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गुरुवार, 11 मई 2017

कर्नल रंजीत

कर्नल रंजीत एक जासूसी उपन्यासकार थे।
मखमूर जालंधरी का असल नाम गुरबख्श सिंह था और वे कर्नल रंजीत के नाम से उपन्यास रचना करते थे।(हंस- मार्च,2017, पृष्ठ-203)
कर्नल रंजीत का मुख्य पात्र मेजर बलवंत हुआ करता था। हालांकी बाद में कुछ प्रकाशन संस्थानों ने मेजर बलवंत नाम का एक उपन्यासकार ही खङा कर दिया।
कर्नल रंजीत के निकनेम से लिखने वाले घोस्ट राइटर के कुछ रूझान उपन्यास को दिलचस्प बना देते थे। जैसे सांवले रंग और बङी उम्र की स्त्रियों के प्रति उनका आकर्षण। एक साथ दो-तीन प्लाॅट लेकर चलना और टुकङों-टुकङों में सुनाते चलना......। किसी राज का पर्दाफाश होने पर मेजर बलवंत का होठ गोल कर करके सीटी बजाना। (हंस, मार्च-2017, पृष्ठ-189)
  हालांकि कुछ लोग कर्नल रंजीत को एक छद्म (छदम) लेखक मानते हैं जबकि अब स्थापित हो चुका है वे कोई Ghost Writer नहीं थे बल्कि वे अपने उपन्यास अपने उपनाम से लिखते थे। इस प्रकार की परम्परा हिंदी साहित्य में बखूबी चलती थी। मुंशी प्रेमचंद का भी वास्तविक नाम धनपत राय था और उन्होंने नवाब राय के नाम से भी साहित्य रचना की थी।
कर्नल रंजीत के उपन्यास
1. छ: लाशें -1967
2. तीसरा खून
3. अंधेरा बंगला
4. हत्या का रहस्य- 1967, प्रथम‌ उपन्यास, समीक्षा
5. भयंकर मूर्ति
6. वह कौन था
7. खून के छींटे
8. मौत के व्यापारी
9.  खूनी घाटी
10. आस्तीन का सांप
11. नीले निशान
12. प्रेतात्मा की डायरी
13. विनाश के शोले
14. गूंगी औरत
15. कुचली हुई लाशें
16. विचित्र हत्यारा
17. टेढी उंगलियां
18. खूनी कंगन
19. सांप की बेटी
20. भयानक बदला
21. शैतान की आंखें
22. जिंदा लाशें
23. पीले बिच्छू
24. खून-खून
25. दूसरी मौत
26. खून की बौछार
27. खून की लकीर
28. दुल्हन की चीख
29. बोलती लाशें
30. हत्यारे का हत्यारा
31. अनोखी हत्या
32. उङती मौती
33. रहस्यमयी रमणी
34. भयानक बौने
35. मौत की भूल
36. जहरीले तीर
37. सात पर्दे
38. षड्यंत्र (षडयंत्र)
39. मौत के फंदे
40. खूनी संगीत
41. मौत की छाया
42. अंतिम हत्या
43. गहरी चाल
44. अधूरी औरत
45. हत्यारे की पत्नी
46. 11 बजकर 12 मिनट
47. हांगकांग के हत्यारे
48. अभिनेत्री की हत्या
49. विजय दुर्ग का रहस्य
50. लहू और मिट्टी
51. पांचवी औरत
52. नकली चेहरे
53. स्वर्ण दुर्ग का ध्वंस
54. बदले की आग
55. काला शाल
56. आधी रात के बाद
57. सिले हुए होंठ
58. नीली आंखें
59. औरत का दुश्मन
60. बूढी परझाई
61. रात के अंधेरे में
62. बेजान आदमी
63. काली आंधी
64. मौत के दरवाजे
65. मौत की परछाई
66. लटकी लाश
67. खूनी हाथ
68. ट्रेन एक्सीडेंट
69. खाली सूटकेस
70. रेत की दीवार
71. सफेद खून
72. मौत का वारंट
73. खामोश मौत आती है।
74. देख लिया तेरा कानून
75. पर्दे के पीछे
76. अंधा झूठ
77. फौलादी संदूक
78. लहू की पुकार
79. जाली हत्यारा
80. मौत का बुलावा
81. सिर कटी लाश
82. खून का जाल
83. बहन की आबरू
84. मौत की आवाज
85. मौत का महल
86. सच की मौत
87. चीखती चट्टान
88. मानव कंकाल
89. टेढा मकान
90. मौत के दरवाजे
91. अंधा हत्यारा
92. मौत से पहले
93. भयानक हत्या
94.
95.

