़ा था। आशा ने नारायणदास से कहा-‘ओ डैडी-यह भांति-भांति के जानवर आप कहां से पकड़ लाते हैं? क्या यह जाहिल लड़की किसी बड़े घराने में नौकरी के काबिल है?’

  ‘एकदम जाहिल और गंवार है।’ नारायणदास ने नौकरानी को घूरते हुए कहा-‘यह मुरली का बच्चा हमेशा ऐसे ही मिट्टी के माधो पकड़कर लाता है।’

      नौकरानी थर-थर कांप रही थी और अपनी पीठ की जलन का अहसास मिटाने के लिए मजबूती से होंठ भींचे खड़ी थी। आंखों में आंसू कांप रहे थे। आशा ने झटके से कहा-‘मैं अभी डिसमिस करती हूं।’

  ‘एकदम डिसमिस!’ नारायणदास ने आशा की तरफ प्यार से देखकर कहा, ‘इस घर में हमारी बेटी की नापसंद की हुई कोई भी चीज एक मिनट भी नहीं रह सकती।’

  फिर यह बाहर की तरफ रुख करके जोर से चीखे-‘मुरली-अबे ओ मुरली के बच्चे!’
  ‘आया साहब!’ एक तेज और घबराई हुई आवाज सुनाई दी।

  फिर कदमों की आहटों के साथ एक छोटे कद और मोटा-सा आदमी भागता हुआ आया और दोनों हाथ जोड़कर नजरें झुकाकर हांफता हुआ बोला-‘हुक्म कीजिए मालिक...।’

  ‘मालिक के बच्चे...तुम एकदम गधे हो?’ नारायणदास ने उसे घूरकर कहा।
  ‘मालिक-पैदाइशी गधा हूं, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं।’
  ‘नानसैंस, यह एकदम जाहिल और गंवार है। हमारी बेटी ने इसे डिसमिस कर दिया है, इसका हिसाब आज ही साफ कर दो।’

  ‘म...म...मालिक!’ मुरली हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाया, ‘केवल एक दिन रहने दीजिए इसे। कल जरूर डिसमिस कर दीजिएगा।’

  ‘क्यों रहने दूं एक दिन!’, नारायणदास ने गुस्से से पूछा।
  ‘म......मालिक......कल एक दर्जन का कोटा पूरा हो जाएगा, एक महीने में एक दर्जन का...मालकिन ने इस महीने में यह बारहवीं नौकरानी रखी है, अगर आज ही निकल गई तो तेरहवीं लानी पड़ेगी और मालिक तेरह का हिसाब मनहूस होता है।’

  ‘ओ यू शटअप............।’ नारायणदास ने गुस्से से कहा-‘गेट आउट।’
  मुरली ने घबराकर झुककर आदाब किया। उसकी नजर सिगार पर पड़ी और उसने जल्दी से सिगार उठाकर नारायण-दास के सामने पेश करते हुए कहा, ‘आपका सिगार मालिक।’
  ‘ओ......डफर.........हम यह जमीन पर गिरा हुआ सिगार पिएंगे?’

          मुरली ने जल्दी से सिगार की राख झाड़ी और उसे जेब में रख लिया, नारायणदास ने उससे कहा-‘कमरे का फर्श साफ कराओ और यह मैटिंग पर चाय का दाग पड़ गया है। यह मैटिंग उठाकर बाहर फिंकवा दो और फौरन नये मैटिंग का प्रबन्ध करो।’

  ‘ब......ब......बहुत अच्छा मालिक.........बहुत अच्छा मालिक।’

  मुरली ने जल्दी से मैटिंग खींचकर उठाया और नौकरानी का बाजू पकड़कर बाहर खींच ले गया। उसके जाने के बाद आशा ने नारायणदास से कहा-‘यह सब गड़बड़ इस अहमक मुरली की वजह से हुई है। आप इसे ही डिसमिस कर दीजिए?’

  ‘ओ नहीं बेटी-वह मिट्टी का माधो हमारे यहां बचपन से नौकर है, बेचारा हमारे टुकड़ों पर पल रहा है तो हमारा क्या बिगड़ जाता है। कहीं और गया तो भूखा मर जाएगा। अरे हां बेटी! मैं तुमसे यह कहने आया था कि आज शाम तुम टैक्सी से वापस आ जाना, मुझे एक व्यापारी से मिलने जाना है, कई लाख का सौदा है। मैं जरा देर से लौटूंगा।’

  ‘ओहो...डैडी......सेठ नारायणदास की बेटी टैक्सी में बैठेगी? मैं आपसे कितनी बार कह चुकी हूं कि एक गाड़ी मेरे लिए भी ले दीजिए। लेकिन आप सुनते ही नहीं। अगर आज आपने मेरे लिए गाड़ी न बुक कराई तो मैं शाम का खाना नहीं खाऊंगी।’

  ‘अरे नहीं भई......भगवान के लिए ऐसा न करना। मैं आज ही तुम्हारे लिए कार बुक कराए देता हूं। मगर नहीं...शायद बुक कराने की जरूरत न पड़े। गोविन्ददास का दामाद स्थायी रूप से अमरीका जा रहा है, उसकी गाड़ी बेकार पड़ी रहती है। गोविन्ददास उसे निकालने के लिए कह रहे थे, मैं आज शाम को उनसे बात कर लूंगा। गाड़ी शाम तक आ जाएगी।’

  ‘ओहो...माई स्वीट डैडी।’

  आशा ने नारायणदास के गले में बांहें डाल दीं। नारायणदास ने उसके बालों में हाथ फेरते हुए कहा-‘यह सबकुछ तो तेरा ही है बेटी! मैंने सात औलादें खोकर तुझे पाया है, वह भी तेरी मां की कुर्बानी देकर। यह लाखों की दौलत, यह आलीशान कोठी, यह सबकुछ तेरा ही है।’

  आशा नारायणदास की नैकटाई से खेलती हुई बोली-‘वह डैडी-एक-दो रोज में हमारे क्लब का वार्षिक फंक्शन होने वाला है, मेरे सब दोस्त दो-दो चार-चार हजार से कम चन्दा नहीं दे रहे। मैं कितना चन्दा दूं?’

  ‘अपने अनुसार चन्दा दो। कोई यह न कह सके कि हमारी बेटी से ज्यादा चन्दा भी किसी ने दिया है।’ नारायणदास ने गर्दन उठाकर कहा।
  ‘दस हजार दे दूं?’
  ‘दस हजार, दस रुपये दो।’
  ‘क्या......... दस रुपये?’ मुरली ने चौंककर नौकरानी की तरफ देखा-‘कहीं तू घास तो नहीं खा गई? तीस रुपये महीना तनख्वाह तय हुई है। तीन रोज के काम के दस रुपये?’

  ‘मैं खुद थोड़े ही काम छोड़ रही हूं।’ नौकरानी ने झटके से कहा- ‘मैं दस दिन की तनख्वाह से कम नहीं लूंगी। तीन रोज काम किया है मगर तीन हजार गालियां खाई हैं। ऐसी बदमिजाज मालकिन से तो कभी भी सामना नहीं पड़ा। मेरी तो उम्र गुजर गई है ऐसे ही काम करते-करते!’

  ‘उम्र-!’ मुरली दांत निकालकर बोला- ‘अभी कहां गुजर गई है तेरी उम्र, अभी तो तू सत्रह-अट्ठारह वर्ष से ज्यादा की नहीं लगती।’
  ‘क्या कहा?’ नौकरानी आंखें निकालकर बोली- ‘मुझे ऐसी-वैसी न समझ लेना...... अभी पैर की इज्जत हाथ में आ जाएगी। एक दफा एक मालिक ने अकेले में मेरा हाथ पकड़ लिया था तो जानते हो क्या हुआ?’