उपर्युक्त समस्त तथ्य हंस पत्रिका (मार्च-2017), मनोज पब्लिकेशन व फेसबुक मित्र राजीव से लिये गये हैं।
- अगर आप के पास उक्त लेखक के विषय में कोई भी सूचना हो तो हमसे शेयर करें।

26 टिप्‍पणियां:

  1. आपके यहाँ प्रकाशित इस पोस्ट को पढ़ कर अच्छा लगा. मखमूर जालंधरी साहब के बारे में मैंने भी कुछ लिखा है. आप चाहे तो निम्नलिखित लिंक पर जा कर उसे पढ़ सकते हैं:
    सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी) - Page 16 - My Hindi Forum
    myhindiforum.com › Art & Literature › Mehfil

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    उत्तर
    1. रजनीश साहब आपने जो आलेख कर्नल रंजीत पर लिखा है उसका लिंक काम नहीं कर रहा।
      वह आलेख आप ईमले कर दीजिएगा ।
      sahityadesh@gmail.com

      हटाएं
  2. Kya aap bata sakte hai Colonel Ranjit ki books kahan se kharidi ja sakti hai?

    जवाब देंहटाएं

  3. My Hindi Forum . Com में छपे रजनीश मंगा के आलेख की कॉपी

    ‘मख़मूर’ जालंधरी / MAKHMOOR JALANDHARI
    ‘मख़मूर’ जालंधरी
    वास्तविक नाम: गुरबक्श सिंह
    जन्म: 1915
    मृत्यु: 1 जनवरी 1979

    ‘मखमूर’ जालंधरी साहब का जन्म सन 1915 में पंजाब राज्य के जालंधर शहर के लालकुर्ती इलाके में हुआ था. उनके पिता का नाम केसर सिंह था. बचपन से ही उनको साहित्य से लगाव रहा. उन्होंने पढ़ाई के साथ साथ शायरी करना भी शुरू कर दिया था. 1938 में उनकी शादी दमयंती देवी से हुई. पढ़ाई समाप्त करने के बाद रोजगार की तलाश करने के दौरान उन्होंने आल इंडिया रेडियो जालंधर के लिये ड्रामे लिखने शुरू कर दिये. यह सिलसिला कई बरस तक चलता रहा. उनके लिखे ड्रामे श्रोताओं में खासे मकबूल होते थे. उन्होंने रेडियो के लिये लगभग 250 ड्रामा लिखे. उन्हीं दिनों वह प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़ गये.

    उस समय के राजनैतिक माहौल तथा परिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों व आर्थिक दुश्वारियों के मद्देनज़र वह अपने स्वजन-मित्रों की सलाह पर सन 1958 में सदा के लिये जालंधर छोड़ कर दिल्ली आ गये और वहीँ बस गये. यहाँ पर फ़िक्र तौंसवी, प्रकाश पंडित और बलराज कोमल जैसे उर्दू – हिंदी साहित्यकारों से प्रोत्साहन पाकर उर्दू अदब के क्षेत्र में अपनी खिदमात फिर से देने लगे. कुछ वक़्त तक उन्होंने उस वक़्त के लोकप्रिय रोज़ाना उर्दू अखबार ‘मिलाप’ में काम किया (फ़िक्र तौंसवी साहब उन दिनों अखबार में एक कॉलम लिखा करते थे ‘प्याज़ के छिलके’ जो बेहद मक़बूल था). बाद में कुछ समय तक मखमूर साहब ने रूसी साहित्य के अनुवाद का कार्य भी हाथ में लिया. दिल्ली में ही वह ‘मीराजी’ और क़य्यूम ‘नज़र’ आदि साथियों के साथ ‘हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक’ नामक साहित्यिक संस्था से भी जुड़े रहे.