  ‘क्या हुआ?’ मुरली ने घबराकर पूछा।
  ‘मालकिन ने देख लिया?’ नौकरानी शरमाकर बोली- और मुझे उसी वक्त घर से निकाल दिया।’
  ‘सच!’ मुरली ने लपककर फिर नौकरानी का हाथ पकड़ते हुए कहा- ‘पर यहां तो मैं अकेला ही हूं, यहां कौन देखेगा......?’
  ‘तुम्हारे मालिक या मालकिन ने देख लिया तो......?’

  ‘अरे वह कोई इधर आ रहा है। मालकिन कॉलेज गईं और और मालिक दफ्तर गए। शाम को लौटेंगे। शाम तक आशा भवन पर श्री मुरलीधर ब्रह्मचारी का राज रहता है।’

  ‘पर शाम को देख लिया तो। वह तो मुझे नौकरी निकाल से चुके हैं।’
  ‘कह दूंगा, नई नौकरानी ले आया हूं, बस तुम जरा-सा घूंघट निकाले रहना।’
  ‘पर मालकिन का मिजाज।’
  ‘इसकी परवाह मत कर। मैं जानता हूं मालकिन कैसी चाय पीती हैं। मैं तुझे सब कुछ सिखा दूंगा।’
  ‘सच!’ नौकरानी ने खुश होकर पूछा।
  ‘बिलकुल सच मेरी रागनी।’
  ‘हाय, तुम्हें मेरा नाम कैसे मालूम हुआ जो?’
  ‘अरे...... तेरा नाम रागनी है। बहुत खूब। भगवान को भी तेरा-मेरा मिलाप मन्जूर है। अब देख न। रागनी मुरली ही से निकलती है।’

  ‘मिलाप तो तब होगा जब तुम ब्रह्मचारी का चोला उतार दोगे।’
  ‘अरे अभी उतारता हूं ब्रह्मचारी का चोला। यह चोला तो मजबूरन पहने रहना पड़ता था।’
  ‘हां......हां......यहां नहीं। अग्निकुण्ड के सामने उतारना यह चोला।’ रागनी ने हाथ छुड़ाकर कहा।

  और जल्दी से हंसती हुई बाहर भाग गई। मुरली प्रसन्नता पूर्वक उस दरवाजे को देखता रहा। जिससे रागनी बाहर गई थी फिर उसने इत्मीनान से सिगार कोट की जेब से निकाला और उसे दांतों में दबाकर गर्दन अकड़ाकर जोर से चीखा- ‘अबे ओ रामू-रामू के बच्चे।’

  ‘आया साहब-!’

  थोड़ी देर बाद एक धोती-कुर्ता पहने नौकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। मुरली से गर्दन अकड़ाकर सिगार सुलगाया और रामू से बोला- ‘चल, वह मैटिंग उठाकर हमारे बैडरूम में बिछा।’

       रामू जल्दी से मैटिंग उठाकर बराबर वाले केबिनुमा हिस्से में चला गया जो एक कमरे बीच पर्दा डालकर बनाया गया था। मुरली इत्मीनान से सिगार के कश लेता रहा। फिर एक पुरानी-सी ऐश-ट्रे में राख झाड़ने लगा।



नारायणदास ने कार की सीट की पुश्त से लगे हुए ऐश-ट्रे में राख झाड़ी और सिगार का कश लेने लगे। इतने में कार ठहर गई और आशा ने उतरते हुए कहा- ‘अच्छा डैडी, मैं चलती हूं।’

  ‘अच्छा बेटी।’
  ‘और देखिए डैडी! गोविन्ददास से गाड़ी की बात करना न भूलिएगा।’

  ‘भला अपनी बेटी का काम मैं भूल सकता हूं?’ नारायणदास मुस्कराए। कार आगे बढ़ गई।

  आशा बरामदे की तरफ बढ़ी। बरामदे की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए उसने गमले से एक गुलाब का फूल तोड़ा। फूल टूट कर उसके हाथ से सीढ़ी पर गिरा और उस पर आशा का पांव पड़ गया। चिकना जूता था। पांव फिसल गया और वह बुरी तरह लड़खड़ाई। लेकिन ठीक उसी वक्त दो मजबूत हाथों ने आशा को पकड़ लिया, आशा संभलकर खड़ी हो गई।