    जो काम वह करते थे, उससे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि घर का खर्च और बढ़ती उम्र के बच्चों की शिक्षा का खर्च वहन कर पाते. कई अन्य समकालीनों की तरह उन्हें भी सिगरेट तथा शराब का शुगल रहा. इन परिस्थितियों में उन्होंने लोक रूचि को ध्यान में रखते हुये जासूसी और सामाजिक-रोमांटिक उपन्यास लिखने शुरू कर दिये. यह रचनायें हिंदी में छपती थीं तथा बहुत पसंद की जाती थीं. पाठकों में इनकी मांग बनी रहती थी. लेकिन यह भी सच है कि यह सभी पुस्तकें उनके वास्तविक नाम या तखल्लुस (उपनाम) से नहीं छपती थीं बल्कि छ्द्म नामों से छपती थीं. यह व्यस्तता लगभग 15-16 वर्ष तक चलती रही. इस बीच वह लिवर की खराबी का शिकार हुये और अन्ततः 1979 में उनकी मृत्यु के साथ ही यह सिलसिला समाप्त हुआ. इस प्रकार के लेखन से उन्हें नाम तो न मिल सका मगर दाम (यानी पारिश्रमिक) ज़रूर मिलता रहा.

    सन 2004 में फ़िरोज़ बख्त अहमद को दिये एक इंटरव्यू में प्रख्यात पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ ने बताया था कि आज के भारतीय शायरों में कोई उन्हें प्रभावित नहीं करता. हाँ, “पुराने शायरों में साहिर लुधियानवी अपनी साफ़गोई और दिल को छू लेने वाली शायरी के कारण मेरे हीरो हैं. इसके अलावा फ़िराक़, कुँवर महेंदर सिंह बेदी, अली सरदार जाफ़री, नून मीम राशिद व मख़मूर जालंधरी को भी पसंद करता हूँ.” इस बात से उस शायरे अज़ीम अर्थात ‘मख़मूर’ साहब के कलाम की श्रेष्ठता व ऊंचाई का पता चलता है.

    मख़मूर साहब की प्रकाशित पुस्तकों में ‘मुख़्तसर नज्में’ ‘जल्वागाह’ ‘तलातुम’ और ‘फुलझड़ियां’ प्रमुख हैं. उर्दू अकादमी, दिल्ली से भी एक पुस्तक ‘मख़मूर जालंधरी की मुंतखब नज्में’ नाम से प्रकाशित हुई. जनाब बलराज ‘कोमल’ इसके एडिटर थे.


    ग़ज़ल
    ‘मख़मूर’ जालंधरी

    पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके
    हम क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से रिहा भी न हो सके

    दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ वफ़ा पर है हम-नशीं
    वो क्या करे कि जिससे वफ़ा भी न हो सके

    गो उम्र भर भी मिल न सके आपस में एक बार
    हम एक दूसरे से जुदा भी न हो सके

    जब जुज़्ब की सिफ़ात में कुल की सिफ़ात है
    फिर वो बशर भी क्या जो खुदा भी न हो सके