  संभालने वाले के चेहरे पर एक हल्की मुस्कराहट थी। उसके जिस्म पर एक सस्ते और मोटे कपड़े का कुर्ता, बास्केट और बड़ी मुहरी का पायजामा था। एक हाथ में किताबें भी मौजूद थीं। आशा ने उसे घृणापूर्वक देखा और कपड़ों का वह भाग साफ करने लगी जिससे संभालने वाले के हाथ टकराये थे। फिर बड़ी रौबियत के साथ आगे बढ़ गई।

  राजन के चेहरे की मुस्कराहट पर शोखी का साया फैल गया। वह आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ एक बैंच के करीब पहुंचा और बैंच पर पांव टिकाकर आशा को क्लास की तरफ जाते देखने लगा।

  आशा क्लास के नजदीक पहुंची। क्लास शुरू हो चुकी थी। एक लैक्चरार बोर्ड पर कोई चार्ट बनाकर समझा रहे थे। आशा के कदमों की आहट सुनकर उन्होंने चौंककर दरवाजे की तरफ देखा।

  ‘यू आर सो लेट मिस आशा।’
  ‘आई एम सॉरी सर।’ आशा इत्मीनान से अपनी डैस्क की तरफ बढ़ती हुई बोली।
  ‘कोई बात नहीं-कोई बात नहीं।’
  आशा अपनी डैस्क पर बैठ गई। उसके बराबर बैठी रजनी ने आहिस्ता से कहा- ‘हैलो आशा-!’
  ‘हैलो-।’
  ‘वह आ गया तुम्हारा रोमियो।’ रजनी ने दरवाजे की तरफ इशारा करके कहा।

  दरवाजे के पास राजन खड़ा था। आशा ने बुरा-सा मुंह बनाया! राजन ने अहिस्ता से पूछा- ‘मैं अन्दर आ सकता हूं सर-?’

  लैक्चरार ने चौंककर चश्मे के ऊपर से राजन की तरफ देखा और दांत निकालकर बोले- ‘क्यों नहीं! यह क्लास-रूम थोड़े ही है, सिनेमा हॉल है! न्यूज रील और शो रीलें निकल भी जाएं तो क्या फर्क पड़ता है।’

  ‌‌‌  राजन कुछ न बोला। वह चुपचाप खड़ा रहा। क्लास में हल्का-सा कहकहा उभरा था। लैक्चरार ने अचानक डैस्क पर हाथ मारा और क्लास-रूम में सन्नाटा छा गया। फिर व राजन से बोला- ‘जानते हैं आप! पीरियड शुरू हुए पन्द्रह मिनट गुजर चुके हैं।’

  ‘जी-!’

  ‘और मैंने आपको पीरियड शुरू होने से पूर्व बाहर खड़ा देखा था। फैशन बना लिया है आप लोगों ने। पीरियड शुरू हो चुका है और बाहर खड़े सिग्रेट पी रहे हैं।’
  ‘जी-मैं सिग्रेट नहीं पीता।’ राजन ने आहिस्ता से कहा।
  क्लास में फिर हल्का-सा कहकहा उभरा और लेक्चरार ने भन्नाकर फिर मेज पर हाथ मारा और राजन ने बोले- ‘आज तो आप आ सकते हैं। कल से लेट आए तो अन्दर आने की इजाजत नहीं मिलेगी।’

  राजन ने हल्की-सी सांस ली और अन्दर आ गया। रजनी ने आशा से सरगोशी की।
  ‘देखा तुमने-बेचारे को तुम्हारी वजह से रोजाना यह बेइज्जती सहनी पड़ती है।’
  ‘व्हाट इज दिस नानसैंस। मेरी वजह से क्यों?'
  ‘तुम जानती हो, जब तक तुम क्लास में नहीं आ जाती, राजन क्लास से बाहर रहता है। बेइन्तिहा प्यार करता है तुम्हें।’

  ‘हुश्त-।’ आशा ने बुरा-सा मुंह बनाया।
  ‘सच कहती हूं। इतना सच्चा आशिक मैंने आज तक नहीं देखा। जानती हो यह बात अब क्लास से निकलकर सारे कॉलेज में फैल गई है कि राजन तुम्हें पागलपन की हद तक चाहता है। उसकी मुस्कराहटें तुम्हारे कदमों की चापों की प्रतीक्षा रहती हैं, तुम्हें देखते ही उसकी आंखों के कोने खिल उठते हैं। जानने वाले कहते हैं कि अगर तुमने राजन को ठुकरा दिया तो वह जिन्दा न रहेगा।’

  आशा ने हल्का-सा कहकहा लगाया और बोली- ‘अव्वल तो मरेगा नहीं, और अगर मर भी गया तो कौन-सी कमी पैदा हो जाएगी दुनिया में।’

  ‘बड़ी बेदर्द हो। किस्मत वालों को मिला करते हैं ऐसे आशिक।’

  ‘जो पति बनकर महबूबा को दुर्भाग्य के गार में धकेल दें।’ आशा ने मुंह बनाकर कहा- ‘जो व्यक्ति हफ्ता-पन्द्रह दिन में कुर्ता-पायजामा बदलता हो, किसी को जिन्दगी से क्या दे सकता है?’

  ‘प्यार बदला थोड़े ही चाहता है। फिर प्यार की दौलत से बढ़कर कौन-सी दौलत हो सकती है।’

  ‘बकवास रजनी... ये सब नॉवल-अफसानों की बातें है। प्यार कभी दौलत का प्रतिरूप नहीं बन सकता। प्यार में केवल एक भावना मिलती है। एक दौलत दुनिया भर के ऐश देती है। फिर क्या वे अहमक नहीं कहलाएंगे जो दुनिया-भर के ऐश व आराम ठुकरा कर प्यार के कांटों पर जा बैठे।’

  वे लोग सरगोशियों में बातचीत कर रही थीं, लेकिन आशा आ आखिरी वाक्य जरा ऊंचे स्वर में अदा हो गया।

  ‘साइलैंट-प्लीज साइलैंट प्लीज!’ अचानक लैक्चरार की आवाज उसके कानों से टकराई।

  रजनी ने चौंककर इधर-उधर देखा। क्लास के सब विद्यार्थी उन्हीं की ओर आकर्षित थे। रजनी को पसीना आ गया। लेकिन आशा के चेहरे पर कोई घबराहट या परेशानी नहीं थी। वह बदस्तूर के साथ बैठी रही। लैक्चरार की आवाज गूंजने लगी। मनोविज्ञान पर लैक्चर दे रहे थे। कुछ क्षण तक वे दोनों सुनती रहीं। फिर अचानक रजनी का ध्यान राजन की तरफ चला गया। राजन लैक्चर सुनने के बजाय चुपचाप आशा की तरफ देखता रहा था। रजनी ने चुपके-से आशा को टहोका मारा और आहिस्ता से बोली- ‘अब देखो! बेचारा लैक्चर सुनने के बजाए तुम्हें ही ताक रहा है।’

  ‘मत बोर करो।’ आशा ने उकता कर कहा।

  ‘यह हकीकत है। जब तक तुम उसकी क्लास-फैलो हो, वह एक शब्द न पढ़ सकेगा।’

  ‘और इम्तिहान में लुढ़क जाएगा। मैं अगली क्लास में चली जाऊंगी और वह इसी क्लास में रह जाएगा और किसी और आशा के लिए इसी तरह रोमियो बन जाएगा।’

  ‘नामुमकिन! राजन तुम्हारे अलावा किसी को नहीं चाह सकता।’

  ‘तब मैं इण्टरमीडिएट में थी तो यही बात मेरी एक और दोस्त ने एक और लड़के के लिए भी कही थी। आजकल वह लड़का अमरीका में शिक्षा पूरी कर रहा है और सुना है उसने एक अमरीकन लड़की से शादी कर ली है। हालांकि मैं खुद उससे शादी करना चाहती थी।’

  ‘तो तुम उसका इन्तकाम राजन से ले रही हो?’