    ये फैज़-ए-इश्क़ था कि हुई हर खता मुआफ़
    वो खुश न हो सके तो खफ़ा भी न हो सके

    वो आस्तान-ए-दोस्त पे क्या सर झुकाएगा
    जिस से बुलंद दस्त-ए-दुआ भी न हो सके

    ये एहतिराम था निगह-ए-शौक़ का जो तुम
    बेपर्दा हो सके जल्वा-नुमां भी न हो सके

    ‘मख़मूर’ कुछ तो पूछिए मजबूरी-ए-हयात
    अच्छी तरह खराब-ए-फ़ना भी न हो सके


    शब्दार्थ:
    पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा = अच्छाई करने में सावधानी व प्रतिबद्धता / क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म= दुःख को छुपाने का बंधन / दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ = प्यार की निर्भरता / वफ़ा = अच्छाई / हम-नशीं = साथी / जुज़्ब की सिफ़ात = एक अंश की विशेषतायें / बशर = व्यक्ति / फैज़-ए-इश्क़ = प्यार की देन / आस्तान-ए-दोस्त = मित्र का घर / दस्त-ए-दुआ = दुआ के लिये उठे हुये हाथ / एहतिराम = आदर सहित / निगह-ए-शौक़ = प्यारभरी दृष्टि / जल्वा-नुमां = सामने प्रगट होना / मजबूरी-ए-हयात = जीवन की विवशतायें / खराब-ए-फ़ना = मृत्यु से विनष्ट होना /

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  4. बहुत ही उम्दा जानकारी के लिए । मख़मूर साहब के बहुमुखी लेखन से रूबरू करवाने हेतु शुक्रिया

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    उत्तर
    1. मुझे ख़ुशी है कि मखमूर जालंधरी (मूल नाम श्री गुरबक्श सिंह)पर केन्द्रित उक्त आलेख आपको रुचिकर लगा. हार्दिक धन्यवाद, डॉ अंजना. हर रचनाकार अपने अपने तरीके से साहित्य की सेवा करता है और उसे समृद्ध करता है. ज़रूरत यह है कि उसके जाने के बाद भी उसके कृतित्व व याद को जीवित रखा जाए. यही उसे सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

      हटाएं
  5. कर्नल रंजित का ढेर सारे जासुसी उपन्यास हम ने भी नेपाल मे बचपन मे पढा है।गुत्थी सुलझ ने बाद अचानक मेजर बलवन्त का होठ गोल हो जाना और सिठी कि आवाज आना आज तक मुझे याद है.

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  6. यह उपन्यास कैसे मिलेंगे.

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  7. Unke bare main padkar bahut achha laga .bahut hi kabil jasoosi righter the

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  8. I have read detective thrillers of many writers. Karnal Ranjeet Sir has a distinct style of unfolding the plot.Recently, I have read Four novels available as PDF copies on internet. Please make more of his books available on internet. Thanks.

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  9. किशोरावस्था में कर्नल रंजीत की सारी किताबें पड़ी हैं,और मैं समझता हूँ वे सही मायने में जासूसी उपन्यासकार थे।
    अब एक बार फिर उन्हें पड़ने की तमन्ना जग उठी है।ये पुस्तकें कैसे मिलेंगीं,बताएं।

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    उत्तर
    1. बहुत से मित्र कर्नल रंजीत के उपम्यास पढना चाहते हैं लेकिन इनकी उपलब्धता के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है. मूल रूप से उनकी पुस्तकें हिन्द पॉकेट बुक्स, शाहदरा, दिल्ली-32 द्वारा प्रकाशित होती थीं.

      हटाएं
  10. यदि कोई मित्र कर्नल रंजीत के नोवेल्स खरीदना चाहता है तो कृपया संपर्क करें shubankarsahay@gmail.com पुस्तकें अच्छी स्तिथि में हैं उचित मूल्य में मिल जाएंगी

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  11. हत्यारे की पत्नी पढ़ी है मैंने। दोबारा फिर से पढ़ना चाहता हूँ। अद्भुत, अविस्मरणीय, रोमांचित कर देने वाला एहसास था।

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  12. Yes I want to read or purchase all available book of Karnal Ranjit. ....to enjoy my younger days. How can I get.....please help and advise please.

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  13. 9355496301 pe what's up kare sir कुछ navel मिल सकती है

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