  ‘इन्तकाम और राजन से।’ आशा व्यंग्यात्मक स्वर में बोली- ‘इंतकाम तो उनसे लिया जाता है जिन्हें कोई अहमियत दी जाए। मेरी नजरों में उसकी कोई अहमियत ही नहीं।’

  ‘क्यों! क्या वह इन्सान नहीं है।’

  ‘होगा- लेकिन मैं उन लोगों को इन्सान नहीं समझती जो गुरबत की जिन्दगी की कीचड़ में गन्दे कीड़ो की तरह रेंगते रहते हैं। करीब से गुजरो तो बदबू के मारे दिमाग फट जाए।’

  ‘खुदा के गजब से डरो आशा! यह बड़े आदमियों की शान नहीं गरूर कहलाता है।’

  ‘अगर एक हकीकत गरूर कहलाती है तो मैं बेशक मगरूर हूं। लेकिन तुम हकीकत को झुठला नहीं सकतीं। क्या तुम्हें उसके कपड़ों में बदबू नहीं महसूस होती? यही बदबू इन लोगों के कपड़ों के बाद इनके रोम-रोम और जिस्म में भी बस जाती है। मुझे अत्यन्त नफरत है ऐसे लोगों से, जाने क्यों ऐसे लोग दुनिया की नजरों में काबिले रहम होते हैं? मेरा बस चले तो ऐसे लोगों को किसी कालेज, होटल या क्लब के करीब भी न आने दूं-!’

  ‘जरा आहिस्ता बोली... राजन करीब बैठा है। वह सुन लेगा तो बेचारे के दिल को सदमा होगा।’

  ‘राजन...... राजन... राजन- यह क्या बकवास लगा रखी है तुमने! मुझे नफरत है इस नाम से भी। मैंने कभी उसके सामीप्य की कल्पना भी की है तो मेरा जी मिचलाने लगा है, आइन्दा तुम्हारी जबान पर उसका नाम भी आया तो मैं तुम्हारी शक्ल देखना भी छोड़ दूंगी-!’

  आखिरी वाक्स फिर इतना बुलन्द हो गया था कि रजनी घबराकर यह देखने लगी कि कोई सुन तो नहीं रहा। ठीक उसी वक्त उसकी नजर लैक्चरार के चेहरे पर जम गई। क्योंकि लैक्चरार बिलकुल उन दोनों की मेज के करीब खड़ा हुआ था। उसके दोनों हाथ कमर पर रखे हुए थे और वह चुपचाप आशा और रजनी को घूर रहा था और क्लास के अन्य विद्यार्थियों की मुस्कराती हुई नजरें भी उन दोनों पर ही थीं। रजनी बौखला कर खड़ी हो गई।

  ‘सर...सॉरी...सर......आई एम वैरी सॉरी।’


  लेकिन आशा के सुकून में कोई फर्क नहीं आया था। वह उसी सुकून से बैठी थी। अचानक जोर ले घण्टा बजने की आवाज आई और फिर घण्टा बजता ही चला गया।

  लैक्चरार मेज की तरफ लौटे और किताबें और रजिस्टर उठाकर बाहर चले गए। डैस्कें खड़खड़ाने लगीं, कुर्सियों के घिसटने की आवाजों से क्लास-रूम गूंज उठा। आशा ने किताबें समेटते हुए रजनी की तरफ देखकर पूछा- ‘यह आज छुट्टी क्यों हो गई?’

  ‘पता नहीं-!’

  रजनी ने किताबें उठाकर पीछे देखा, राजन की कुर्सी खाली पड़ी थी।

  आशा और रजनी बाहर निकल आईं। बरामदे में एक लड़का अपने दोस्त को बता रहा था- रमेश ने लैबोरेट्री में जहर खाकर खुदकशी कर ली है। इस वजह से छुट्टी हुई है।’

  ‘खुदकशी... क्यों......?’

  ‘वह किसी लड़की को चाहता था। कल उस लड़की ने किसी और से शादी कर ली है। रमेश बर्दाश्त न कर सका। उसने अपनी महबूबा के लिए जान दे दी-।’

  आशा और रजनी सुनती हुई बरामदे से नीचे उतर गई। रजनी ने कहा- ‘सुना तुमने! एक लड़के ने अपनी महबूबा के लिए खुदकशी कर ली!’
  ‘फिर? मैं क्या करूं?’

  ‘क्या अब भी तुम प्यार को एक समुद्र नहीं समझोगी? वह समुद्र जो दुनिया की प्रत्येक भावना को बहा ले जाता है। ऊंच-नीच की दीवारों को यों ही ढा देता है जैसे रेत की दीवार हो।’

  ‘कहीं तुम्हें निमोनिया तो नहीं हो गया है प्यार का?’ आशा बोली।

  ‘मैं तुम्हें राजन के प्यार का एहसास दिलाना चाहती हूं।’
  ‘फिर तुमने नाम लिया राजन का?’ आशा बिगड़कर बोली।
  ‘अगर तुमने उसे ठुकरा दिया तो सचमुच वह जान दे देगा।’
  ‘जान दे भी चुके।’ आशा होंठ काटकर बोली, -तुम्हारी बक-बक से तो जान छूटेगी।

  ‘दे भी चुके जान। तुम्हारी बक-बक से तो जान छटेगी।’ राजन के कोनों में आशा की आवाज गूंज रही थी।

  राजन बिलबिलाकर खड़ा हो गया। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई मजबूती से उसका दिल मुट्ठी में लेकर भींच रहा हो। क्या बात थी आशा में जो उसने इस पत्थर के बुत को पूजा था। जिसके सीने में दिल नाम की कोई चीज नहीं, दिल है भी तो प्यार नाम की कोई धड़कन नहीं। क्या उसे तमाम उम्र यूं ही तड़पना पड़ेगा? कभी इस बुत के दिल में धड़कन भी पैदा होगी या नहीं!

  ‘ओ भगवान! मैं क्या करूं?’ राजन ने दोनों हाथ कानों पर रखकर आसमान की तरफ देखा, फिर बहुत आहिस्ता से बड़बड़ाया- ‘क्या करूं भगवान् मैं क्या करूं?’



  रहमान और घोष ठिठककर रुक गए। रहमान ने कुहना मारकर घोष से कहा- ‘य...... यह तो राजन है अपना।’
  ‘हां...... है तो राजन ही।’ सोचता हुआ बड़बड़ाया- ‘क्या तुमने हमारे ड्रामे के लिए एंगेज कर लिया है।’

  ‘एंगेज कर चुके होते तो यों परेशान फिर रहे होते।’

  ‘ऐं...... मैं समझा था, यह हमारे ही ड्रामे की रिहर्सल कर रहा है। यही दृश्य तो है अन्त में।’

  ‘बिलकुल! लो हमें ध्यान ही नहीं रहा था कि हमारे कॉलेज में अभी एक रोमियो और भी मौजूद है। ख्वामख्वाह हम चिन्तित थे कि रमेश मर गया। अब हमारे कॉलेज के सालाना फंक्शन के ड्रामा आशा में कौन हीरो का रोल अदा करेगा।’

  ‘चलो...... तो फिर बात करें राजन से। आज ही से इसे रिहर्सल न कराई गई तो मुश्किल हो जाएगी। अब दिन कितने रह गए हैं फंक्शन में!’

  रहमान और घोष ड्रामा सैक्शन के सैक्रेटरी व डायरेक्टर थे। जब वे लोग राजन के करीब पहुंचे तो राजन इस तरह चौंककर उन दोनों की तरफ देखने लगा जैसे या तो उन दोनों को पागल समझ रहा हो या वह खुद पागल हो गया हो। रहमान ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा- ‘बैठो-बैठो, हमें मालूम है इस वक्त तुम्हारे दिल पर क्या बीत रही होगी? तुम्हें इस वक्त दिल को बहलाने की जरूरत है।’

  राजन चुपचाप बैठ गया, लेकिन अब उसने अपने हवास पर किसी हद तक काबू पा लिया था। रहमान ने सिगरेट निकालकर उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा- ‘सिगरेट-।’

  राजन ने ठंडी सांस लेकर ‘नहीं’ में सिर हिला दिया। घोष ने कहा- ‘यार! तुम्हें क्या मालूम नहीं कि राजन न सिगरेट पीता है न चाय।’
  ‘बहुत बुरी आदत है आजकल के नौजवानों का सिगरेट या चाय न पीना।’

  ‘वाकई हैरतंगेज बात है!’ घोष ने खुद भी सिगरेट सुलगाकर कहा- ‘वरना मैंने ऐसे नौजवान भी देखे हैं जिनकी मांएं सिलाई करके या पड़ोस के बर्तन धो-धोकर उन्हें पढ़ाती हैं और वे मां की मेहनत का पैसा बड़ी बेदर्दी से खर्च करते हैं, पर अपना राजन? अपने भाई के पैसे का इतना दर्द रखता है कि आज तक इसे हमने किसी फिजूलखर्ची में नहीं देखा। भाई हो तो ऐसा हो।’

          ‘बड़ा भाई भी तो किसी को ऐसा मिले जैसा राजन का भाई है। जिसने बाप की मौत के बाद राजन को बाप की कमी का अहसास तक न होने दिया, खुद अपनी शिक्षा छोड़ दी और नौकरी करके राजन को पढ़ा रहा है।’

           कुछ देर तक दोनों इसी किस्म की बातें करते रहे। राजन अब अपने आपको पूरी तरह सम्भाल चुका था। वह चुपचाप किताब के पृष्ठ पर उंगली से आशा-आशा लिख रहा था। उसने रहमान और घोष की बातें बहुत कम सुनी थीं। किसी की बात उसे कम ही सुनाई देती थी, हर वक्त वह आशा की कल्पना में ही डूबा रहता था। कभी-कभी उसे ऐसा महसूस होता था कि वह आशा के कारण जहनी तौर पर नाकारा होता जाता है। वह कुछ न कर सकेगा। और अगर वह कुछ न कर सका तो-

           उसके भाई के ख्वाबों की ताबीर कितनी भयानक होगी। वह भाई जिसने राजन की खातिर अपने-आप पर दुनिया की खुशियों के दरवाजे बन्द कर लिए थे। जिसने अपनी शिक्षा दसवीं कक्षा से छोड़ दी थी। और खुद मामूली ड्राइवर बनकर राजन के सुन्दर भविष्य के स्वप्न देख रहा था। क्या होगा उसके स्वप्नों का? क्या होगा? वह क्या करे? क्या करे?’

  एक बार फिर उस पर घबराहट का दौरा-सा पड़ा। लेकिन उसी वक्त उसके कानों से घोष की आवाज टकराई। घोष उसके कंधे पर हाथ रखे कह रहा था- ‘हम लोगों ने अपने ड्रामे का नाम आशा रखा है-यानी उम्मीद!’

  ‘किस तरह आदमी उम्मीद के आसरे पर बैठता है लेकिन जब उम्मीद टूट जाती है तो... बोलो राजन... हमारी मुश्किल हल कर दोगे न?’
  राजन ने प्रश्न-सूचक दृष्टि से उन दोनों की ओर देखा। घोष ने फिर कहा- ‘देखो यार......ड्रामा रहमान ने लिखा है और इस ड्रामे में एक जिद्दी लड़की और खामोश लड़की की बहस की चुभती हुई कहानी है। ठहरो...... मैं तुम्हें ड्रामा सुनाता हूं।’

  घोष ने अपना बैग खोला और उसमें से एक कापी निकाली और सुनाने लगा- ‘पर्दा उठता है... स्टेज पर बाग के एक कुंज का दृश्य नजर आता है। हीरो चुपचाप गुमसुम-सा एक गुलाब के पौधे के पास खड़ा है। अचानक बैक ग्राउण्ड से हीरोइन की आवाज आती है...।’
                           उपन्यास- पुतली
                           लेखक -   राजवंश

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